Saturday 29 September 2018

जैसी हमारी श्रद्धा और विश्वास होते है वैसे ही हम बन जाते हैं .....

जैसी हमारी श्रद्धा और विश्वास होते है वैसे ही हम बन जाते हैं .....
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हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
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जैसी जिसकी श्रद्धा और विश्वास होता है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है|
"श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
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जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है|
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मेरे एक सम्बन्धी का छोटा लड़का अपनी लम्बाई में ठिगना था, उसकी लम्बाई नहीं बढ़ रही ही थी| घर में सब उसे छोटू बोलकर बुलाते थे, अतः उसके मन में यह भाव बैठ गया कि मैं सचमुच ही छोटू हूँ, और उसकी लम्बाई बढ़नी बंद हो गयी| एक दिन उसने अपनी व्यथा मुझे बताई| मैंने तुरंत ही उसका नाम बदल कर उत्कर्ष करा दिया और उसे सलाह दी कि वह निरंतर यह भाव रखे कि मैं लंबा हूँ| उसके घर वालों ने भी उसे छोटू बोलना बंद कर दिया| अप्रत्याशित रूप से दो वर्षों में ही उसकी लम्बाई बढ़ कर ४'११" से ५'११" हो गयी|
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इन पंक्तियों के सारे पाठक समझदार और विद्वान हैं, अतः और नहीं लिखना चाहता| जो हमारे हृदय में भाव हैं वे ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
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हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

हमारा जीवन परमात्मा को समर्पित हो .....

हमारा जीवन परमात्मा को समर्पित हो| जीवन जब परमात्मा को समर्पित कर ही दिया है तब कोई चिंता नहीं करनी चाहिए| परमात्मा का ही यह जीवन है अतः वे स्वयं ही इसकी चिंता करें| गीता में भगवान का शाश्वत वचन है .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है| अपने अनन्य भक्तों का ये दोनों ही काम परमात्मा स्वयं करते हैं| अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी कोई चेष्टा नहीं करते, क्योंकि जीने और मरने में उनकी आस्था नहीं होती| भगवान ही उनके अवलंबन होते हैं, और भगवान ही उनका योगक्षेम चलाते हैं|
इन फेफड़ों से इन नासिकाओं के माध्यम से भगवान ही सांस ले रहे हैं| इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं| उनका जीवन है, जब तक वे चाहें, तब तक इसे जीयें| जब इस से वे तृप्त हो जाएँ तब इसे समाप्त कर दें| यह उनकी स्वतंत्र इच्छा है, हमारी नहीं|
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

साधना गहन हो .....

छोटी-मोटी प्रार्थना, दिखावे की धार्मिकता, गृहस्थ होने की बाध्यता का बहाना, और भी अनेक बहाने, ....... इनका कोई लाभ नहीं है| सप्ताह में कम से कम एक दिन तो ऐसा हमें निकालना चाहिए जिसमें कई घंटों तक हम परमात्मा की गहराई से डूब सकें| परमात्मा के आनंद का आभास इतना घना है कि उसको सहन करने का अभ्यास करना पड़ता है| एक असंयमी भोगी व्यक्ति उसे सहन नहीं कर सकता| मैं यहाँ जो कहना चाहता हूँ उसे निश्चित रूप से इन पंक्तियों को पढ़ने वाले समझ चुके हैं|
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

अगले वर्ष के अंत से पूर्व ही महा विनाश का समय आने वाला है जो सब कुछ बदल देगा ....

अगले वर्ष के अंत से पूर्व ही महा विनाश का समय आने वाला है जो सब कुछ बदल देगा ....
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म्लेच्छ अतृप्त सुक्ष्म आत्माओं का एक भयानक समुह पुरे देश में जनमानस के मन मस्तिष्क को प्रभावित कर रहा है| उनका विनाश सात्विक यज्ञ से ही होगा|
भारत में एक दैवीय सत्ता ही महाविनाश के स्वरूप को बदल रही है| अन्यथा आज जो सीरिया में हो रहा है, वह इस देश में कब का हो चुका होता| एक आध्यात्मिक शक्ति भारत की रक्षा कर रही है|
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भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री को भी आने वाले संकट और भारत पर उसके पड़ने वाले प्रभाव का पता है| इसीलिये सेना को सशक्त बनाया जा रहा है|
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ऊँट किस करवट बैठेगा कुछ कहा नहीं जा सकता पर भूमिका बन रही है|

हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
२९ सितम्बर २०१८

पंडित शिवराम भक्त जनेऊधारी .....

आजकल एक राजनेता स्वयं को पंडित शिव/रामभक्त जनेऊधारी कहते हैं| इनके पिताजी एक रोमन कैथोलिक ईसाई थे, जिनका विवाह इटली के एक चर्च में रोबर्टो नाम से एन्टोनिया माईनो से हुआ जो उस समय इटली की नागरिक थी| बाद में इनका विवाह वैदिक विधी से इलाहाबाद की एक प्रसिद्ध महिला ने अपने घर पर करवाया था| ये जो पढाई करने केम्ब्रीज़ गए थे वह तो कभी पूरी कर नहीं पाए और जिस दारूखाने में दारू पीते थे वहाँ दारू पिलाने वाली इटालियन बार गर्ल एंटोनिया माईनो को अपना दिल दे बैठे, जो उन्हें इटली ले गयी और एक चर्च में विवाह कर लिया| दिल्ली के एक चर्च में इन्होनें ईसाई दंपत्ति के रूप में अपने विवाह का पंजीकरण भी करवाया था| जनेऊधारी पंडित जी के दादा ज़नाब फ़िरोज़ खान पुत्र ज़नाब नवाब अली खान थे| इनकी कब्रें इलाहाबाद में हैं| 

क्या ये शिव/राम भक्त पंडित जनेऊधारी जी बताएँगे कि उनका ऋषिगौत्र और प्रवर क्या है? इनका वेद कौन सा है? कौन सी उनके वेद की शाखा और सूत्र है? इनके पूर्वजों का मूल स्थान कौन सा है? किस पंडित ने किस वर्ष में उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया था? क्या उन्हें संध्या विधि और गायत्री मंत्र का ज्ञान है? क्या वे किसी ब्राहमणोचित कर्म का पालन करते हैं?

हिन्दुओं में एक सर्वमान्य मूलभूत साधना पद्धति हो .....

मेरे विचार से सभी हिन्दुओं के लिए एक सर्वमान्य अविवादित मूलभूत साधना पद्धति ..... (१) सूर्य नमस्कार व्यायाम, (२) अनुलोम-विलोम प्राणायाम, (३) भगवान के अपने प्रियतम रूप का जप, ध्यान और भजन-कीर्तन ही हो सकती है| इसका अंतिम निर्णय तो सभी धर्माचार्य आपस में मिल कर करें| जैसे एक सामान्य नागरिक संहिता की बात कही जाती है, वैसे ही एक सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी चाहिए|
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मैनें व्यवहारिक रूप से देखा है कि धर्म-शिक्षण के अभाव और आज के भागदौड़ के जीवन में विधिवत संध्या कर पाना असंभव है| अधिकाँश ब्राह्मणों को ही संध्या विधि का ज्ञान नहीं है| अंग्रेजी शिक्षा के कारण संस्कृत का शुद्ध उच्चारण और मन्त्र पढ़ना ब्राह्मण ही भूल रहे हैं| जो संध्या कर सकते हैं उन्हें संध्या करनी चाहिए| संधिक्षणों में की हुई साधना संध्या कहलाती है| चार सन्धिक्षण आते हैं ... प्रातः, सायं, मध्याह्म और मध्यरात्री| पर सबसे महत्वपूर्ण सन्धिक्षण है .... दो साँसों के मध्य का समय|
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जो लोग गुरूकुलों में पढ़े हैं उन्हें ही संस्कृत का सही उच्चारण आता है| बड़े बड़े पंडित भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाते हैं जहाँ उन्हें कोई भारतीय संस्कार नहीं मिलते| वे पंडित भी अपने बालकों को संध्यादि कर्म नहीं सिखाते, यह हमारा दुर्भाग्य ही है| रही बात गुरुकुलों की तो दो ही तरह के बच्चे गुरुकुलों में भेजे जाते हैं ..... या तो जिनके माँ-बाप अत्यंत गरीब होते हैं, या किसी कारण से बच्चे अन्य विद्यालयों में पढ़ नहीं पाते| यह बात मैं व्यवहारिक रूप से कुछ गुरुकुलों को देख कर ही कह रहा हूँ| जो भी वर्तमान परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ है वह हमें करना चाहिए| अंतिम निर्णय तो धर्माचार्य ही करेंगे| कुम्भ के मेलों में सभी धर्माचार्यों को एक मंच पर आसीन होकर धर्म रक्षा के लिए विचार विमर्श करना चाहिए और एकमत से धर्मादेश देने चाहिएँ| साभार धन्यवाद !
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पुनश्चः : --- भारत में जितने भी मत-मतान्तरों और पंथों का जन्म हुआ है, उनमें ये तथ्य सर्वमान्य हैं ..... (१) आत्मा की शाश्वतता, (२) पुनर्जन्म, (३) कर्म फलों का सिद्धांत, (४) हठयोग के आसन, प्राणायाम आदि और (५) जप, कीर्तन और ध्यान| एक सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी ही चाहिए|

श्राद्ध के बारे में यह मेरा एक निजी विचार है .....

श्राद्ध के बारे में यह मेरा एक निजी विचार है .....
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सिद्ध गुरु द्वारा प्रदत्त विधि से बीजमंत्रों का प्रयोग करते हुए निज चेतना और चंचल प्राण को बार बार मूलाधार चक्र से उठाकर सुषुम्ना मार्ग से होते हुए आज्ञाचक्र का भेदन कर उत्तरा सुषुम्ना में ज्योतिर्मय ब्रह्म परमात्मा को अर्पित करना भी पिण्डदान और तर्पण है| उत्तरा सुषुम्ना में ध्यान करने से प्राण तत्व की चंचलता धीरे धीरे कम होने लगती है और मन नियंत्रित होने लगता है जिससे दारुण दुःखदायी काम, क्रोध व लोभ आदि का शमन होने लगता है|
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लौकिक श्राद्ध तो करें ही पर वास्तविक संतुष्टि तो आत्मतत्व पर ध्यान से ही मिलती है| आत्मतत्व में स्थिति ही मेरी सीमित समझ से परमात्मा का साक्षात्कार है| यह हमारा सर्वोपरी दायित्व व सर्वोच्च सेवा है| इस से स्वतः ही सभी पित्तरों का उद्धार हो जाता है| आत्मतत्व में स्थिति ही हमारा परमधर्म है|
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जिन के विचार नहीं मिलते वे अपना समय नष्ट न करते हुए मेरी उपेक्षा कर दें और अपनी अपनी मान्यता पर दृढ़ रहें| किसी उग्र प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं है|
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आप सब निजात्मगण को नमन ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२८ सितम्बर २०१८

मोक्ष के मार्ग पर हम अकेले ही हैं, अकेले ही हमें चलना पडेगा .....

