Monday, 5 December 2016

परमात्मा एक ईर्ष्यालू प्रेमी हैं .....

परमात्मा हमारे माता-पिता आदि सब कुछ हैं, पर वे एक ईर्ष्यालू प्रेमी भी हैं जो हमारा शत-प्रतिशत ध्यान चाहते हैं| जब तक हम उन्हें अपना शत-प्रतिशत प्रेम न दें तब तक वे कोई प्रतिक्रया नहीं करते| वे चाहते हैं कि हम सिर्फ उन्हीं को प्रेम करें, उनके रचे हुए संसार को नहीं| संसार में आसक्ति है तो वे नहीं आते|
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अतः जब तक हम उन्हें पा नहीं लेते तब तक मन को उन्हीं में लगाए रखें, उन्हीं में मनोरंजन करें, बाहर के संसार में कोई मनोरंजन न ढूँढे| बाहर के संसार में मनोरंजन का अर्थ है .... भगवान को खोना|
पहले प्रभु को पूर्ण समर्पित हो जाएँ, फिर उनकी मर्जी, वे चाहे जो करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हो जाये अगर शाहे-खुरासां का इशारा , सिजदा न करूँ हिन्द की नापाक जमीं पर .....

"हो जाये अगर शाहे-खुरासां का इशारा , सिजदा न करूँ हिन्द की नापाक जमीं पर "

यानी ..... "अगर तुर्की का खलीफा इशारा भी कर दे तो भारत की नापाक जमीन पर नमाज भी नहीं पढूंगा|"
29 दिसंबर 1930 को इलाहबाद में जब "अल्लामा इकबाल" की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग का 25 वां सम्मलेन हुआ तब इकबाल ने यह कहा था|
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चूँकि नापाक का अर्थ अपवित्र होता है, और उसका विलोम शब्द "पाक" यानि पवित्र होता है| यही शब्द पाकिस्तान की नींव यानि बुनियाद बनी|
पाकिस्तान एक विचार था जो अल्लामा इकबाल के दिमाग की उपज थी| जिन्ना तो एक उपकरण मात्र था| वह तो ब्रिटेन में जाकर बस गया था और बापस भारत आने की उसकी इच्छा भी नहीं थी| मुस्लिम लीग वाले बड़ी मुश्किल से बड़ी मान-मनुहार करके उसे बापस भारत लाये थे|
पाकिस्तान की माँग करने के बाद भी वह अपनी माँग छोड़ने को तैयार था बशर्ते उसे स्वतंत्र भारत का प्रथम प्रधान मंत्री बनाया जाए| नेहरु इसके लिए तैयार नहीं था अतः भारत के विभाजन की त्रासदी हमें झेलनी पडी|
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”सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा” का लेखक मोहम्मद इकबाल (अल्लामा इकबाल) वास्तव में पाकिस्तान का जनक था| वह सियालकोट का रहने वाला और जन्म से एक कश्मीरी ब्राह्मण था जो बाद में मुसलमान बन गया| इसी इकबाल ने अपने इसी गीत में एक जगह लिखा है ….. ”मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”|
परन्तु इसी इकबाल ने अपनी एक किताब ”कुल्लियाते इकबाल” में अपने बारे में लिखा है .... ”मिरा बिनिगर कि दरहिन्दोस्तां दीगर नमी बीनी ,बिरहमनजादए रम्ज आशनाए रूम औ तबरेज अस्त”| अर्थात ..... मुझे देखो, मेरे जैसा हिंदुस्तान में दूसरा कोई नहीं होगा, क्योंकि मैं एक ब्राह्मण की औलाद हूँ लेकिन मौलाना रूम और मौलाना तबरेज से प्रभावित होकर मुसलमान बन गया|
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कालांतर में यही इकबाल मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बना| आश्चर्य की बात यह है कि जिस इकबाल ने “सारे जहाँ से अच्छा हिदोस्तान हमारा” और ”मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” जैसी पंक्तियाँ लिखीं थीं उसी इकबाल ने मुस्लिम लीग के खिलाफत मूवमेंट के समय 1930 के इलाहाबाद मुस्लिम लीग के सम्मलेन में कहा …..
“हो जाये अगर शाहे खुरासां का इशारा ,सिजदा न करूं हिन्द की नापाक जमीं पर“
यानि यदि तुर्की का खलीफा (जिसको अँगरेजों ने 1920 में गद्दी से उतार दिया था) इशारा भी कर दे तो मैं इस “नापाक हिंदुस्तान” की जमीन पर नमाज भी नहीं पढूंगा|
उसके इस गीत की एक पंक्ति जो हमें पढ़ाई जाती है, वह है ..... "हिंदी है हम वतन के हिन्दोस्ताँ हमारा"| यह किसी अन्य द्वारा बदला हुआ रूप है| वास्तव में यह इस प्रकार है .... "मुस्लिम हैं हम वतन के हिन्दोस्ताँ हमारा"|
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जब कांग्रेस शासन में अर्जुन सिंह मानव संसाधन मंत्री थे तब मोहम्मद इकबाल की जन्म शताब्दी मनाने के लिए भारत सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये थे|
अभी कुछ दिनों पूर्व एक संस्था ने माँग की है कि मोहम्मद इकबाल को भारत रत्न का सम्मान दिया जाए और उसके नाम पर एक उर्दू विश्वविद्यालय खोला जाए|
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यह संसार बड़ा विचित्र है| यहाँ कुछ भी हो सकता है| आश्चर्य की बात यह कि जिस इकबाल का जन्म एक हिन्दू ब्राह्मण के घर हुआ था, जो खूब पढ़ा लिखा होकर लाहौर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर भी था, वही इकबाल एक परम हिन्दू द्रोही और पाकिस्तान का जनक बना|
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हे प्रभु निरंतर हमारी रक्षा करो और किसी भी तरह का बुरा विचार हमारे मन में उत्पन्न न हो|
ॐ तत्सत् | ॐ शांति | ॐ ॐ ॐ ||

