Friday, 21 February 2025

मैंने पिछले बीस वर्षों में एक भी सिनेमा नहीं देखा है ---

मैंने पिछले बीस वर्षों में एक भी सिनेमा नहीं देखा है। सिनेमा देखने का शौक भी नहीं है, और न ही फिल्म जगत में कोई रुचि है। सिनेमा के नट-नटनियों को जानता भी नहीं हूँ। इसलिए किसी भी फिल्म पर कोई टिप्पणी करना मेरे लिए उचित नहीं है।

पुनश्च:---
कश्मीर और केरल का इस्लामीकरम कैसे हुआ? इसका पूरा इतिहास पता है। इनके बारे में सीखने के लिए मुझे सिनेमा देखने की आवश्यकता नहीं है।
धर्मग्रंथों का आवश्यक स्वाध्याय है। अतः धर्म और अधर्म जानने के लिए मुझे सिनेमा देखने की आवश्यकता नहीं है। मेरा एकमात्र मनोरंजन -- भगवान का ध्यान है। आप सब के आशीर्वाद और प्रेम के लिए आपका आभारी हूँ। १९ जून २०२३

हमें धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और त्रिगुणात्मक प्रकृति से ऊपर उठना है। कोई कुछ भी कहे, उसकी परवाह मत करो ---

 हमें धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और त्रिगुणात्मक प्रकृति से ऊपर उठना है। कोई कुछ भी कहे, उसकी परवाह मत करो ---

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सारी सृष्टि राममय है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, और शिव के विग्रह में कोई तात्विक भेद नहीं है। उनके किसी भी रूप का ध्यान करो, अंततः सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म के साथ एक हो जाओगे। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म से एक बहुत धीमी ध्वनि निकलती हैं, उसे सुनते रहो। वह ध्वनि ही राम का नाम है। उसी में रम जाओ, और उस में अपना पूर्ण समर्पण कर दो।
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यदि आप में सत्यनिष्ठा है तो इसी क्षण आपको भगवान से मार्गदर्शन प्राप्त होगा। भगवान के बताए हुए मार्ग पर अग्रसर होते रहो। आप पायेंगे की आप की रक्षा और मार्गदर्शन के लिए भगवान हर कदम पर आपके साथ हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
७ अगस्त २०२३

कुछ दिनों पूर्व की ही बात है ---

कुछ दिनों पूर्व की ही बात है। ध्यान में मुझे एक अति गहन अनुभूति हुई और आदेश/उपदेश प्राप्त हुये जिन्हें मैं लौकिक शब्दों में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ ---

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(१) परमात्मा की प्राप्ति, यानि आत्म-साक्षात्कार --- हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम, और एकमात्र उद्देश्य है। हमारा लक्ष्य परमात्मा है। उस से कम कुछ भी नहीं। इस मार्ग में कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत यदि बाधक हो तो उसका उसी क्षण त्याग कर दो। कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत -- परमात्मा से बड़ा नहीं है।
(२) धर्म और अधर्म से भी ऊपर हमें उठना होगा। अंततः ये भी बंधन हैं। परमात्मा सब तरह के धर्म और अधर्म से परे है।
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भगवान ने गीता में जिस ब्राह्मी-स्थिति की बात की है, उस ब्राह्मी स्थिति में हम सब प्रकार के बंधनों से ऊपर होते हैं। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त हो जाती है। भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
(O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attains, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal.)
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मार्ग है -- गुरु की आज्ञा व उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान करो। हमारे विचार व आचरण निरंतर परमात्मा की चेतना में हों। हम निरंतर सदा हर समय परमात्मा की चेतना में स्थित रहने का प्रयास यानि साधना करते रहें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२२

मैं इसी क्षण स्वयं को सब तरह के संकल्पों-विकल्पों मुक्त करता हूँ ---

मैं इसी क्षण स्वयं को सब तरह के संकल्पों-विकल्पों, धारणाओं-विचारधाराओं, दायित्वों, पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म से सदा के लिए मुक्त करता हूँ। मेरी चेतना में मैं इस समय ईश्वर की सर्वव्यापक विराट अनंतता व उससे भी परे हूँ। किसी के साथ मेरा कोई विशिष्ट संबंध नहीं है। मुझे न तो किसी से कुछ पूछना है, और न किसी को कुछ बताना। किसी से कुछ लेना-देना भी नहीं है। परमशिव सदा मेरे समक्ष ही नहीं, मेरे साथ एक हैं। उनके सिवाय कोई अन्य विचार मेरे मानस में इस समय नहीं है, और भविष्य में कभी न आये तो ही अच्छा है। .