मोक्ष के मार्ग पर हम अकेले ही हैं, अकेले ही हमें चलना पडेगा .....
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"आत्मतत्व" का जो बोध कराये वह "विद्या" है| विद्या हमें सब दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं से "मुक्त" कराती है| विद्या हमें अज्ञान से "मुक्त" करती है| अन्य सब जिसे हम संसार में ज्ञान कहते हैं, वह "अविद्या" है|
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"समत्व" में स्थिति ही वास्तविक "ज्ञान" है| समत्व का अभाव ही "अज्ञान" है| इन्द्रिय सुखों की ओर प्रवृति हमारा अज्ञान है जो हमें परमात्मा से दूर करता है| परमात्मा से दूरी ही हमारे सब दुःखों का कारण है| एक ही अविनाशी परम तत्त्व का सर्वत्र दर्शन हमें समत्व में स्थित करता है|
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हम ने जन्म लिया था परमात्मा की प्राप्ति के लिए, पर कुबुद्धि से कुतर्क कर के स्वयं को तो भटका ही रहे हैं, अहंकारवश औरों को भी भटका रहे हैं| हम जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होने का उपाय न करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाते हैं| सही शिक्षा जो हमें आत्मज्ञान की ओर प्रवृत करती है, उसको हमने साम्प्रदायिक और पुराने जमाने की बेकार की बात बताकर हीन मान लिया है|
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हम जहाँ भी हैं, वहीं से परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाएँ तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन मिलेगा| परमात्मा की ओर उन्मुख तो होना ही पडेगा, आज नहीं तो फिर किसी अन्य जन्म में| अभी सुविधाजनक नहीं है तो अगले जन्मों की प्रतीक्षा करते रहिये|
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मनुष्य द्वारा बनाए गए नियम परिवर्तित हो सकते हैं, पर परमात्मा द्वारा बनाए गए नियम सदा अपरिवर्तनीय हैं| जैसे सत्य बोलना, परोपकार करना आदि पहले पुण्य थे तो आज भी पुण्य हैं| झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना पाप था तो आज भी पाप है| परमात्मा के बनाए हुए नियम अटल हैं, और पूरी प्रकृति उनका पालन कर रही है|
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दुःखों से निवृति ही "मोक्ष" है| मोक्ष के मार्ग पर हमें अकेले ही चलना पड़ता है| ॐ तत्सत् !
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आप सभी निजात्म गणों को सप्रेम नमन !
कृपा शंकर
२७ सितम्बर २०१८

योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की पुण्य तिथि .....

पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ – २६ सितम्बर १८९५ ) की आज १२३ वीं पुण्यतिथि है| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है| भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२:२२||"
अर्थात् जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है|
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः|
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः||२:२३||"
अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः|
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे||२:२०||"
अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||
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पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की आवश्यकता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
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ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितम्बर २०१८

Tuesday 25 September 2018

जिनकी भाषा अभद्र है, उन राजनेताओं से मुझे कोई मतलब नहीं है .....

जिनकी भाषा अभद्र है, उन राजनेताओं से मुझे कोई मतलब नहीं है .....
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कुछ राजनेता मूर्खतापूर्ण और असभ्य भाषा का प्रयोग कर रहे हैं मैं कभी भूल कर भी उन का समर्थन नहीं कर सकता, विशेषकर एक ऐसे घटिया राजनेता और उसके अंधभक्तों का जो अपना गला फाड़ फाड़ कर बिना किसी प्रमाण के देश के प्रधानमंत्री को चोर बता रहे हैं|
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मुझे सन १९६२ में हुए चीनी आक्रमण के समय का घटनाक्रम पूरी तरह याद है| उस समय मेरी आयु चौदह वर्ष की थी| वह युद्ध हम पूरी तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री की मूर्खता के कारण हारे थे| उन्होंने अपने निज जीवन में ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया जिसे हम आदर्श कह सकें| उनके समय देश का पहला रक्षा घोटाला हुआ था| उसके बाद उनके वंशज शासकों ने महा भयंकर घोटाले ही घोटाले किये| क्या इस घटिया राजनेता ने अपने पूर्वजों को कभी चोर कहा है?
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राफेल का पूरा विवाद यही है कि एक विमान के लिए २००७ में जो मूल्य निर्धारित हुआ था वह २०१७ में तीन गुणा कैसे हो गया? मेरा सीधा सा प्रश्न है कि सांसदों को इस समय उस समय से आठ गुणा अधिक वेतन क्यों मिल रहा है? सांसदों को भी भी वही वेतन मिलना चाहिए जो २००७ में मिल रहा था| कम से कम इस राजनेता के अंधभक्तों को तो ग्यारह वर्ष पुराना वेतन ही लेना चाहिए था|
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एक भवन के सामने मोहल्ले के सारे चोर एकत्र होकर नारे लगा रहे थे कि चौकीदार चोर है चोर है, ताकि वह चौकीदार भाग जाए औए वे खुल कर चोरी कर सकें| इस बात का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है|

सभी को साभार सादर धन्यवाद !
२५ सितम्बर २०१८
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श्री अरुण उपाध्याय जी द्वारा टिप्पणी .....

अन्य देशों में भी अपने देश का विरोध करने वाले हुए हैं, पर भारत से बहुत कम। दूसरे देशों में उनको दण्डित किया जाता है। यहां वे पूजनीय और आदर्श बन जाते हैं। एक और बड़ा अन्तर यह है कि अन्य स्थानों में सरकार विरोधी लोग ही विदेशी मदद लेते हैं, वह भी बहुत कम समय के लिए, उनके भक्त कभी नहीं होते।
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भारत जैसा कभी और कहीं नहीं हुआ कि शासक ही देश का सबसे बड़ा शत्रु हो और विश्व शान्ति और अहिंसा के नाम पर अपने ही देश की आधी भूमि दूसरे देश को सौंप दे तथा करोड़ देशवासियों की हत्या करवा दे। शासन पाने के लिये पाकिस्तान अलग किया गया, कश्मीर भी पाकिस्तान को देने की कोशिश हुयी और आज तक भारत से अलग ही है तथा संविधान की ३७० धारा का समर्थन कांग्रेस द्वारा हो रहा है। उसके बाद तिब्बत चीन को बिना लड़े सौंप दिया तथा उसकी अनुमति ब्रिटेन से लेने की कोशिश की। ब्रिटेन ने अपने विवेक का उपयोग करने के लिये कहा तो तुरत तिब्बत चीन को सौंप दिया। पाकिस्तान+ कश्मीर +तिब्बत का क्षेत्रफल वर्तमान भारत के बराबर है।
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हिन्दू मुस्लिम के आधार पर विभाजन हुआ, अतः पाकिस्तान मुस्लिम देश बना, पर भारत भी अल्पसंख्यक सुविधा के नाम पर व्यवहार में मुस्लिम देश ही रहा। यदि भारत हिन्दू देश नहीं था,तो पाकिस्तान के हिन्दू जान बचाने के लियॆ भारत क्यों आये, ईरान-अफगानिस्तान भी जा सकते थे। तिब्बत यदि भारत का अंग नहीं था, तो तिब्बती शरणार्थी और दलाई लामा जान बचाने के लिये भारत क्यों आये।
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द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु बम मिला कर १०० लाख लोग मरे थे। उसमें भारत के २७ लाख सैनिक थे। अर्थात् शेष विश्व के मात्र ७३ लाख मरे। भारत में इसके अतिरिक्त विभाजन में तथा तिब्बत में ३०-३० लाख लोग अहिंसा के नाम पर मरे जबकि उस समय भारत के पास आधुनिक हथियार वाली सबसे बड़ी स्थल सेना थी। अर्थात् भारत मे सत्य-अहिंसा से ८७ लाख, बाकी विश्व में युद्ध और अणु बम से ७३ लाख मरे।

मेरी श्रद्धा और विश्वास .....

मेरी श्रद्धा और विश्वास .....
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मैं अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पा रहा हूँ, पर कोई चिंता मुझे नहीं है| मुझे पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है कि मेरे इष्टदेव प्रेम की डोरी से बाँधकर इसे एक न एक दिन अपने आप ही अपने आधीन कर ही लेंगे| वे ही मेरी हर परिस्थिति में रक्षा कर रहे हैं और सदा ही करेंगे| मैं निश्चिन्त हूँ क्योंकि खोने को मेरे पास कुछ भी नहीं है, सब कुछ तो उन्हीं का है| एकमात्र बाधा यह जीवभाव है जिसका भी वे हरि एक न एक दिन हरण कर ही लेंगे| यह उनका स्वभाव है| यह जीवभाव नहीं रहेगा तो कोई राग-द्वेष और अहंकार भी नहीं रहेगा| उन हरि का चिंतन ही मेरा स्वभाव है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०१८

हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं ? .....

हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं ? .....
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(जो मैं इस लेख में लिखने जा रहा हूँ यह सब संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त ज्ञान है)
इस देह के साथ हमारा सम्बन्ध सिर्फ कर्मफलों का है, इसमें विगत जन्मों के कर्मफल भी आते हैं| इस जन्म में किये हुए सकाम कर्मफलों को भोगने के लिए फिर से देह धारण करनी होगी| इसमें हमारी इच्छा नहीं चलती, सब कुछ प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है| हमें कर्म करने का अधिकार है पर उनके फलों को भोगने में हम स्वतंत्र नहीं हैं| उनका फल भुगतने के लिए प्रकृति हमें बाध्य कर देती है| हमारे सारे सगे-सम्बन्धी, माता-पिता, संतानें, शत्रु-मित्र ..... सब पूर्व जन्मों के कर्मफलों के आधार पर ही मिलते हैं| अतः जिस भी परिस्थिति में हम हैं वह अपने ही कर्मों का भोग है, अतः कोई पश्चात्ताप न करके इस दुश्चक्र से निकलने का प्रयास करते रहना चाहिए|
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इस निरंतर हो रहे जन्म-मरण के दुश्चक्र से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम तो हमें परमात्मा को स्थायी रूप से अपने हृदय में बैठाना होगा, और परमप्रेम से उनको समर्पित होना होगा| फिर सतत् दीर्घकाल की साधना द्वारा कर्ताभाव और देहबोध से मुक्त होना होगा|
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इसके लिए चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण का अभय वचन है .....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात् तूँ मुझ में ही मन और चित्त लगा, मेरा ही भक्त यानि मेरा ही भजन पूजन करने वाला हो, तथा मुझे ही नमस्कार कर| इस प्रकार करता हुआ तूँ मुझ वासुदेव में अपने साधन और प्रयोजन को समर्पित कर के मुझे ही प्राप्त होगा| मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तूँ मेरा प्रिय है|
भगवान का इतना बड़ा आश्वासन है अतः भय किस बात का? हमें उन की शरण में तुरंत चले जाना चाहिए| महाभारत में अनेक स्थानों पर भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसी ही बातें सत्य की शपथ खाकर कही हैं|
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अब प्रश्न उठता है कि हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं? बात बड़ी अजीब सी है, जिस भगवान ने सब कुछ दिया है उन को हम दान में क्या दे सकते हैं? हाँ, एक चीज ऐसी अवश्य है जिसका दान भगवान भी हमारे से स्वीकार कर लेते हैं| यदि भगवान हमारा दिया हुआ दान स्वीकार कर लेते हैं तो उससे बड़ा पूण्य कोई दूसरा नहीं है| वह दान है ..... हमारी अपनी "जीवात्मरूपता" का यानी "जीवात्मभाव" का| इस जीवात्मरूपता के अतरिक्त हमारे पास अन्य कुछ है भी नहीं|
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भगवान का आदेश है .....
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्| यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्||९:२७||"
अर्थात् हे कौन्तेय तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो|
भगवान ने इस से पूर्व यह भी कहा है ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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हमारा हर कर्म ब्रह्मकर्म हो, हमारी चेतना ब्रह्ममय हो, हम जीवात्मभाव से मुक्त हों, यह भगवान को दिया हुआ दान है| हमारा अपना है ही क्या? हमारे हृदय में भगवान ही धड़क रहे हैं, हमारी सांसे भी वे ही ले रहे हैं, हमारी आँखों से भी वे ही देख रहे हैं, और हमारे पैरों से भी वे ही चल रहे हैं| यह पृथकता यानी जीवात्मभाव का बोध एक मायावी भ्रम और धोखा है|
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हे मनमोहन भगवान वासुदेव, हमारा मन तुम्हारे ही श्रीचरणों में ही समर्पित हो, तुम्हें छोड़कर यह मन अन्यत्र कहीं भी नहीं भागे| आप ही गुरु हो और आप ही मेरे परमशिव और मेरी परमगति हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०१८

Friday 21 September 2018

सत्संग सार .....