हे परमात्मा, हे परमप्रिय, अपने नियमों में परिवर्तन करो, अपना कानून बदलो .....

हे परमात्मा, हे परमप्रिय, अपने नियमों में परिवर्तन करो, अपना कानून बदलो|
क्या कोई पुत्र अपने पिता के बिना रह सकता है?
क्या कोई पिता अपने पुत्र से छिप कर रह सकता है? फिर क्यों छिपे हो?
तुम्हें पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है अतः तुम अब और छिप नहीं सकते|
बड़ी बड़ी बातों से अब और ना बहलाओ|
तुम हमारे माता-पिता हो, तुमने हमें जन्म दिया है|
हम सिर्फ तुम्हारे हैं, तुम्हारे सिवा हमारा और कोई नहीं है|
इसी समय और यहीं तुम्हें प्रकट होना होगा|
यह कोई दुराग्रह नहीं है, यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है|
अगर कोई नियम बाधक है तो उस नियम को बदलो, अपना कानून बदलो|
हमें तुम्हारे साक्षात्कार से कम और कुछ भी नहीं चाहिए|
न तो हमें तुम्हारी माया से कोई मतलब है, और न तुम्हारे ज्ञान से|
हमें सिर्फ और सिर्फ तुम चाहिए, और कुछ भी नहीं|
अपनी माया के आवरण को भेदकर हमारे समक्ष इसी क्षण प्रकट हों|
तुन्हारे बिना अब और नहीं रह सकते|
ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

जो अनंत को चुनता है, वह अनंत द्वारा चुन लिया गया है .....

"जो अनंत को चुनता है, वह अनंत द्वारा चुन लिया गया है|"

5 दिसंबर 1950 को श्रीअरविन्द ने देह त्याग किया| वे एक महान योगी और युगदृष्टा ऋषि ही नहीं बल्कि एक अवतार थे| उन्होंने अपनी समस्त साधना भारतवर्ष और सनातन धर्म के लिए ही की थी| वास्तव में उन्होंने अपना सारा जीवन ही भारतवर्ष और सनातन धर्म के लिए ही जीया|

उन्होंने और श्रीमाँ ने मनुष्य जाति के भावी क्रमिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया जो शीघ्र ही फलीभूत होगा| उनका अंग्रेजी में लिखा महाकाव्य "सावित्री" वर्तमान युग की महानतम आध्यात्मिक रचना है|
उन्होंने अतिमानसी चेतना के अवतरण की जो बात कही है उस अवतरण की प्रतीक्षा मुझे भी है| उनके अनुसार जब अतिमानसी चेतना अवतरित होगी तब समस्त विश्व का रूपांतरण होगा| कोई समय सीमा उन्होंने नहीं बताई है, पर निश्चित रूप से वे इस चेतना के अवतरण की व्यवस्था कर गए हैं|
 

भारत के अखंड होने और और सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की भी भविष्यवाणी वे कर गए हैं| अतः ऐसा निश्चित रूप से होगा ही|
 

जय जननी जय भारत !

