Tuesday 28 September 2021

अब उनकी ओर निहारें या उनके बारे में लिखें? ---

 

अब उनकी ओर निहारें या उनके बारे में लिखें?
फेसबुक पर जो कुछ जैसा भी मुझे आता-जाता है, वैसे ही लेख लिखता आ रहा हूँ| वही लिखा जिस को लिखने की प्रेरणा मिली| भगवान के प्रेम पर तो लिखना अब अति कठिन है क्योंकि अब उनकी ओर निहारें या उनके बारे में लिखें?
सारी भागदौड़ और दूसरों के पीछे भागना बंद हो गया है| जहाँ भी मैं हूँ, वहीं हर समय भगवान मेरे साथ हैं| जीवन में तृप्ति, संतुष्टि और आनंद है| सभी सत्संगी मित्रों को धन्यवाद, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा और जिन्होंने मुझे खूब प्रोत्साहन और साथ दिया| समय समय पर फेसबुक पर आता रहूँगा|
"चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||" "हरिः ॐ तत्सत् !!"
२९ सितंबर २०२०

अर्मेनिया और तुर्की सदा से ही एक दूसरे के कट्टर शत्रु रहे हैं ---

(दिनांक २९ सितंबर २०२० को लिखा लेख)

आज अभी कुछ देर पहिले एक टीवी चैनल पर समाचार देखा कि तुर्की को प्रसन्न करने के लिए पाकिस्तान, आर्मेनिया से लड़ने के लिए अपने सैनिक और जिहादी आतंकियों को अज़रबेजान भेज रहा है| यह समाचार पढ़कर बड़ा अच्छा लगा| यह आज की सबसे अच्छी खबर थी| देखते हैं, पाकिस्तान वहाँ कौन सी तोप चलाता है?
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अर्मेनिया और तुर्की दोनों ही सदा से एक दूसरे के कट्टर शत्रु रहे हैं, वैसे ही जैसे तुर्की और ग्रीस| इसका एकमात्र कारण है अर्मेनिया का कट्टर ईसाई होना, व तुर्की का कट्टर सुन्नी मुसलमान होना| आर्मेनिया की राजधानी येरेवान बहुत प्राचीन नगर है, वेटिकन व रोम से भी अधिक प्राचीन| १६ वी सदी में पूर्वी आर्मेनिया फारस के अधिकार में आ गया था और पश्चिमी भाग तुर्की के अधिकार में| १९ वीं सदी में रूस ने आर्मेनिया को तुर्कों से मुक्त कराया| इस बीच तुर्कों ने लाखों अर्मेनियाई लोगों का नरसंहार किया| आर्मेनिया के कई लाख लोग विश्व के दूसरे भागों में शरणार्थी होकर भाग गए थे| अभी वहाँ की जनसंख्या मुश्किल से ३० लाख से भी कम है, जो सभी कट्टर ईसाई हैं| आर्मेनिया के पूर्व में अजरबेजान है, पश्चिम में तुर्की, उत्तर में रूस, और दक्षिण में ईरान|
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आज़रबेजान अग्निपूजक लोगों का देश था जो अग्नि को देवता मानते थे| वहाँ की खुदाई में हिन्दू देवो-देवताओं की मूर्तियाँ भी निकलती हैं| फारसियों ने वहाँ के अग्निपूजकों को मारकर अधिकांश को मुसलमान बना दिया, व अन्यों को भगा दिया| अब वहाँ ८५% शिया और १५% सुन्नी मुसलमान हैं| वहाँ की कुल जनसंख्या ९९ लाख से भी कम है|
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सोवियत संघ के विघटन तक दोनों देश सोवियत संघ के भाग थे| कोई विवाद नहीं था| स्टालिन के आदेश से नगोरना-काराबाख का ईसाई बहुल क्षेत्र आज़रबेजान को दे दिया गया था| सोवियत संघ के विघटन के बाद नगोरना-काराबाख के ईसाईयों ने विद्रोह कर स्वयं को आर्मेनिया का भाग घोषित कर दिया| यही वहाँ के युद्ध का कारण है| एक बात तो निश्चित है कि रूस कभी भी किसी कीमत पर आर्मेनिया को नहीं हारने देगा|
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तुर्की ने मुस्लिम विश्व का नेता बनने के चक्कर में यह युद्ध आरंभ किया है, जिसमें उसकी पराजय निश्चित है| मुस्लिम देश कभी एक नहीं हो सकते| तुर्क और अरब ... एक-दूसरे की शक्ल भी देखना भी पसंद नहीं करते| शिया और सुन्नियों के बीच में तो एक स्थायी दीवार खिंच गई है| पाकिस्तान अब मुस्लिम विश्व का नेता बनना चाहता है क्योंकि वह स्वयं को अणुबम होने के कारण सबसे अधिक शक्तिशाली मुस्लिम देश मानता है|
२९ सितंबर २०२१

"श्रद्धा" और "व्रत" क्या हैं? ---

 

"श्रद्धा" और "व्रत" क्या हैं?
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जीवन में जैसी हमारी "श्रद्धा" है, वही हम हैं| जैसी हमारी "श्रद्धा" होती हैं वैसे ही हम बन जाते हैं| गीता में भगवान कहते हैं ...
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है||
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हमारे ऊपर जैसे संस्कार बार-बार डाले जाते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं| "श्रद्धा" का निर्माण "व्र्त" से होता है| "व्रत" का अर्थ भूखा रहना नहीं है| किसी नियम या विचार का वरण कर के उस पर स्थिर रहने का नाम "व्रत" है| जो हम बनना चाहते हैं, उसके संस्कार डालने पड़ेंगे, बार - बार उसको दोहराना पड़ेगा| यही वास्तविक "श्रद्धा" है और यही वास्तविक "व्रत" है|
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जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं| जो भी भाव गहराई से ह्रदय में बैठ जाता है, प्रकृति वैसा ही हमें बना देती है| जो और जैसे भी हम बनना चाहते हैं ह्रदय में गहराई से उसी का चिंतन करते हुए उस पर दृढ़ रहना चाहिए, हम निश्चित रूप से वह ही बन जायेंगे|
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उपास्य यानि परमात्मा के जिन गुणों का हम चिंतन करते हैं वे गुण निश्चित रूप से उपासक में आ जाते हैं| परमात्मा का निरंतर चिंतन करने से निश्चित रूप से हम मानवीय चेतना से मुक्त हो कर परमात्मा से जुड़ जाते हैं| यही अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होना है, यही मुक्ति है| इसी के लिए ध्यान साधना की जाती है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२०

Sunday 26 September 2021

भारत का उत्थान और सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण ---

(१) हमारे निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो।
(२) सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो।
(३) भारत में व्याप्त असत्य के अंधकार का पूरी तरह पराभव हो, और भारत एक सत्यनिष्ठ, धर्मसापेक्ष, अखंड हिन्दू-राष्ट्र बने, जहाँ की राजनीति सत्य-सनातन-धर्म हो।
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हिन्दुत्व क्या है? -- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जिसका लक्ष्य जीवन में भगवत्-प्राप्ति है। वह प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है जिसके हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम है, जिसका आचरण सत्यनिष्ठ है और जो निज जीवन में भगवान को प्राप्त करना चाहता है; चाहे वह इस पृथ्वी पर कहीं भी रहता हो। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफल, पुनर्जन्म, भक्ति, आध्यात्म और ईश्वर की उपासना -- ये ही सनातन सिद्धान्त हैं, जिनसे यह सृष्टि चल रही है।
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इन्हीं उद्देश्यों के लिए हमारी आध्यात्मिक साधना है, जिसके लिए परमात्मा से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है। इसके अतिरिक्त मुझ अभी तो इस समय और कुछ भी नहीं कहना है।
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मेरी रुचि सब ओर से सिमटकर एक ही बिन्दु पर आ गई है, और वह है भारत का उत्थान और सनातन धर्म का वैश्वीकरण। किसी व्यक्ति विशेष में मेरी कोई रुचि नहीं है, और न ही मेरे पास किसी व्यक्ति विशेष के लिए समय है।
भगवान ने इसके लिए मार्गदर्शन भी किया है। साधना का जो मार्ग भगवान ने दिखाया है, उसे मेरे एक-दो घनिष्ठ सत्संगी मित्रों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं समझ सकता। एक-दो मित्र हैं जिनसे मैं कभी कभी संपर्क कर लेता हूँ। वे भी इसी पथ के अनुयायी हैं और भगवान को पूरी तरह समर्पित हैं। अब पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। इस विषय पर और अधिक कुछ लिखने की अनुमति भगवान से नहीं है। जैसा भी भगवान चाहेंगे, वैसा ही होगा। लेकिन हृदय में जो अभीप्सा की प्रचंड अग्नि जल रही है, उसे केवल भगवान ही तृप्त कर सकते हैं, और करेंगे भी।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२१

गुरुकृपा उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं ---

 

