Monday 31 October 2016

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....
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प्रिय निजात्मगण, आप सब के शिवरूप को नमन !
मैं अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से एक ऐसे विषय पर चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ जिसकी पात्रता मुझ में नहीं है, अतः सभी से क्षमा याचना भी कर लेता हूँ|
निम्न प्रस्तुति मेरी साधू-संतों व विद्वानों के साथ हुए व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है| यह प्रस्तुति गंभीर योग साधकों के लिए ही है| कहीं चूक भी जाऊँ तो आप सब मुझे क्षमा भी कर ही देंगे क्योंकि आप सब मेरी ही निजात्मा हैं और मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण अहैतुकी प्रेम आप सब को समर्पित है|
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ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है----
"तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात् |"
इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र हैं| यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल बीज है| इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ है|
इसका अर्थ देखिये .....
तत् : उस
सवितु: सविता-सूर्य-प्रकाशक-ज्ञान
वरेण्यं: वरण करने योग्य
भर्ग: शुद्ध विज्ञान स्वरूप
देवस्य: देव का
धीमहि: हम ध्यान करें
धियो: बुद्धि को
य: जो
न: हमारी
प्रचोदयात: शुभ कार्यों में प्रेरित करे
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उस वरण करने योग्य शुद्ध विज्ञान स्वरूप सूर्य- प्रकाशक- ज्ञान देव का हम ध्यान करें जो हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों में प्रेरित करे|
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गायत्री की महिमा अनंत है .....
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गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:|
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:|| —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री| —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को 'गायत्री छन्दसामहम्' अर्थात छंदों में गायत्री कहा है|
गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है|
भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है|
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते हैं ---- हे पितामह महाप्रज्ञ सर्व शास्त्र विशारद, कि जप्यं जपतों नित्यं भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।। देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा --- यान पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री) का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं ।।
जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।।
गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री- गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|
गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है।
ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए।
गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है|
गुरु कृपा से ही परा सुषुम्ना का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है|
उससे भी आगे उत्तरा सुषुम्ना जो आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक है, में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
वहाँ जो ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जाप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में विराट सर्वव्यापी श्वेत भर्ग: ज्योति का ध्यान किया जाता है और चित्त जब स्थिर हो जाता है तब फिर प्रार्थना की जाती है ----
"ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं| ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि| ॐ धियो योन: प्रचोदयात||"
यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं|
सप्त व्याहृति के साथ गायत्री जाप करना चाहिए|
पहली विधि :--
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ॐ भू: -------- मूलाधार
ॐ भुवः ------ स्वाधिष्ठान
ॐ स्वः ------- मणिपुर
ॐ महः -------- अनाहत
ॐ जनः -------- विशुद्धि
ॐ तपः --------- आज्ञा
ॐ सत्यं --------- सहस्त्रार
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियोयोनःप्रचोदयात् ----------- सहस्त्रार |||
अंत में दाएं हाथ की तीन अन्गुलियों से स्पर्श करते हुए ----
आपोज्योति -------दाईं आँख
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य
यह गायत्री क्रिया है| इसका जाप अधिकाधिक करना चाहिए||
दूसरी विधि :--
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(१) ॐ -- प्राण ऊर्जा को ब्रह्मरंध्र तक क्रिया प्राणायाम द्वारा लाकर वहीँ रहने दें| श्वास वहीँ छोड़ दें|
विचार रखिये कि ईश्वरीय ब्रह्म शक्ति और अतिमानस शक्ति सहस्रार में अवतरण कर रही है|
तीन बार गम्भीर और लम्बे श्वास लें|
(२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार तक और भूः से बापस ब्रह्मरन्ध्र|
(३) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से स्वाधिष्ठान तक और र्भुव: से ब्रह्मरन्ध्र।
(४) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और स्व: से मणिपुर से ब्रह्मरन्ध्र।
(५) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से अनाहत तक और महः से अनाहत से ब्रह्मरन्ध्र|
(६) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और जनः से विशुद्धि से ब्रह्मरन्ध्र|
(७) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और तपः से आज्ञा से ब्रह्मरन्ध्र|
(८) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र तक और सत्यम् से ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र|
(९) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और तत्सवितुर्वरेण्यं से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१०) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और भर्गो देवस्य धीमहि से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(११) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और धियोयोन:प्रचोदयात् से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से महाशून्य और बापस ब्रह्मरन्ध्र|
श्वास-प्रश्वास ब्रह्मरन्ध्र में ही|
चौबीस बार यह गायत्री क्रिया करनी है|
अंत में --
आपोज्योति -------दाईं आँख |
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख |
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य ||
सात व्याह्रतियों के साथ गायत्री मन्त्र और प्राणायाम ........
(गायत्री साधना की यौगिक व तांत्रिक विधि)
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यह एक जप है| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे|
फिर उस ज्योति का ध्यान करते रहो और ॐ के साथ साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं ही हैं|
(पूरी विधि किसी शक्तिपात संपन्न सद्गुरु से सीखनी चाहिए)
समापन -- 'ॐ आपो ज्योति रसोsमृतं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्' से कर के लम्बे समय तक बैठे रहो अपने आसन पर और सर्वस्व के कल्याण की कामना करो| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और आप स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
मुझे एक संत ने बताया था कि ऋग्वेद में एक मंत्र है जिस में "गायत्री" शब्द आता है और उस मन्त्र के दर्शन बिश्वामित्र से बहुत पूर्व शव्याश्व्य ऋषि को हुए थे|
प्रचलित गायत्री मन्त्र के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि थे| इस के चौबीस अक्षर हैं और तीन पद हैं| अतः यह त्रिपदा चौबीस अक्षरी गायत्री मन्त्र कहलाता है| बाद में अन्य महान ऋषियों ने गायत्री मंत्र से पहले "भू", भुवः, और "स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ भी जोड़ दीं| अतः पूरा मन्त्र अपने प्रचलित वर्त्तमान स्वरुप में आ गया|
यह सप्त व्याहृतियुक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और प्रभावी है|
ॐ तत्सत्| ॐ नमः शिवाय|
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पुनश्चः :---
सहस्त्रार के मध्य में एक एक विराट श्वेत ज्योति सदैव बिराजमान रहती है|
प्राण तत्व मेरु शीर्ष (शिखा स्थान) से देह में प्रवेश कर सहस्त्रार के माध्यम से मेरु दंड के सभी चक्रों में प्रवेश कर पूरी देह को जीवंत रखता है| समस्त ऊर्जा वहीं से प्राप्त होती है|
अपनी ऊर्जा को फालतू के कार्यों में व्यर्थ न कर चेतना के ऊर्ध्वगमन में ही खर्च करें|
अपनी चेतना निरंतर आज्ञा चक्र पर रखें जो ध्यान के समय स्वतः ही सहस्त्रार पर चली जायेगी|
आज्ञा चक्र के प्रति सचेत रहें और और प्रणव ध्वनी को सुनते रहें|
निरंतर ईश्वर के चिंतन से स्वयं परमात्मा ही आपकी चिंता करने लगेंगे|
ॐ शिव||