महर्षि अरविंद ....

महर्षि अरविंद     (लेखक : आचार्य बाल कृष्ण. 5 दिसंबर २०१३)
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महर्षि अरविंद देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद के देवदूत, मानवता के प्रेमी, ज्ञानी, क्रन्तिकारी और महायोगी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। वे संस्कृत, बंगला आदि स्वदेशी तथा ग्रीक, इतालवी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिक विचारधाराओ का यौगिक स्तर से समन्वय किया।
अरविन्द घोष का जन्म १५ अगस्त ,१८७२ को कलकत्ता के बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री कृष्णधन घोष कलकत्ता के प्रसिद्द वकील थे। अरविन्द की माता स्वर्णलता देवी धार्मिक विचारो की महिला थी, किन्तु पति के निर्देश या आदेश पर उन्हें भी अपने आप को पाश्चात्य जीवन - शैली में रंगना पड़ा था। पिता के इस प्रभाव के कारण ही अरविन्द की शिक्षा -दीक्षा अंग्रेजी वातावरण में हुई। उनके पिता ने उन्हें पांच वर्ष की अवस्था में दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया, जिसका प्रबंध यूरोपीय लोग करते थे।
अरविन्द सात साल तक स्वेदश में रहे। उसके बाद उनके पिता ने उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध का प्रबंध इंग्लैंड में कर दिया और उन्हें उनके दोनों भाइयो श्री विनय भूषण घोष और श्री मनमोहन घोष के साथ इंग्लैंड भेज दिया। वहां मेंचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन पोषण हुआ। पिता ने अंग्रेज परिवार को अच्छी तरह सावधान कर दिया था की अरविन्द के जीवन पर किसी भी तरह से भारतीय वातावरण का प्रभाव न पड़े।
सन १८८४ में अरविन्द ने लन्दन के सैंट पाल स्कूल में प्रवेश लिया। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे। अठारह साल की अवस्था में उनहोने उत्तम श्रेणी में छात्रवृत्ति प्राप्त करने पर कैम्ब्रिज युनिवेर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्रवेश लिया। वहीं उन्होंने लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच,इतालवी, जर्मन एवं स्पेनिश भाषाए सीखी। उन्होंने ग्रीक और लैटिन में कविताए भी रची। वह कॉलेज के विभिन कार्यक्रमों में सक्रियिता से भाग लेते थे और प्रतियोगिताओ में पुरस्कार भी जीतते थे। अरविन्द ने आई .सी.एस . के परीक्षा दी, उत्तीर्ण हुए ,पर घुड़सवारी में असफल हो गए।
फ़रवरी १८९३ में अरविन्द भारत लौटे। सन १८९३ से १९०६ तक लगभग तेरह वर्ष अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में रहे। वे बड़ोदा कॉलेज में फ्रेंच एवं अंग्रेजी पढ़ाते थे। अरविन्द बड़ोदा नरेश के लिए समय-समय पर व्याख्यान भी लिखते थे। वहीं वह श्री ब्रह्मानंद और विष्णु भास्कर लेले नामक योगियों के संपर्क में आये,जिनसे उन्होंने योग विद्या सीखी और जिसका वह नियमित अभ्यास करते रहते थे।
जिन दिनों अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में थे उन दिनों देश भर में स्वाधीनता-संग्राम की लहर जोर पकड़ती जा रही थी।अरविन्द भी उस लहर में सहज ही बहने लगे। बड़ोदा से अरविन्द समय -समय पर कलकत्ता भी जाते रहते थे। वहां वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों के सहयोगी बन गए।
अरविन्द नोकदार जूते पहनते थे। उनका पहनावा साधारण होता था। धारीदार खादी,गर्दन तक फैले बाल ,सावला रंग,एकहरा शरीर -यही उनका साधारण व्यक्तित्व था।वह अन्य रईशों की तरह कोमल गद्दों पर नहीं सोते थे, बल्कि नारियल के रेशो से बने गद्दों पर सोते थे। बिस्तर ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत सुख सुविधा के प्रति भी उदासीन रहते थे। उनके पास एक पुरानी बग्गी थी, जिसके लिए एक घोडा भी था -बेहद सुस्त। वह इस बग्गी पर सैर करने जाते थे।