गुरुकृपा उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं; कोई भी साधना हो वह विधि-विधान से क्रमानुसार हो ---
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अपने प्रारब्ध कर्मों के अनुसार भगवान से जैसी भी और जो भी प्रेरणा मिले, वही साधना करनी चाहिए। महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय सभी को करना चाहिए। समझने की बौद्धिक क्षमता हो तो उपनिषदों का स्वाध्याय भी सभी करें। यदि वे समझ में नहीं आते हैं तो उन्हें छोड़ दीजिये, और यथासंभव वही साधना खूब करें, जिसकी प्रेरणा भगवान से मिल रही हो। आपको आनंद मिलता है, और प्रेम की अनुभूतियाँ होती है तो आप सही मार्ग पर चल रहे हैं।
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आजकल अनेक साधक अति उत्साहित होकर देवीअथर्वशीर्ष या सौन्दर्य-लहरी के स्वाध्याय के उपरांत अपने आप ही श्रीविद्या के मंत्र का जप करने लगते है। बिना दीक्षा लिए और बिना किसी अधिकृत आचार्य के मार्गदर्शन के श्रीविद्या के "पञ्च-दशाक्षरी" मंत्र का जप और साधना नहीं करनी चाहिए। इसका उल्टा असर भी पड़ सकता है, यानि लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इसका एक क्रम होता है, उसी क्रम में इसकी साधना होती है, जो किसी अधिकृत आचार्य से सीखें। आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) श्रीविद्या के उपासक थे। उनका ग्रंथ सौंदर्य-लहरी श्री-विद्या की साधना का अनुपम ग्रंथ है, जो तंत्र-आगमों की अमूल्य निधि है। आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम और उच्चतम दीक्षा होती है। जिसने श्रीविद्या की दीक्षा ले ली है, उसे अन्य किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है।
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योगमार्ग में "क्रियायोग" की दीक्षा उच्चतम होती है। क्रियायोग की साधना से कुंडलिनी जागरण होता है, इसके साधक को यम-नियमों का पालन अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि की संभावना अधिक है। (यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) (नियम= शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान)
यदि अच्छा आचरण नहीं कर सकते तो क्रियायोग की साधना न करें। यह उन्हीं के लिए है जिनका आचरण और विचार सही हैं, व परमात्मा को पाने की अभीप्सा है। क्रियायोग के भी क्रम हैं, इसकी साधना भी क्रमानुसार होती है जिन्हें किसी अधिकृत आचार्य से दीक्षा लेकर ही सीखें। क्रियायोग की सिद्धि गुरुकृपा से होती है। गुरुकृपा भी उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं।
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जीवन का सार भगवान की भक्ति में है। अपने हर दिन का आरंभ और समापन भगवान की भक्ति से करें, और हर समय उन्हें अपनी स्मृति में रखें।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२१

अब समय आ गया है, भारत की उन्नति को कोई नहीं रोक सकता ---

 

अब समय आ गया है, भारत की उन्नति को कोई नहीं रोक सकता। सनातन धर्म की चेतना भी पूनर्प्रतिष्ठित और विश्वव्यापी होगी। लेकिन उसके लिए पहले हमें स्वाध्याय, तप, अध्ययन और साधना द्वारा अपनी आध्यात्मिक चेतना, और उच्च स्तर के अपने बौद्धिक ज्ञान को बढ़ाना होगा।
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भड़काऊ नारों, रोने, छाती पीटने, आत्मनिंदा और दूसरों की आलोचना से कोई लाभ नहीं होगा। हमें अब स्वयं तप करना होगा, अध्ययन करना होगा, और उच्च स्तर के ज्ञान को प्राप्त करना होगा; तभी दूसरे लोग हमारे से प्रभावित होंगे। हमारे चिंतन का स्तर उच्च होगा तो शीघ्रता से सब लोग हमारी ओर खिंचे चले आयेंगे। हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होंगे तो तो अगले चार-पाँच दशकों में पूरा ईसाई जगत -- सनातन धर्म को अपना लेगा। यह मैं स्वानुभूति से कह रहा हूँ।
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सनातन धर्म के विचार सम्पूर्ण मानवता के लिए हैं, किसी व्यक्ति या समाज विशेष के लिए नहीं। यूरोप, अमेरिका और सम्पूर्ण विश्व का कल्याण -- सनातन-धर्म के सिद्धांतों से ही हो सकता है। हमारी चेतना और चिंतन का स्तर उच्चतम हो, हीनता के बोध से हम मुक्त हों। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०२१

हम रो कर भुगतें या हँस कर, हमारे सारे कष्ट स्वयं हमारे ही कर्मों के फल हैं ---

 

हमारे सारे कष्ट स्वयं हमारे ही कर्मों के फल हैं, जिन्हें हम रो कर भुगतें या हँस कर। पूर्व जन्मों में हमने मुक्ति के उपाय नहीं किये इस लिये यह कष्टमय जन्म लेना पड़ा। इस दुःख से स्थायी मुक्ति पाने की चेष्टा करें। कोई भी पीड़ा स्थायी नहीं है, सिर्फ हमारे ह्रदय का प्रेम और आनंद ही स्थायी हैं। किसी भी तरह की जटिलता में न पड़ें, अपनी गुरु-परम्परानुसार भक्ति, श्रद्धा और निष्ठा से अपने अनुकूल जो भी हो वह साधना करें।
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अपने विचारों को परमात्मा पर केन्द्रित कर दीजिये। हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ही इस पीड़ा को भुगत रहे हैं। हमारे दुःख-सुख पाप-पुण्य सब उन्हीं के हैं। उन सच्चिदानंद भगवान परमशिव का कौन क्या बिगाड़ सकता है जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ। मृत्यु उसी की होती है जिसका जन्म होता है। हम उन परमात्मा के साथ अपनी चेतना को जोड़ें जो जन्म और मृत्यु से परे हैं। हम यह देह नहीं, शाश्वत अजर अमर चैतन्य आत्मा हैं।
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०२१

अब बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? भगवान ने मुझसे बापस छीन लिए हैं ---

 

अब बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? भगवान ने मुझसे बापस छीन लिए हैं ---
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मेरा इस शरीर में जन्म हुआ था सिर्फ अपने पूर्व जन्मों के कर्मफलों को भोगने के लिए, अन्य कोई प्रयोजन नहीं था। लेकिन भगवान ने अपनी महती कृपा कर के मुझे मुक्त होने का उपाय भी बता दिया, और पूरी छूट भी दे दी कि उसे मानो या न मानो। यह मेरे और भगवान के मध्य का निजी मामला है। भगवान से मुझे एक ही शिकायत थी कि उन्होने मुझे बहुत कम बुद्धि दी। जब मैंने उनसे यह शिकायत की तो उन्होने जो कुछ भी थोड़ी-बहुत बुद्धि दी थी, वह भी बापस छीन ली है। चलो पीछा छूटा, अब तो मन, अहंकार और चित्त भी भगवान ने छीन लिए हैं। अपना कहने को मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
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बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? वे भी भगवान ने मुझसे छीन लिए हैं। सिर पर पाप की एक बहुत भारी गठरी थी, जो अब भगवान के पास है, उनका सामान मुझे बापस नहीं चाहिए। कर्ता और भोक्ता अब तो भगवान स्वयं हो गए हैं। भगवान ने साफ साफ कहा है कि तुम दिन-रात मेरा चिंतन करो, तुम्हें सीधे यहीं बुला लूँगा, और बापस लौटने के सारे मार्ग भी बंद कर दूंगा।
बहुत सस्ता सौदा है। ठीक है, स्वीकार है। उनके लिए सब कुछ संभव है --
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
"मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥"
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नारायण नारायण !! इस संसार में पाप की एक बहुत भारी गठरी लेकर आए थे, जिसे भगवान ने बलात् छीन ली है। अब यह उन्हीं का सामान हो गया है, जो मुझे बापस नहीं चाहिए। हे प्रभु, आपको नमन है ---
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"स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌॥"
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जय हो प्रभु आप की जय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०२१

योगियों की दृष्टि में पिंडदान और श्राद्ध क्या है? ---

 

योगियों की दृष्टि में पिंडदान और श्राद्ध क्या है? ---
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हमारे सूक्ष्म शरीर के मूलाधार-चक्र में स्थित कुंडलिनी महाशक्ति ही पिंड, और सहस्त्रार-चक्र में अनुभूत कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म - "विष्णुपद" है। श्रद्धा से मैं इसे गुरु महाराज के चरण-कमल कहता हूँ। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है।
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गुरुकृपा से कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव में मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। सहस्त्रार से नीचे की ओर एक सूक्ष्म ज्योतिर्मयी धारा गिरती है जिसे पिण्डोदक क्रिया कहते है। जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं हूँ, तब मान लीजिये कि पिंडदान हो गया।
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यह एक गुरुमुखी विद्या है जो ब्रहमनिष्ठ सिद्ध गुरु द्वारा अपने शिष्य को प्रत्यक्ष रूप से अपने सामने बैठाकर सिखाई जाती है। इसे सद्गुरु की कृपा से ही समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं। यहाँ इसका वर्णन सिर्फ रुचि जागृत करने के लिए ही किया गया है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२२ सितंबर २०२१

भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है; भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं ---

 

भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है; भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं ---
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अधर्म से उपार्जित धन का दान, पुण्यदायी नहीं होता। असत्यवादन से दग्ध हुई वाणी से की हुई प्रार्थना, स्तुति और जप निष्फल होते हैं। भगवान उसी को प्राप्त होते हैं जिसे भगवान स्वयं स्वीकार कर लेते हैं। भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है। महत्व उनको पाने की घनीभूत अभीप्सा और भक्ति का है, अन्य किसी चीज का नहीं।
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं। एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते। जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है। इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं। भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं। भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - "जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥"
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भारत की जय हो, विजय हो। भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त करे और एक आध्यात्मिक सत्यनिष्ठ राष्ट्र बने। सब तरह के असत्य और अंधकार का नाश हो, धर्म की पुनर्स्थापना हो व सत्य की विजय हो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितंबर २०२१

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---

 