सत्संग सार .....
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भगवान की यह परम कृपा रही है कि संसार की इस अथाह भीड़ में से उन्होंने मुझे भी छाँट कर स्वयं के श्रीचरणों की सेवा में लगा दिया है| उनके श्री चरण ही मेरे आराध्य हैं, वे ही मेरी गति हैं और वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरी कोई भी कामना नहीं है| अनेक लेख मुझ अकिंचन के माध्यम से लिखे जा चुके हैं, उनकी संख्या बढाने से अब कोई लाभ नहीं है| सब का सार यही है कि हमारे हृदय में कोई भी कामना नहीं होनी चाहिए| हमारा पूर्ण प्रेम और अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के प्रति ही हो, कोई किसी भी तरह की कामना न रहे| कामनाएँ ही पाप का मूल हैं| स्वर्ग की कामना भी एक धोखा है जो अंततः नर्कगामी ही है|
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सूक्ष्म जगत के अनेक महात्माओं ने मुझे आशीर्वाद दिया है जिनको भौतिक रूप में मैनें कभी भी नहीं देखा| इस भौतिक विश्व में भी मुझे संत चरणों से प्यार है जो निरंतर आशीर्वाद देते रहते हैं| भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि किसी भी कामना का जन्म न हो और उन्हीं के श्रीचरणों में अंतःकरण लगा रहे|
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हम सब नित्यमुक्त हैं अतः किसी भी तरह की कोई मुक्ति हमें नहीं चाहिए| हमारा पूरा अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भगवान को समर्पित हो| भगवान के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को भी मेरा दण्डवत् प्रणाम स्वीकार हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितम्बर २०१८
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पुनश्चः :-- एक आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का पुनरोत्थान कर रही है| भारतवर्ष फिर से अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा| असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी, ज्ञान का आलोक सर्वत्र व्याप्त होगा| भारतवर्ष में दस भी ऐसे महात्मा हैं जो परमात्मा को प्राप्त हैं, तो भारतवर्ष कभी नष्ट नहीं हो सकता|

भगवान किसे प्राप्त होते हैं ? ...

भगवान किसे प्राप्त होते हैं ? ... (यह संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त ज्ञान का सार है)
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भगवान उसी साधक को प्राप्त होते हैं जिसे भगवान स्वयं स्वीकार कर लेते हैं| भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है यानि भगवान को ही प्राप्त करना चाहता है, कुछ अन्य नहीं|
महत्व उनको पाने की घनिभूत अभीप्सा का है, अन्य किसी चीज का नहीं| आध्यात्मिक साधनाएँ यदि उनको पाने की अभीप्सा बढ़ाती हैं तभी सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||
अर्थात् जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार से भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ|
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं| एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते| जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है| इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं| भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं| भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं|
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जैसे एक स्त्री और एक पुरुष सिर्फ एक दूसरे को ही पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं, तभी वे एक-दूसरे के होते हैं, वैसे ही जो सिर्फ भगवान को ही वरता है, भगवान भी उसे ही वरते हैं| सिर्फ कामना करने मात्र से ही भगवान किसी को नहीं मिलते|
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गीता में ही भगवान कहते हैं .....
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||२:४४||
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृढ़ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है||
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भगवान आगे और भी कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ||२:४५||
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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सबका सार यही है कि कोई भी किसी भी तरह की कामना नहीं होनी चाहिए, सिर्फ परमात्मा को उपलब्ध होने की ही गहनतम अभीप्सा हो, तभी भगवान प्राप्त होते हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितम्बर २०१८

वेदांत दर्शन, साधन चतुष्टय और संत आशीर्वाद :--

वेदांत दर्शन, साधन चतुष्टय और संत आशीर्वाद :--
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यह बात मैं पूरे दावे के साथ अपने अनुभव से कह रहा हूँ कि वेदान्त दर्शन को सिर्फ स्वाध्याय से तब तक कोई भी ठीक से नहीं समझ सकता जब तक किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद प्राप्त न हो| तपस्वी महात्माओं के आशीर्वाद से प्राप्त अनुभूतियों से वेदान्त स्वतः भी समझ में आ सकता है| अतः एक मुमुक्षु को संतों का सदा सत्संग करना चाहिए|
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वैसे वेदान्त में प्रवेश के लिए साधन चतुष्टय यानी चार योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है|
वे हैं .....
(१) नित्यानित्य विवेक.
(२) वैराग्य.
(३) षड्गुण/षट सम्पत्ति... (शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, और तितिक्षा).
(४) मुमुक्षुत्व.
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रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"बिनु सत्संग विवेक न होई| राम कृपा बिनु सुलभ न सोई||"
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भगवान से प्रेम करेंगे तो भगवान की कृपा होगी और भगवान की कृपा होगी तो सत्संग लाभ भी होगा| सत्संग लाभ होगा तो विवेक जागृत होगा, और विवेक जागृत होगा तो वैराग्य भी होगा| वैराग्य और अभ्यास से छओं सदगुण भी आयेंगे और मुमुक्षुत्व भी जागृत होगा| फिर साधक जितेन्द्रिय हो जाता है और भोगों की आसक्ति नष्ट हो जाती है|
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इस दिशा में पहला कदम है .... परमप्रेम जो सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है| अपने पूर्ण ह्रदय से अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें, फिर सारे द्वार अपने आप ही खुल जायेंगे, सारे दीप अपने आप ही जल उठेंगे, और सारा अन्धकार भी अपने आप ही नष्ट हो जाएगा||

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितम्बर २०१८

सफ़ेद गुलाब और गौरैया .....

सफ़ेद गुलाब और गौरैया .....
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एक बगीचे में कई गुलाब के फूल खिले थे| सब के रंग लाल, पीले, गुलाबी और अन्य थे, पर सिर्फ एक ही सफ़ेद रंग का गुलाब था| उस सफ़ेद गुलाब में एक हीन भावना आ गयी और वह भगवान से प्रार्थना करता कि मुझे भी लाल रंग का बना दो|
एक दिन एक गौरैया उड़ती हुई उस बगीचे में आई, उसने उस सफ़ेद गुलाब को देखा और उससे प्यार करने लगी| पूरे दिन दोनों ने बातचीत की और गौरैया ने अगले दिन फिर आने की बात कही| सफ़ेद गुलाब ने अपनी शर्त रखी कि वह लाल रंग का होने पर ही मित्रता करेगा|
गौरैया पूरी रात विचार करती रही कि अपने मित्र सफ़ेद गुलाब को लाल कैसे बनाए| दुसरे दिन जब सूर्योदय हुआ तब सफ़ेद गुलाब जागा और अपनी पंखुड़ियाँ फैला दीं| घोर आश्चर्य ! उसकी सब पंखुड़ियाँ लाल थीं| वह प्रसन्नता से नाच उठा| उसने नीचे देखा तो बड़ा दुखद दृश्य था| नीचे मरी हुई गौरैया अपने स्वयं के रक्त में ही भीगी हुई पडी थी, उसकी छाती में कई कटे हुए के चिह्न थे|
सफ़ेद गुलाब को समझ में आया कि क्या हुआ| रात को गौरैया आई थी, उसने मित्रता निभाने के लिए फूल के साथ लगे काँटों से अपना सीना छलनी किया और बंद सफ़ेद गुलाब को अपने रक्त से भिगो दिया|
कई लोगों ने हमारे जीवन में प्रसन्नता लाने के लिए त्याग किया है| हमें उन सब का उपकार मानना चाहिए| हम उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्यार दें| पर पहला प्यार परम प्रिय परमात्मा को दें जिन्होनें हमें अपना प्रियतम स्वरुप दिया है|

"भूमा" शब्द का अर्थ :----

"भूमा" शब्द का अर्थ :----
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कामायनी महाकाव्य की इन पंक्तियों में जयशंकर प्रसाद ने "भूमा" शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है .....
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल |
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही "भूमा" का मधुमय दान |"
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"भूमा" शब्द सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद (७/२३/१) में आता है जिसका अर्थ होता है ..... सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन|
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है|
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ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा ..
" सुखं भगवो विजिज्ञास इति " |
जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है .....
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर 
१९ सितम्बर २०१८ 

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उपरोक्त लेख पर श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--

यही साधना की पूर्णता भी है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर है अर्थात् भूमि है। योग साधना की भी ७ भूमि कही गयी है (महानारायण उपनिषद्)। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो तो यह भूमा है।
पृथ्वी ग्रह अपनी परिधि के भीतर भूमि है। आकाश में उसके प्रभाव (
गुरुत्वाकर्षण आदि) का क्षेत्र भूमा है।
इसी प्रकार दो अन्य सीमित-विराट् जोड़े हैं जिनको एक मान कर व्याख्या की जाती है-
पुरुष - पूरुष, ईश-ईशा।
एक पुर में सीमित पुरुष है।
उसका मूल स्रोत या बनने के बाद अधिष्ठान पूरुष है जो उससे बड़ा है। पुरुष सूक्त तथा गीता में २-२ स्थान पर पूरुष शब्द का प्रयोग है। विश्व का पूर्ण स्रोत पूरुष है। उसके ४ भाग में १ भाग से ही पूरा विश्व बना है, यह पुरुष है।
पुरुष एवेदं सर्वं यदभूतं यच्च भाव्यं।
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादो अस्य भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।
ततो विराट् अजायत विराजो अधि पूरुषः। (पुरुष सूक्त)।
विश्व के हर विन्दु हृदय या चिदाकाश में रह कर सञ्चालन करने वाला इश या ईश्वर है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया।
(गीता १८/६१)
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं।। (रामचरितमानस)
हर चिदाकाश को मिलाकर उसके ईश का विस्तार ईशा है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
यहां कई लोग ईशा का अर्थ ईश की तृतीया विभक्ति के साथ मानते हैं-अर्थात् ईश के द्वारा। पर यह वाक्य विश्व के प्रसंग में है।
यहाँ तीन शब्द हैं-ईश का विस्तार विश्व रूप में ईशा, जगत्, जगत्यां जगत्।
गीता अध्याय १८ के आरम्भ में इनको ब्रह्म, कर्म, यज्ञ कहा गया है।
सब कुछ ब्रह्म है-सर्वं खलु इदं ब्रह्म।
ब्रह्म में जहां कहीं गति है वह कर्म है। = जगत्।
जिस कर्म द्वारा चक्रीय क्रम में उत्पादन हो रहा है वह यज्ञ है (गीता, ३/१०)।= जगत्यां जगत्।