सन १९०१ में भूपाल चन्द्र बोस की कन्या मृणालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। मृणालिनी देवी कुछ समय तक बड़ोदा में रही ,किन्तु बाद में वे कलकत्ता लौट आयी।सन १९०५ में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया ,जिसके परिणाम स्वरूप देश भर में बंग-भंग विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। उन्हीं दिनों कलकत्ता में सुबोध मल्लिक ने एक महाविद्यालय की स्थापना की ,जिसके लिए अरविन्द घोष भी आमंत्रित किया गए। अरविन्द ने ७५०रुपए का वेतन छोड़ कर उक्त महाविद्यालय के प्राचार्य का पद १५० रूपये में काम करना स्वीकार कर लिया। कुछ दिनों बाद वे भी न मिले। सन १९०७ में अरविन्द ने नेशनलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता की। यह कांग्रेस का ही क्रांतिकारी संघठन था। इसी वर्ष अरविन्द ने विपिन चन्द्र पाल के अंग्रेजी दैनिक \'वन्दे मातरम\' में काम करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने \'वन्दे मातरम \' के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। संपादक के रूप में श्री अरविन्द को अभियुक्त बनाया गया। सारे देश में हलचल मच गयी।

विपिन चन्द्र पाल ने इस अवसर पर अरविन्द का बहुत सहयोग -समर्थन किया। यहाँ तक की उन्होंने अख़बार के संपादक के रूप में में श्री अरविन्द को स्वीकार ही नहीं किया और साक्षी के रूप में सत्य पाठ करने से इंकार कर दिया। फलतः उन्हें छः माह के लिए जेल जाना पड़ा। किन्तु सरकार अरविन्द को दोषी सिद्ध नहीं कर पाई। अदालत का निर्णय सामने आते ही चारो ओर ख़ुशी के लहर फैल गयी। छोटे -बड़े अनेक पत्र -पत्रिकाओ में अभिनन्दन किया गया ,सम्पादकीय लिखे गए ,सभा गोष्ठिया आयोजित करके उन्हें सम्मानित किया गया।
अरविन्द की क्रन्तिकारी गतिविधियों से सरकार बहुत विचलित हो उठी। किन्तु वह उनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रही थी ,क्योकि वह क्रन्तिकारी कार्यो में कभी आगे बढकर सामने नहीं आते। बल्कि प्रष्ठभूमि में रहते थे। फिर भी २ मई १९०८ को पुलिस ने आलीपुर बम्ब काण्ड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई।

कलकत्ता के मुररिपुकुर इलाके में एक बगीचे में एक छोटा सा मकान और पोखर था। पुलिस नें अरविन्द को पकड़ने के लिए वहां छपा मारा ; किन्तु वहां अरविन्द नहीं उनके भाई रहते थे। पुलिस ने वहां अरविन्द को न पाकर ग्रे स्टेट पर अरविन्द के आवास को घेर लिया। किन्तु तलाशी में पुलिस को वहां कुछ भी नहीं मिला। फिर भी पुलिस ने अलीपुर बम्ब कांड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें एक वर्ष त़क विचारधीन कैदी के रूप में जेल में रखा।यह मामला अलीपुर के मजिस्ट्रेट से सेशन जज के पास गया।
इस षड़यंत्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था ,उसकी एक दिन जेल में ही ह्त्या कर दी गयी।अरविन्द के पक्ष में प्रसिद्द बैरिस्टर चितरंजन दास मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। उनहोने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द के सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बंधित अदालती फैसले ६मई १९०९ को जनता के सामने आया।३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी। वहां अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ ,जो इतिहास में \'उत्तरपाडा अभिभाषण \' के नाम से प्रसिद्द हुआ।

