Friday, 6 May 2022

अवशिष्ट जीवन उन्हीं के ध्यान, चिंतन, और स्मरण में बीत जाये ---

जिसका हम ध्यान करते हैं, वही हम बन जाते हैं। परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लालच -- माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही हैं, तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? आत्मा की एक अभीप्सा होती है, उसे परमात्मा का विरह एक क्षण के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। इसी को परमप्रेम या भक्ति कहते हैं।

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कल रात्री के ध्यान में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ने एक बात तो स्पष्ट बता दी कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं है। हर कदम पर लाखों कमियाँ ही कमियाँ हैं। एक ही अच्छाई है कि तुम्हें मुझसे प्रेम है, और कुछ भी अच्छा नहीं है। इसी प्रेम ने तुम्हारी हर बुराई को ढक रखा है। जब भगवान स्वयं यह बात कह रहे हैं तो माननी ही पड़ेगी। अपनी हर बुराई और अच्छाई -- सब कुछ उन्हें बापस लौटा रहा हूँ। इस पाप की गठरी को कब तक ढोता रहूँगा? अवशिष्ट जीवन उन्हीं के ध्यान, चिंतन, और स्मरण में बीत जाये,
और कुछ भी नहीं चाहिए। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२२


हमारी अंतर्दृष्टि सदा परमात्मा की ओर ही रहे ---

 हमारी अंतर्दृष्टि सदा परमात्मा की ओर ही रहे ---

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"ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥"
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परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें। कोई अवरोध न खड़े करें। परमात्मा एक रस हैं, उनका निरंतर रसास्वादन करें। परमात्मा में समर्पित हो हमें स्वयं को ही उनके साथ एक होना पड़ेगा। हमारे आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं।
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जो परमात्मा में समर्पित हो गया, वह इस पृथ्वी पर एक चलता-फिरता देवता है। उसे पाकर यह भूमि सनाथ और पवित्र हो जाती है। वह कुल, परिवार और भूमि धन्य है, जहाँ ऐसी महान आत्मा जन्म लेती है।
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ध्यान सदा परमात्मा की सर्वव्यापकता का होता है। यह देह तो एक साधन यानि वाहन मात्र है जो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। किसी भी शिवालय में जैसे नंदी की दृष्टि सदा शिव की ओर ही होती है, क्योकि वह उनका वाहन है। वैसे हमारी भी अंतर्दृष्टि आत्मा की ओर ही रहे, क्योंकि यह शरीर, आत्मा का वाहन है।
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हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋग्वेद १०-१२१-१)
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२४ अप्रेल २०२२

आने वाला समय बहुत अधिक परिवर्तनकारी होगा ---

 आने वाला समय बहुत अधिक परिवर्तनकारी होगा ---

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"जीवन में अभ्युदय यानि पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परम प्रेम, भक्ति, करुणा, परमात्मा को समर्पण और नि:श्रेयस की भावना" --- हमारा सत्य-सनातन-धर्म है, जो भारत की अस्मिता है। इसी की रक्षा के लिए भगवान बार बार अवतार लेते हैं।
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सनातन धर्म ही विश्व का भविष्य और रक्षक है। इसका ह्रास विश्व के विनाश का कारण होगा। हमारी पीड़ा यह है कि वर्तमान में हमारे देश का चारित्रिक पतन हो गया है। हर कदम पर असत्य, छल-कपट, घूस/रिश्वतखोरी और अधर्म व्याप्त हो गया है। धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं। भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है। झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच-गाने परोसे जा रहे हैं। हमारी कोई नाचने-गाने वालों की संस्कृति नहीं है। हमारी संस्कृति -- ऋषियों-मुनियों, महाप्रतापी धर्मरक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद-वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत वांग्मय की है। जो कुछ भी भारतीय है उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है। विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं। देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है। सबसे बड़ी दुखद बात तो यह है कि देश का हर व्यक्ति अपने बच्चों को काला अंग्रेज़ बनाना चाहता है, भारतीय नहीं।
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लेकिन यह चलने वाली बात नहीं है। बहुत ही शीघ्र आने वाले समय में अमेरिका का दबदबा समाप्त हो जाएगा। कोई उसे गंभीरता से नहीं लेगा। इंग्लैंड नष्ट हो जाएगा। इंग्लैंड पर उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, और अन्य देशों से आये काले लोगों का राज्य हो जाएगा। यूरोप में भी महा भयानक विनाश होगा। विश्व की जनसंख्या बहुत कम हो जाएगी। इस विनाश से महादेव की परम कृपा ही बचा सकती है। भारत का अभ्युदय होगा। कैसे होगा? इस विषय पर अभी नहीं लिख सकता। भारत में भी बहुत अधिक विनाश होगा। पर यह तय है कि आने वाला समय बहुत अधिक परिवर्तनकारी और शुभ होगा।
ॐ तत्सत् !!
२८ अप्रेल २०२२