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---
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सन १७५७ ई. की बात है। परमवीर मराठा सेनापति रघुनाथ राव की सेना झाँसी में थी और वहाँ से बिहार, बंगाल और उड़ीसा को विधर्मियों से मुक्त कराने के लिए कूच करने वाली थी। प्रस्थान से पूर्व पंजाब से एक दूत आया और रघुनाथ राव से तुरंत मिलने की प्रार्थना की। दूत ने एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था कि हम पंजाब के नानक-पंथी हिन्दू आज अत्यंत ही दयनीय स्थिति में हैं। अहमदशाह अब्दाली ने एक फतवा निकाल रखा है कि किसी भी नानकपंथी या अन्य हिन्दू का सिर काट कर लाने वाले को १ रुपया प्रति सिर ईनाम में दिया जाएगा। अफगान सिपाही और स्थानीय मुस्लिम हमें घेरते हैं, हत्याएं करते हैं, और बैलगाड़ियों में सिर भरकर ले जाते हैं। हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका है, पवित्र सरोवर को काटी हुई गायों और मिट्टी से भर दिया गया है। हमारी रक्षा करने वाला कोई नहीं है, हमारा वंशनाश होने ही वाला है। यदि कोई हमें बचा सकता है तो वह श्रीमंत पेशवा बाजीराव का सुपुत्र रघुनाथराव ही है, --त्राहिमाम त्राहिमाम हमारी रक्षा करो।
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श्रीमंत सेनापति रघुनाथराव ने मराठा सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक भाग को उड़ीसा के मंदिरों को विधर्मी आतताइयों के अधिकार से मुक्त कराने के लिए भेज दिया, और स्वयं अपने साथ अपने तीन सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं - गोविंदजी पंत, मल्हारराव होल्कर और दत्ताजी सिंधिया को लेकर पंजाब के लिए के रवाना हो गया।
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पंजाब पूरी तरह विधर्मी आतताइयों के आधीन था। कभी तुर्क, कभी अफगान, कभी मुगल आते और नरसंहार कर के चले जाते। वीर माधोदास वैरागी नहीं रहे थे। अधिकांश पंजाबी हिंदुओं ने तलवार की नोक पर इस्लाम कबूल कर लिया था। जिन्होने इस्लाम नहीं कबूला वे जज़िया कर देकर जीवित थे। उनका भी अंत समय निकट था। पंजाब में कोई भी हिन्दू पूजा-स्थल नहीं बचा था। गुरु गोविन्द सिंह और उनके पूर्व गुरुओं द्वारा स्थापित एकमात्र धार्मिक स्थान हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका था। हरमंदिर साहब में नित्य गो-हत्या होती, और मस्सा रांगड़ नामक विधर्मी हत्यारा, मंदिर के गर्भगृह में वेश्याओं को नचवाता, नित्य नई हिन्दू कन्याओं का अपहरण करवाता और उनका बलात्कार करता। सभी ग्रामीण भागकर जंगलों में छिप गए थे, जहाँ अफगान सेना उनका शिकार करतीं। समर्थवान लोग राजपूताने के बीकानेर में शरणार्थी हो गए थे। ऐसे विकराल समय में सिर्फ मराठा वीर अपने सनातन धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे थे।
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मराठा श्रीमंत रधुनाथराव की सेना एक के बाद एक अफगान चौकियों को नष्ट करते हुए मात्र कुछ ही दिनों में पंजाब जा पहुंची, और बिना किसी विलंब के लाहोर और अमृतसर पर एक साथ भीषण आक्रमण कर दिया। मराठों का रौद्र रूप देख कर सारे अफगान मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। लाहोर और अमृतसर पर भगवा पताका फहरा दी गई। अहमदशाह अब्दाली का बेटा औरतों के कपड़े पहिन कर काबुल भाग गया। मराठा सेना ने अफगानों के सारे अस्त्र-शस्त्र और खजाना छीन लिया। दूसरे ही दिन मराठा सेना ने हरमंदर साहब को मुक्त करा कर आतताई मस्सा रांगड़ और उसके साथियों के सिर काट दिये, और सरोवर को पवित्र किया। मराठा सेना यहीं तक नहीं रुकी, अफगानिस्तान के अटक तक जाकर भगवा ध्वज फहराया और बापस लौट आई। हरमंदर साहब और पवित्र सरोवर के पुनर्निर्माण के लिए मराठों ने अफगानों से छीना हुआ धन दिया।
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इसके ठीक तीन वर्ष उपरांत बड़ा धोखा और विश्वासघात हुआ। शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो, भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई हुई जो एक धर्मयुद्ध थी। इसमें अधर्म की धर्म पर अस्थायी विजय हुई। जिन की रक्षा मराठों ने की थी, जिन के साथ उनकी संधियाँ हुई थीं, जो उनकी सहायता करने के लिए वचनबद्ध थे, उन्होने विश्वासघात किया और विजयश्री नहीं प्राप्त हुई। फिर भी मराठा योद्धाओं ने पीठ नहीं दिखाई और वीरों की तरह धर्मयुद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हुए। उस युद्ध में आहूत हुआ मराठा सेनापति भाऊ एक महान वीर था। उस युद्ध में मराठों की वीरता देखकर अहमदशाह अब्दाली इतना डर गया कि फिर उसका साहस नहीं हुआ मराठों से लड़ने का। मराठों की और टुकड़ियाँ आईं और उन्होने पूरे भारत से मुगलों की सत्ता को उखाड़ फेंका। यह तो भारत का समय ही खराब था कि अंग्रेजों के छल-कपट और धोखे से मराठों से सत्ता छिन गई और शासन पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। फिर भी भारत ने कभी पराजय स्वीकार नहीं की और सदा प्रतिरोध किया।
२० सितंबर २०२१

अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों से ली थी ---

 

मैंने भारत के इतिहास को कभी कभी जब भी अवसर मिला, अपनी बौद्धिक क्षमतानुसार विस्तार से पढ़ने का प्रयास किया है। दूसरे देशों -- तिब्बत, रूस, मध्य-एशिया, मंगोलिया और तुर्की के इतिहास में भी रुचि रही है। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) और खिलाफ़त (खलीफ़ाओं की हुकूमत) के बारे में भी काफी कुछ पढ़ा है। मुझे इस्तांबूल (तुर्की) में ऐतिहासिक आकर्षण के सबसे बड़े केंद्र सोफिया हागिया को भी देखने का अवसर मिला है। तुर्की के कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (१८८१-१९३८) के उस साक्षात्कार के बारे में भी पढ़ा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भारत पर ब्रिटिश काबिज नहीं होते तो गज़वा-ए-हिन्द यानी भारत पर इस्लामिक राज्य के रूप में तुर्की के खलीफा के शासन की स्थापना हो जाती।
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मैं कमाल पाशा का सम्मान करता हूँ, लेकिन उनका उपरोक्त वक्तव्य अज्ञान पर आधारित असत्य था। सत्य तो यह है कि अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों से ली थी।
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मराठों ने मुगल सत्ता को पूरी तरह परास्त कर के सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। कूटनीतिक कारणों से दिल्ली के लालकिले में नाममात्र के मुगल बादशाह को बैठाकर मराठे उसके संरक्षक बन गए थे। मराठा पेशवा यदि अंग्रेजों के छल-कपट के शिकार नहीं हुये होते तो पूरे भारत पर मराठों का हिंदवी साम्राज्य होता।
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पंजाब में पठानों से सिखों की प्राणरक्षा मराठा सेनाओं ने ही की, और मराठा सेना की सहायता से ही महाराजा रणजीतसिंह पंजाब के शासक बने थे।
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जयपुर के महाराजा ने खामखाँ (बिना किसी कारण के) मराठों का विरोध किया तो दौसा जिले में मनोहरपुरा के पास तुंगा नामक गाँव में जयपुर की सेना और मराठों के मध्य एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। बाद में सीकर जिले के पाटन नाम के गाँव के पास जयपुर व जोधपुर की संयुक्त सेनाओं के साथ मराठा सेना का युद्ध हुआ, जिसमें मराठा सेना विजयी रही। पाटन के किले पर मराठों ने अधिकार कर लिया। बाद में जयपुर पर भी मराठों ने अपना अधिकार कर लिया। जयपुर और जोधपुर के शासकों ने चौथ (एक-चौथाई खजाना) भेंट में देकर और माफी मांग कर मराठों को अपने यहाँ से विदा किया। मराठों की शत्रुता सिर्फ मुगलों और पठानों से थी, औरों से नहीं। वे औरों से लड़ना भी नहीं चाहते थे।
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औरंगजेब के मरने के बाद शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई में पेशवा की सेना को भारत के मुगलों की मदद से विदेशी अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली ने हरा दिया और दिल्ली के तख्त पर काबिज हो गया।
(इस विषय पर फिर कभी आऊँगा कि किस तरह मराठों ने प्रतिकार और बदला लिया। यहाँ मैं अपने मूल विषय से भटक गया हूँ, अतः बापस अपने मूल विषय पर आता हूँ)
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प्रथम विश्व युद्ध के समय जब अंग्रेजों से गैलिपोली की लड़ाई में तुर्की हार रहा था, तब तुर्की के खलीफा ने पूरी दुनिया के मुसलमानों के नाम एक मार्मिक अपील की थी कि सारी इस्लामिक उम्मत आकर मेरी सहायता करे। लेकिन खलीफा के आधीन रहे सऊदी अरब, सीरिया, जॉर्डन, बहरीन, कुवैत, लेबनान, मिश्र, मोरक्को आदि सभी देशों ने अंग्रेजों का साथ दिया। किसी भी इस्लामी देश ने खलीफा का समर्थन नहीं किया।
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लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा के लिए आंदोलन करने लगे जिसे खिलाफत आंदोलन कहते हैं। यह आंदोलन भारत की आजादी के लिए नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा को बापस अपनी गद्दी पर बैठाने के लिए था। इसी खिलाफत आंदोलन की आड़ में केरल में मोपला मुस्लिमों ने दस-पंद्रह हजार हिंदुओं की हत्या कर दी, क्योंकि अंग्रेजों का तो वे कुछ भी बिगाड़ने में असमर्थ थे। अतः निरीह हिंदुओं को मारकर ही उन्होने खलीफा की हार का बदला लिया।
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उत्तर प्रदेश (उस समय यूनाइटेड प्रोविन्स) से हजारों कट्टर सुन्नी मुसलमानों ने एक फौज बनाई और अफगानिस्तान के रास्ते तुर्की पहुँच कर, खलीफा की सहायता करने का निर्णय लिया। वे अपने हथियारों, धन और परिवारों के साथ अफगानिस्तान पहुंचे। रात के समय अफगान कबीलों के लड़ाकू डकैतों ने आकर उस खलीफा-समर्थक सेना से उनके धन और औरतों को छीन लिया, और सभी आदमियों के गले काट दिये। यह हाल हुआ भारत की इस्लामिक उम्मत का। यहाँ गले काटने वाले भी उम्मत के ही आदमी थे।

अब जानने और पाने को कुछ नहीं बचा है, भगवान में स्वयं का विलय ही एकमात्र विकल्प है ---

 