जेल से छूटने पर अरविन्द ने अंग्रेजी में \'कर्मयोगिन \'और बंगला में \'धर्म \'नाम से दो पत्रिकाओ का संपादन शुरू किया। यह दोनों पत्रिकाए राजनीती से हटकर सामाजिक समस्याओ पर आधारित थी। हाँ ,\'धर्म \'में अध्यात्मिक एवं दार्शनिक चर्चा को भी महत्व दिया जाता था। फिर भी इनमे छिपे तौर पर क्रांति की झलक मिल जाती थी। शायद यही कारण है की प्रत्यक्षत अरविन्द का रुझान अध्यात्मिक सा होते हुए भी बंगाल के गवर्नर और भारत के गवर्नर-जनरल दोनों ही यह समझते थे की अरविन्द सम्पूर्ण भारत में सबसे ज्यादा खतरनाक आदमी है। तत्कालीन वायसरॉय के सचिव ने लिखा था -\"सारी क्रन्तिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है,जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।

अंग्रेज सरकार उनके प्रति पूर्णत निश्चिंत नहीं हो सकी थी। यही लगता था की कहीं अरविन्द गुप्त रूप से क्रांति या विद्रोह की योजना न बना रहे हों। इसलिय वह किसी भी बहाने से उन्हें जेल में डालना चाहती थी। किसी तरह भगिनी निवेदिता को सरकार की यह शंका और योजना पता चल गयी थी। उन्होंने तुरंत अरविन्द को भूमिगत होने की सलाह दी। लेकिन अरविन्द की विडम्बना यह थी की वह किसी के कहने पर सहज अमल नही करते थे,बल्कि अन्तः प्रेरणा या भगवान् के आदेश पर निर्भर रहते थे। उनके अनुसार व्यक्ति की अन्तः प्रेरणा ही उसका पथ प्रदर्शक करते है। एक दिन जब उन्हें अन्तः प्रेरणा के रूप में भगवान् का आदेश मिला कि चन्दन नगर चले जाओ , तो वे १५ मिनट में दो सेवको के साथ में गंगा किनारे जा पहुचे और चंदर नगर जाने वाली नौका में जा बैठे। आश्चर्य की बात यह थी की उनके घर पर नज़र रखने वाली पुलिस को कुछ भी पता न चाल सका। चंदर नगर में अरविन्द श्री मोतीलाल के यह ठहरे ,जो एक देश भक्त और क्रन्तिकारी थे।
कुछ दिन के बाद अरविन्द को पोंडिचेरी जाने के लिए अन्तः प्रेरणा मिली और वे तुरंत चंदर नगर से कलकत्ता के लिया चल दिया। कलकत्ता में वे चादं नाम के टिकट खरीद कर पोंडिचेरी जानेवाले जहाज में सवार हों गए। ४ अप्रैल १९१० को दोपहर के समय श्री अरविन्द पोंडिचेरी पहुचे। वहां वह \'भारत\' पत्रिका के प्रकाशक एवं प्रभावशाली नेता श्री निवासचारी के सहयोग से कालवे शंकर शेट्टी के घर ठहरे। कुछ दिन बाद अरविन्द ने एक घर वही किराये पर ले लिया।

उधर ७ अप्रैल १९१० सरकार ने जब उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेजी तो अरविन्द का खाली घर देख कर हाथ मालती रह गयी। उनके छिपने के सारे ठिकानो पर छापे मारे गए; किन्तु फिर भी पुलिस उनका पता न लगा सकी। बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी कई दिन तक वाद -विवाद हुआ की पुलिस की आँखों में धूल झोंककर वे कहाँ चले गए। जब ख़ुफ़िया विभाग से अंग्रेज सरकार को अरविन्द के पोंडिचेरी पहुचने के खबर मिली तो सरकार उन्हें ब्रिटिश भारत में लाने की कोशिश करने लगी। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने फ़्रांसिसी सरकार से मदद मांगी ;उस वक्तपोंडिचेरी फ़्रांसिसी सरकार के आधीन था।
कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओ ने अरविन्द से राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर सभापति बनने का अनुरोध किया ; किंतु अरविन्द राज़ी नहीं हुआ। पोंडिचेरी में अरविन्द ने \'आर्य\' नामक अंग्रेजी मासिक का संपादन किया। इसके अतरिक्त वे योग साधना में भी जुट गए। २९मर्च ,१९१४ को \"श्री माँ\" से उनके भेट हुई। वे पेरिस से पोंडिचेरी आये थी। श्री माँ के संपर्क से अरविन्द का प्रभाव बढ गया। अनेक लोग उनके विचारो से प्रभावित हुए। देश -विदेश से लोग उनका सान्निध्य पाने के लिया आने लगे। धीरे- धीरे श्री अरविन्द का आवास आश्रम बन गया। जिसके संगठन का भार आया श्री माँ पर। उन्होंने अपनी अदभुद संघठन शक्ति से अरविन्द आश्रम की प्रतिष्ठा की।

