भगवान मुझमें विश्वास करते हैं, इसलिए मैं भगवान के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता ---
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पिछले जन्मों के कर्मों में कोई न कोई कमी थी, इसलिए कर्मफलों को भुगतने के लिए यह जन्म लेना पड़ा। इसमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है। कर्मफलों की प्राप्ति, पुनर्जन्म और मरणोपरांत गति -- इनमें भगवान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, ये सब जीवात्माओं को अपने-अपने कर्मों के अनुसार प्रकृति द्वारा दिये जाते हैं। वीतरागता और समर्पण द्वारा संचित कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन मुझे किसी अदृश्य शक्ति ने बताया है कि जो लोग दूसरों के साथ छल करते हैं, उन्हें प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती। किसी को विश्वास में लेकर उसके साथ छल यानि विश्वासघात करना अक्षम्य पाप है।
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घूसखोर सरकारी नौकर - भगवान के साथ छल करते हैं और पाप का अन्न खाते हैं, उनको भी प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती, चाहे वे कितना भी पूजा-पाठ और धर्म-कर्म कर लें। उनका अधर्म उन्हें कभी क्षमा करेगा, उन्हें अपने परिजनों सहित अति भयानक दुःख और यातनाओं से गुजरना ही पड़ेगा। आज वे कितने भी खुश हो लें, पर एक दिन बहुत बुरी तरह रोयेंगे।
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आध्यात्म में और लौकिक जगत में कोई उपलब्धी अंतिम नहीं होती। लौकिक दृष्टि से जिसे हम खजाना मानकर खुश होते हैं, कुछ समय पश्चात पता चलता है कि वह कोई खजाना नहीं बल्कि कंकर पत्थर का ढेर मात्र था। आध्यात्मिक जगत में होने वाली अनुभूतियाँ अनंत हैं, जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, पीछे की अनुभूतियाँ महत्वहीन हो जाती हैं| यहाँ तो बस एक ही काम है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो और बढ़ते रहो; पीछे मुड़कर ही मत देखो। अन्य कुछ भी मत देखो, कहीं पर भी दृष्टी मत डालो; सिर्फ और सिर्फ हमारा लक्ष्य परमात्मा ही हमारे सामने निरंतर ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे। चाहे कितना भी घोर अंधकार हो, भगवान की कृपा से वह दूर हो जाएगा।
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भगवान मुझमें विश्वास करते हैं इसीलिए मैं यहाँ हूँ। मैं जो भी हूँ, जैसे भी हूँ, और जहाँ भी हूँ, भगवान के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता। उन्हें विश्वास था कि मैं सब बाधाओं को पार कर सकता हूँ तभी ये सब बाधाएँ हैं। अंत समय तक अपने स्वधर्म (भगवान के लिए परमप्रेम, अतृप्त असीम प्यास और तड़प) पर अडिग रहूँगा, और भगवान के साथ विश्वासघात नहीं करूंगा।
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भगवान की पूर्ण कृपा है, लेकिन प्रारब्ध कर्म तो भुगतने ही पड़ेंगे। ध्यान के समय ही नहीं, लगभग हर समय सहस्त्रारचक्र में गुरु महाराज की ही अनुभूति होती है। पद्मासनस्थ अपने ज्योतिर्मय रूप में ध्यान मुद्रा में वे वहाँ बिराजमान हैं। उनकी छवि इतनी अलौकिक और आकर्षक है कि अन्यत्र कहीं दृष्टि जाती ही नहीं है। कभी कूटस्थ में भगवान वासुदेव अपने अनन्य रूप में दृष्टिगत होते हैं, जिनके सिवाय कोई अन्य इस सृष्टि में है ही नहीं। पद्मासनस्थ वे स्वयं अपने स्वयं का ध्यान कर रहे होते हैं। जब भगवान की इतनी बड़ी कृपा है, तब उन्हें छोड़कर अन्यत्र कहाँ जाऊँ?
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पानी का एक बुलबुला महासागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है। उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है? लेकिन वही बुलबुला जब महासागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड लहर का रूप धारण कर लेता है, जिसके पीछे महासागर है।
वैसे ही मनुष्य है। जितना वह परमात्मा से दूर है उतना ही छोटा है। परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है। मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है उतना ही महान है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन !
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२१