Tuesday 19 April 2022

जिसे प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा; जिसे भूख लगी है, वही भोजन करेगा ---

 जिसे प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा; जिसे भूख लगी है, वही भोजन करेगा ---

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बार बार किसी को भी व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से भक्ति के लिए कहना गलत है। इसमें सिर्फ समय ही नष्ट होता है। जिसके हृदय में परमात्मा को पाने की भूख, प्यास, और तड़प है, जिसके हृदय में अपनी सारी वेदनाओं के पश्चात भी परमात्मा से परम प्रेम है, वह अपने आप ही भक्ति करेगा। ऐसा व्यक्ति दो लाख की जनसंख्या में से कोई एक होता है।
अन्य सब लाभार्थी व्यापारी हैं, जिनके लिए अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए परमात्मा की भक्ति करना एक व्यापार है। उनके लिए भगवान एक साधन है, और संसार साध्य।
जिसको भूख लगी है, वही भोजन करेगा। जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा। जिसके हृदय में परमात्मा को पाने के लिए घोर अभीप्सा (अतृप्त असीम प्यास) है, वही भक्ति करेगा। अतः किन्हीं के पीछे पड़ना ठीक नहीं है।
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अदम्य भयहीन साहस व निरंतर अध्यवसाय के बिना कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती। संसार की उपलब्धियों के लिए जितने साहस और संघर्ष की आवश्यकता है, उस से बहुत अधिक संघर्ष और साहस आध्यात्मिक जीवन के लिए करना पड़ता है।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति॥ 🙏🌹🕉🕉🕉🌹🙏
कृपा शंकर
२ अप्रेल २०२२

साधक के लिए उन्नति का आधार और मापदंड उसका ब्रह्मज्ञान हो, न कि कुछ अन्य ---

आध्यात्मिक उन्नति के लिए हमारी दृष्टि समष्टि-दृष्टि हो, न कि व्यक्तिगत। परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता पर हमारा ध्यान और समर्पण होगा तभी हमारी आध्यात्मिक उन्नति होगी। एक साधक के लिए उन्नति का आधार और मापदंड उसका ब्रह्मज्ञान हो, न कि कुछ अन्य।

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जो बीत गया सो बीत गया, जो हो गया सो हो गया। भूतकाल को तो बदल नहीं सकते, अभी जब से होश आया है, तब इसी समय से परमात्मा की चेतना में रहें। हमारा कार्य परमात्मा में पूर्ण समर्पण है। यह शरीर रहे या न रहे, इसका कोई महत्व नहीं है। महत्व इसी बात का है कि निज जीवन में परमात्मा का अवतरण हो।

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भगवान हमें निमित्त बनाकर सनातन-धर्म और भारत की रक्षा करें। जिन्होंने आतताइयों के नाश के लिए हाथ में धनुष धारण कर रखा है, वे भगवान श्रीराम हमें अपना उपकरण बनाकर भारतवर्ष और धर्म की रक्षा करें। विजय सदा धर्म की ही हो, और अधर्म का नाश हो। असत्य का अंधकार दूर हो। भगवान ने वचन दिया है --
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥४:७॥"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४:८॥"
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धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो। असत्य और अंधकार की शक्तियों का नाश हो। भारत एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी अखंड राष्ट्र हो। ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
कृपा शंकर
२८ मार्च २०२२

यह जीवन तो पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है, इसमें "मैं" और "मेरा" कुछ भी नहीं है, ---

 पिछले दस वर्षों में भगवान की कृपा और प्रेरणा से जितना मेरी बौद्धिक क्षमता में था, उतना -- भक्ति, ज्ञान और भारत भूमि के ऊपर यथासंभव खूब लिखा है। जो नहीं लिखा, उसकी क्षमता भगवान ने मुझे नहीं दी थी, यानि वह मेरी क्षमता से परे था। भगवान से जैसी प्रेरणा मिलेगी, और जैसी उनकी इच्छा होगी, वैसा ही होगा। यह जीवन तो पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है। इसमें "मैं" और "मेरा" कुछ भी नहीं है। सर्वव्यापी परमात्मा ही सर्वस्व है।

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अति शीघ्र ही आने वाला समय कुछ अच्छा नहीं लग रहा, अत्यधिक विनाश के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। हमारी रक्षा हमारा धर्म ही करेगा। हमारा धर्म है परमात्मा को समर्पण, यानि भगवत्-प्राप्ति। हम अपने धर्म का पालन करें। भगवान का यही आदेश है ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||२:४०||" (गीता)
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सभी को नमन !!
आप सब से मिले प्रेम और स्नेह के लिए मैं आप सब का सदा आभारी रहूँगा। कहीं जा नहीं रहा। आप सब के मध्य में निरंतर परमात्मा के साथ एक हूँ। पहले प्रयासपूर्वक भगवान में मन लगाना पड़ता था। अब परिस्थितियाँ बदल गई है, जो अवर्णनीय है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२७ मार्च २०२२