हम आत्म-हीनता के बोध से मुक्त हों ---

 हम आत्म-हीनता के बोध से मुक्त हों ---

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हम चिंता-मुक्त जीवन जीयें और भगवान में आस्था रखें तो हमारा जीवन बहुत सुखी होगा। अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित रखें। प्रातः उठते ही उष:पान करें, स्वच्छ और खुली वायु में टहलें, यथाशक्ति पर्याप्त व्यायाम करें, उचित समय पर पौष्टिक आहार लें, पर्याप्त नींद लें, और पर्याप्त विश्राम करें। स्वयं को प्रत्येक दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनाएँ -- भौतिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक।
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श्रीमद्भगवद्गीता भारत का प्राण है -- ऐसा मेरा मानना है, इसलिए उसका स्वाध्याय नित्य करें। भगवान का स्मरण हर समय करें, रात्री में और प्रातः भगवान का ध्यान करें। भगवान ने हमें विवेक दिया है, उस विवेक के प्रकाश में अपना जीवन जीयें। किसी भी तरह की दुर्बलता हम में न रहे। हम शक्तिशाली और पराक्रमी होंगे तो हमारा समाज और राष्ट्र भी पराक्रमी होगा। यह हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर है। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। हम धर्मनिष्ठ और पराक्रमी होंगे तो भारत विजयी होकर एक अखंड, सत्यधर्मनिष्ठ, व आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा। सत्य-सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण होगा।
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हमारे में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं है। हम उच्च कोटि का अच्छा मौलिक साहित्य पढ़ें (विदेशी लेखकों का नहीं), और सुव्यवस्थित जीवन जी ते हुए आत्म-हीनता के बोध से ऊपर उठें। भगवान हमारे साथ एक हैं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२२

स्वयं भगवान ही सगे-संबंधियों और मित्रों के रूप में आते हैं ---

स्वयं भगवान ही सगे-संबंधियों और मित्रों के रूप में आते हैं। आत्मा अजर और अमर है। दिवंगत आत्माओं के प्रति हम केवल श्रद्धांजलि ही अर्पित कर सकते हैं, और अर्यमा से उनके कल्याण की प्रार्थना कर सकते हैं। अन्य कुछ भी हमारे वश में नहीं है।