अरविन्द प्राय तपस्या में लीन रहते। उन्होंने जन -सामान्य से भी मिलना जुलना बंद कर दिया था। विशेष परिस्तिथियों में ही वह किसी से मिलते थे ; किन्तु जिज्ञासुओ और साधुओ के पत्रों के उत्तर अवश्य देते। श्री अरविन्द आश्रम में आश्रमवासी सारा काम स्वयं करते थे ,क्योकि अरविन्द की धारणा थी - शारीरिक कार्य शारीर द्वारा की गए प्रार्थना है। खेती से लेकर अनेक कुटीर शिल्प तक आश्रम का कार्य फैला हुआ था। श्री अरविन्द के आश्रम के साधक कोई विशेष तरह की पोशाक नहीं पहनते थे। वे किसी विशेष बंधे-बंधाये नियम या पूजा -अर्चना में विश्वास नहीं करते। आश्रम एक विशेष विभाग है -अरविन्द अन्तेर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र ,जिसका उद्देश्य है पूर्णांग शिक्षा -अर्थात शिक्षार्थी की देह ,प्राण ,मन ,आत्मा का यथार्त विकास।अरविन्द की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य था अपने आप को पहचानना।

वर्तमान में अरविन्द के आश्रम में विभिन्न देशो और प्रदेशो के श्रद्धालु रहते है। द्वितीय महा युद्ध के दौरान अरविन्द के सार्वजिनक रूप से मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया और \'\' क्रिस्प योजना\'\' स्वीकार करने की अपील की। अरविन्द का विचार था की समस्त विश्व और विश्वातीत जगत एक ही चेतना भिन्न-भिन्न रूप है। उन्होंने परम्परागत प्राचीन योग साधना सभी प्रणालियों का अनुभव प्राप्त किया था और उनके सार को अपने \'पूर्णयोग \'के रूप में अपना लिया। समाज व राजनीती के क्षेत्र में श्री अरविन्द व्यक्ति की स्वाधीनता के पक्ष में थे। उनकी द्रष्टि में हर इकाई पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हुए भी समष्टि का अंग है और इन दोनों में कोई संघर्ष नहीं होता। वह \'विश्वराज्य \' के पक्षधर थे, जिसमे हर राज्य और हर समूह स्वतंत्र रूप से भाग ले सके।
आश्रम में श्री अरविन्द अपने चिंतन और मनन को गंभीरतापूर्वक लिपिबद्ध किया। उनके कृतित्व को चार भागो में बांटा जा सकता है-१.योग एवं आध्यात्म; 2. समाज ,संस्कृति एवं राजनीती ; ३. कविता ,नाटक आदि ; ४.चिट्ठी -पत्री। श्री अरविन्द की रचनाओ का संग्रह \'अरविन्द रचनावली \'के नाम से सन १९७२ में उनके जन्मशती पर तीस खंडो में प्रकाशित हुआ था। बाद में शोधकरतो ने कुछ अन्य रचनाए भी खोज निकाली और उनके १२५ वी जयंती पर सन१९९७ में उनके रचनावली पैतीस खंडो में प्रकाशित हुयी।
5 दिसंबर, 1950 को श्री अरविन्द आपनी देह का त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।

समाज में भक्ति .....