उपासना ---

 उपासना ---

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दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, हम निरंतर धर्म, आध्यात्म, और भगवान की महिमा को ही लिखते या पढ़ते रहें, तो पूरा जीवन काल बीत जाएगा, लेकिन लिखने/पढ़ने का विषय और उसकी सामग्री कभी समाप्त नहीं होगी। अतः भगवान को अपना मन बापस दे दें, और भगवान के अलावा अन्य कुछ भी नहीं सोचने का अभ्यास करें। इस अभ्यास को "ध्यान साधना" कहते हैं। भगवान ने कृपा कर के यदि हमारे मन को स्वीकार कर लिया तो हमारी बुद्धि, चित्त और अहंकार भी स्वतः उन्हीं के हो जायेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय (आत्मसंयमयोग) में यह बात बहुत अच्छी तरह से समझाई है। इस पूरे अध्याय का समय समय पर पूर्ण मनोयोग से स्वाध्याय करते रहें। पूरी गीता का भी स्वाध्याय करें।
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शांत होकर एक ऊनी कंबल के आसन पर बैठिये। मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो, कमर बिलकुल सीधी हो, और दृष्टिपथ भ्रूमध्य में हो। नितंबों के नीचे एक गद्दी लगा लें ताकि मेरुदंड सदा उन्नत रहे। यह भाव रखें कि हमारे समक्ष भगवान साक्षात स्वयं साकार होकर बैठे हैं, और उनके बिलकुल पास ही हम बैठे हैं। भगवान के बिलकुल समीप बैठने को ही "उपासना" कहते हैं। धीरे-धीरे स्वयं को तो भूल जाइए और भगवान को ही निरंतर स्मृति में रखिए। भगवान का एक विराट ज्योतिर्पुंज के रूप में सारी सृष्टि में विस्तार करें। वे सारी सृष्टि में और सारी सृष्टि उन में समाहित है। वे स्वयं ही सारी सृष्टि हैं। स्वयं की पृथकता के बोध और अस्तित्व को भी भगवान में समाहित कर दें।
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अजपा-जप और नादानुसंधान का अभ्यास करें। इनकी विधि सविनय किन्हीं भी ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से सीख लें। ब्रहमनिष्ठ आचार्य से उपदेश और आदेश लेकर ही आगे की साधना/उपासना करें। यदि सत्यनिष्ठा होगी तो भगवान स्वयं ही सिखाने आ जायेंगे।
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जीवन में सदा यह भाव रखें की आप जो भी काम कर रहे हैं, वह काम आपके माध्यम से यानि आपको निमित्त बनाकर भगवान स्वयं कर रहे हैं। स्वयं को भगवान का एक उपकरण बना लीजिये जिसका उपयोग सिर्फ भगवान ही कर सकते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसे कई बार अनेक स्थानों पर समझाया है। उनका स्मरण नित्य निरंतर रखें। भगवान को कभी नहीं भूलें। वे भी आपको कभी नहीं भूलेंगे। और अधिक लिखने का लाभ नहीं है। सार की बात लिख दी है। कोई भी बात पूछनी हो तो अपने हृदय में बिराजमान भगवान से पूछिए, निश्चित रूप से उत्तर मिलेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२६ मार्च २०२२

मेरी दृष्टि में निष्काम कर्मयोग क्या है? ---

 मेरी दृष्टि में निष्काम कर्मयोग क्या है? ---

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कोई इच्छा नहीं है, कोई कामना नहीं है, कोई आकांक्षा नहीं है, परमात्मा स्वयं हमारे भीतर, बाहर और सर्वत्र स्वयम् बिराजमान हैं। परमात्मा एक प्रवाह हैं, जिन्हें हम अपने स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें।
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समष्टि के कल्याण के लिए हम निमित्त मात्र होकर जब परमात्मा को अपने माध्यम से कर्म करने देते हैं, तब वह हमारा "निष्काम कर्मयोग" है। उपासना के निमित्त जब हमारे माध्यम से परमात्मा स्वयं अपने स्वयं का ध्यान करते हैं, तब वह भी हमारा "निष्काम कर्मयोग" और हमारे "आत्मोत्थान व आत्मानुभूति का मूल" होता है। यह हमें क्षुद्र से महान बनाता है।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मार्च २०२२

भगवान की भक्ति पर कितना भी लिखो, कोई अंत नहीं है ---

 भारत की आत्मा ही आध्यात्म है, और सनातन-धर्म ही भारत का प्राण है। यह भारत भूमि धन्य है। यहाँ धर्म, भक्ति, और ज्ञान पर जितना चिंतन और विचार हुआ है, उतना पूरे विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है। भगवान की भक्ति पर कितना भी लिखो, कोई अंत नहीं है। गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित "शिव महिम्न स्तोत्र" का ३२वाँ श्लोक कहता है --

"असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी॥
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥"
अर्थात् -- यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड़ की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।
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कबीर जी का भी एक दोहा है --
"सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥"
अर्थात् - यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।
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रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत तो भक्ति के ही ग्रंथ हैं।
"मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥" (रामचरितमानस)
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नारद भक्तिसूत्र और शांडिल्य भक्तिसूत्रों का स्वाध्याय एक बार अवश्य कर लेना चाहिए। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२२

सिंहावलोकन ---

 सिंहावलोकन ---

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पिछले ६०-६५ वर्षों की स्पष्ट स्मृतियाँ है। समाज और राष्ट्र की जैसी परिस्थितियाँ देख रहा हूँ, उनसे कोई विशेष संतुष्टि नहीं है। जैसा जीवन मैंने जीया है, निश्चित रूप से उसमें और भी अधिक अच्छा कर सकता था। लेकिन प्रकृति अपने कर्मफलों व पुनर्जन्म के नियमों के अनुसार ही चलती है, न कि हमारी इच्छानुसार।
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मेरा चिंतन स्पष्ट है। मुझे किसी भी प्रकार का कोई संशय या भ्रम नहीं है। किसी भी अन्य से किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा, या मार्गदर्शन की आवश्यकता मुझे नहीं है। गुरुकृपा से सामने का परिदृश्य स्पष्ट है। जीवन में संतुष्टि और तृप्ति -- श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषदों व अन्य कुछ आगम ग्रन्थों के स्वाध्याय और परमात्मा के ध्यान से ही मिलती है। जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो, इसके अतिरिक्त अन्य कोई अभीप्सा नहीं है। जीवन का अंतिम समय पूर्ण रूप से परमात्मा की चेतना में ही व्यतीत होगा।
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एक बात तो स्पष्ट है, और यह एक दैवीय आश्वासन भी है कि -- सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण निश्चित रूप से निकट भविष्य में होगा, व भारत में छाया असत्य का घना अंधकार भी दूर होगा। भारत निश्चित रूप से एक सत्यनिष्ठ आध्यात्मिक अखंड हिन्दू राष्ट्र बनेगा। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को मेरा नमन, प्यार व मंगलमय शुभ कामनाएँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२२

मैं प्रसन्न, संतुष्ट और तृप्त हूँ, भगवान से भी कुछ नहीं चाहिए ---

 मैं किसी के भी किसी सांसारिक काम का नहीं हूँ। किसी का कोई भी प्रयोजन मुझसे सिद्ध नहीं हो सकता। अतः बेकार में मित्रता अनुरोध भेज कर, या मेरी मित्रता सूचि में बने रह कर, और मेरे आलेख पढ़कर अपना अमूल्य समय नष्ट न करें।

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मैं ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की बातें करता हूँ, जो किसी के काम की नहीं हैं। अतः मुझसे दूरी बनाकर ही रखें। जिन्हें भगवान से अहेतुकी अभिन्न प्रेम (Unconditional integral love) है, वे ही मेरे आसपास टिके रह सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
अब चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, हो सकता है उस से यह भौतिक देह नष्ट हो जाये, लेकिन मुझे कुछ भी नहीं होगा। जब तक भगवान की स्वीकृति न हो तब तक मुझे न तो कुछ हो सकता है, और न ही कोई मेरा कुछ बिगाड़ सकता है।
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पूर्व जन्मों में मुक्ति के उपाय नहीं किए, और कोई विशेष अच्छे कर्म नहीं किए, इसलिये इस जीवन में अधर्म का साक्षी बनना पड़ा। लेकिन मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है, न ही किसी की निंदा और आलोचना के लिए मेरे पास कुछ है। यह सृष्टि भगवान की है, मेरी नहीं। इसे अपने नियमों के अनुसार भगवान की प्रकृति चला रही है।
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मैं प्रसन्न, संतुष्ट और तृप्त हूँ। भगवान से भी कुछ नहीं चाहिए। उन्होंने अपने हृदय में स्थान दिया है, तो सब कुछ मिल गया है। और कुछ बचा ही नहीं है। भगवान की सर्वव्यापकता ही मेरा आत्मस्वरूप है। मेरी हर कामना, आकांक्षा, संकल्प या प्रतिज्ञा -- व्यभिचार है, क्योंकि मैं निमित्त मात्र हूँ, कर्ता नहीं। भगवान हैं, यहीं पर हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा मेरे साथ एक हैं। मैं उनके हृदय में और वे मेरे हृदय में हैं। उनके सिवाय मेरा अन्य किसी से कोई संबंध नहीं है।
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पूरी दुनियाँ की खाक़ छानने के बाद पता चला कि ख़ुदा तो ख़ुद ही यह खाक़सार है, जो बड़ा छलिया है !
जय हो !! धन्यवाद। जय श्रीहरिः॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०२२