मेरी दृष्टी से एक आदर्श दिनचर्या :---

मेरी दृष्टी से एक आदर्श दिनचर्या :---
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१) प्रातःकाल इस भाव से उठें जैसे माँ भगवती की गोद में सोये हुए थे और उन्हीं की गोद में से सो कर उठ रहे हैं| सिर के नीचे कोई तकिया नहीं बल्कि माँ का बायाँ हाथ है और सिर के ऊपर उनके प्रेममय दायें हाथ की हथेली है जिस से वे हमें प्रेम करते हुए आशीर्वाद भी दे रही हैं|
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(२) किसी भी तरह का कोई अहंकार व दंभ न हो|
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(३) उठते ही दो बार में धीरे धीरे एक लम्बी गहरी सांस लें और कुछ क्षणों के लिए पूरे शरीर को तनाव से भरकर प्राण तत्व से भरे होने का संकल्प करें| अधिक से अधिक पांच सेकंड्स तक ही यह तनाव रखें, फिर धीरे धीरे शरीर को शिथिल करें पर शरीर प्राण तत्व से भरपूर रहे|
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(४) एक गिलास गुनगुने शुद्ध जल का पीयें और आवश्यक हो तो लघुशंका आदि से निवृत हो लें|
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(५) एक कम्बल के शुद्ध आसन पर स्थिर होकर बैठ जाएँ, मेरुदंड उन्नत, मुख पूर्व दिशा की ओर, ठुड्डी भूमि के समानांतर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में और चेतना ... आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा सुषुम्ना में हो|
(आज्ञाचक्र की स्थिति :-- ठुड्डी भूमि के समानांतर हो तो दोनों कानों के मध्य से थोड़ा पीछे की ओर खोपड़ी के पीछे के भाग में| वहाँ छूते ही पता चल जाता है|)
(सहस्त्रार की स्थिति :-- ठुड्डी भूमि के समानांतर हो तो दोनों कानों के मध्य से खोपड़ी के सबसे ऊपर का भाग| वहां अँगुलियों से छूने पर ब्रह्मरंध्र की स्थिति का पता चल जाता है|)
(जो योगसाधना करते हैं, उनके लिए आज्ञाचक्र ही हृदय है| जीवात्मा का निवास भी आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में है|)
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(६) पूर्ण प्रेम से अपनी चेतना को सारे ब्रह्मांड में फैला दें, सारी सृष्टि को उस से आच्छादित कर दें| वह अनंत विस्तार ही हम हैं, उस विस्तार का ध्यान करें| अजपा-जप का अभ्यास करें, गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का खूब मानसिक जप करें, परमात्मा के सर्वव्यापी अपने प्रियतम रूप का ध्यान कर उसी में स्वयं को विलीन कर दें| (इस से आगे का मार्गदर्शन स्वयं भगवान किसी न किसी तरह पात्रतानुसार अवश्य करेंगे|)
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(७) किसी भी तरह का कोई भय न हो| साक्षात जगन्माता माँ भगवती हमारी रक्षा कर रही है| कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता| पूरे दिन हमारा सत्य व्यवहार और परमात्मा का निरंतर स्मरण हो|
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(८) रात्री को पुनश्चः गहरा ध्यान कर के माँ भगवती की गोद में वैसे ही सो जायें जैसे एक अबोध बालक अपनी माँ की गोद में सोता है|
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सायं व प्रातः यथासंभव अधिकाधिक समय ध्यान करें| रात्री को सोने से पूर्व फिर से एक बार गहरा ध्यान अवश्य करें| परमात्मा को जीवन का केंद्रबिंदु, एकमात्र कर्ता और सर्वस्व बनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितम्बर २०१८

पृथ्वी पर इस समय "शैतान" का राज्य बहुत लम्बे समय से चल रहा है ....

एक अलग दृष्टिकोण .....

पृथ्वी पर इस समय "शैतान" का राज्य बहुत लम्बे समय से चल रहा है| "शैतान" कोई व्यक्ति नहीं है, मनुष्य की "कामवासना", "लोभ" और "अहंकार" ही "शैतान" है| "परमात्मा" की परिकल्पना सिर्फ भारत की ही देन है, पर भारत में भी घोर "तमोगुण" के रूप में "शैतान" ही राज्य कर रहा है| भारत में "जातिगत द्वेष", और "पारस्परिक जातिगत घृणा" .... "तमोगुण" की प्रधानता के कारण है| यह "तमोगुण" भी "शैतान" ही है|
मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ पूरे क्षेत्र में ही दुर्भाग्य से इतना भयंकर "जातिगत द्वेष" है कि मेरा दम घुटने लगता है| कई बार मुझे लगता है कि मैं गलत क्षेत्र में और गलत समाज में रह रहा हूँ| कहीं जाने का मन भी नहीं करता| जहाँ "तमोगुण" की प्रधानता है वहाँ "शैतान" ही राज्य करता है|

१५ सितम्बर २०१८

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !
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(गणपति का आधिदैविक स्वरूप) .....
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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
(सत्य कथन) .....
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ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
(रक्षण के लिये प्रार्थना) .....
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अव त्वं माम्‌ ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात्‌ ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
(गणपतिजी का आध्यात्मिक स्वरूप) .....
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त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
(गणपति का स्वरूप) .....
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सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥ त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥ त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं‌ चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
(गणेशविद्या / गणेश मन्त्र) .....
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गणादिन् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम् ॥ संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥७॥
(गणेश गायत्री) .....
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एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥ ८ ॥
(गणेशरूप ध्यान).....
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एकदन्तं चतुर्हस्तम् पाशमं कुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तम् लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥
(अष्टनाम गणपति नमन) .....
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नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥ १० ॥
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॥ फलश्रुति ॥ (सिर्फ हिंदी अनुवाद) :----
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इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
(विविध प्रयोग)
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
(यज्ञ प्रयोग)
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
(अन्य प्रयोग)
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥

साधू , सावधान ! यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है .....

साधू , सावधान ! यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है .....
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"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते| संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||२:६२||"
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः| स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||२:६३||"
श्रुति भगवती भी सचेत कर रही है .....
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत| क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति||" (कठोपनिषद् १:३:१४)
भय की बात नहीं है| भगवान आश्वासन भी दे रहे हैं .....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||
तुरंत उठ ! वैराग्यवान होकर सिर्फ परमात्मा का चिंतन कर ! दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है |
ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१३ सितम्बर २०१८
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पुनश्चः .....
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साधू, सावधान ! ....
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मुझे भय है कि कहीं मैं बुद्धि-विलास, शब्दजाल और विकृत विद्वता के अरण्य में तो नहीं भटक गया हूँ| यदि यह कणमात्र भी सत्य है, तो अभी इसी क्षण से मुझे संभल कर इस जंजाल से निकलना होगा|
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०१९ 
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वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्| वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये||"
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
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शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्| अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः||"
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् वन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
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अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै ||"
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
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"वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।"
(विवेक चूड़ामणि--६)
‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।‘
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"अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला| विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला||"
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

Wednesday 12 September 2018

गुरु पादुका रहस्य .....

गुरु पादुका रहस्य .....
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"अनंत संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्यां| वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां||"
इस अनंत संसार में श्रीगुरुचरणपादुका से अधिक पूजनीय अन्य कुछ भी नहीं है| श्रीगुरुचरणों में मिला हुआ आश्रय ही मेरी एकमात्र स्थायी निधि है| प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम ध्यान श्रीगुरुचरणों का ही होता है, रात्रि को सोने से पूर्व, और स्वप्न में भी श्रीगुरुचरण ही दिखाई देते हैं| वे ही मेरी गति हैं, अन्य कुछ भी नहीं है| वे ही भगवान परमशिव हैं| मेरी सारी कमियाँ-खूबियाँ, दोष-गुण, बुराई-भलाई, सारा अस्तित्व, सब कुछ श्रीगुरुचरणों में अर्पित है|
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मेरी कुछ अनुभवजन्य निजी मान्यताएँ हैं जिन पर मैं दृढ़ हूँ| उन पर किये जाने वाले किसी भी विवाद से मैं प्रभावित नहीं होता| ध्यान के समय सहस्त्रार में दिखाई देने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म और कूटस्थ अक्षर ही श्रीगुरुचरण हैं| उनमें स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय है| उन्हीं का अनंत विस्तार ही परमशिव है| गुरु चरणों के ध्यान से ही अजपा-जप और सूक्ष्म प्राणायाम स्वतः ही होते रहते हैं| बाह्य कुम्भक के समय होने वाला ध्यान उनकी पूजा है| इससे अधिक मैं कुछ भी नहीं जानता|
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आरम्भ में मैं गुरु के बीज मन्त्र "ऐं" के साथ ध्यान करता था जिसका बोध गुरुकृपा हे ही हुआ, फिर छिन्नमस्ता के मन्त्र के साथ करता था| जब से गुरु चरणों में आश्रय लिया है तब से जो कुछ भी करते हैं, वे श्रीगुरु महाराज ही करते हैं| मैं कुछ नहीं करता| मेरे अंतरतम के अज्ञान को वे ही भस्म कर रहे हैं| उनके श्रीचरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएँ ही साक्षात् उनका विग्रह हैं| मैं पूर्ण श्रद्धा-भक्ति सहित उनको प्रणाम करता हूँ| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१२ सितम्बर २०१८

ज्ञानी, भक्त और भगवान कौन हैं ?

ज्ञानी, भक्त और भगवान कौन हैं ?
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(१) प्रश्न :-- ज्ञानी कौन है ?
उत्तर :-- जो समभाव में स्थित है वह ही ज्ञानी है| विश्व की सारी धन-संपदा मिल जाए तो भी कोई हर्ष न हो, किसी भी तरह का लोभ न हो, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु आदि किसी भी तरह की परिस्थिति में विचलित न हो, वह ही ज्ञानी है|
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(२) प्रश्न :-- भक्त कौन है ?
उत्तर :-- जिस के हृदय में परम प्रेम है, जो सत्यपरायण है, जिसने कामनाओं व वासनाओं पर विजय पा ली है, वह ही भक्त है| झूठ बोलने वाला व्यक्ति कभी भक्त नहीं हो सकता, उसका भक्ति का दिखावा पाखण्ड है|
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(३) प्रश्न :-- भगवान कौन हैं ?
उत्तर : भगवान सत्य हैं| एकमात्र सत्य भगवान ही हैं| भगवान सत्यनारायण हैं| यह अनुभूति का विषय है, बौद्धिक नहीं| भगवान ही एकमात्र सत्य हैं| यह बात ध्यान में ही समझ में आती है, अतः इस पर बौद्धिक चर्चा करना व्यर्थ है| विष्णु पूराण के अनुसार "भगवान" शब्द का अर्थ है -----
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः|
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा||" –विष्णुपुराण ६ |५ | ७४
सम्पूर्ण ऐश्वर्य धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य यह छः सम्यक् पूर्ण होने पर `भग` कहे जाते हैं, और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है|
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सभी को नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१२ सितम्बर २०१८

नदी-नाव संयोग .....

नदी-नाव संयोग .....

दोनों आँखें एक-दूसरे को देख नहीं सकतीं, फिर भी साथ साथ देखती हैं, साथ साथ झपकती हैं और साथ साथ रोती हैं| दोनों एक दूसरे का क्या बिगाड़ सकती हैं? साथ रहना उनकी नियति है|
कई बार दाँत जीभ को काट लेते है, फिर भी दाँत और जीभ साथ साथ ही रहते हैं| साथ साथ रहना उनकी भी नियति है|
रेज़र की ब्लेड नुकीली होती है पर पेड़ को नहीं काट सकती| कुल्हाड़ी नुकीली होती है पर दाढ़ी नहीं बना सकती| सूई का काम तलवार नहीं कर सकती, और तलवार का काम सूई नहीं कर सकती| हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है| जीवन में न चाहते हुए भी सब के साथ प्रेम से रहना ही पड़ता है|
घर-परिवार और समाज में विवशता की बजाय प्रेम से जीयें तो अधिक अच्छा होगा| कई बार हमें अंधा बनकर आसपास की घटनाओं की उपेक्षा करनी पड़ती है|
ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१२ सितंबर २०१७

मन में अच्छे विचार कहाँ से आते हैं ? .....