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कल २९ अप्रेल २०२२ को एक ही दिन में विपरीत दिशाओं में स्थित दो अलग-अलग नगरों में मेरे दो अति प्रिय पारिवारिक निकट संबंधियों का देहावसान हो गया। दाह-संस्कार का समय अलग-अलग था -- एक का प्रातः नौ बजे और दूसरे का सायं चार बजे। अतः दोनों ही दाह संस्कारों में सपरिवार उपस्थित हो पाया। श्मसान भूमि में तो सिर्फ पुरुष ही जाते हैं। घर पर अंतिम दर्शन और श्रद्धांजलि सभी अर्पित करते हैं।
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एक तो मंडावा में बड़े धार्मिक स्वभाव की मेरी चचेरी बहिन ही थी जो मेरे से आयु में १० वर्ष बड़ी थीं। जीवन में उनसे सदा ही बहुत स्नेह और मार्गदर्शन मिला। ८५ वर्ष की आयु में भी उनकी स्मृति स्पष्ट थी। कल सायं चार बजे उनका दाह संस्कार हुआ।
दूसरे इस्लामपुर में मेरी धर्मपत्नी की मौसीजी के बड़े पुत्र थे। हमारे परिवार से बहुत अधिक स्नेह और आत्मीयता रखते थे। जीवन के सात दशक वे भी पूरे कर चुके थे। कल प्रातः नौ बजे उनका दाह संस्कार हुआ।
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मेरी आस्था तो यही है कि स्वयं परमात्मा ही सभी संबंधियों और मित्रों के रूप में आते हैं। निज जीवन में हम परमात्मा को उपलब्ध हों, यही सबसे बड़ी सेवा हम दूसरों के लिए कर सकते हैं।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२:२२॥"
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२:२३॥"
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ऋग्वेद में अर्यमा से प्रार्थना है --
"ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३० अप्रेल २०२२

वर्तमान समय में भगवान की भक्ति भगवान को पाने के लिए नहीं, धन को पाने के लिए होती है ---

 वर्तमान समय में भगवान की भक्ति भगवान को पाने के लिए नहीं, धन को पाने के लिए होती है, चाहे कितना भी छल-कपट और असत्य बोलना पड़े ---

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वर्तमान समय में दो लाख में से संभवतः कोई एक व्यक्ति होता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार यानि परमात्मा को उपलब्ध होना चाहता है। बाकी सभी के लिए परमात्मा एक साधन है जिसके माध्यम से वे धन और भोग-विलास को पाना चाहते हैं। वर्तमान समय में भगवान की भक्ति भगवान को पाने के लिए नहीं, धन को पाने के लिए होती है।
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किसी को सदगति नहीं चाहिए, नर्क/स्वर्ग किसने देखा है? यदि पास में धन है तो यहीं स्वर्ग है, धन के बिना सब कुछ नर्क है। छल-कपट, झूठ, अधर्म, बेईमानी, लूटमार -- सब धर्म है यदि उससे घर में लक्ष्मीजी आती हैं। भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अभी भी कुछ लोग संकटकाल में एक दूसरे की सहायता कर देते हैं। यह बात अन्य देशों में नहीं है। अमेरिका में तो जब भी कोई तूफान आता है तब पड़ोसी पड़ोसी को लूटना शुरू कर देता है। यही बात भारत से बाहर के सभी देशों में है।
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भारत में भी अब भारतीयत्व छुड़ा कर सब लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ बनाना चाहते हैं। समय का दोष है। लोगों का लक्ष्य धन की प्राप्ति ही रह गया है चाहे कितना भी छल-कपट और झूठ बोलना पड़े।
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मेरे जैसे लोग मूर्ख हैं जो भगवत्-प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मानते हैं। मैं तो मेरे धर्म का त्याग नहीं करूँगा चाहे मरना ही पड़े। किसी भी परिस्थिति में किसी से कुछ न तो कभी माँगूँगा और न ही कभी स्वीकार करूँगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२ मई २०२२

अक्षय-तृतीया और परशुराम-जयंती पर शिव-संकल्प और मंगल-प्रार्थना ---

 अक्षय-तृतीया और परशुराम-जयंती पर शिव-संकल्प और मंगल-प्रार्थना ---

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"हमारे पुण्य अक्षय हों, हमारा राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त हो, हमारे राष्ट्र को सदा सही नेतृत्व मिले, कायरता का कोई अवशेष हम में न रहे, और हम सब के जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो. ॐ ॐ ॐ !!"
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आज की जैसी परिस्थितियाँ हैं और वातावरण है उसमें हरेक घर-परिवार में कम से कम एक परशुराम जैसा व्यक्ति अवतार ले। राष्ट्र को एक नहीं, लाखों परशुरामों की आवश्यकता इस समय है, जो चारों ओर छाये हुए असत्य के अंधकार को दूर कर सत्य-सनातन-धर्म और भारतवर्ष का उद्धार कर उसकी रक्षा कर सकें। इस समय तो चारों ओर अधर्म और असत्य छाया हुआ है। सिर्फ परमात्मा के भरोसे, और परशुराम की प्रतीक्षा में जी रहे हैं।
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रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं के कुछ अंश हैं ---
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू , ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।