अब जानने और पाने को कुछ नहीं बचा है, भगवान में स्वयं का विलय ही एकमात्र विकल्प है ---
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करुणा और परमप्रेमवश जब भगवान स्वयं साक्षात् प्रत्यक्ष हम सब के ह्रदय-मंदिर में बिराजे हैं, कोई भी दूरी नहीं है, तब जानने व पाने को बचा ही क्या है? एकमात्र विकल्प उनमें विलय ही है, और कुछ समझ में नहीं आता, अतः बुद्धि को तिलांजलि दे दी है। बौद्धिक ही नहीं, किसी भी तरह की आध्यात्मिक चर्चा अब अच्छी नहीं लगती। शास्त्रों को समझना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है क्योंकि बुद्धि अत्यल्प और अति सीमित है। एक छोटी सी कटोरी में अथाह महासागर को नहीं भर सकते। बुद्धि में क्षमता ही नहीं है कुछ समझने की, अतः वह कटोरी ही महासागर में फेंक दी है। भगवान स्वयं ही अब एकमात्र अस्तित्व हैं।
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हमारे जीवन का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर कार्य ईश्वरार्पित बुद्धि से हो। हर कार्य के आरम्भ, मध्य और अंत में निरंतर परमात्मा का स्मरण कर उन्हें ही कर्ता बनाना चाहिये। साँस हमें लेनी ही पड़ती है, न चाहते हुये भी हम साँस लेते हैं। वास्तव में ये साँसें भगवान ही ले रहे हैं। हर दो साँसों के मध्य में एक संधिकाल होता है। संधिकाल में की हुई साधना "संध्या" कहलाती है। उस संध्याकाल में परमात्मा का स्मरण रहना ही चाहिए। हमें भूख लगती है तब जो कुछ भी खाते हैं, वह भी परमात्मा को ही अर्पित हो। हमें सुख-दुःख की अनुभूतियाँ होती हैं, वे सुख और दुःख भी परमात्मा के ही हैं, हमारे नहीं। साधना मार्ग की जो भी कठिनाइयाँ हैं, वे भी परमात्मा की ही हैं, हमारी नहीं। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है। सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान और चिंतन में ही सर्वाधिक आनंद और संतुष्टि उन की परम कृपा से जब प्राप्त होती हैं, तब और क्या चाहिये ?? कुछ भी नहीं।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२१

सनातन धर्म और भारत के उत्थान को अब कोई नहीं रोक सकता ---

 

सनातन धर्म और भारत के उत्थान को अब कोई नहीं रोक सकता ---
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जैसे-जैसे मनुष्य की समझ में वृद्धि होगी, प्रबुद्ध मनीषियों के हृदय में सनातन धर्म की चेतना जागृत होगी। पिछले काल-खंड में सनातन धर्म के ज्ञान में कमी का कारण, मनुष्य की चेतना का ह्रास था, अन्य कोई कारण नहीं। वह समय ही खराब था। इस समय कालचक्र ऊर्ध्वगामी है, अतः अगले कई हजार वर्षों तक उन्नति ही उन्नति है, कोई अवनति नहीं। मनुष्य जाति की समझ भी क्रमशः बढ़ रही है और ज्ञान भी।
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पूरी सृष्टि विष्णु-नाभि की परिक्रमा करती है। हमारी यह पृथ्वी जिस सूर्य का ग्रह है, वह सूर्य चौबीस हज़ार वर्ष में एक बार विष्णु-नाभि के समीपतम होता है, उस समय मनुष्य की चेतना अपने उच्चतम शिखर पर होती है। इसके ठीक बारह हज़ार वर्ष पश्चात जब वह विष्णु-नाभि से अधिकतम दूरी पर होता है तब मनुष्य की चेतना निम्नतम स्तर पर होती है। यह कालचक्र है।
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परमात्मा की और धर्म की सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में हुई है, अतः भारत और सनातन धर्म की चेतना को अब कोई नहीं रोक सकता। एक दुर्धर्ष आध्यात्मिक शक्ति इसके उत्थान में लगी हुई है। हर व्यक्ति को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ होना ही पड़ेगा, अन्यथा उसके समक्ष अपनी प्राकृतिक मृत्यु के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है।
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सनातन धर्म पूरी सृष्टि का धर्म है। सनातन धर्म का लक्ष्य है -- भगवत्-प्राप्ति। आत्मा शाश्वत है, जिस पर माया का आवरण और विक्षेप है। उस माया के वशीभूत होकर मनुष्य का पतन होता है और उसे दुःखों की प्राप्ति होती है। उसके कर्मफल उसके बारंबार पुनर्जन्म के हेतु बनते हैं। अपने दुःखों से त्रस्त आकर वह उनसे मुक्त होने के उपाय ढूँढता है और आध्यात्म का आश्रय लेकर भगवान की आराधना/उपासना करता है। भगवत्-प्राप्ति तक यह चक्र चलता ही रहता है। सृष्टि का संचालन भगवान की प्रकृति अपने नियमानुसार करती है। नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है। भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - " इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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रामायण और महाभारत का स्वाध्याय सभी को किशोरावस्था से ही करना चाहिए। धर्म के तत्व को इनमें पूरी तरह बहुत अच्छे से समझाया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता, विष्णुसहस्त्रनाम, शिवसहस्त्रनाम आदि अनेक स्तुति, प्रार्थनाएँ और ज्ञान महाभारत में हैं। रामायण भी अपने आप में एक सम्पूर्ण ग्रंथ है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२१

जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं ---

 

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है| प्रकृति के कार्य में भगवान कभी हस्तक्षेप नहीं करते| जब तक प्रारब्ध कर्मफल अवशिष्ट हैं, तब तक हम जीवित रहेंगे| प्रारब्ध कर्मों के समाप्त होते ही मृत्यु , और संचित कर्मों को भोगने के लिए पुनर्जन्म सुनिश्चित है|
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भगवान ने स्वयं को भक्तों के आधीन अर्थात पराधीन कर रखा है| जो स्वयं पराधीन हैं वे दूसरों को मुक्त नहीं कर सकते| हमारी मुक्ति हमारे ही हाथ में है, भगवान किसी को मुक्त नहीं करते|
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जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| मृत्यु के बिना जीवन का कोई महत्व नहीं है, वैसे ही जैसे अन्धकार के बिना प्रकाश का| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं| जीवात्मा कभी मरती नहीं, सिर्फ अपना चोला बदलती है|
भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||"
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः| न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः||"
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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वेदान्त की दृष्टि से हम स्वयं से ही विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं| कहीं कोई मृत्यु नहीं है| जीवन ही जीवन है| किसी भी तरह का शोक करना मेरी अज्ञानता थी|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२०

Saturday 25 September 2021

जीवन के सारे दुःख, अभाव, पीड़ायें, क्षोभ, कष्ट, और शिकायतें व असीम वेदनायें ..... कैसे दूर करें? .....

 

जीवन के सारे दुःख, अभाव, पीड़ायें, क्षोभ, कष्ट, और शिकायतें व असीम वेदनायें ..... कैसे दूर करें? .....
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भारतवर्ष के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है| हमारा सनातन धर्म हमें यही सिखाता है| यदि हम गंभीरता से श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों का स्वाध्याय करें तो पायेंगे कि उनके सारे उपदेश हमें यही सिखा रहे हैं| लेकिन यह बात तभी समझ में आयेगी जब हमारे में ... सतोगुण प्रधान हो, हृदय में परम-प्रेम हो, और परमात्मा को पाने की अभीप्सा हो| अन्यथा सफलता नहीं मिलेगी| इन गुणों को स्वयं में प्रकट करना होगा|
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हम अपने सारे अवगुण व गुण और उन सभी बातों को जो हमें पीड़ा दे रही हैं, परमात्मा को सौंप दें, और परमात्मा का सत्यनिष्ठा से चिंतन करें| जीवन में चाहे कितना भी भयानक अंधकार हो, कितनी भी विकराल पीड़ायें हों, सब दूर हो जायेंगी| परमात्मा के प्रति हमारा समर्पण सबसे अधिक महत्वपूर्ण है| समर्पण की पूर्णता बड़ी आवश्यक है| इसकी विधि भी हमारे शास्त्रों में है| कोई लघुमार्ग यानि short-cut नहीं है|
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मनुष्य का लोभ और अहंकार ये दो ऐसी बुराइयाँ हैं जो जो हमारा तुरंत पतन करती हैं| यदि हम अपनी इन दो बुराइयों, यानि अपने लोभ और अहंकार को परमात्मा में समर्पित कर, इन से मुक्त हो सकें तो पायेंगे कि आधे से अधिक युद्ध जीत लिया है| गीता का सार ही सत्यनिष्ठा से परमात्मा में समर्पण है| आप सब को शुभ कामनाएँ व नमन !!
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ सितम्बर २०२०

Wednesday 22 September 2021

शैतान कौन है? ---

 

शैतान कौन है? --- इब्राहिमी मज़हबों (यहूदीयत, ईसाईयत व इस्लाम) में एक शैतान नाम का प्राणी है जो मनुष्य को भटका कर परमात्मा से विमुख कर देता है। दुनिया की सारी बुराइयों के लिए वह जिम्मेदार है।
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सनातन धर्म के अनुसार हमारा तमोगुण ही शैतान है। तमोगुण में भी सबसे बुरा हमारा लोभ है। हमारा लोभ ही हमारी सब बुराइयों का कारण है। यह लोभ ही शैतान का बाप है। भारत में इस समय पर्दे के पीछे से शैतान ही राज्य कर रहा है। वह शैतान ही घूसख़ोरी, छल-कपट, चोरी, राग-द्वेष, अहंकार और हिंसा के रूप में आता है। लोभ ही सबसे बड़ी हिंसा है। लोभ पर विजय ही अहिंसा है -- जो हमारा "परम धर्म" है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ सितंबर २०२१

बड़े भाई साहब की वार्षिक पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि ---

 