मन में अच्छे विचार कहाँ से आते हैं ? .....
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मेरे अनुभव से अच्छे विचार हमारी बौद्धिकता से नहीं अपितु अन्तर्प्रज्ञा से आते हैं| अन्तर्प्रज्ञा की जागृति ही हमें अच्छा मानव बनाती है, अन्यथा तो हम पाशों में बंधे हुए पशु ही हैं| मस्तिष्क का कौन सा भाग अन्तर्प्रज्ञा को जन्म देता है यह हम नहीं जानते पर यह ज्ञान हमारे प्राचीन भविष्यदृष्टा ऋषियों को था| हमारे मष्तिष्क में लाखों करोड़ों सर्किट्स यानि तंत्र हैं, कौन से सर्किट यानि तंत्र को सक्रिय कैसे किया जाए, और उसके क्या परिणाम होंगे, यह हमारे प्राचीन ऋषि जानते थे|
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शरीर के किस भाग पर ध्यान दिया जाए, या किस मन्त्र का किस समय जाप किया जाये तो उसके क्या परिणाम होंगे, यह बताने का उन्होंने लोकहित में सदा प्रयास किया था| हम चाहे उन्हें दकियानूसी कह कर उनकी हँसी उड़ाते रहें पर सत्य को हम नहीं बदल सकते| 
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आज्ञा चक्र पर ध्यान करने से अन्तर्प्रज्ञा जागृत होती है, यह अनुभूत सत्य है| इसका तरीका भी बताया गया है कि दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे व चेतना आज्ञाचक्र से ऊपर रहे| इस से अनेक अनुभूतियाँ हुई हैं| साथ साथ किन बीजमंत्रों के किस विधि से जप से क्या परिणाम होते हैं, व किन गोपनीय सूक्ष्म प्राणायामों से मनुष्य के सहज विकास को बढाया जा सकता है, यह तो अब भी भारत के निष्ठावान साधकों को ज्ञात है| 
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सारे ज्ञान को चार महावाक्यों के पीछे छिपा दिया गया है| सारा ज्ञान उपनिषदों व गीता जैसे ग्रंथों के माध्यम से हमें दिया गया है| इसका ज्ञान सभी को अपने पुरुषार्थ से अर्जित करना चाहिए| आचार्य शंकर और आचार्य रामानुज जैसे आचार्यों ने अपने अपने तरीकों से उनकी व्याख्या की है| संन्यास और वैराग्य की परम्पराओं की स्थापना हुई है क्योंकि घर गृहस्थी में व समाज में रहते हुए आध्यात्म के मार्ग पर अधिक प्रगति करना असंभव सा ही है|
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जैसे अच्छे विचार अन्तर्प्रज्ञा से आते हैं वैसे ही सारा ज्ञान भी अन्तर्प्रज्ञा से ही प्राप्त होता है| वह कब किस को प्राप्त हो जाए कुछ कह नहीं सकते| २८७ से २१२ वर्ष ईसा पूर्व यूनान में वहाँ के एक गणितज्ञ आर्किमिडीज़ को वहाँ के राजा ने यह पता लगाने को कहा कि जितना सोना उसने अपना मुकुट बनाने के लिए सुनार को दिया था, सुनार ने कहीं मिलावट तो नहीं कर दी है| यह पता लगाने के लिए आर्किमिडीज़ ने एक बाल्टी पानी से लबालब भरकर उसमें मुकुट को डाला, जितना पानी बाहर निकला उसका भार मापा| फिर दुबारा पानी से बाल्टी भरकर उसमें उतने ही वजन का शुद्ध सोना डाला और बाहर निकले पानी का भार मापा| इस प्रयोग से उसे संतुष्टि नहीं हुई तो वह अपने स्नान घर में गया और यह देखने के लिए कि भरे हुए स्नान टब में उसके लेटने से उसके वजन के बराबर ही पानी निकलता है या कम या अधिक| अपने सारे कपडे उतार कर नंगा होकर वह टब में लेट गया| अचानक उसकी अन्तर्प्रज्ञा जागृत हुई और एक विचार उसके मन में आया जिस से आनंदित होकर वह नंगा ही बिना कोई कपड़ा पहिने घर से निकल कर वहाँ की सडकों पर "यूरेका" "यूरेका" "यूरेका" चिल्लाते हुए दौड़ पडा| भौतिक विज्ञान में उसने जलस्थैतिकी, सांख्यिकी और उत्तोलक के सिद्धांत की नींव रखी| 
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पुराणों की, महाभारत और रामायण की रचना ऐसी अन्तर्प्रज्ञा द्वारा हुई है जो परमात्मा की कृपा से ही होती है| याज्ञवल्क्य और वेदव्यास जैसे ऋषियों की प्रतिभा और प्रज्ञा अकल्पनीय है| ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो उन्हें उपलब्ध नहीं था| 
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हमारे जीवन में सदगुरु भी हमें एक दिशा देने के लिए आते हैं| उस दिशा में अग्रसर तो हमें स्वयं को ही होना पड़ता है| हम सब पर निरंतर परमात्मा की कृपा बनी रहे, हमारा विवेक और प्रज्ञा सदा जागृत रहे| जीवन में हमारा एकमात्र लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति ही हो, हम उसी दिशा में अग्रसर रहें| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर 
१० सितम्बर २०१८

धर्म का उद्देश्य क्या है ?

धर्म का उद्देश्य क्या है ?
विदेशों में यह प्रश्न मैनें अनेक लोगों से पूछा है कि धर्म का उद्देश्य क्या है? प्रायः सभी का इनमें से ही एक उत्तर था ..... (१) एक श्रेष्ठतर मनुष्य बनना, (२) जन्नत यानि स्वर्ग की प्राप्ति, (३) आराम से जीवनयापन यानि सुख, शांति और सुरक्षा|
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भारत में भी अनेक लोगों से मैनें यह प्रश्न किया है| अधिकाँश लोगों का उत्तर था कि .... बच्चों का पालन पोषण करना, दो समय की रोटी कमाना, कमा कर घर में चार पैसे लाना आदि ही धर्म है| यदि भगवान का नाम लेने से घर में चार पैसे आते हैं तब तो भगवान की सार्थकता है, अन्यथा भगवान बेकार है| अधिकाँश लोगों ने भगवान को एक साधन बताया है जो हमें रुपये पैसे प्राप्त कराने योग्य बनाता है, साध्य तो यह संसार है|
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भारत के कुछ अति अति अल्पसंख्यक नगण्य लोगों के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति यानि परमात्मा को उपलब्ध होना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है|
१० सितम्बर २०१८ 

पूर्णता निजात्मा में है, कहीं बाहर नहीं .....

दूसरों के गले काट कर, दूसरों की ह्त्या कर, दूसरों की संपत्ति का विध्वंश कर, दूसरों को लूट कर और अधिकाधिक हानि पहुंचा कर, क्या हम महान और पूर्ण बन सकते हैं ? .....
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अधिकांश मानवता अशांत है, दूसरों के विनाश में ही पूर्णता खोज रही है| पर इतने नरसंहार और विध्वंश के पश्चात भी उसे कहीं सुख शांति नहीं मिल रही है| जो हमारे विचारों से असहमत हैं उन सब का विनाश कर दिया जाता है| इस तरह से सत्ता पाकर सब अपना अहंकार तृप्त करना चाहते हैं| हत्यारों, लुटेरों व अत्याचारियों को ही झूठा इतिहास लिखकर गौरवान्वित किया जा रहा है| कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, भारत में ही देख लो|
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पूर्णता की खोज में मनुष्य ने पूँजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, फासीवाद, सेकुलरवाद, जैसे अनेक वाद खोजे, और अनेक कलियुगी मत-मतान्तरों, पंथों व सम्प्रदायों का निर्माण किया| पर किसी से भी मनुष्य को सुख-शांति नहीं मिली| इन सब ने मनुष्यता को कष्ट ही कष्ट दिए हैं| अभी भी जो इतनी भयंकर मार-काट, अन्याय, और हिंसा हो रही है, यह मनुष्य की निराशाजनक रूप से पूर्णता की ही खोज है| मनुष्य सोचता है कि दूसरों के गले काटकर वह बड़ा बन जाएगा, पर सदा असंतुष्ट ही रहता है और आगे भी दूसरोंके गले काटने का अवसर ढूंढता रहता है|
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अंततः हम इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि पूर्णता तो निज आत्मा में ही है, कहीं बाहर नहीं| पूर्ण तो सिर्फ परमात्मा है जिस से जुड़ कर ही हम पूर्ण हो सकते हैं, दूसरों के गले काट कर नहीं| पर यह समझ आने तक बहुत अधिक देरी हो जायेगी|
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"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
शांति मन्त्र ......
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
कृपा शंकर
१० सितम्बर २०१८

माँ भगवती .....

माँ भगवती .....
अनंत काल से पता नहीं कितने अज्ञात जन्मों में उनकी ममतामयी गोद में सदा हमारी रक्षा हुई है| हम उनकी अनंत, पूर्ण और सर्वव्यापक बाहों में पूर्णतः सुरक्षित हैं| अच्छा या बुरा, हमारे साथ कभी कुछ भी नहीं हो सकता, जब तक उनकी सहमति न हो| नष्ट होते हुए विश्व व टूटते हुए ब्रह्मांडों के मध्य भी हम सुरक्षित हैं, कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, हमें छू भी नहीं सकता, जब तक वे हमारे हृदय में हैं| उनकी ममतामयी गोद में हम पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं| उनका प्रेमसिन्धु इतना विराट है जिसमें हमारी हिमालय जैसी भूलें भी एक कंकर-पत्थर से अधिक नहीं हैं|
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लक्ष्य और अनुभव ........
अनंत कोटि सूर्यों की ज्योति से भी अधिक आभासित हमारा लक्ष्य निरंतर हमारे समक्ष रहे| इधर-उधर दायें-बाएँ कहीं अन्यत्र कुछ है ही नहीं| सर्वत्र वही ज्योति है| वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं हैं| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
९ सितम्बर २०१८

Sunday 9 September 2018

आज भाद्रपद की अमावस्या को राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण उत्सव हैं .....

आज भाद्रपद की अमावस्या को राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण उत्सव हैं .....
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(१) ठाकुर जी की पालकी के पीछे पीछे लोहार्गल तीर्थ से बाबा मालकेतु पर्वत (अपभ्रंस बोली में मालखेत) की २४ कोसीय परिक्रमा जो खाकी अखाड़े के महंत दिनेशदास जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों वैष्णव साधु-संतों की टोली और लाखों श्रद्धालुओं के साथ गोगा नवमी को आरम्भ हुई थी, आज अपराह्न में पूर्ण हो जायेगी|
बरसते पानी में खुले आसमान के नीचे तीर्थपरिक्रमार्थी श्रद्धालु महिलाएँ और पुरुष सूने पर्वतीय क्षेत्र में विश्राम और यात्रा कर रहे हैं| भोर में साधू-संतों के साथ साथ ठाकुर जी की पालकी के पीछे पीछे सारे श्रद्धालु भजन-कीर्तन करते हुए पुनश्चः चल देंगे और अपराह्न में बापस लोहार्गल पहुँच जायेंगे| आज अमावस्या के दिन लोहार्गल के सूर्यकुण्ड में महास्नान होगा| अरावली पर्वतमाला की दुर्गम पर इन दिनों हरी भरी पहाड़ियों के मध्य एक सप्ताह से आस्था की यह परिक्रमा चल रही है जिसमें राजस्थान के अलावा हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से भी आये श्रद्धालु हैं|
आसपास के ग्रामीणों ने और पुलिस व प्रशासन ने यथासंभव अच्छे से अच्छा प्रबंध कर रखा है|
इस २४ कोस की परिक्रमा में लाखों श्रद्धालु मालकेतु पर्वत के चारों ओर भगवान विष्णु की कृपा से निकली इन ७ जल धाराओं के दर्शन करते हैं जहां ये सात तीर्थ भी हैं .... लोहार्गल, किरोड़ी, शाकंभरी, नाग कुण्ड, टपकेश्वर महादेव, शोभावती और खोरी कुण्ड|
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(२) आज सभी सती मंदिरों का मुख्य आराधना दिवस है| झुंझुनू के विश्व प्रसिद्ध श्री राणी सती जी मंदिर का भी आज वार्षिकोत्सव व मुख्य आराधना दिवस है| पूरे भारत से आये लाखों श्रद्धालु इसमें भाग लेंगे| ये सभी सतियाँ वीरांगणाएँ थीं जिन्होनें रण भूमि में शत्रु सेनाओं से अंत समय तक युद्ध किया| कई सौ वर्षों के पश्चात आज तक भी जन मानस में इनके प्रति श्रद्धा है|
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हमारे परिवार के सदस्य आज भाद्रपद अमावस्या के दिन एक विशेष उत्सव मनाते हैं जो बाहरी विश्व के लिए ३ सितम्बर को था|
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सभी को नमन और शुभ कामनाएँ ! ॐ तत्सत् !
९ सितम्बर २०१८ 

सर्वाधिक सफल व बुद्धिमान कौन है ? .....