अपनी इष्ट देवी/देवता या सद्गुरु के चरण-कमलों का सदा ध्यान करें ---

अपनी इष्ट देवी/देवता या सद्गुरु के चरण-कमलों का सदा ध्यान करें। उनके चरण-कमलों का ध्यान ज्योतिर्मय-ब्रह्म के रूप में सहस्त्रारचक्र में करते हैं। योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उनका हृदय होता है।

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उनकी चरण-पादुका की पूजा करनी चाहिए। उनके बीज-मंत्र का जप मानसिक रूप से निरंतर हर समय करते रहना चाहिए। स्वयं एक निमित्त मात्र बनकर उन्हीं को कर्ता बनाएँ।
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उनका ध्यान पूरी सत्यनिष्ठा से तब तक कीजिये जब तक उन की आनंदमय उपस्थिती का प्रत्यक्ष बोध न हो। फिर उनको अपने माध्यम से आपके अन्य सब आवश्यक कार्य करने दीजिये। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें। जीवन के हर क्षण स्वयं के माध्यम से परमात्मा को व्यक्त करें। कौन क्या कहता है, इसका कोई महत्व नहीं है। हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? -- महत्व सिर्फ इसी का है।
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मेरे साथ कुछ देर के लिए भी वे ही रह पाते हैं, जिन के हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा हुआ है, और जो इस जीवन में परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हैं। अन्य सब भाग जाते हैं। मेरा अनुभव तो यही है कि जिसके साथ, मैं परमात्मा की चर्चा करता हूँ, वह फिर बापस लौट कर नहीं आता। जिस किसी के साथ वेदान्त की चर्चा करता हूँ, वह तो उसी समय उठ कर चल देता है।
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वर्तमान युग, और हमारा समाज ही ऐसा है कि भगवान एक उपयोगिता की वस्तु बन कर रह गए हैं। अगर उनके माध्यम से रुपये-पैसे आदि की प्राप्ति होती है, या कष्ट दूर होते हैं तब तक तो वे ठीक हैं, अन्यथा उनका कोई उपयोग नहीं है। उनकी भक्ति को लोग Time pass या समय की बर्बादी बताते हैं। चारो ओर बहुत अधिक तमोगुण व्याप्त है। थोड़ा बहुत रजोगुण भी है। सतोगुण का तो अभाव है। कुछ भी नहीं किया जा सकता। मेरा स्वभाव है, इसलिए भगवत्-प्रेरणा से लिखता रहता हूँ। अन्यथा लोग मनोरंजन या टाइम पास के लिए ही पढ़ते हैं। कोई निष्ठावान मेरे लिखे शब्दों को पढ़ लेता है तो मैं तत्क्षण धन्य हो जाता हूँ।
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भगवान से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वे हमारी निरंतर रक्षा करें।
ॐ तत्सत्॥
४ मई २०२२

भाषा की शुद्धता के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकता ---

 मेरे से मिलने-जुलने वाले अधिकांश मित्र शिकायत (परिवाद) करते हैं कि मेरी भाषा बहुत अधिक संस्कृत-निष्ठ और कठिन है। जहाँ तक मेरा प्रयास है मैं तो सरलतम भाषा में लिखता हूँ। मेरी समझ से परे है कि इससे अधिक सरल भाषा और क्या हो सकती है? मैं तो कभी साहित्य का विद्यार्थी भी नहीं था, और जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग भारत से बाहर बिताया है, जहाँ हिन्दी का प्रयोग नगण्य ही था।

भारत के ही संत-महात्माओं की आज्ञा और प्रेरणा से हिन्दी में लिखना आरंभ किया और अब किसी भी अन्य भाषा में नहीं लिख सकता। भाषा तो मेरी यही रहेगी। भाषा की शुद्धता के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। सभी को नमन !!