बड़े भाई साहब की वार्षिक पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि ---
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गत वर्ष १४ सितंबर 2020 को इस क्षेत्र में प्रसिद्ध नेत्र शल्य चिकित्सक, रा.स्व.से.संघ के सीकर विभाग संघ चालक, सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता, और समाज में अति लोकप्रिय, मेरे बड़े भाई साहब डॉ. दया शंकर बावलिया जी सायं लगभग ८ बजे जयपुर के E.H.C.C. हॉस्पिटल में जहाँ उनका उपचार चल रहा था, अपनी नश्वर देह को त्याग कर एक अज्ञात अनंत यात्रा पर चले गए थे। भगवान अर्यमा की कृपा से निश्चित रूप से उन्हें सद्गति प्राप्त हुई है। नित्य फोन पर वे मुझसे अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम पर चर्चा करते थे। समसामयिक घटनाक्रमों पर उनकी पकड़ बहुत गहरी थी। बहुत बड़े-बड़े लोगों से उनका संपर्क और मिलना-जुलना था। उपनिषदों और भगवद्गीता पर उनका अध्ययन बहुत अधिक गहरा था।
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वे एक विख्यात नेत्र चिकित्सक तो थे ही, एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वे बचपन से ही स्वयंसेवक थे। देवलोक गमन के समय वे संघ के सीकर विभाग (झुंझुनूं, सीकर व चूरू जिलों) के विभाग संघ चालक थे। जिला नागरिक मंच, व अन्य अनेक सामाजिक संस्थाओं के मुख्य संरक्षक थे। जिले का ब्राह्मण समाज तो आज भी उनके बिना अपने आप को अनाथ सा अनुभूत कर रहा है, क्योंकि उनके मुख्य संरक्षक नहीं रहे।
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आज के दिन १५ सितंबर २०२० को उनकी देह का अंतिम संस्कार झुंझुनूं के बिबाणी धाम श्मशान गृह में कोविड-१९ के कारण सरकारी नियमानुसार कर दिया गया था। भाई साहब को अश्रुपूरित सादर विनम्र श्रद्धांजलि !! ॐ ॐ ॐ !!
१५ सितंबर २०२१

इस संसार के लौकिक जीवन में मैं अनाथ हो गया हूँ --- (१५ सितंबर २०२०)

 

इस संसार के लौकिक जीवन में मैं अनाथ हो गया हूँ...
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कल १४ सितंबर २०२० को सायं लगभग ८ बजे मेरे बड़े भाई साहब डॉ. दयाशंकर जी इस नश्वर देह को त्याग कर अपनी अज्ञात अनंत यात्रा पर चले गए| जगन्माता उन्हें निश्चित रूप से सद्गति प्रदान करेगी| मेरी और उनकी राम-लक्ष्मण की सी जोड़ी थी| जितना प्रेम मुझे उनसे था उतना इस नश्वर जीवन में अन्य किसी से भी नहीं था| नित्य फोन पर वे मुझसे अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम पर चर्चा करते थे| समसामयिक घटनाक्रमों पर उनकी पकड़ बहुत गहरी थी| बहुत बड़े-बड़े लोगों से उनका संपर्क और मिलना-जुलना था| उपनिषदों और भगवद्गीता पर उनका अध्ययन बहुत अधिक गहरा था|
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वे एक विख्यात नेत्र चिकित्सक तो थे ही, एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे| राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वे बचपन से ही स्वयंसेवक थे| वर्तमान में वे संघ के सीकर विभाग (झुंझुनूं, सीकर व चूरू जिलों) के विभाग संघ चालक थे| जिला नागरिक मंच, व अन्य अनेक सामाजिक संस्थाओं के मुख्य संरक्षक थे| जिले का ब्राह्मण समाज तो आज अपने आप को अनाथ सा अनुभूत कर रहा है, क्योंकि उनके मुख्य संरक्षक नहीं रहे| झुंझुनूं, सीकर, व चुरू जिलों के स्वयं सेवक भी अपने विभाग संघ चालक के चले जाने से दुखी हैं|
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इस समय मैं अधिक लिखने की मनःस्थिति में नहीं हूँ| भाई साहब को श्रद्धांजलि| ॐ ॐ ॐ !!
१५ सितंबर २०२०

सिद्ध गुरु की कृपा के बिना कोई अनुभूति नहीं होती ---

 

आज का दिन बहुत शुभ है, प्रातःकाल उठते समय से ही परमात्मा की उपस्थिति की बड़ी दिव्य अनुभूतियाँ हो रही हैं। ये अनुभूतियाँ किसी अन्य को कराने की सामर्थ्य मुझ में नहीं हैं। यदि होती तो संपूर्ण सृष्टि को ही परमात्मा का आभास करा देता।
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मेरा यह संकल्प भी साकार हो रहा है। सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा की उपासना कर रही है। मैं साँस लेता हूँ तो सारी सृष्टि साँस लेती है, मैं साँस छोड़ता हूँ तो सारी सृष्टि साँस छोड़ रही है। मैं चैतन्य हूँ तो सारी सृष्टि भी चैतन्य है। मैं सारी सृष्टि के साथ एक हूँ, यह नश्वर देह नहीं। इस परम ज्योतिर्मय सृष्टि में कहीं भी अंधकार नहीं है। बहुत ही तीब्र गति से यह सृष्टि 'विष्णु नाभि' की परिक्रमा कर रही है। इस की गति से एक स्पंदन हो रहा है जिस की आवृति से उत्पन्न ध्वनि बहुत मधुर है। उस ध्वनि और प्रकाश में परमात्मा स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, मैं उन के साथ एक हूँ।
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भगवान वासुदेव ही समान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं। वे ही परमशिव हैं। साकार रूप में पद्मासनस्थ शांभवी मुद्रा में वे स्वयं ही स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। सारी सृष्टि उनके मन का एक संकल्प मात्र है। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है। पृथकता का आभास एक दुःस्वप्न था। वह दुःस्वप्न फिर नहीं आए। सभी जीवात्माएँ, समस्त जड़ और चेतन उनमें जागृत हों।
ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
१५ सितंबर २०२१
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पुनश्च: --- सिद्ध गुरु की कृपा के बिना कोई अनुभूति नहीं होती। गुरु सिद्ध पुरुष हो, श्रौत्रीय व ब्रहमनिष्ठ हो। जय गुरु !!

Tuesday 14 September 2021

राधाष्टमी और दधीचि-जयंती पर श्रद्धालुओं का अभिनंदन !! ---

 राधाष्टमी और दधीचि-जयंती पर श्रद्धालुओं का अभिनंदन !!

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"गोपाल सहस्रनाम" के अनुसार एक ही शक्ति के दो रूप है राधा और माधव (श्रीकृष्ण) -- अर्थात् श्रीराधा ही श्रीकृष्ण हैं, और कृष्ण ही राधा हैं --
"तस्माज्ज्योतिरभूद्द्वेधा राधामाधवरूपकम्‌।"
वैष्णव निंबार्क संप्रदाय और चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों में श्रीराधा जी की आराधना मुख्य होती है।
महर्षि दधीचि एक वैदिक ऋषि थे। इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था।
 
१४ सितंबर २०२१ 

अपनी बुद्धि रूपी कन्या का विवाह ---

 

अपनी बुद्धि रूपी कन्या का विवाह परमात्मा से कर के निश्चिंत हो रहा हूँ। उनसे अच्छा वर और कोई नहीं मिलेगा। दहेज में अपना मन, अहंकार व चित्त भी दे रहा हूँ।
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इस बुद्धि रूपी कन्या ने अनंतकाल तक तप, आराधना और प्रतीक्षा की है। उन
सर्वलोकेश्वरेश्वर अनाथाश्रय दयाधाम ने इस किंकरी पर द्रवित होकर यह संबंध स्वीकार कर लिया है। अपने आराध्य की आराधना से यह कन्या तो धन्य हुई ही है, साथ साथ मैं और आप सब भी धन्य हो गए हैं। ॐ तत्सत् !!
१३ सितंबर २०२१

कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम पर निरंतर सदा ध्यान रहे ---


कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम पर निरंतर सदा ध्यान रहे ---
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संसार में कहीं भी सुख-शांति-सुरक्षा नहीं है, क्योंकि हमारी इस सृष्टि का निर्माण द्वैत से हुआ है, जिसमें सदा द्वन्द्व रहता है। सुख-शांति-सुरक्षा अद्वैत में है, द्वैत में नहीं। भगवान ने स्वयं को "खं" यानि आकाश-तत्व के रूप में व्यक्त किया है, जहाँ कोई द्वैत नहीं होता। इसलिए जो भगवान के सपीप है, वह "सुखी" है, और जो उन से दूर है वह "दुःखी" है।
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गीता का सर्वप्रथम उपदेश इस जीवन में जिन विद्वान आचार्य से मैंने ग्रहण किया, उन्होने मुझे सब से पहिले क्षर-अक्षर योग का उपदेश दिया था --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं। समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है॥
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे बहुत प्यारा लगा और मैं इसी के अनुसंधान में लग गया और लगा रहा जब तक कूटस्थ-चैतन्य की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं हुई। निषेधात्मक कारणों से अपनी अनुभूतियों को तो नहीं लिख सकता, लेकिन यह तो लिख ही सकता हूँ कि आध्यात्म में अब कोई रहस्य - रहस्य नहीं रहा है। कूटस्थ पुरुषोत्तम स्वयं भगवान वासुदेव हैं, वे ही परमशिव हैं। वे ही हमारे वास्तविक अमूर्त स्वरूप हैं।
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"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२१
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कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान और क्रिया-योग साधना -- यही इस अकिंचन का जीवन है। यज्ञ में यजमान की तरह मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं हैं। रात्रि को सोने से पूर्व और ब्राह्ममुहूर्त में उठते ही भगवान का ध्यान, और हर समय उनका अनुस्मरण अनिवार्य है।
भगवान कहते है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
Abandoning all duties, take refuge in Me alone: I will liberate thee from all sins; grieve not.
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ॐ तत्सत् ॥ गुरु ॐ !! जय गुरु !!
१८ सितंबर २०२१
 

गुरु-चरणों में आश्रय ---

 अपनी इस अति-सीमित और अत्यल्प बुद्धि से कुछ भी मुझे समझ में नहीं आता। मुझे न तो कोई शास्त्रों की समझ है, और न कुछ ज्ञान। हृदय में एक गहन अभीप्सा थी जिसने श्रीगुरु चरणों में आश्रय दिला ही दिया। इस जीवन की यही एकमात्र उपलब्धि और एकमात्र स्थायी निधि है।
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प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम ध्यान श्रीगुरुचरणों का ही होता है, रात्रि को सोने से पूर्व, और स्वप्न में भी श्रीगुरुचरण ही दिखाई देते हैं। वे ही मेरी गति हैं, अन्य कुछ भी मेरे पास नहीं है। मेरी सारी कमियाँ-खूबियाँ, दोष-गुण, बुराई-भलाई, सारा अस्तित्व, सब कुछ श्रीगुरुचरणों में अर्पित है। श्रीगुरुचरणों के दर्शन कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और नाद के रूप में होते हैं। इस नश्वर देह को निमित्त बनाकर सारी साधनायें भी वे स्वयं ही करते हैं।
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इस विमान के चालक वे ही हैं, और यह विमान भी वे ही हैं।
ॐ तत्सत् !!
१२ सितंबर २०२१