परमहंस योगानंद जी कहते थे कि ..... "वह व्यक्ति सर्वाधिक बुद्धिमान है जो सर्वप्रथम परमात्मा को ढूँढता है, और वह व्यक्ति सर्वाधिक सफल है जिसने परमात्मा को पा लिया है|"
जिसने परमात्मा को पा लिया, उसने सब कुछ पा लिया है, सृष्टि का समस्त ज्ञान और सारी विभूतियाँ उसके पीछे पीछे चलती हैं| इस सृष्टि में उसके लिए पाने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है| अतः सर्वप्रथम परमात्मा को प्राप्त करो, फिर सब कुछ अपनी आप ही मिल जाएगा|
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"But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you."
Matthew 6:33 King James Version (KJV)

९ सितम्बर २०१८ 

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " –

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " – (लेखक: स्वामी मृगेंद्र सरस्वती "सर्वज्ञ शंकरेन्द्र")
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वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " { खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ के रचनाकार } । इनके पिता वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान थे और कन्नौज राज्य के मुख्य पण्डित थे । उस काल मेँ " उदयनाचार्य " न्याय के एक प्रकाण्ड पण्डित हुए । उदयनाचार्य ने श्रीहर्ष के पिता से कहा कि " हम तुमसे शास्त्रार्थ करेँगे । " उदयना चार्य बड़े विद्वान भी थे और बड़े भक्त भी थे लेकिन " नैयायिक " होने के कारण कट्टर द्वैतवादी थे । बड़े अच्छे भक्त थे लेकिन द्वैतवादी थे । सभा बैठी हुई थी , शास्त्रार्थ हुआ । शास्त्रार्थ मेँ श्रीहर्ष के पिता यद्यपि वेदान्त के पक्ष को लिये हुए थे लेकिन उदयनाचार्य से वे हार गये , क्योँकि शास्त्रार्थ बुद्धि का खेल है और विद्वान् उदयनाचार्य प्रकाण्ड थे । उस काल मेँ राजा ही धर्म का निर्णायक होता था । श्रीहर्ष के पिता जी बड़े दुःखी होकर घर आये । उस समय कान्यकुब्ज बहुत बड़ा राज्य था। भारत मेँ उसका स्थान प्रायः सम्राट जैसा था । श्रीहर्ष के पिता को मन मेँ बड़ा दुःख हुआ कि " मैँ ऐसा नालायक निकला कि मैने वेदान्त पक्ष को हारने दिया । अब राजा सर्वत्र द्वैतवाद का प्रचार करेगा । " नियम था कि शास्त्रार्थ मेँ जो विजयी हो जाये , चूँकी विचार के द्वारा निर्णय होता था , इसलिये वही ठीक है ऐसा निश्चय किया जाता था । जैसे कोई बहुत बड़ा सेनाध्यक्ष हो और उसकी किसी सैन्य व्युहरचना मेँ कोई खराबी आ जाने से वह बड़ा भारी युद्ध हार जाये तो उसके हृदय मेँ बड़ी चोट लगती है कि " मैँने अपने देश को अपनी गलती से खराब कर दिया " , इसी प्रकार धर्म के आचार्य का शास्त्र और बुद्धि ही सैन्यव्युह है , उसमेँ कोई विरोधी जीत जाये तो उसके मन मेँ भी होता है कि " मैँने अपने धर्म को अपनी बेवकूफी से नष्ट कर दिया है । " उसे हृदय मेँ कसक होती है । लेकिन जिसके हृदय मेँ यह कसक नहीँ होती , देश प्रेम नहीँ होता है , वह व्याख्या दिया करता है कि मैँ अमुक - अमुक कारणोँ से हार गया । इसी प्रकार जहाँ धर्म के प्रति कसक नहीँ होती , वह बैठकर बातेँ करता है कि हिन्दुस्तान के हिन्दु धर्म के पतन का क्या कारण है । कोई कहेगा छुआछूत कारण है , कोई कहेगा कि गरीबोँ की मदत नहीँ करते यह कारण है । ये सब बाते तो करेँगे लेकिन स्वयं कोई कदम नहीँ उठायेँगे । यदि मानते हैँ कि छुआछूत कारण है तो आपने उसे हटाने के लिये क्या किया है ? यदि आप मानते हो कि गरीबोँ के प्रति हमारी दृष्टि नहीँ थी तो उसके लिये क्या आपने अपनी आमदनी का आधा रुपया निकालकर मदत करने के लिये दे दिया ? जैसे देशद्रोही सेनाध्यक्ष ऐसे ही धर्म - द्रोही विद्वान भी हुआ करते हैँ । लेकिन श्रीहर्ष के पिता ऐसे नहीँ थे । उन्हेँ इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि वेदान्त धर्म , अद्वैतवाद की जगह अब द्वैती जीतेँगे । उदयनाचार्य वहाँ सभापण्डित बन गया । घर वापिस आकर श्रीहर्ष के पिता के मन मेँ इतना दुःख हुआ कि सप्ताह भर मे उनका शरीर छूट गया । उनका दो साल का पूत्र था । मरने से पहले अपनी पत्नी से कहा कि " मैँ तो वह दिन नहीँ देखूँगा , क्योँकि मेरे से अब सहन नहीँ होगा , लेकिन मेरे पुत्र को तुम अच्छी तरह तैयार करना । मैँ तेरे को वह मन्त्र बता जाता हूँ , पाँच वर्ष की उम्र मेँ इसका उपनयन करा देना और उसी दिन इस मन्त्र को इसे देकर इसे किसी शव पर बैठाना । शव पर बैठकर रात भर यह इस मंत्र का जप करता रहे तो इसे वाक् सिद्धि हो जायेगी और यह फिर वेदान्त - ध्वज को ऊँचा करेगा । वे तो उसी दिन मर गये ।
तीन साल बाद श्रीहर्ष पाँच साल का हो गया । माँ सोचने लगी कि " मैँ इसे शव पर कैसे बैठाऊँ ? यदि बैठा भी दिया तो इसे डर लगेगा । " लेकिन पति की आज्ञा थी कि जिस दिन उपनयन हो , उसी दिन यह भी कार्य करना । वह भी पूर्ण धर्मनिष्ठा वाली थी क्योँकि ऐसे पति की पत्नी थी । " हे मेरे नारायण ! " उसने जहर खा लिया और श्रीहर्ष को अपनी छाती पर बैठाकर कहा कि " रात भर इस मन्त्र का जप करते रहधा । " बेटे को इस बात का क्या पता था , वह तो माँ की छाती पर बैठा था , थोड़ी देर मेँ वह मर गई और वह रात्री भर जप करता रहा । प्रातःकाल चार बजे " भगवती वाणी " { श्रीमाता वाग्देवी } ने दर्शन दिया और बड़े प्रेम से स्पर्श करके कहा " बेटा क्या चाहिये ? " श्रीहर्ष ने कहा " मुझे पता नहीँ माँ से पूछो । " भगवती वाणी की आँख से पानी आ गया , कहा " अब तेरी माँ नहीँ रही । आज से " श्रुति " ही तेरी माता है । श्रुति का कोई मन्त्र ऐसा नहीँ होगा जो तुमको उपस्थित नहीँ होगा । " भगवती ने यह वर दिया , कहा कि " अब तुम सीधे कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ जाकर उदयनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करना । मैँ ही तेरी वाणी पर बैठकर शास्त्रार्थ करूँगी । " भगवती के स्पर्श से उसके हृदय मेँ विद्या का प्रादुर्भाव हुआ । वहाँ से गया और जाकर राजा के द्वारपाल से कहा कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ , राजा को खबर कर दो । " द्वारपाल हँस पड़ा और बच्चे को प्यार करने लगा जैसे छोटे बच्चे को करते हैँ । श्रीहर्ष ने कहा " मैँ ऐसे ही बात नहीँ कर रहा हूँ । " द्वारपाल श्रीहर्ष को लेकर राजा के पास पहुँचे और राजा ने देखा कि सुन्दर लड़का है , यज्ञोपवीत धारण किये हुये , भस्म लगा हुआ है । द्वारपाल ने राजा से कहा कि यह कहता है कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ । श्रीहर्ष झट से बोला " सभापण्डित नहीँ , उदयन से शास्त्रार्थ करूँगा ! मैँ उसे सभापण्डित नहीँ मानता । वह तो मैँ उसे शास्त्रार्थ के बाद मानूँगा । " राजा ने कहा " तेरे को किसने बताया है ? " कहा " इन सब बातोँ मेँ कुछ नहीँ रखा , राजन ! इन्हेँ मेरे सामने बैठाओ , मैँ शास्त्रार्थ करूँगा । " श्रीहर्ष ने देववाणी संस्कृत मेँ जबाब दिया तो उदयनाचार्य भी कुछ घबराये कि यह छोटा - सा बच्चा कैसे बोलता है ! अगले दिन शास्त्रार्थ का समय तय हुआ । सब समझे कि यह कोई तमाशा होगा । लेकिन 28 दिनोँ तक शास्त्रार्थ हुआ । सब आश्चर्यचकित हो गये कि यह कैसा लड़का है । श्रीहर्ष ने उदयन को शास्त्रार्थ मेँ हरा दिया और वेदान्त की ध्वजा फहराया । तब उसने बताया " मेरे पिता अमुक थे । तुने उनका अपमान किया , इसलिये मैँने यह किया । मुझे तुमसे कोई द्वेष नहीँ है । " फिर उन्होने वेदान्त - ग्रन्थोँ और अन्य ग्रन्थो की रचना की। साहित्य का ग्रन्थ उन्होँने पहले - पहले लिखना शुरु किया तो अपने मामा , जो साहित्य के बड़े विद्वान थे , उन्हेँ अपना ग्रन्थ दिखाया । मामा जी ग्रन्थ को देगर पहले तो बड़े प्रसन्न हुए और फिर रोने लगे ! श्रीहर्ष ने पृछा तो कहा " मेरे काल मेँ मेरा भांजा इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा वाला उत्पन्न हुआ इससे मेरे को बड़ी प्रसन्नता हुई और रोया इसलिये कि तेरी किताब बाँचेगा कौन ? मेरे जैसा साहित्य - मीमांसक एक - एक श्लोक को पचास - साठ बार पढ़ता है तो समझ मेँ आता है । बाकी कौन ऐसा है जो तेरी किताब बाँचेगा । इसलिये मुझे दुःख हुआ । उनके " खण्डनखण्डखाद्य " ग्रन्थ को समझना महान् कठिन है । आज भी इस महान् ग्रन्थ पर किसी भी विद्वान ने अपना टीका नहीँ लिख सके ।
माँ भारती सपुत को शत - शत प्रणाम करता हूँ ।

८ सितम्बर २०१८ 

आध्यात्मिक दृष्टि से तप क्या है? ध्यान हम क्यों करते हैं? परमात्मा को क्या चाहिए? ....