भारत तो भगवान की कृपा से ही बचा हुआ है ----

 पाकिस्तान और चीन ने भारत में गृहयुद्ध आरंभ करवाने के यथासंभव अधिकाधिक प्रयास किए हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाये। भारत का सबसे अधिक अहित तो ब्रिटेन ने किया है। भारत की शिक्षा-व्यवस्था, कृषि-पद्धति, और संस्कृति को नष्ट कर भारत को आर्थिक रूप से पूरी तरह लूट कर विपन्न बनाने और भारत का विभाजन करने का दोषी ब्रिटेन है।

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अफ्रीका से अमानवीय रूप से अफ्रीकी लोगों के अपहरण और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने का कार्य भी अंग्रेजों ने किया है। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीपों, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप, और न्यूज़ीलेंड के करोड़ों मूल निवासियों की हत्या कर के यूरोपीय लोगों को वहाँ बसाने का काम भी अंग्रेजों ने किया है। इसमें उन्हें पुर्तगाल और स्पेन का पूरा सहयोग मिला।
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भारत में भी सभी भारतीयों की हत्या कर के सिर्फ अंग्रेजों को ही यहाँ बसाने की योजना अंग्रेजों की थी। बंगाल में अकाल की स्थिति पैदा कर करोड़ों भारतीयो की हत्या की। इससे पूर्व उन्होने एक अंग्रेज़ जनरल James George Smith Neill की नियुक्ति सन १८५७ई. में भारत में इसी कार्य के लिए की थी। इस अंग्रेज़ जनरल नील ने पूर्वी भारत में लगभग एक करोड़ से अधिक भारतीयों की हत्या बड़ी क्रूरता से करवाई , सैंकड़ों गांवों को जला दिया और बहुत अधिक अत्याचार किया। कानपुर के आसपास के सभी निरीह ब्राह्मणों की इसने बड़ी निर्ममता से हत्या करवा दी थी और अङ्ग्रेज़ी फौज में नौकरी करने वाले अनगिनत भारतीय सिपाहियों को भी इसने मरवा दिया। इसमें उसके साथी Henry Havelock जैसे अनेक अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी भी शामिल थे। कानपुर के पास बिठूर में तो मनुष्यों के साथ साथ वहाँ के पशु-पक्षियों की भी हत्या कर दी गई। कोई कुत्ते-बिल्ली जैसे प्राणी भी वहाँ जीवित नहीं बचे थे।
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भारत तो भगवान की कृपा से ही बचा हुआ है। भारत के विभाजन और भारत को निर्बल रखने की योजना में ब्रिटेन के साथ-साथ अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियाँ भी थीं। हमें अमेरिका से भी बहुत अधिक कूटनीति द्वारा सतर्क रहना चाहिए। अमेरिका में अभी भी इतनी सामर्थ्य है कि वह भारत में गृहयुद्ध करवा कर भारत को बहुत अधिक हानि पहुंचा सकता है।
कृपा शंकर
५ मई २०२२
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प्रख्यात विद्वान माननीय श्री अरुण कुमार उपाध्याय जी इस लेख पर टिप्पणी :--
"अंग्रेजों ने १८० करोड़ की हत्या की तथा ४५० खरब डॉलर की लूट की। केवल युद्ध में ३५० लाख मारे गये। तीन महाद्वीपों की तीन पीढ़ियों का क्रूर नरसंहार किया। उनके आने के पहले दोनों अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों की संख्या वर्तमान जनसंख्या से अधिक थी, क्योंकि बहुत क्षेत्र वीरान हो गये जो अब तक बस नहीं सके हैं। अभी भी युद्ध व्यवसाय से आय के लिए प्रति वर्ष करोड़ लोगों की हत्या कर रहे हैं। प्रत्यक्ष आक्रमण द्वारा ही वियतनाम, कोरिया तथा ईराक में २ करोड़ से अधिक लोगों की हत्या हुई जबकि किसी देश ने अमेरिका पर आक्रमण नहीं किया था।"
Britain robbed India of $45 trillion & Thence 1.8 billion Indians died from deprivation | MR Online
Britain robbed India of $45 trillion & Thence 1.8 billion Indians died from deprivation | MR Online