 

रूस और यूक्रेन के मध्य का विवाद ---

 

मैं रूस में भी रहा हूँ और यूक्रेन में भी। एक बात की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि रूस और यूक्रेन आपस में शत्रु भी हो सकते हैं !! सोवियत यूनियन के समय रूस के बाद यूक्रेन सर्वाधिक महत्वपूर्ण गणराज्य था सोवियत संघ का। सोवियत सेना में और प्रशासन में अनेक वरिष्ठ अधिकारी यूक्रेन के थे। हजारों रूसी व यूक्रेनी युवक-युवतियों ने आपस में विवाह कर रखे थे। आश्चर्य है, अब उनमें युद्ध की सी स्थिति उत्पन्न हो गई है। मुझे लगता है यूक्रेन गलती कर रहा है और अमेरिका के बहकावे में आ गया है। उसे धैर्य से काम लेना चाहिए।
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मुख्य विवाद क्रीमिया के कारण है, जो ऐतिहासिक सृष्टि से नहीं होना चाहिए था। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के समय क्रीमिया में तातार जाति के मुसलमान रहते थे। १८ वी सदी में क्रीमिया पर रूस ने अधिकार कर लिया।सोवियत संघ बनने के बाद वहाँ के तानाशाह जोसेफ़ स्टालिन ने क्रीमिया के सब मुसलमानों को वहाँ से हटा कर रूस की मुख्य भूमि में बसा दिया, और उस क्षेत्र को तातारिस्तान गणराज्य का नाम दिया, जिसकी राजधानी कजान है। यह रूस का बहुत सम्पन्न क्षेत्र है।
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जोसेफ स्टालिन ने क्रीमिया में रूसी नस्ल के लोगों को बसा दिया। बाद में अन्य नस्लों के लोगों को भी वहाँ आने की अनुमति मिल गई और कई सौ परिवार तातार मुसलमानों के भी बापस वहाँ आ गए। जोसेफ़ स्टालिन के बाद निकिता ख्रुश्चेव सत्ता में आए तो उन्होने सन १९५४ में यूक्रेन गणराज्य को भेंट में क्रीमिया प्रायदीप दे दिया। तब सोवियत संघ था अतः किसी भी तरह के विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं था।
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२६ दिसंबर १९९१ को सोवियत संघ का विघटन हो गया और रूस व यूक्रेन अलग-अलग देश हो गए।
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२६ फरवरी २०१४ को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी इमारतों पर अधिकार कर लिया। ६ मार्च २०१४ को क्रीमिया की संसद ने रूसी संघ का हिस्सा बनने के पक्ष में मतदान किया। जनमत संग्रह के परिणामों को आधार बनाकर १८ मार्च २०१४ को क्रीमिया को रूसी फेडरेशन में मिलाने के प्रस्ताव पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने हस्ताक्षर कर दिए। इसके साथ ही क्रीमिया रूसी फेडरेशन का हिस्सा बन गया। रूस ने वहाँ अपनी सेना भेज दी और अपनी स्थिति बहुत मज़बूत कर ली। रूस का तर्क यह था कि वहाँ रूसी मूल के लोग अधिक हैं, और १८वीं शताब्दी से ही वह रूस का भाग है।
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दूसरा विवाद अजोव सागर में प्रवेश को लेकर "कर्च जलडमरूमध्य" पर है। यह कोई बड़ा मामला नहीं है। इसे दोनों पार्टियां आमने-सामने बैठकर आराम से सुलझा सकती हैं। इसमें रूस का अहंकार आड़े आ गया अतः रूस की गलती अधिक है। बुद्धिमानी से देखा जाये तो यह विवाद का विषय ही नहीं है।
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२१

अमेरिका और तालीबान दोनों लंगोटिया यार हैं, - जो दुनियाँ को और अपनी खुद की जनता को मूर्ख बनाने के लिए - एक-दूसरे को आँखें दिखा रहे हैं ---

अमेरिका और तालीबान दोनों लंगोटिया यार हैं, - जो दुनियाँ को और अपनी खुद की जनता को मूर्ख बनाने के लिए - एक-दूसरे को आँखें दिखा रहे हैं ---
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अफगानिस्तान का विश्व की राजनीति में कोई महत्व नहीं है। यह एशिया का सबसे अधिक गरीब देश है। इसके पड़ोसी ताजिकिस्तान जैसे देश भी बहुत अधिक गरीब हैं। लेकिन विश्व के सबसे अधिक खूँखार आतंकियों द्वारा इस देश पर अधिकार करने से यह देश इस समय सम्पूर्ण विश्व में चर्चित है। यहाँ का गृहमंत्री विश्व का सबसे बड़ा घोषित आतंकी है, जिसे पकड़वाने पर बहुत बड़ा पुरस्कार बोला हुआ है। भारत में दाऊद इब्राहिम इसका ही सहयोगी था।
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अफगानिस्तान की समस्या का मूल और एकमात्र कारण अफीम की खेती और उसका प्रतिबंधित ड्रग व्यापार है। तालीबानी आतंकवाद के जनक तो ब्रिटेन और अमेरिका हैं जो तालिबान के संस्थापक भी हैं। तालिबान की अपनी आमदनी का स्रोत भी ड्रग व्यापार है। ड्रग के अवैध धंधे में अमेरिका और ब्रिटेन का भी हाथ है जो इस धंधे से खूब धन कमाते हैं।
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तालिबान की स्थापना के बाद से ही अफगानिस्तान में अफीम की खेती तेजी से बढ़ी, लेकिन उसकी असली वृद्धि अमरीका के प्रवेश के पश्चात ही हुई। अमरीका और उसके मित्र राष्ट्रपतियों के शासन में अफीम की खेती अफगानिस्तान में सबसे तेजी से बढ़ी जिसका निर्यात तालिबान और पाकिस्तान की ISI की सहायता से होता था। अब तो अफगानिस्तान में अफीम की खेती बहुत अधिक बढ़ गयी है। ट्रम्प और बाइडेन ही नहीं, अमेरिका के सभी राष्ट्रपतियों की इसमें मिलीभगत है। असली अपराधी तो अमेरिका के शीर्ष नेता और अधिकारी हैं जिनकी पूंजी से अफीम की खेती की जाती है। तालिबान तो केवल बटाईदार है, और पाकिस्तान एक दलाल।
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मूल रूप से अफीम एक औषधि है जिस से नशीली दवा अंग्रेजों ने बनाई - चीनियों को अफीमची बनाने के लिये। अफगानिस्तान पर अधिकार करना ब्रिटेन का उद्देश्य कभी भी नहीं था, उसका उद्देश्य था - पठान कबीले के सरदारों को अफीम उगाने के लिए डरा-धमका कर बाध्य करना।
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विश्व के धन-पिशाच दानव ड्रग व्यापारियों को अफगानिस्तान जैसा देश और तालिबान जैसी सरकार चाहिये जो आराम से अफीम की खेती कर सके। उन्हें वहाँ की जनता के सुख-दुःख और जीने-मरने से कोई मतलब नहीं है। उन्हें सिर्फ अपना मुनाफा ही दिखाई देता है।
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तालिबान के ही मुल्ला उमर ने अफीम पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसके एक साल होते ही अमेरिका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया और अफीम की खेती शुरू करवा दी। अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में वर्षों से डटी हुई थी - अफीम के विरोधियों का सफाया करने के लिए। कहने के लिये तालिबान का लक्ष्य जिहाद है। इस्लाम में तो नशा हराम है तो फिर तालिबानी जिहादी कैसे हुए? यह अवश्य सत्य है कि वे फूहड़, गंवार, असभ्य और उन्मादी हैं, जिन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है।
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अमेरिका, ब्रिटेन और रूस यथार्थ में भारत के कभी मित्र नहीं हो सकते। वे कभी नहीं चाहेंगे कि भारत एक शक्तिशाली देश बने। पाकिस्तान का निर्माण - ब्रिटेन, अमेरिका और रूस की चाल थी, भारत को सदा के लिए पिछड़ा और कमजोर रखने के लिए। बाकी सब मात्र मोहरे थे। अमेरिका और ब्रिटेन भारत पर पाकिस्तान और तालीबान से एक युद्ध थोपना चाहते हैं। तालिबान को अफीम बेचना तो आता है, लेकिन लड़ना नहीं। पाकिस्तान के भी सभी वरिष्ठ सैन्य अधिकारी अरबपति सेठ हैं जिन का खूब धन विदेशों में जमा है। उनकी रुचि अपने धन को सुरक्षित रखने में है, न कि कश्मीर में। जनता को मूर्ख बनाने के लिए ये कश्मीर का राग अलापते रहते हैं। तालीबान की काट यह है कि हम उन्हें एक पख्तूनिस्तान बनाने के लिए प्रोत्साहित करें। यदि पख्तूनिस्तान बनता है तो पाकिस्तान का विघटन निश्चित है।
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वर्तमान प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत एक महान शक्तिशाली देश है जो चीन, पाकिस्तान और तालीबान - तीनों से एक साथ निपट सकता है। निकट भविष्य के बारे में कुछ भी कहना कठिन है। घटनाक्रम नित्य बदल रहे हैं। भारत विजयी है और सदा विजयी रहेगा।
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पुनश्च: -- दुनियाँ का सबसे बड़ा क्रूर नाटक अफगानिस्तान में हो रहा है जिसमें गरीब व भोली जनता मर रही है, लेकिन कुछ धन-पिशाच दानव समूह धन कमा रहे हैं।
पुनश्च: -- अमेरिकी सैनिक पढ़े-लिखे, समझदार व संवेदनशील हैं। अनेक अमेरिकी सैनिकों व अधिकारियों द्वारा आत्महत्या, और सेना में निराशा व विद्रोह की भावना, -- ये मुख्य कारण थे अमेरिका द्वारा सेना बापस बुलाने के।
११ सितंबर २०२१