समाज के अनेक वर्गों में परमात्मा के प्रति भक्ति निश्चित रूप से बढ़ रही है| यह मैं पिछले कई वर्षों से देख रहा हूँ| यह भी हो सकता है कि मैं समाज के उन्हीं वर्गों की ओर आकर्षित हो रहा हूँ जिनमें भक्ति भाव बढ़ रहा है| पर जो भी लोग परमात्मा की ओर बढ़ रहे हैं वे बहुत दृढ़ता से बढ़ रहे हैं| पूरे भारत में अनेक अच्छे अच्छे साधकों से मेरे संपर्क हैं| स्वाभाविक रूप से वे ही लोग मुझे आकर्षित करते हैं जो परमात्मा से प्रेम करते हैं| अन्यों के प्रति मेरा कोई आकर्षण नहीं है|
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आज श्री बांकेबिहारी प्राकट्योत्सव और श्रीराम-जानकी विवाहोत्सव के उपलक्ष में एक मंदिर में दो घंटे का भजन-कीर्तन का कार्यक्रम था जहाँ मैं निमंत्रित था| मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब बताये हुए समय पर पूरे मंदिर का प्रांगण भक्त महिलाओं और पुरुषों से भर गया और दो घंटे तक सबने खूब भजन गाये और कीर्तन किया| पूरा वातावरण भक्ति से झूम उठा|
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धन्य हैं वे माताएँ जो अपनी घर-गृहस्थी का काम भी कुशलता से संभालती हैं, अपने बच्चों को अच्छे संस्कार भी देती हैं, परोपकार का कार्य भी करती हैं और भगवान की भक्ति का भी प्रचार करती हैं| हमारा धर्म और संस्कृति ऐसी माताओं के कारण ही सुरक्षित है| भगवान उनकी रक्षा और निरंतर मार्ग-दर्शन करे|
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ॐ ॐ ॐ ||

आज देश में जैसी व्यवस्था है उसमें बच्चों को अच्छे संस्कार कैसे दें?

आज देश में जैसी व्यवस्था है उसमें बच्चों को अच्छे संस्कार कैसे दें?
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यह प्रश्न मुझसे समाज के अनेक प्रबुद्ध लोग पूछते हैं कि आज की धर्मनिरपेक्ष (अधर्मसापेक्ष), सनातन हिन्दू धर्म विरोधी शिक्षा व्यवस्था में, दूरदर्शन के धारावाहिकों के प्रभाव से, और संयुक्त परिवारों के टूटने से युवा वर्ग में चारित्रिक विकृतियाँ परिलक्षित हो रही हैं, इसका क्या समाधान है? अनेक भले लोग इस से व्यथित हैं|
विवाह की संस्था नष्ट हो रही है, समाज में बड़े बूढ़ों की उपेक्षा हो रही है, और झूठ कपट का व्यवहार बढ़ रहा है| कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए?
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इसका एकमात्र उत्तर हो सकता है ......"स्वयं के उदाहरण से" ......|
अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता| जैसा हमारा स्वयं का आचरण होगा वैसा ही हमारे बच्चों का होगा| हम बच्चों में अच्छे संस्कार दे सकते हैं, उन्हें सर्वांगीण विकास के लिए अच्छा वातावरण देकर और उनके ह्रदय में बाल्यकाल से ही परमात्मा के प्रति प्रेम के संस्कार भरकर| उनमें यह भाव भरना होगा कि वे जीवन में जो भी कार्य करेंगे वह सर्वव्यापी भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करेंगे| बाल्यकाल से ही उन्हें ध्यान करने का प्रशिक्षण और अभ्यास कराना होगा|
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जब उनके जीवन के केंद्र बिंदु भगवान होंगे तो स्वतः ही सारे अच्छे संस्कार
जागृत होंगे और वे जो भी करेंगे वह उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ होगा|
अन्य कोई उपाय नहीं है| धर्म की रक्षा धर्म के आचरण से ही होती है|
व्यवस्था अपने आप बदलेगी|
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शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ ||

"नौसेना दिवस" पर सभी पूर्व और वर्तमान नौसैनिकों को शुभ कामनाएँ ...