सिर्फ परमात्मा की प्रत्यक्ष उपस्थिती पर ही ध्यान दें ---

 नित्य सायं और प्रातः, व जब भी समय मिले हर ओर से ध्यान हटाकर अपने मन को आत्म-तत्व (परमात्मा) में स्थित कर अन्य कुछ भी चिंतन न करने का अभ्यास करें। सिर्फ परमात्मा की प्रत्यक्ष उपस्थिती पर ही ध्यान दें। हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व, और यह सारी परम विराट और अनंत सृष्टि वे ही हैं। गीता के छठे अध्याय "आत्म संयम योग" में इसे बहुत अच्छी तरह समझाया गया है। उसका स्वाध्याय करें।

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हम तो निमित्त मात्र, परमात्मा के एक उपकरण हैं, परमात्मा स्वयं ही हमें माध्यम बना कर यह साधना भी कर रहे हैं। कर्ता हम नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। हम जो भी कार्य करें, वह पूर्ण मनोयोग व पूर्ण निष्ठा से करें। किसी भी तरह की कोई कमी न छोड़ें। संसार हमारी प्रशंसा करे या निंदा, सारी महिमा परमात्मा की ही है। उन्होंने हमें जहाँ भी रखा है और जो भी दायित्व दिया है उसे हम नहीं, स्वयं वे ही सम्पन्न कर रहे हैं। उन का परमप्रेम (भक्ति) हम सब में साकार हो। ॐ तत्सत्॥ ॐ स्वस्ति॥
कृपा शंकर
२४ मार्च २०२२

"श्रीगुरु चरण सरोज रज" में हमें आश्रय मिले ---

 "श्रीगुरु चरण सरोज रज" में हमें आश्रय मिले ---

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आध्यात्मिक रूप से श्रीगुरुचरणों में जब एक बार भी हमारे सिर का नमन हो जाता है, तब फिर हमारा सिर फिर बापस कभी नहीं उठ सकता, झुका ही रहता है। यदि सिर बापस उठ गया है तो इसका अर्थ है कि सिर कभी झुका ही नहीं था।
गुरु का साथ शाश्वत है। साधना में सिद्धि मिलते ही हम गुरु के साथ एक हो जाते हैं। कहीं पर किसी भी तरह का कोई भेद नहीं रहता। श्रीगुरु चरणों में हम अर्पित कर ही क्या सकते हैं? हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के सिवाय, और है ही क्या हमारे पास? इन्हें पूरी तरह अर्पित कर देना चाहिए।
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'श्री' शब्द में 'श' का अर्थ है श्वास, 'र' अग्निबीज है, और 'ई' शक्तिबीज। श्वास रूपी अग्नि और उसकी शक्ति ही 'श्री' है। श्वास का संचलन प्राण तत्व के द्वारा होता है। प्राण तत्व -- सुषुम्ना नाड़ी में सोम और अग्नि के रूप में संचारित होता है। श्वास उसी की प्रतिक्रिया है। जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है।
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सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति - श्रीगुरु महाराज के चरण-कमल हैं। उस ज्योति का ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है। उस ज्योति-पुंज का प्रकाश "श्रीगुरुचरण सरोज रज" है। सहस्त्रारचक्र में स्थिति श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। खेचरी-मुद्रा -- श्रीगुरुचरणों का स्पर्श है। जिन्हें खेचरी-मुद्रा सिद्ध नहीं है, वे साधनाकाल में जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें, और आती-जाती श्वास के प्रति सजग रहें। तालव्य-क्रिया के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है। सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति और उसका आलोक ही "श्रीगुरु चरण सरोज रज" है, जिस में हमारा मन लोटपोट करता रहे, और भगवान का स्मरण, चिंतन और ध्यान करे। तभी चार फलों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
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संध्याकाल -- दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है। हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं। हर श्वास -- एक जन्म है; और हर प्रश्वास -- एक मृत्यु।
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में ही रहता है तब हमारे में धर्म की ग्लानि होती है। हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रारचक्र, व उससे भी ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है। आज्ञाचक्र और उस से ऊपर धर्मक्षेत्र है, उसके नीचे कुरुक्षेत्र।
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यह मनुष्य देह इस संसार सागर को पार करने की नौका है, गुरु कर्णधार हैं, व अनुकूल वायु -- परमात्मा का अनुग्रह है। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता से भी परे -- परमशिव हैं। वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है। मेरुदंड में विचरण कर रहे प्राणों का घनीभूत रूप "कुण्डलिनी महाशक्ति" है, जिसका परमशिव से मिलन ही योग है। हमारा मन सदा "श्रीगुरु-चरण-सरोजरज" में लोटपोट करता रहे। फिर जो करना है, वह स्वयं परमात्मा ही करेंगे।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२२