हमारा धर्म ही हमारी रक्षा करेगा ---

 

हमारा धर्म ही हमारी रक्षा करेगा ---
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विश्व के दानव समाज (मार्क्सवादी, चर्चवादी, और शैतान पूजक गोपनीय समूहों) द्वारा अमेरिका में आज १० से १३ सितंबर २०२१ से एक ३ दिवसीय Dismantling Global Hindutva यानि "हिन्दुत्व का विध्वंस करो" नाम का एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। जिसका लक्ष्य है पूरे विश्व से हिन्दुत्व को उखाड़ फेंकना। इस कार्यक्रम के आयोजक चर्च की सहायता से चलाये जा रहे कई बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं। इन असुरों का लक्ष्य भारत से हिन्दुत्व को सदा के लिए नष्ट करना है।
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इस तरह के राक्षसी प्रवृति के लोग पहले भी हुए हैं, और कई बार इंन्होंने अपने दानव समाज का राज्य स्थापित करने का प्रयास किया है। ये कभी सफल नहीं होंगे। हम अपने धर्म पर दृढ़ रहेंगे और पूर्ण सत्यनिष्ठा से धर्म का पालन करते हुए उसकी रक्षा करेंगे। इस समय तो हमारी रक्षा स्वयं भगवान कर रहे हैं, लेकिन अंततः हमारा धर्म ही हमारी रक्षा करेगा।
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विश्व के दानव समाज को हिन्दुत्व पसंद नहीं है। संयुक्त राष्ट्र दानवाधिकार आयोग भी उन्हीं के अधिकार में है। विश्व की ही नहीं, भारत की मीडिया पर भी उन्हीं का अधिकार है। भारत की मीडिया भारत का नहीं, दानवों का हित देखती है। उदाहरण के लिए सन १९७१ ई⋅ में २४ लाख से बहुत अधिक हिन्दुओं को पाकिस्तानी सेना ने पूर्वीं पाकिस्तान में मार डाला था। सारे संसार की मीडिया चुप थी। कहीं किसी ने कुछ लिखा भी तो लाख को हजार लिखा और हिन्दू को बंगाली लिखा।
हिन्दुओं की शिकायत अन्य कोई नहीं सुनेगा। हिन्दुओं को स्वयं जागना पड़ेगा।
ॐ तत्सत् !!
१० सितंबर २०२१
आत्मा शाश्वत है। जीवात्मा अपने संचित व प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तब तक संचित और प्रारब्ध कर्मफलों से कोई मुक्ति नहीं है। ये सनातन नियम हैं जो इस सृष्टि को चला रहे हैं। यह हमारा सनातन धर्म है।
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विश्व के धन-पिशाच आसुरी दानव समाज ने १० से १३ सितंबर २०२१ तक अमेरिका में एक ३ दिवसीय "Dismantling Global Hindutva" यानि "हिन्दुत्व का विध्वंस करो" नाम का एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसका लक्ष्य पूरे विश्व से हिन्दुत्व को उखाड़ फेंकना था। इस कार्यक्रम के आयोजक मार्क्सवादियों और चर्च की सहायता से चलाये जा रहे कई बड़े-बड़े विश्वविद्यालय थे। इन असुरों का लक्ष्य विश्व से सनातन धर्म व संस्कृति को नष्ट करना है। इस तरह के राक्षसी प्रवृति के लोग पहले भी हुए हैं, और कई बार इन्होंने अपने दानव समाज का राज्य स्थापित करने का प्रयास किया है। ये कभी सफल नहीं होंगे।
१४ सितंबर २०२१
 

ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो ---

 

ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो ---
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ध्यान की गहराई में ही अनुभव होगा कि भगवान ही अक्षर-ब्रह्म हैं। उन्हीं के शासन में सारी सृष्टि चल रही है। चाहे देवता हों या मनुष्य, सब उन्हीं से शासित हैं। भगवान को ही ब्रह्म कहते हैं, वे कूटस्थ हैं। हमें निरंतर उनका स्मरण करते रहना चाहिए। जिस पर भी भगवान की कृपा है, उस का आचरण और जीवन ही ब्रह्ममय हो जाता है। वह कभी भी यह दिखावा नहीं करता कि उसे ब्रह्म का ज्ञान है। जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं है, वह ही ब्रह्म की जिज्ञासा करता है, लेकिन ब्रह्मज्ञ कभी भूल से भी अपने मुंह से नहीं कहता कि वह ब्रह्मज्ञ है।
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भगवान के ध्यान के लिए हर पल एक शुभ मुहूर्त होता है। जब भी भगवान की याद आए वह पल एक शुभ मुहूर्त है, जो अनेक जन्मों के सद्कर्मों का फल है। भगवान की भक्ति के लिए कोई देश-काल या शौच-अशौच का बंधन नहीं है। निरंतर भगवान का स्मरण रहे। जब भूल जाएँ तब याद आते ही फिर स्मरण आरंभ कर दें।
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हर साँस के आने-जाने व जाने-आने के मध्य का क्षण एक संधि-क्षण होता है जो सर्वाधिक शुभ समय होता है। उस समय भगवान का स्मरण रहना चाहिए। जब दोनों नासिका छिद्रों से साँस चल रही हो वह समय सर्वश्रेष्ठ है। उस समय भगवान का ध्यान सिद्ध होता है। उस समय का उपयोग भगवान के ध्यान के लिए करना चाहिए।
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यथार्थ में भगवान ही हमारे माध्यम से सांसें ले रहे हैं, और हर जीव को जीवंत रखे हुए हैं। उनके स्मरण और प्रेम में व्यतीत किया हुआ जीवन ही सार्थक है। जो भी क्षण परमात्मा की स्मृति में, उनके स्मरण में लिकल जाए वह ही शुभ और सर्वश्रेष्ठ है, बाकी समय विराट मरुभूमि की रेत में गिरे जल की कुछ बूंदों की तरह निरर्थक है।
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निरंतर अपने ब्रह्मत्व का ध्यान करो। ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो। पवित्र देह और पवित्र मन के साथ, एक ऊनी कम्बल पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के बैठ जाओ। भ्रूमध्य में भगवान के अपने प्रियतम रूप का ध्यान करो। मान लो यदि आप भगवान शिव का ध्यान करते हो तो देखिये कि वे पद्मासन में शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनके सिर से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है, और दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। धीरे धीरे उनके रूप का विस्तार करो। आपकी देह, आपका कमरा, आपका घर, आपका नगर, आपका देश, यह पृथ्वी, यह सौर मंडल, यह आकाश गंगा, सारी आकाश गंगाएँ, और सारी सृष्टि व उससे परे भी जो कुछ है वह सब शिवमय है। उस शिव रूप का ध्यान करो। वह शिव आप स्वयं हो। आप यह देह नहीं बल्कि साक्षात शिव हो। बीच में एक-दो बार आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और बोध करो कि आप यह देह नहीं हो बल्कि शिव हो। उस शिव रूप में यथासंभव अधिकाधिक समय रहो। सारे ब्रह्मांड में एक ध्वनी गूँज रही है, उस ध्वनी को ही निरंतर सुनो। वह ध्वनि ही अक्षर-ब्रह्म है। हर आती-जाती साँस के साथ यह भाव रहे कि मैं "वह" हूँ -- "हँ सः" या "सोsहं"। यही अजपा-जप है, यही प्रत्याहार, धारणा और ध्यान है। यही है शिव बनकर शिव का ध्यान, यही है सर्वोच्च साधना।
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यह साधना उन्हीं को सिद्ध होती है जो निर्मल, निष्कपट है, जिन में कोई कुटिलता नहीं है और जो सत्यनिष्ठ और परम प्रेममय हैं। उपरोक्त का अधिकतम स्वाध्याय करो। भगवान की परम कृपा से आप सब समझ जायेंगे। भगवान सबका कल्याण करेंगे। अपने अहंकार, अस्तित्व और पृथकता का बोध उनमें समर्पित कर दो।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० सितंबर २०२१

Thursday 9 September 2021

असत्य और अन्धकार के बादलों से सत्य ढँक जाता है पर कभी नष्ट नहीँ होता ---

 

भारतवर्ष में जो असत्य का अंधकार छाया हुआ है, वह अस्थाई है, उसका नाश निश्चित है| असत्य और अन्धकार के बादलों से सत्य ढँक जाता है पर कभी नष्ट नहीँ होता| जब हम अपने अंतःकरण में परमात्मा को व्यक्त करेंगे तो बाहर के असत्य और अज्ञान का अंधकार भी निश्चित रूप से दूर होगा| सनातन धर्म अमर है|
सत्यं वद (सत्य बोलो) |
धर्मं चर (धर्म मेँ विचरण करो) |
स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं (वेदाध्ययन और उसके प्रवचन प्रसार में प्रमाद मत करो) |
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः (बलहीन को कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती) |
अश्माभव:परशुर्भवःहिरण्यमस्तृतांभवः (उस चट्टान की तरह बनो जो समुद्र की प्रचंड लहरों के आघात से भी विचलित नहीं होती, उस परशु की तरह बनो जिस पर कोई गिरे वह नष्ट हो, और जिस पर परशु गिरे वह भी नष्ट हो जाये | तुम्हारे में हिरण्य यानि स्वर्ण की सी पवित्रता हो |
तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय: (उस विष्णु के परम पद के दर्शन सदा सूरवीर ही करते हैं) |
परमात्मा से प्रेम करना तथा उसे प्रसन्न करने के लिये ही जीवन के हर कार्य को करना, चाहे वह छोटे से छोटा हो या बड़े से बड़ा ..... बस यही महत्व रखता है| जब प्रेम की पराकाष्ठा होगी तब ईश्वर ही कर्ता हो जायेंगे और हमारा नहीं सिर्फ उन्हीं का अस्तित्व होगा|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२०

शिवसेना कोई हिन्दू-हितैषी दल नहीं है, अपितु एक अवसरवादी क्षेत्रीय दल है ---

 