आध्यात्मिक दृष्टि से तप क्या है? ध्यान हम क्यों करते हैं? परमात्मा को क्या चाहिए? ....
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परमात्मा के पास सब कुछ है, उनका कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे निरंतर कर्मशील हैं| एक माइक्रो सेकंड (एक क्षण का दस लाखवाँ भाग) के लिए भी वे निष्क्रिय नहीं हैं| उनका कोई भी काम खुद के लिए नहीं है, अपनी सृष्टि के लिए वे निरंतर कार्य कर रहे हैं| यही हमारा परम आदर्श है| हम भी उनकी तरह निरंतर समष्टि के कल्याण हेतु कार्य करते रहें, तो हम भी परमात्मा के साथ एक हो जायेंगे| समष्टि के कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ ध्यान, ध्यान, और ध्यान| ध्यान हम स्वयं के लिए नहीं अपितु सर्वस्व के कल्याण के लिए करते हैं| परमात्मा को पाने का जो सर्वश्रेष्ठ मार्ग मुझे दिखाई देता है, वह है ... "पूर्ण प्रेम सहित परमात्मा का निरंतर ध्यान"|
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आध्यात्मिक दृष्टि से हमारी कोई भी कामना नहीं होनी चाहिये|
भगवान कहते हैं .....
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन| नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि||३:२२|
अर्थात् हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ|
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स्वयं के लिए न कर के जो भी काम हम समष्टि यानी परमात्मा के लिए करते हैं, वही तप है, वही सबसे बड़ी तपस्या है, और यह तपस्या ही हमारी सबसे बड़ी निधि है| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१८

हम शक्तिशाली बनें .....

जिस तरह के समाचार मिल रहे हैं, उनके अनुसार हमारी अस्मिता पर खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है| प्रश्न हमारे अस्तित्व का है अतः अपनी रक्षा करना भी हमारा धर्म है| इस संसार में शक्तिशाली की ही पूछ है, शक्तिहीन को सब सताते हैं| "क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो"|
(१) हम हर दृष्टी से शक्तिशाली बनने का प्रयास करते रहें|
(२) हम अपने धर्म का पालन यथासंभव पूर्ण रूप से करें|
(३) सरकार के नियंत्रण से से सभी हिन्दू मंदिरों का अधिकार बापस लेकर धर्माचार्यों द्वारा चुनी हुई संस्था के आधीन करें| हम हिन्दू लोग बड़ी श्रद्धा से मंदिरों को दान देते हैं जिनका दुरुपयोग सरकार द्वारा किया जाता है| मंदिरों के धन का उपयोग सिर्फ धर्म प्रचार के लिए ही होना चाहिए|
(४) निज विवेक के प्रकाश में सारे कार्य करे| भगवान हमारी रक्षा करेंगे |
कृपा शंकर 
७ सितम्बर २०१८ 

भूख लगने पर स्वयं को ही भोजन करना पड़ता है .....

भूख लगने पर स्वयं को ही भोजन करना पड़ता है, दूसरों द्वारा किये गए भोजन से खुद का पेट नहीं भरता .....
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एक बार एक ऐसी संस्था में जाने का काम पड़ा जहाँ के निवासी दिन-रात वहाँ की सेवा का कार्य करते रहते, पर स्वयं कोई साधना नहीं करते थे| मैंने इस बारे में उनसे पूछा तो उत्तर मिला कि हमारे गुरूजी ने बहुत तपस्या की, परमात्मा का साक्षात्कार किया, अब हमें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; हम उनका कार्य कर रहे हैं, वे ही हमें परमात्मा का साक्षात्कार करा देंगे|
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कुछ सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि परमात्मा के एक ही पुत्र है, या एक ही पैगम्बर है, सिर्फ उसी में विश्वास रखो तभी स्वर्ग मिलेगा, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि में झोंक दिए जाओगे| उनका अंतिम लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति ही है, जिसके लिए सिर्फ विश्वास ही करना है| कुछ सम्प्रदाय या समूह कहते हैं कि हमारे फलाँ फलाँ गुरु महाराज ही सच्चे और पूर्ण गुरु हैं, उन्हीं में आस्था रखो, उन्हीं की बात मानो, तभी बेड़ा पार होगा, अन्यथा नहीं| उन लोगों की दृष्टी में दूसरे गुरु सच्चे और पूर्ण गुरु नहीं हैं|
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मुझे तो उपरोक्त बातें कुछ जँचती नहीं हैं| कुछ लोग तो मिलने पर गले ही पड़ जाते हैं, समझाने से भी जाते नहीं हैं| फिर एक और आश्चर्य और होता है कि हम लोग स्वयं भी दूसरों के पीछे पीछे मारे मारे फिरते हैं कि संभवतः उनके आशीर्वाद से हमें परमात्मा मिल जाएगा| मैं स्पष्ट रूप से मानता हूँ कि स्वयं का किया हुआ आत्म-साक्षात्कार ही काम का है, दूसरे का साक्षात्कार नहीं| यह बात भी समझ में आती है कि जिसने परमात्मा को जान लिया उसे किसी का भय नहीं हो सकता| विराट तत्व को जानने से स्थूल का भय, और हिरण्यगर्भ को जानने से सूक्ष्म का भय नहीं रहता है
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किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध महात्मा के सान्निध्य में पूर्ण विनय के साथ उपनिषदों व गीता का स्वाध्याय करने और साधना करने से सारे संदेह दूर हो सकते हैं पर हमारे शिष्यत्व में कमी नहीं होनी चाहिए| भगवान परम शिव हमारा निरंतर कल्याण कर रहे हैं| साधना तो हमें स्वयं को ही करनी होगी, इसमें कोई पतली गली नहीं है| आप सब को सादर नमन !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ सितम्बर २०१८

(पुनर्प्रस्तुत). राजस्थान के लोकदेवता गोगा जी .....

(पुनर्प्रस्तुत). राजस्थान के लोकदेवता गोगा जी ..... (August 20, 2014)
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वीर प्रसूता भारत माँ ने जैसे और जितने वीर उत्पन्न किये हैं वैसे पूरे विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं हुए| भारत का इतिहास सदा गौरवशाली रहा है| हजारों वर्षों के वैभव और समृद्धि के बाद पिछले एक हज़ार वर्षों का कालखंड कुछ खराब रहा जो हमारे ही सामूहिक बुरे कर्मों का फल था| वह समय ही खराब था जो निकल चुका है| पर इसमें कभी भी भारत ने पूर्णतः पराधीनता स्वीकार नहीं की और निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा| राजस्थान में अनेक वीरों को आज भी लोक देवता के रूप में पूजा जाता है| इनमें प्रमुख हैं ---- पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, हडबुजी और महाजी| इन सब ने धर्मरक्षार्थ बड़े भीषण युद्ध किये और कीर्ति अर्जित की|
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#गोगानवमी पर पूरे राजस्थान में घर घर में पकवान बनाए जाते हैं और मिट्टी से बनी गोगाजी की प्रतिमा को प्रसाद लगाकर रक्षाबन्धन पर बाँधी हुई राखियाँ व रक्षासूत्र खोलकर उन्हें चढाए जाते हैं|
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जब महमूद गजनवी सोमनाथ मंदिर का विध्वंश करने और लूटने जा रहा था तब राजपूताने में गोगाजी (गोगा राव चौहान) ने ही उसका रास्ता रोका था| उन्होंने उसके द्वारा भेजे गए हीरे जवाहरातों के थाल पर ठोकर मार दी और अपनी छोटी सी सेना को युद्ध का आदेश दिया| इसका विवरण आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी कालजयी कृति "जय सोमनाथ" में भी किया है|
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घमासान युद्ध हुआ| गजनी की विशाल सेना के सामने उनकी छोटी सी सेना कहाँ टिकती| ९० वर्ष के वृद्ध गोगाजी ने अपने सभी पुत्रों, पौत्रों, भाइयों, भतीजों, भांजों व सभी संबंधियों सहित जन्मभूमि और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया| उनके परिवार की समस्त मातृशक्ति ने जीवित अग्नि में कूद कर जौहर किया ताकि विधर्मी उनकी देह को ना छू सकें|
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उनका एक पुत्र सज्जन बचकर सोमनाथ चला गया| मंदिर के विध्वंस के बाद जब गज़नवी की सेना लूट के माल के साथ बापस लौट रही थीं तब वह उनका मार्गदर्शक बन गया और उसकी सेना को मरुभूमि में ऐसा फँसाया कि गजनी के हजारो सिपाही प्यास से मर गए|
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जिस स्थान पर गोगाजी का शरीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं| यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है| इसके पास में ही गोरखटीला है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है| चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था|
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गोगाजी को गुरु गोरखनाथ जी से एक वरदान प्राप्त था अतः उन्हें सर्पों का देवता माना जाता है| आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है| गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है| लोकधारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है| भादवा माह के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है| नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है।
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चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी सर्वाधिक वीर और ख्याति प्राप्त राजा हुए| गोगाजी का राज्य सतलुज से हांसी (हरियाणा) तक था। ये गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म भी गुरु गोरखनाथ के वरदान से हुआ था| विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।
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भारत में एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की और सही इतिहास पढाये जाने की आवश्यकता है| हमें हमारा गौरवशाली इतिहास नहीं पढ़ाया जाता, सिर्फ पराधीनता की दास्ताँ पढाई जाती है| हमें वो ही इतिहास पढ़ाया जाता है जिसे हमारे शत्रुओं ने हमें नीचा दिखाने के लिए लिखा था|
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जय हो भारतभूमि और सनातन धर्म, जिसने ऐसे वीरों को जन्म दिया|
जय जननी जय भारत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अगस्त २०१४
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पुनश्चः :---
(१) दुर्दांत लुटेरे महमूद गज़नवी की सेना में चार लाख से अधिक सैनिक थे जिनमें हज़ारों घुड़सवार और ऊँटसवार थे| वह अफगानिस्तान, फारस और मध्य एशिया के सारे लुच्चे-लफंगों, चोर-बदमाशों और लुटेरों को अपनी सेना में भर्ती कर के ले आया था| उसकी सेना वैतनिक नहीं थी| वह अपने सिपाहियों को यह लालच देकर लाया था कि हिन्दुस्थान में खूब धन है जिसे लूटना है| लूट के माल का पाँचवाँ हिस्सा उन का और बाकी बादशाह का| साथ साथ यह भी छूट थी कि जितने हिन्दुओं की ह्त्या करोगे उतना पुण्य मिलेगा, और हिन्दुओं की ह्त्या कर के उनकी स्त्रियों का बलात्कार और अपहरण चाहे जितना करो| वे अपहृत महिलाएँ भी अपहरणकर्ताओं की संपत्ति रहेगी|
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(२) आक्रमण से पहिले उसने सूफी संतों के वेश में अपने सैंकड़ों जासूसों को भारत में भेजा जिहोनें आक्रमण की भूमिका बनाई, पूरे रास्ते के नक़्शे बनाए, वे सारे स्थान चिन्हित किये जहाँ जहाँ से धन, सिपाहियों के लिये खाद्यान्न और जानवरों के लिए चारा मिलेगा| आक्रमण के मार्ग में जगह जगह उन्होंने दरगाहें बनाईं और वे सारे स्थान चिन्हित किये जहाँ आक्रमण से लाभ होगा| भोले-भाले हिन्दुओं ने "अतिथि देवो भवः" मानकर उन जासूसों का साधू-संत मान कर स्वागत किया| महमूद गज़नवी का मुख्य जासूस अलबरुनी था| उसी ने गज़नवी को भारत को लूटने और सोमनाथ मंदिर के विध्वंश के लिए प्रेरित किया था| उसी ने सोमनाथ के विध्वंशित ढाँचे पर नमाज़ पढवाई थी| उसी के नेतृत्व में तथाकथित सूफी संतों ने पूरे भारत का भौगोलिक व सांस्कृतिक अध्ययन किया था कि किस मार्ग से आक्रमणकारी सेना को जाना है, कहाँ कहाँ लूटपाट करनी है और किस किस का वध करना है, हिन्दुओं की कौन कौन सी कमजोरियां हैं, कैसे हिन्दुओं को मुर्ख बनाकर लूटा जा सकता है आदि आदि | रास्ते में जगह जगह दरगाहों के रूप में अपने अड्डे बना दिए जो उसके जासूसों और स्वागतकर्ता मार्गदर्शकों से भरे हुए थे| रास्ते में उसकी सेना के लिए रसद आदि की व्यवस्था भी उन लोगों ने कर रखी थी| भारत ने उन दुष्ट जासूस सूफियों को संत मानकर उनकी अतिथि सेवा की जो हमारी सद्गुण विकृति थी| अजमेर के राजा का गजनी की सेना सामना नहीं कर पाई| अजमेर के राजा को कहा कि बस, अब हम और नहीं लड़ेंगे, व वचन दिया कि हम बापस चले जायेंगे| बापस जाने की बजाये उसकी सेना वहीं आसपास छिप गयी और जब अजमेर की सेनाएँ सायंकालीन पूजापाठ और संध्या में व्यस्त थीं तब अचानक धोखे से आक्रमण कर अजमेर के राजा को सेना सहित मार दिया| इससे पूर्व राजपूताने में ही गोगा राव चौहान की सेना ने मरते दम तक युद्ध कर महमूद के दांत खट्टे कर दिए थे| वह छल कपट और अधर्म से लड़ता हुआ आगे बढ़ता रहा| हिन्दुओं ने धर्म युद्ध लड़े जैसे शरणागत की रक्षा व आमने सामने ही लड़ना आदि| पर आक्रमणकारी असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ थे जिन्होंने युद्ध जीते तो सिर्फ अधर्म से ही|
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(३) गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य, जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गा गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है। गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा|
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(४) इनके अतुलित शौर्य व पराक्रम को देख कर गजनवी ने इन्हें जाहरपीर या कहा था| यह जाहरपीर शब्द अपभ्रंस होकर जाहरवीर हो गया|