अगली शताब्दी तक रूस फिर से एक सनातन धर्मावलम्बी हिन्दू देश होगा ---

 अगली शताब्दी तक रूस फिर से एक सनातन धर्मावलम्बी हिन्दू देश होगा ---

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रूस को नष्ट करने का संकल्प नेपोलियन और हिटलर ने भी किया था। उनका स्वप्न कभी पूरा नहीं हुआ। छः सात वर्षों तक लगातार युद्ध के पश्चात भी रूस का गोला-बारूद समाप्त नहीं हुआ था। अब भारत की टीवी समाचार चैनलें झेलेंस्की (मुंगेरीलाल) के रूस विजयी बनने के हसीन सपने दिखा रही हैं। पत्रकारों की पीड़ा यह है कि सब तरह के सारे प्रतिबंधों का रूस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा है। आज प्रातः एक टीवी चैनल अमेरिका पत्रिका "Time" का संदर्भ देकर कह रही थी कि रूस अब सदा के लिए समाप्त हो गया है।
रूस तो अभी तक शुरू ही नहीं हुआ है, समाप्त कैसे हो गया?
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ईसा की बारहवीं शताब्दी तक रूस एक हिन्दू देश था। भारत से संपर्क टूट जाने के कारण बारहवीं सदी में रसियन ऑर्थोडॉक्स चर्च ने हिन्दुत्व का स्थान ले लिया। वह समय ही खराब था। बाद में मार्क्सवादियों ने हिन्दुत्व के सारे अवशेष नष्ट कर दिए। अब अगली शताब्दी तक रूस फिर से एक सनातन धर्मावलम्बी हिन्दू देश होगा। कालचक्र परिवर्तित हो गया है।
२१ मार्च २०२२

मैं यह हाड-मांस की भौतिक देह नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि हूँ ---

 मेरे से अन्य कुछ भी नहीं है। खुली आँखों से जड़-चेतन जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह मैं ही हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई भी नहीं है। आँखें बंद कर के भी जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह सारी अनंतता मैं स्वयं हूँ। परमात्मा का सारा सौन्दर्य, सारा प्रेम, सारी करुणा और पूर्णता -- मैं ही हूँ। मेरे से अन्य कुछ भी नहीं है।

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मैं यह हाड-मांस की भौतिक देह नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि हूँ। यह समस्त संसार मेरे ही मन का एक विचार मात्र है। जो श्रीहरिः हैं, वो ही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वे ही श्रीहरिः हैं।
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ज्ञान और भक्ति की बातें वे ही समझ सकते हैं जिन में सतोगुण प्रधान है। जिन में रजोगुण प्रधान है वे सिर्फ कर्मयोग को ही समझ सकते हैं। जिन में तमोगुण प्रधान है, वे सिर्फ बाहरी आचरण के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं समझ सकते।
अतः महत्व "गुण" का है। इसे समझने के लिए गीता के १४वें अध्याय का स्वाध्याय करें।

ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२२

धर्म एक ही है और वह है सनातन धर्म; अन्य कोई धर्म नहीं, बल्कि पंथ, मज़हब या रिलीजन हैं ----

 भारत के मनीषियों ने "अभ्यूदय" और "निःश्रेयस" की सिद्धि को ही धर्म बताया है। सार रूप में इसका अर्थ है कि जिस से हमारा सर्वतोमुखी सम्पूर्ण विकास हो, और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति मिले, वही धर्म है।

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मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। महाभारत आदि ग्रन्थों में विस्तार से धर्म को समझाया गया है। लेकिन यह तभी संभव है जब हमारे हृदय में परमात्मा हों। अतः समझ में तो यही आता है कि परमात्मा की चेतना में निरंतर रहने से ही धर्म का प्राकट्य होता है। यही सत्य-सनातन-धर्म का सार है।
"धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः॥"
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥"
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भगवान ने जितनी समझ दी है, उसे ही यहाँ व्यक्त कर दिया है। इससे अधिक न तो मैं जानता हूँ, और न ही जानने की क्षमता या सामर्थ्य मुझ में है।
सभी को नमन !! ॐ गुरु !! जयगुरु !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०२२
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पुनश्च :--- एक बात जोर देकर बार बार कहता हूँ की जिस से हमारा सर्वतोमुखी सर्वांगीण सम्पूर्ण विकास हो, और जिस से हमें सब तरह के कष्टों व दुःखों से मुक्ति मिले, वही "धर्म" है। जो उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता वह "अधर्म" है।
भारत में "अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि" को ही कणाद ऋषि के वैशेषिक सूत्रों ने "धर्म" को परिभाषित किया है। इसका अर्थ वही है जो ऊपर दिया हुआ है।
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धर्म एक ही है और वह है सनातन धर्म। अन्य कोई धर्म नहीं, बल्कि पंथ, मज़हब या रिलीजन हैं। "धर्म" शब्द का किसी भी अन्य भाषा में कोई अनुवाद नहीं हो सकता।
धर्मशिक्षा के अभाव में भारत की युवा पीढ़ी को धर्म का ज्ञान नहीं है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है जब आज की युवा पीढ़ी कहती है कि वे किसी धर्म को नहीं मानते।
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२२

हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें, यही धर्म का पालन है ---

 भारत में धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण भी होगा। भारत एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी अखंड हिन्दू राष्ट्र भी होगा। असत्य का अंधकार भी दूर होगा। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। यही भगवत्-प्राप्ति है, यही सत्य-सनातन-धर्म का सार है, और यही धर्म का पालन है, जो सदा हमारी रक्षा करेगा। यही हमारा कर्म है और यही हमारी भक्ति है। भगवान स्वयं हमारी चिंता कर रहे हैं।

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हम पराक्रमी, वीर्यवान, निर्भय और हर दृष्टि से शक्तिशाली बनें। महासागर में खड़ी चट्टान की तरह हम अडिग बनें, जो इतनी प्रचंड लहरों के निरंतर आघात से भी कभी विचलित नहीं होती। परशु की सी तीक्ष्णता हमारे में हो जिस पर कोई गिरे, वह तो कट ही जाये, और जिस पर परशु गिरे वह भी कट जाये। स्वर्ण की सी पवित्रता हमारे में हो, जिसे देखकर श्वेत कमल भी शर्मा जाये। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२२

यह लेख मेरे प्राणों की वेदना और आनंद की एक अभिव्यक्ति मात्र है, और कुछ भी नहीं --

 यह लेख मेरे प्राणों की वेदना और आनंद की एक अभिव्यक्ति मात्र है, और कुछ भी नहीं --

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जीवन में हमारा लक्ष्य उच्चतम हो, हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य की ओर ही रहे। सफलता-असफलता का कोई महत्व नहीं है। जब पूर्ण सत्यनिष्ठा से हमने परमात्मा की प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बना लिया है, तब हमारी अंतर्दृष्टि सदा सिर्फ परमात्मा की ओर ही रहे। इधर-उधर कहीं भी देखने की आवश्यकता नहीं है। उनका सतत स्मरण पूर्ण प्रेम से निरंतर हर समय होता ही रहे।
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यह स्वयं परमात्मा, और उनकी पराशक्ति भगवती की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे हमें सफलता प्रदान कर अपने साथ एक करें। परमात्मा के साथ एक होना ही परमात्मा की प्राप्ति है। हम उन्हें परमशिव कहें या विष्णु कहें, या उनके किसी अवतार के रूप में याद करें, बात एक ही है। ईश्वर एक सर्वव्यापी सत्ता है जिनकी अनुभूति हमें गहरे ध्यान में होती है।
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सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे ज्योतिषांज्योति परमब्रह्म परमशिव का ध्यान ही मेरी उपासना है। उस चेतना में मैं, मेरे गुरु, और स्वयं परमशिव -- एक हैं। इनमें कोई भेद नहीं है। मेरी हर साँस, और उसकी प्रतिक्रिया में व्यक्त भगवती कुंडलिनी महाशक्ति -- मेरे और परमात्मा के मध्य में एक कड़ी (Link) हैं। उन्हीं ने मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है। वे घनीभूत प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त हो रही हैं। मुझे निमित्त बना कर इस देह के माध्यम से वे स्वयं ही उपासना करते हुए भौतिक देह से सांसें ले रही हैं। जिस दिन वे मेरे लिए परमशिव के साथ एक हो जायेंगी, उस दिन मैं भी भगवान की पूर्णता को उपलब्ध हो जाऊंगा। उन्होने ही मुझे परमशिव से पृथक किया था, और वे ही संयुक्त करेंगी। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। जो परमशिव हैं, वे ही यह "मैं" है।
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प्राण-तत्व के रूप में भगवती के संचलन की प्रतिक्रया से चल रही इन साँसों ने ही मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है| मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं, इस देह के माध्यम से साँस ले रहे हैं| हर साँस के साथ साथ जगन्माता मुझे निरंतर परमात्मा की ओर धकेल रही हैं। उनके इस प्रवाह के प्रति सचेतनता ही मेरे लिए वेदपाठ है। मुझे और कुछ नहीं आता-जाता।
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जिस परम ज्योति के दर्शन मुझे होते हैं, उसी को मैं "कूटस्थ सूर्यमंडल" कहता हूँ। उस सूर्यमण्डल का भेदन कर भगवती स्वयं ही नुझे परमशिव से मिला देंगी। मैं तो निश्चिंत हूँ। जहाँ भी मैं हूँ वहीं स्वयं परमात्मा हैं। जहाँ परमात्मा हैं, वहीं मैं हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२२