शिवसेना कोई हिन्दू-हितैषी दल नहीं है, अपितु एक अवसरवादी क्षेत्रीय दल है| अपनी धूर्तता को छिपाने के लिए यह छत्रपति शिवाजी महाराज और राणा प्रताप का नाम लेती है, और हिंदुत्वनिष्ठ होने का नाटक करती है| अपने विरोधियो का समूल नाश करने में यह बिलकुल भी समय नहीं लगाती| इसीलिए भयभीत होकर ही लोग इसका समर्थन करते हैं|
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आगे बढ़ने से पहिले यह बता देना चाहता हूँ कि छत्रपति शिवाजीराव भोंसले, मेवाड़ से निकले हुए एक सिसोदिया राजपूत परिवार के वंशज थे| ६ जून १६७४ को उनका राज्याभिषेक वाराणसी से आए पंडित गंगाभट्ट नाम के एक विद्वान शास्त्रज्ञ ब्राह्मण ने कराया था| पंडित गंगाभट्ट ने राज्याभिषेक से पूर्व यह शर्त रखी थी कि शिवाजी अपने क्षत्रीय होने का प्रमाण दें| तब उनकी पूरी वंशावली पढ़ी गई जिसमें बताया गया कि उनके पूर्वज मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत थे जो महाराष्ट्र में आकर बस गए थे| उनके क्षत्रीय होने के प्रमाणों से पूरी तरह संतुष्ट होकर ही पंडित गंगाभट्ट ने उनका राज्याभिषेक किया था|
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बाला साहब ठाकरे मूल रूप से एक कार्टूनिस्ट थे जो राजनीतिक विषयों पर तीखे कटाक्ष करते थे| उस समय मुंबई में पूरे भारत के लोग छाए हुए थे| महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों का वर्चस्व नहीं के बराबर था| अतः महाराष्ट्रीय लोगों का वर्चस्व स्थापित करने के उद्देश्य से उन्होने १९ जून १९६६ को शिवसेना नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी की नींव रखी| जानकार लोग कहते हैं कि इसके पीछे प्रेरणा भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की ही थी जिन्होने १९ जनवरी १९६६ को प्रधानमंत्री का पद संभाला था| ट्रेड यूनियन चलाने वाले कम्युनिष्टों की काट के लिए उन्हें बाला साहब ठाकरे एक सही आदमी लगे|
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उस समय सरकारी व निजी कार्यालयों में लगभग सारे बाबू दक्षिण भारतीय थे, हिसाब-किताब का काम करने वाले सारे गुजराती थे, उद्योगपति सब मारवाड़ी थे, किराने की लगभग सारी दुकानें कच्छी जैनियों की थी, और अधिकांश मजदूर यूपी बिहार के थे| फिल्म उद्योग में पंजाबी लोग छाए हुए थे| मुंबई में कई मिलें थीं, और मुंबई एक बहुत बड़ा औद्योगिक नगर था| ट्रेड यूनियन के नेता लोग कम्युनिष्ट थे जो आए दिन हड़ताल करवाते रहते थे| दो नंबर का काम करने वाले एक विशिष्ट वर्ग के लोग थे|
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बाला साहब ठाकरे ने शिवसेना बनाते ही सबसे पहिले दक्षिण भारतीय हिंदुओं को मार-पीट और आतंकित कर के मुंबई से भगाना शुरू किया| महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों ने खुल कर उनका साथ दिया| बाद में यूपी बिहार के लोगों को मारना-पीटना और प्रताड़ित करना शुरू कर दिया| बाद में स्थिति ऐसी हो गई कि मुंबई में वही व्यक्ति सम्मान के साथ रह सकता था जो शिवसेना को चन्दा यानि हफ्ता देता था| यह हफ्ता बसूलने वाले लोगों का ही एक दल बन कर रह गया| इनका कोई विरोध करता है तो उसे मारने-पीटने में ये लोग थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते| अभी भी मुंबई में सबसे अधिक प्रताड़ित यूपी बिहार वालों को ही किया जाता है|
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यदि ये लोग हिंदुत्वनिष्ठ होते तो दक्षिण भारतीय हिंदुओं ने इन का क्या बिगाड़ा था? और अब यूपी बिहार के हिन्दू इन का क्या बिगाड़ रहे हैं? कंगना राणावत वाले प्रकरण ने सिद्ध कर दिया है कि शिवसेना वाले भले लोग नहीं हैं| कंगना को केंद्र सरकार से यदि Y+ सुरक्षा नहीं होती और इतना जन-समर्थन नहीं मिलता तो उसकी गति भी साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित वाली होती|
९ सितंबर 2020

Tuesday 7 September 2021

परमात्मा का ध्यान और वाहन चलाने की कुशलता ---

परमात्मा का ध्यान और वाहन चलाने की कुशलता ---
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इस शरीर में हम सब एक किरायेदार हैं, जिसका किराया/भाड़ा तो किसी भी परिस्थिति में एक न एक दिन चुकाना ही पड़ेगा। संसार के सारे संबंध इस नश्वर शरीर से हैं, जो परमात्मा द्वारा किराये/भाड़े पर दिया हुआ एक वाहन (जैसे मोटर साइकिल) मात्र है। इसका भाड़ा चुकाने के लिए हमारे पास क्या है? पास में चाहे कुछ भी नहीं हो, लेकिन भाड़ा तो किसी भी परिस्थिति में चुकाना ही पड़ेगा, कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं चुकाया तो चक्रवर्ती ब्याज सहित चुकाना पड़ेगा। इसके लिए वे कोई दूसरा वाहन (जैसे किसी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े जैसे जीव-जन्तुओं का शरीर) चलाने को दे देंगे।
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जन्म और मृत्यु - इस शरीर रूपी वाहन के धर्म हैं। जिस दिन इस वाहन की आयु समाप्त हो जाएगी, उस दिन संसार के सारे संबंध भी समाप्त हो जायेंगे। हम सब शाश्वत जीवात्माएँ हैं, जिनका एकमात्र संबंध परमात्मा से है। जिस दिन हम परमात्मा से जुड़ जायेंगे, उस दिन सारा किराया माफ हो जाएगा। अभी इस समय तो हम इस शरीर में जीवित रहने का भाड़ा ही चुका रहे हैं। इस वाहन की ठीक से देखभाल करते हुए और कुशलता से चलाते हुए इस लोकयात्रा को हम पूर्ण करें, यही वे चाहते हैं। यदि हम उनकी इस इच्छा को पूरी करते हैं, तो हम जीवभाव से मुक्त और स्वतंत्र हो जायेंगे।
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अब अंतिम प्रश्न है -- वाहन चलाने की कुशलता हम कैसे अर्जित करें? यह कुशलता आएगी परमात्मा के ध्यान से, जिसे सीखने के लिए हमें किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना होगा। अंतर्चेतना में भगवान हमारे समक्ष समान भाव से सर्वत्र व सर्वदा बिराजित हैं। उन्हें हम कभी भी नहीं भूलें, और सदा अपनी स्मृति में रखें। उनकी कृपा की याचना करने की अपेक्षा हम उन्हें स्वयं को ही अपने अपने हृदय में बैठा कर उन्हें ही इस वाहन का चालक बना लें। वे ही यह वाहन हैं, और वे ही इस वाहन के चालक हैं। वे हमें भक्ति और समर्पण का अवसर देकर कृतार्थ कर रहे हैं। हम निमित्त मात्र बनकर उन्हें समर्पित हो जाएँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०२१


"राम" नाम और "ॐ" दोनों का फल एक ही है ---

 

"राम" नाम और "ॐ" दोनों का फल एक ही है ---
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कुछ संतों ने संस्कृत व्याकरण और आध्यात्मिक साधना दोनों से ही सिद्ध किया है कि तारक ब्रह्म "राम" और "ॐ" दोनों की ध्वनि एक ही है।
संस्कृत व्याकरण की दृष्टी से --
राम = र् + आ + म् + अ |
= र् + अ + अ + म् + अ ||
हरेक स्वर वर्ण पुल्लिंग होता है अतएव पूरा स्वतंत्र होता है| इसी तरह हर व्यंजन वर्ण स्त्रीलिंग है अतः वह परतंत्र है|
'आद्यन्त विपर्यश्च' पाणिनि व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार विश्लेषण किये गए 'राम' शब्द का 'अ' सामने आता है| इससे सूत्र बना --- अ + र् + अ + अ + म् |
व्याकरण का यह नियम है कि अगर किसी शब्द के 'र' वर्ण के सामने, तथा वर्ण के पीछे अगर 'अ' बैठते हों, तो उसका 'र' वर्ग 'उ' वर्ण में बदल जाता है|
इसी कारण राम शब्द के अंत में आने वाले र् + अ = उ में बदल जाते हैं|
इसलिए अ + र् + अ = उ
अर्थात उ + अ = ओ हुआ|
ओ + म् = ओम् या ॐ बन गए|
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इसी तरह 'राम' शब्द के भीतर ही 'ॐ' मन्त्र निहित है| राम शब्द का ध्यान करते करते राम शब्द 'ॐ' में बदल जाता है| जिस प्रकार से ॐकार मोक्ष दिलाता है, उसी तरह से 'राम' नाम भी मोक्ष प्रदान करता है| इसी कारण से 'राम' मन्त्र को तारकब्रह्म कहते हैं|
जो साधक ओंकार साधना करते हैं और जिन्हें ध्यान में ओंकार की ध्वनी सुनती है वे एक प्रयोग कर सकते हैं| ध्यान में ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पिछले भाग में मेरु-शीर्ष (Medulla Oblongata) के ठीक ऊपर सुनाई देती है| यह प्रणव नाद मेरु-शीर्ष से सहस्त्रार और फिर समस्त ब्रह्माण्ड में फ़ैल जाता है| आप शांत स्थान में कमर सीधी रखकर आज्ञा चक्र पर दृष्टी रखिये और मेरुशीर्ष के ठीक ऊपर राम राम राम राम राम शब्द का खूब देर तक मानसिक जाप कीजिये| आप को ॐकर की ध्वनी सुननी प्रारम्भ हो जायेगी और राम नाम ॐकार में बदल जाएगा| कुछ समय के लिए कानों को अंगूठे से बंद कर सकते हैं| धन्यवाद| जय श्रीराम !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
७ सितंबर २०१५