चरणों की धूल में करूँ स्नान ---

 चरणों की धूल में करूँ स्नान

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जीवन धन्य हो गया, चरणों की धूल में स्नान जो कर लिया। इसका पता ही नहीं था। आज ही पता चला कि ये तो साक्षात् भगवान विष्णु के चरण-कमल हैं, जिनकी धूल में मैं स्नान कर रहा हूँ। अब कहीं किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं है। सारे तीर्थ यहीं आ गए हैं। उनके चरणों की धूल में निरंतर स्नान, और उनके चरणों के संचलन की निरंतर आ रही ध्वनि को सुनना ही मेरी एकमात्र उपासना हो गई है।
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इसका रहस्य अनावृत करूँ, उससे पूर्व विषय बदलकर एक दूसरी बात कहना चाहता हूँ, तभी मेरी बात समझ में आएगी। हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। हम स्वयं को यह देह मानते हैं, यही सब पापों का मूल है। यह शरीर इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ एक वाहन है। जैसे हम एक मोटर-साइकिल या मोटर-कार की देखभाल करते हैं, वैसे ही इस शरीर की देखभाल करना हमारा धर्म है। जब हम यह शरीर ही नहीं हैं तब इस शरीर से जुड़े संबंधी भी हमारे संबंधी नहीं हैं। हमारा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, जो शाश्वत है। जैसे एक रंगमंच पर अभिनय करते हैं वैसे ही सबसे अपने अपने सम्बन्धों का अभिनय करते रहो। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि भगवान ही हमारे एकमात्र संबंधी हैं। इस संसार में सभी का जन्म अपने पूर्वजन्मों के कर्मफलों को भुगतने, और नये कर्मों की सृष्टि करने के लिए होता है। प्रकृति के तीनों गुण ही इस सृष्टि को चला रहे हैं। त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति और मोक्ष है।
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भ्रूमध्य में दृष्टि स्थिर कर कूटस्थ में भगवान का चिंतन, मनन और ध्यान करते-करते समय के साथ शनैः शनैः सहस्त्रार में प्रणव की ध्वनि में लिपटी हुई, विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। वह कूटस्थ ब्रहमज्योति जिसे ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कह सकते हैं, भगवान विष्णु के चरण कमल हैं। अपनी अपनी श्रद्धानुसार वे ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं, वे ही भगवती के पद्म-पद हैं। उन ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक - भगवान के चरणों की धूल है।
उस आलोक का निरंतर विस्तार ही हमारी साधना है। उस में स्थायी स्थिति ब्राह्मी-स्थिति या कूटस्थ-चैतन्य है। उस में परमप्रेममय स्थिति -- चरणों की धूल में स्नान है।
आज अचानक ही वह ब्रह्म-ज्योति प्रकट हुई और उसकी आभा में मैं तन्मय हो गया। अदृश्य रूप से गुरु महाराज ने बताया कि यही चरणों की धूल है जिसमें तुम स्नान कर रहे हो।
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इसकी फल-श्रुति मैं नहीं लिख सकता, क्योंकि वह छोटे मुंह बड़ी बात हो जाएगी।
और कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ मई २०२२

भगवान की भक्ति अनन्य भाव से करें ---

 गीता के इन श्लोकों का थोड़ा चिंतन कीजिए तब समझ में आयेगा कि "अनन्य" का अर्थ क्या है। गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए ---