हमारे से भगवान की भक्ति या कोई साधना/उपासना नहीं हो रही है तो हम क्या करें? ---

 हमारे से भगवान की भक्ति या कोई साधना/उपासना नहीं हो रही है तो हम क्या करें? ---

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प्रिय निजात्मगण, आप भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं, और इस दुरूह विषम काल में आपसे कोई साधना/उपासना संभव नहीं हो रही है, तो कोई चिंता की बात नहीं है। भगवान ने आपके लिए भी एक बहुत ही सरल मार्ग प्रशस्त किया है। भगवान कहते हैं कि मेरा नित्य निरंतर स्मरण करते रहो, और मेरी उपस्थिती का आभास सर्वत्र सर्वदा रखो। बस इतना ही बहुत है। भगवान को कभी भी मत भूलो, फिर भगवान स्वयं ही आपके पास चले आयेंगे। क्या इस से अधिक सरल अन्य कुछ हो सकता है?
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भगवान कहते हैं --
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् - "हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा सतत स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥"
यह आत्मानुसंधान या ईश्वर स्मरण नित्य निरन्तर और अखण्ड होना चाहिये। अनन्य चित्तवाला यानि सदा भगवान में ही समाहित चित्त रहना चाहिये। अनन्य यानि कोई अन्य नहीं है।
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भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - "इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - "जो मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥"
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अब और क्या कहूँ? यह भगवान को पाने का सरलतम मार्ग है। इससे अधिक सरल अन्य कुछ भी नहीं है। इस संसार में कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। भगवान को पाने की कीमत आपका पूर्ण प्रेम है। भगवान के पास सब कुछ है, सिर्फ आपका प्रेम नहीं है। भगवान प्रेम के भूखे हैं। आप उन्हें अपना पूर्ण प्रेम (Total and unconditional Love) देंगे तो भगवान स्वयं ही आपके पास जहाँ और जैसे भी आप हैं, वहीं चले आयेंगे। यह उनका दिया हुआ वचन है जो कभी मिथ्या नहीं हो सकता।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,
झूञ्झुणू (राजस्थान)
१८ मार्च २०२२

देश में बहू-विधान है या संविधान? ---

देश में बहू-विधान है या संविधान? संविधान का अर्थ होता है समान विधान, यानि एक देश, एक कानून। क्या देश में समान नागरिक संहिता है? पृथक-पृथक वर्गों के लिए पृथक-पृथक संहिताएँ क्यों हैं देश में? एक देश - एक कानून ही होना चाहिए सभी के लिए।

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मतान्धों द्वारा अवर्णनीय निकृष्टतम पैशाचिक अत्याचारों का शिकार बना कर जिस समय कश्मीर से रातों-रात लाखों हिंदुओं को भगाया गया था, उस समय देश में एक संविधान भी था, कानून-व्यवस्था भी थी, पुलिस, अर्ध-सैनिक बल, सेना, राज्य सरकार, केंद्र सरकार, उच्चतम न्यायालय और समाचार मीडिया भी था। लेकिन सब विफल हो गए। क्या सारे शीर्षस्थ नेतृत्व का मनुष्यता से पतन हो गया था? क्या वे रातों-रात मनुष्य से नर-पिशाच बन गए थे?
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वे और उनके वंशज चाहे कितनी भी सफाई दें, दैवीय सत्ता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। वे निश्चित रूप से दंड के भागी होंगे? कर्मों का फल निश्चित रूप से मिलता है।
जय अखंड भारत !! जय सत्य-सनातन-धर्म !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०२२

आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य है -- समष्टि का कल्याण ---

 आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य है -- समष्टि का कल्याण, जो वर्तमान परिस्थितियों में तभी संभव है जब सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो; व राष्ट्र में छाये हुये असत्य के अंधकार का नाश हो।

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परमात्मा ही एकमात्र सत्य है। सत्य-सनातन-धर्म है -- निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति, यानि भगवत्-प्राप्ति। भगवत्-प्राप्ति से ही अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि संभव है।
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भारत एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी राष्ट्र हो, जहाँ की राजनीति सत्य-सनातन धर्म हो।
जय अखंड भारत !! जय सत्य-सनातन-धर्म !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०२२