भगवान सब तरह के धर्म-अधर्म, सिद्धान्त और नियमों से परे हैं। उनकी प्रेरणा और कृपा से मैं भी स्वयं को सब तरह की साधनाओं, उपासनाओं, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, और कर्तव्यों से मुक्त कर रहा हूँ। वे निरंतर मेरे दृष्टि-पथ में हैं। वे मुझसे पृथक अब नहीं हो सकते। मेरा एकमात्र धर्म -- परमात्मा से परमप्रेम और उनको पूर्ण समर्पण है। यही मेरा स्वधर्म है।
ॐ तत्सत् !!
“ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥"

ॐ स्वस्ति !! शिव शिव शिव शिव शिव ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ !! हरिः ॐ तत्सत् !!

कृपा शंकर
४ जनवरी २०२४

मैं धर्म-अधर्म, और पाप-पुण्य से परे हूँ, मेरा कोई कर्तव्य नहीं है ---

मैं धर्म-अधर्म, और पाप-पुण्य से परे हूँ, मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। इस शरीर की हर सांस भगवान स्वयं ले रहे हैं। मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं का है। सारे पाप-पुण्य, कमियाँ, अवगुण-गुण, बुराइयाँ-अच्छाइयाँ, सब उन्हीं की हैं। जो कुछ भी है, वह सब वे स्वयं हैं। मैं और मेरे आराध्य एक है। कहीं कोई भेद नहीं है।
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अनेक साधनाएँ हैं जो सभी बहुत अधिक प्रभावशाली हैं। भगवान मुझे निमित्त-मात्र बना कर वो ही साधना अपने इस उपकरण से कर रहे हैं जो इसके सर्वाधिक अनुकूल है। मेरी कोई औकात नहीं है कुछ साधना करने की। भगवान स्वयं अपनी उपासना स्वयं कर रहे हैं। मैं यह शरीर महाराज नहीं, सर्वव्यापक, अनंत, सर्वस्व, और सच्चिदानंद परमशिव के साथ एक हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

३० मई २०२३ 

पुरुषार्थी कौन है? ---

 

पुरुषार्थी कौन है? ---
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अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष -- ये सब साधन मात्र हैं, जो जीवन में स्वतः ही घटित होते हैं। मोक्ष भी कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। यह एक अवस्था है, जिससे भी परे जाना पड़ता है। धर्म भी एक साधन है। अंततः धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना पड़ता है। ब्रह्मज्ञान यानि आत्मज्ञान को प्राप्त करने की साधना/तपस्या ही मेरी दृष्टि में पुरुषार्थ है। तपस्या करने से अन्तःकरण का राग-द्वेष क्षीण होता है, पापों का नाश होता है, चित्त की वृत्तियाँ शांत होती हैं, भोग-वासनाओं का नाश होता है, और जन्म-मरणादि के बन्धनो से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करते हैं। वह तपस्या ही पुरुषार्थ है।
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पुरुष शब्द का अर्थ है -- जो हमारे पुर यानि हम सब के अन्तर में स्थित (या शयन कर रहे) -- आत्मरूप परमात्मा हैं। परमात्मा हम सब के भीतर हैं, अतः वे ही एकमात्र पुरुष है, और उनको पूर्ण निष्ठा से पाने का प्रयास ही पुरुषार्थ है। आत्मा को पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त न करना आत्मा का हनन यानि आत्म-ह्त्या है। दूसरे शब्दों में हमारा आत्मतत्व ही पुरुष है, और उसमें स्थिति का प्रयास ही पुरुषार्थ है। उन परम-पुरुष के साथ हम एक हों। वे ही एकमात्र सत्य हैं। उन्हें पाना ही पुरुषार्थ है। हम पुरुषार्थी बनें।
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बृहदारण्यक उपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं --
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।"
अर्थात् - यह आत्मा ही देखने (जानने), सुनने, मनन करने, तथा निदिध्यासन करने योग्य है।
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आप सब महान आत्माओं को नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०२२

पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी बंधन हैं, जिनसे परे जाकर हमें मुक्त होना होगा ---

 पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी बंधन हैं, जिनसे परे जाकर हमें मुक्त होना होगा ---