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम। जब भी समय मिले, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। आध्यात्म की परावस्था में रहें। सारा जगत ही ब्रह्ममय है। किसी भी परिस्थिति में परमात्मा की उपासना न छोड़ें। पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी उपेक्षा से परमात्मा को पाने कीअभीप्सा ही समाप्त हो जाए। भगवान की भक्ति अनन्य भाव से करें। केवल भगवान ही हैं। कोई उनसे अन्य नहीं है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
६ मई २०२२

आदि शंकराचार्य जयंती पर सभी का अभिनंदन ---

 आदि शंकराचार्य जयंती पर सभी का अभिनंदन ---

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आज स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर (आदिशंकराचार्य) की जयंती है। उनके बारे में सामान्य जन में यह धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया। लेकिन यह सही नहीं है। अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद थे, जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की थी। आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया, उन्हीं का आचार्य शंकर ने विस्तृत रूप दिया। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा। आचार्य शंकर -- अद्वैतवादी से अधिक एक भक्त थे। उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया। वे स्वयं श्रीविद्या के उपासक थे, और भगवान के सभी रूपों के सबसे अधिक स्तोत्रों की रचना उन्होने की। वे एक महानतम प्रतिभा थे जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण किया। अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में वे कहते हैं -- "भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित्।" साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है"। उनके अनुसार भक्ति और ज्ञान -- दोनों एक ही हैं।
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आचार्य शंकर के गुरु आचार्य गोविन्दपाद थे जिन्होंने ८५ श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की। उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं। वहाँ आसपास और भी गुफाएँ हैं, जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं। पूरा क्षेत्र तपोभूमि है। सत्ययुग में मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है।
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आचार्य शंकर एक बार शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध विद्वान पंडित जी अपने शिष्यों को पाणिनि के व्याकरण के कठिन सूत्र समझा रहे थे। उन्हें देख आचार्य शंकर की भक्ति जाग उठी और उन वैयाकरण जी को भक्ति का उपदेश देने के लिए 'गोबिंद स्तोत्र' की रचना की और सुनाना आरम्भ कर दिया। यह स्तोत्र 'द्वादश मांजरिक' स्तोत्र कहलाता है। अन्य भी बहुत सारी इतनी सुन्दर उनकी भक्ति की रचनाएँ हैं जो भाव विभोर कर देती हैं। अद्वैत वेदांत तो उन्हें गुरु परम्परा से मिला था। आचार्य शंकर ने दत्तात्रेय की परम्परा में चले आ रहे संन्यास को ही एक नया रूप और नई व्यवस्था दी। उनकी परम्परा के अनेक संतों से मेरा सत्संग हुआ है जिसे मैं जीवन की एक अति उच्च उपलब्धि मानता हूँ।
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सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे। ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे। इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है। कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया। पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद, और तीसरे अवतार थे वैद्यराज चरक। इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने की है।
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आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये। आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं। आप मुझ पर कृपा करें। आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया। अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया। इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी। यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था। आचार्य गौड़पाद भी श्रीविद्या के उपासक थे।
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धन्यवाद। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि॥
ॐ तत्सत् ॥
६ मई २०२२
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पुनश्च :--- आचार्य शंकर का जन्म का वर्ष ईसा के ५०८ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। उनका देहावसान ईसा के ४७४ वर्ष पूर्व हुआ। पश्चिमी विद्वान् उनका जन्म ईसा के ७८८ वर्ष बाद होना बताते हैं जो गलत है। आचार्य शंकर को नमन !!

आनंदमय होना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है ---

 "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति॥" -- यह वेदवाक्य मेरा आदर्श वाक्य है।

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आनंदमय होना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। आनंद और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए ही मैं लिखता हूँ, अन्य कोई उद्देश्य नहीं है। जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर लघुता को अपनाना मेरी बड़ी कष्टमय दुःखद विफलता थी, जिससे मैं मुक्त होने का प्रयास कर रहा हूँ। जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ, वह तो 'मैं' स्वयं हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मई २०२२