Tuesday 28 September 2021

"श्रद्धा" और "व्रत" क्या हैं? ---

 

"श्रद्धा" और "व्रत" क्या हैं?
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जीवन में जैसी हमारी "श्रद्धा" है, वही हम हैं| जैसी हमारी "श्रद्धा" होती हैं वैसे ही हम बन जाते हैं| गीता में भगवान कहते हैं ...
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है||
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हमारे ऊपर जैसे संस्कार बार-बार डाले जाते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं| "श्रद्धा" का निर्माण "व्र्त" से होता है| "व्रत" का अर्थ भूखा रहना नहीं है| किसी नियम या विचार का वरण कर के उस पर स्थिर रहने का नाम "व्रत" है| जो हम बनना चाहते हैं, उसके संस्कार डालने पड़ेंगे, बार - बार उसको दोहराना पड़ेगा| यही वास्तविक "श्रद्धा" है और यही वास्तविक "व्रत" है|
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जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं| जो भी भाव गहराई से ह्रदय में बैठ जाता है, प्रकृति वैसा ही हमें बना देती है| जो और जैसे भी हम बनना चाहते हैं ह्रदय में गहराई से उसी का चिंतन करते हुए उस पर दृढ़ रहना चाहिए, हम निश्चित रूप से वह ही बन जायेंगे|
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उपास्य यानि परमात्मा के जिन गुणों का हम चिंतन करते हैं वे गुण निश्चित रूप से उपासक में आ जाते हैं| परमात्मा का निरंतर चिंतन करने से निश्चित रूप से हम मानवीय चेतना से मुक्त हो कर परमात्मा से जुड़ जाते हैं| यही अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होना है, यही मुक्ति है| इसी के लिए ध्यान साधना की जाती है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२०

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