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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, जिनसे मैं जीवित हूँ। यह आवश्यक नहीं है कि कोई इन से सहमत हो। मेरे ये अनुभूत सत्य हैं।
सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ हम एक हैं। जो भी हमारी चेतना को परमात्मा से पृथक करके हमें सीमितता में बांधता है, वह पाप है। जो हमारी चेतना को अनंत, व उससे भी परे विस्तृत करता है, वह पुण्य है। हमें पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से भी ऊपर उठना होगा। पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी बंधन हैं।
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गीता में भगवान हमें नित्यसत्त्वस्थ, निर्द्वन्द्व, निर्योगक्षेम, आत्मवान्, और निस्त्रैगुण्य होने का उपदेश करते हैं। गीता के अनुसार समत्व ही ज्ञान है, जो समत्व में स्थित है, वही ज्ञानी है। समत्व में स्थिति के लिए प्रज्ञा का स्थिर होना आवश्यक है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, वह स्थितप्रज्ञ है। जो स्थितप्रज्ञ है वह ही परमहंस है।
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हम निरंतर ब्राह्मी स्थिति यानि परमात्मा की चेतना में रहें। कूटस्थ-चैतन्य का अभ्यास करते करते गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाती है। अज्ञान की तीनों ग्रंथियों (मूलाधारचक्र में रुद्र ग्रंथि, अनाहतचक्र में विष्णु ग्रंथि, और आज्ञाचक्र में ब्रह्मग्रंथि) का भेदन आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण की त्रिभंग-मुद्रा इसी का प्रतीक है।
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इससे आगे की बातें फिर कभी जब ईश्वर की इच्छा होगी। मेरे से मिलने की इच्छा है तो कूटस्थ में भगवान का ध्यान करें। मेरे पास किसी का मनोरंजन या आतिथ्य करने के लिए न तो संसाधन हैं, और न ही समय।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२३ . पुनश्च: --- सब नियम और संकल्प तिरोहित हो गए हैं। सर्वत्र सब कुछ, और सर्वदा भगवान स्वयं बिराजमान हैं। अन्य कुछ है ही नहीं। धर्म और अधर्म -- इन सब में अब कोई रुचि नहीं रही है। भगवान धर्म और अधर्म व सब नियमों से परे हैं। भगवान हैं, यहीं पर और इसी समय हैं। चेतना में वे ही वे हैं। उनका साथ कभी नहीं छूट सकता।
आप सब से मिले प्रेम के लिए आभारी हूँ। नमस्ते॥
कृपा शंकर

बुद्धि और कुबुद्धि का युग समाप्त होकर धर्म और अधर्म पर चर्चा और विमर्श का युग आरंभ होने वाला है ---

 बुद्धि और कुबुद्धि का युग समाप्त होकर धर्म और अधर्म पर चर्चा और विमर्श का युग आरंभ होने वाला है। मनुष्य की बुद्धि और कुबुद्धि ने जितने भी मत-मतांतर और वाद उत्पन्न किए हैं, वे महत्वहीन होकर सब समाप्त हो जाएँगे।

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अगला युग धर्म-अधर्म पर विमर्श का ही होगा। मनुष्य का चिंतन इन्हीं दो विचारों के मध्य होगा कि धर्म क्या है, और अधर्म क्या है। सारे मज़हब, रिलीजन, और वाद (जैसे साम्राज्यवाद, नाजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, फासीवाद, पूंजीवाद, अल्पसंख्यकवाद आदि आदि) सब महत्वहीन और समाप्त हो जाएँगे। विश्व की अधिकांश जनसंख्या भी समाप्त हो जाएगी। यह होता हुआ आप अपने जीवनकाल में ही देखेंगे। मनुष्य जाति की वर्तमान सभ्यता अधिक से अधिक तीस वर्षों की है। इसकी अनुभूति मुझे अनेक बार हुई है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ नवंबर २०२३

आने वाला समय सत्य-सनातन-धर्म का है ---

आने वाला समय सत्य-सनातन-धर्म का है। अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। शीघ्रातिशीघ्र ही समय समीप आ रहा है। एक महाविनाशलीला के भी हम साक्षी होंगे, लेकिन जो स्वधर्म का पालन करेंगे, उनकी रक्षा होगी। हम शाश्वत आत्मा हैं, यह भौतिक देह नहीं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को परमप्रेम और समर्पण।

भविष्य में चर्चाओं का मुख्य विषय होगा -- धर्म और अधर्म।
मैं कुछ समय तक अस्थायी रूप से उपलब्ध नहीं रहूँगा। मैं किसको नमन करूँ? जिधर भी देखता हूँ, केवल मेरे प्रभु ही प्रभु हैं। कोई अन्य नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२३

राम लला तो बिराजमान हो गये हैं, अब रावण का वध भी होगा ---

 राम लला तो बिराजमान हो गये हैं। अब रावण का वध भी होगा।

(प्रश्न) रावण कौन है? ---
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(उत्तर) मार्क्सवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद, पूंजीवाद, नाजीवाद, फासीवाद, साम्यवाद, अल्पसंख्यकवाद, अगड़ा-पिछड़ावाद, जातिवाद और अन्य सारे वाद -- ये सब आसुरी/राक्षसी भाव हैं, जिन्होंने किसी का भी भला नहीं किया; सब को दुःख ही दुःख दिया है।
चर्चा सिर्फ "धर्म" और "अधर्म" पर ही होनी चाहिए, न कि इन सब वादों पर। युग-परिवर्तन हो रहा है। नए युग में ये सब वाद समाप्त हो जाएँगे। हमारी चेतना में सिर्फ धर्म और अधर्म ही रहेंगे॥ ॐ तत्सत् !!
२६ जनवरी २०२४