परम आस्था व भक्तिभाव से भरी बाबा मालकेतु की २४ कौसीय परिक्रमा :-----

परम आस्था व भक्तिभाव से भरी बाबा मालकेतु की २४ कौसीय परिक्रमा :-----
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यह राजस्थान राज्य में होने वाली सबसे बड़ी धार्मिक परिक्रमा है जो लोहार्गल तीर्थ से ठाकुर जी की पालकी के साथ वैष्णव साधू-संतों के नेतृत्व में भाद्रपद कृष्ण नवमी (गोगा नवमी) को आरम्भ होकर क्षेत्र के सभी तीर्थों से होती हुई सातवें दिन अमावस्या को बापस लोहार्गल में आकर समाप्त हो जाती है| परिक्रमा हेतु २४ कोस पैदल ही चलना पड़ता है| परिक्रमा के पश्चात श्रद्धालु सूर्यकुंड में स्नान कर अपने अपने घरों को बापस लौट जाते हैं|
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मालकेतु पर्वत (१०५० मीटर ऊँचाई) अरावली पर्वतमाला में राजस्थान के झुंझुनूं जिले में विश्व प्रसिद्ध लोहार्गल तीर्थ में है| यह झुंझुनू से ७० की.मी.दूर उदयपुरवाटी कस्बे के पास नवलगढ़ तहसील में है| यह पूरा क्षेत्र एक तपोभूमि है जहाँ अनगिनत साधू-संतों ने तपस्या की है| अभी भी अनेक साधू-संत उस क्षेत्र में तपस्यारत मिल जायेंगे| अनेक प्राचीन मंदिर यहाँ हैं| यह स्थान पांडवों की प्रायश्चित स्थली है| यहाँ के सूर्यकुंड में स्नान करते समय पांडवों के सारे अस्त्र-शस्त्र पानी में गल गए थे|
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स्थानीय भाषा में लोहार्गल शब्द अपभ्रंस होकर लुहागर हो गया है| भगवान परशुराम जी ने भी पश्चाताप के लिए यहाँ अपने पापों से मुक्ति के लिए यज्ञ किया था| पास ही में महात्मा चेतनदास जी द्वारा निर्माण करवाई हुई एक विशाल बावड़ी भी है| यहाँ का प्राचीन मुख्य मंदिर सूर्य मन्दिर है जिसके साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर भी है| कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है| पास ही में चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर बाबा मालकेतु जी का मंदिर है| मालकेतु पर्वत को बाबा मालकेतु के रूप में पूजा जाता है| यह पर्वत एक सिद्ध स्थान हैं|
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प्राचीन काल में भगवान विष्णु के आशीर्वाद से यहाँ के पर्वतों से सात जलधाराएँ निकलीं ..... जो सूर्यकुंड, नागकुंड, खोरीकुंड, किरोड़ी, शाकम्भरी, टपकेश्वर महादेव, व शोभावती में गिरती हैं| भाद्रपद की गोगा नवमी से अमावस्या तक इन सातों धाराओं की पूजा की जाती है तथा सातों धाराओं के चारों ओर २४ कोसीय परिक्रमा लगाई जाती है|
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इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है| भक्तों का यहाँ वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है| यहाँ समय समय पर विभिन्न धार्मिक अवसरों जैसे ग्रहण, सोमवती अमावस्या आदि पर मेला लगता है| श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं| यहाँ प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है| पर भादवे में गोगा नवमी से अमावस्या तक होने वाली २४ कोसीय परिक्रमा का महत्त्व सबसे अधिक है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ सितम्बर २०१८

यह नर देह भवसागर पार कराने वाली एक नौका है ....

रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है| यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है|
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||
(यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं|)
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
(जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है|)
अतः भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है|
३ सितम्बर २०१८ 

मेरी आयु और मेरा जन्मदिवस >>>>>

मेरी आयु और मेरा जन्मदिवस >>>>>
मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ जिसकी आयु अनंतता है| अहं से बोध्य आत्मा कालचक्र और आयुगणना से परे नित्य है| पता नहीं मैनें अब तक कितनी देहों में जन्म लिया है और कितनी देहों में मृत्यु को प्राप्त हुआ हूँ| परमात्मा ने कृपा कर के मुझे पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ नहीं दीं और इस जन्म में भी भूलने की आदत डाल दी, अन्यथा निरंतर एक पीड़ा बनी रहती|
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वर्तमान में मैं जिस देह रुपी वाहन पर यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह वाहन भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद अमावस्या को, और ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार ०३ सितम्बर को अपने वर्तमान लौकिक जीवन के ७० वर्ष पूरे कर लेगा|
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इस देह का जन्म ०३ सितम्बर १९४८ को राजस्थान के झूँझणु नाम के एक कस्बे के मुद्गल गौत्रीय गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था| (वर्तमान में इस कस्बे का नाम अपभ्रंस होकर झुंझुनूं हो गया है| इस कसबे को शताब्दियों पूर्व एक वीर योद्धा झुझार सिंह जाट ने बसाया था, क्योंकि यह स्थान अरावली की पहाड़ियों से लगा हुआ और मरुभूमि के मध्य में होने से युद्ध और किलेबंदी के लिए बहुत उपयुक्त था)| हमारे पूर्वज दो सौ वर्षों से भी बहुत पहिले हरियाणा के बावल नाम के कस्बे से यहाँ आकर बसे थे|
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विगत जीवनक्रम एक स्वप्न सा लगता है और अनंत कालखंड में यह समस्त जीवन एक स्वप्न मात्र बनकर ही रह जाएगा| परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा अस्तित्व है और उसका दिव्य प्रेम ही हमारा आनन्द| इस आनंद के साथ हमारा अस्तित्व सदा बना रहे, और हम तीव्र गति से "निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" की ओर प्रगतिशील हों|
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आप सब दिव्यात्माओं को प्रणाम करता हूँ| आप सब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं अपने मार्ग पर सतत चलता रहूँ और कभी भटकूँ नहीं| जय श्रीराम !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ सितम्बर २०१८

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति .....

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति .....
आज से ७३ वर्ष पूर्व २ सितम्बर १९४५ को द्वितीय विश्व युद्ध, जापान के आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ था| इस युद्ध का आरम्भ १ सितम्बर १९३९ को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ हुआ था| यह युद्ध ६ वर्षों तक चला और इसमें ६ से ७ करोड़ के लगभग लोग मारे गए थे| इस युद्ध के बारे में वर्षों पूर्व मैंने काफी अध्ययन किया था|
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अंग्रेजों ने यह तथ्य छिपाया था पर सत्य तो यह है कि भारत के लाखों सिपाही इस युद्ध में मारे गए थे| अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों का उपयोग युद्ध में चारे के रूप में किया जिसमें आग में ईंधन की तरह मरने के लिए लाखों भारतीयों को झोंक दिया गया था| बर्मा के क्षेत्र में तो हज़ारों भारतीय सिपाहियों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया गया था, उनका राशन यूरोप भेज दिया गया|
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लगभग ६१ देशों की सेनाएँ इस युद्ध में शामिल हुईं थीं| भारत तो अंग्रेजों का गुलाम था अतः भारतीय सिपाहियों का लड़ना उनकी मजबूरी थी| इस युद्ध लड़ने वाले दो भागों में बंटे हुए थे .... मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र| लड़ने वाले देशों ने अपनी सारी आर्थिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में झोंक दी थी|
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इस युद्ध में अंग्रेजों की कमर टूट गयी थी जिसके परिणाम स्वरुप भारत को स्वतन्त्रता मिली| संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना भी इस युद्ध के बाद ही हुई|
कृपा शंकर 
२ सितम्बर २०१८ 

बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन कैसे लाएँ ? .....

बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन कैसे लाएँ ? .....
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बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन किसी आलोचना या निंदा से नहीं आयेगा| उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर अपनी सोच में और अपनी चेतना में सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा| भीतर की पूर्णता से ही बाहर की पूर्णता आयेगी| भीतर के विकास से ही बाहर का विकास होगा| निज आत्मा की पूर्णता ही बाहरी विश्व की पूर्णता है|
पूर्णता सिर्फ परमात्मा में है | स्वयं में पूर्णता सिर्फ परमात्मा के ध्यान से ही आ सकती है| ध्यान भी तभी होगा जब परमात्मा के प्रति हमारे ह्रदय में परम प्रेम होगा| सबसे बड़ी सेवा हम अव्यक्त ब्रह्म को स्वयं में व्यक्त कर के ही कर सकते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ सितम्बर २०१८

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>
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अंतर्रात्मा की घोर व्याकुलता और तड़फ ...... वास्तव में परमात्मा के लिए ही होती है | हमारा अहंकार ही हमें परमात्मा से दूर ले जाता है | हमारी अंतर्रात्मा जो हमारा वास्तविक अस्तित्व है को आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के ध्यान में ही आता है | हमारी खिन्नता का कारण अहंकारवश अन्य विषयों की ओर चले जाना है | वास्तविक सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं |
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जितनी दीर्घ अवधी तक गहराई के साथ हम ध्यान करेंगे, उसी अनुपात में उतनी ही आध्यात्मिक प्रगति होगी | मात्र पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्टि नहीं मिल सकती | पुस्तकों को पढने से प्रेरणा मिलती है, यही उनका एकमात्र लाभ है |
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जिसे उपलब्ध होने के लिए ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, चैतन्य में जिसके अभाव में ही यह सारी तड़प और वेदना है, वह परमात्मा ही है | जानने और समझने योग्य भी एक ही विषय है, जिसे जानने के पश्चात सब कुछ जाना जा सकता है, जिसे जानने पर हम सर्वविद् हो सकते हैं, जिसे पाने पर परम शान्ति, परम संतोष व संतुष्टि प्राप्त हो सकती है, वह है ... परमात्मा |
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जिससे इस सृष्टि का उद्भव, स्थिति और संहार यानि लय होता है .... वह परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही है जो सभी रूपों में व्यक्त हो रहा है | जो कुछ भी दिखाई दे रहा है या जो कुछ भी है, वह परमात्मा ही है | परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है | इसकी अनुभूति गहन ध्यान में ही होती है, बुद्धि से नहीं | परमात्मा अनुभव गम्य है, बुद्धि गम्य नहीं |
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सारी पूर्णता, समस्त अनंतता और सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा ही है | उस परमात्मा को हम चैतन्य रूप में प्राप्त हों, उसके साथ एक हों | उस परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१६