"नौसेना दिवस" पर सभी पूर्व और वर्तमान नौसैनिकों को शुभ कामनाएँ .....
> 4 दिसंबर 1971 को Operation Trident नामक अभियान चलाकर नौसेना ने पाकिस्तान के कराची बन्दरगाह पर सफल आक्रमण किया था| उस दिन की स्मृति में 4 दिसंबर को नौ सेना दिवस मनाया जाता है|
उस समय बंगाल की खाड़ी में भी नौसेना ने बहुत प्रशंसनीय कार्य किया था| नौसेना की पनडुब्बी INS Khanderi, विमान वाहक युद्धपोत INS Vikrant आदि ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के समुद्री मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था| पाकिस्तान की एक पनडुब्बी PNS Gazi को विशाखापट्नम के बाहर डुबा दिया गया था|
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अंग्रेजों के विरुद्ध नौसेना का विद्रोह और भारत की स्वतन्त्रता .....
> भारतीय नौसेना का आज़ादी से पूर्व का एक गौरवशाली इतिहास और है जिसे पढ़ाया नहीं जाता| सन 1946 में तत्कालीन रॉयल इंडियन नेवी के नौसैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था जिसमें सभी अँगरेज़ अधिकारियों को कोलाबा में बंद कर उनके चारों ओर बारूद लगा दी थी| नौसैनिकों ने भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में प्रदर्शन भी किया और बंबई (मुंबई) की सारी जनता नौसैनिकों के पक्ष में आ गयी थी| भारतीय सिपाहियों ने अन्ग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने बंद कर दिए| इस घटना से अँगरेज़ इतना डर गये थे की उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया|
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भारत को आज़ाद करने का जो आधिकारिक कारण ब्रिटिश संसद में वहाँ के प्रधानमंत्री ने बताया था वह यह था कि .....
........ हिन्दुस्तानी भाड़े के सैनिकों ने अँगरेज़ अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया है और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात ब्रिटिश सेना इतनी बुरी तरह टूट चुकी है कि उनमें भाड़े की हिन्दुस्तानी फौज को काबू में रखने का सामर्थ्य नहीं है| ......
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अँगरेज़ एक तो क्रांतिकारियों से, और नेताजी सुभाष बोस द्वारा आज़ाद हिन्द फौज के गठन से ही डरे हुए थे| फिर नौसेना के विद्रोह से तो बिलकुल ही डर गए थे| भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अधिकारियों को सलामी देना और उनका आदेश मानना बंद कर दिया था| अँगरेज़ समझ गए कि भारत में कुछ समय और रहे तो उन्हें मार-पीट कर और धक्का देकर भगा दिया जाएगा| इसलिए वे भारत के टुकड़े कर सत्ता अपने मानस पुत्रों को सौंप कर चले गए|
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हमें झूठा इतिहास पढाया जाता है कि .... दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल ..... जो कि भारत के इतिहास का सबसे बड़ा झूठ है|
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भारत माता की जय | वन्दे मातरम् | ॐ ॐ ॐ ||

एक सुझाव जिस का मैं भी ईमानदारी से पालन करूँगा .....

एक सुझाव जिस का मैं भी ईमानदारी से पालन करूँगा .....
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(1) कल से हम सब एक निजी यानि व्यक्तिगत डायरी रखेंगे जिसमें लिखेंगे कि ईमानदारी से कितने घंटे भगवान का ध्यान किया|
अपनी हर कमी, आत्म-सुझाव और आत्मोन्नति से सम्बन्धी हर बात लिखेंगे|
(2) जितना हो सके उतना मानसिक रूप से निःसंग रहेंगे| उन्हीं लोगों से मिलेंगे जो हमारी साधना में सहायक हों|
धन्यवाद |

सब सम्बन्धियों का संबंधी एकमात्र परमात्मा है .......

सब सम्बन्धियों का संबंधी एकमात्र परमात्मा है .......
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जी हाँ, यह सत्य है कि स्वयं परमात्मा ही है जो सभी सम्बन्धों में व्यक्त है,अतः हमें सारे संबंधों में परमात्मा के ही दर्शन करने चाहिए|
माता-पिता के रूप में भी भगवान ने ही हमें प्रेम किया है, भाई-बहिनों, सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में भी भगवान ही आये हैं, और जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वे सब भगवान ही है, और हम भी वही हैं|
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और भी स्पष्टता से कहें तो हमारा असली सम्बन्धी हमारा "आत्म-तत्व" ही है| वही प्रत्यगात्मा है| भगवान ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, प्रतीत होने वाले अन्य सब उसी के रूप हैं| भगवान को उपलब्ध होने के अतिरिक्त अन्य सब कामनाएँ हमें त्यागनी होंगी तभी हम इस सत्य को समझ पायेंगे| ये भगवान ही हैं जो इस "मैं" में भी व्यक्त हो रहे हैं| पृथकता का आभास ही आवरण है जो हमें सत्य को समझने नहीं देता|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||