सौ बात की एक बात, जो बड़े काम की है ---

 सौ बात की एक बात, जो बड़े काम की है ---

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"निंदा" और "स्तुति" -- ये दोनों एक ही माँ की जुड़वा सन्तानें और सगी बहिनें हैं, जो एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकतीं। ऐसे ही "बुराई" और "भलाई" यानि "अपयश" और "यश" -- ये दोनों जुड़वाँ सगे भाई भी उसी माँ की सन्तानें हैं, और एक-दूजे के लिए हैं। जहाँ एक भाई-बहिन रहेगा, वहीं दूसरे भी सब आ जाएँगे। उपरोक्त सभी जुड़वाँ भाई-बहिनें सदा हमारी पीठ के पीछे खड़े रहते हैं, और पीठ पीछे से ही हमारे ऊपर चढ़ते हैं। इसलिए अपनी पीठ को हर समय संभाल कर रखो। अपनी पृष्ठभूमि में (पीठ में) सदा भगवान को बैठा कर रखो, अन्य किसी को भूल से भी वहाँ प्रवेश मत करने दो।
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संसार के लोगो, एक बात बड़े ध्यान से सुन लो, आप कहीं जा रहे हो, और पीठ पीछे से अचानक ही एक शेर आकर आपको पकड़ ले और पंजों के नीचे दबाकर बैठ जाये तो आप क्या कर सकते हो? आप न तो कहीं भाग सकते हो, और न ही वहाँ दबे रह सकते हो। आप किसी भी काम के नहीं रहते और शेर महाराज से यही प्रार्थना कर सकते हो कि मेरे भाई, मेरे माँ-बाप, तूँ मुझे जल्दी-जल्दी मार कर खा जा, और अपना काम खत्म कर। वह शेर आपको जितनी जल्दी मार कर खा जाएगा, उतनी ही जल्दी आप मुक्त हो जाओगे।
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यही हालत मेरी हो रही है। मुझे आजकल भगवान ने पकड़ रखा है, इसलिए संसार के किसी काम का नहीं रहा हूँ। संसार के लोगो, मुझे माफ करना, मैं अब आपके किसी काम नहीं आ सकता। संसार के सारे पहलवान मिल कर भी मुझे भगवान की पकड़ से कभी नहीं छुटा सकते। सामने ठाकुर जी खुद बैठे हैं, जो हाथ में कभी तो तीर-कमान, और कभी सुदर्शन चक्र ले लेते हैं; कभी कभी पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ भी हो जाते हैं। पीठ पीछे हनुमान जी अपनी गदा लेकर युद्ध-मुद्रा में खड़े हैं। ऊपर दूर कहीं अनंत से भी परे ठाकुर जी खुद अपने शिवरूप में बैठे हुए सब तमाशा देखते हुए मजे ले रहे हैं। उनकी चक्की में तो मैं जीवात्मा ही पिस रहा हूँ। पता नहीं क्यों यह सब नाटकबाजी कर रहे हैं, और मुझे मुक्त नहीं करते? उन से बच कर जाने का कोई मार्ग भी तो नहीं है। जिधर देखता हूँ, उधर वे ही वे दिखाई देते हैं। इसलिए मजबूरी में अब उन्हीं को समर्पण कर दिया है। और कर भी क्या सकता हूँ?
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यह "भक्तिमाता" भी पता नहीं क्यों मुझसे बहुत अधिक नाराज है? "ज्ञान महाराज" नाम के अपने एक बेटे को तो मेरे सामने बैठा दिया है, पर "वैराग्य महाराज" नाम के अपने दूसरे पुत्र को पता नहीं कहाँ छिपा दिया है। वह भूल से भी कहीं दिखाई नहीं देता। लगता है बहुत पहले से ही वह कहीं किसी कुम्भ के मेले में खो गया है।
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असली मजा तो पवनपुत्र हनुमान जी ले रहे हैं। मैं जब सांस भीतर लेता हूँ तो वे बड़े प्रसन्न होकर मेरी सूक्ष्म देहस्थ सुषुम्ना नाड़ी की उप ब्रहमनाड़ी में मूलाधारचक्र से सब चक्रों को पार करते हुए सहस्त्रारचक्र में चले जाते हैं। वहाँ कुछ पलों तक आनंद लेते हैं, और फिर मेरे सांस छोड़ते ही धीरे-धीरे फिर बापस नीचे आ जाते हैं। उनका आनंद ही मेरा आनंद है। वे खुश तो मैं भी खुश !! कभी कभी वे अपने साथ ब्रह्मरंध्र के मार्ग से बाहर भी ले जाते हैं और बापस भी ले आते हैं। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती से किसी भूत-प्रेत या पिशाच का साहस भी नहीं होता आसपास आने का।
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ठाकुर जी, अब मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। जब तक चाहो तब तक मुझे पकड़ कर रखो। मैं भी निर्भय और बेशर्म हो गया हूँ। आपकी पकड़ से मुझे बहुत आनंद आने लगा है, जिसे मैं अब खोना नहीं चाहता।
और हे भक्तिमाता, एक न एक दिन आप भी खुद मुझसे परेशान होकर अपने "वैराग्य महाराज" नाम के पुत्र का सत्संग मुझ से करा ही दोगी। आपकी भी जय हो।
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हे मित्रो, इस थोड़े लिखे को ही बहुत समझ लेना। बहुत काम की बात है। आप सब की भी जय हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मार्च २०२२

हिंदुओं को कौन सा देश शरण देगा? वहाँ जाने का रास्ता भी कौन देगा ?? ---

 हिंदुओं को कौन सा देश शरण देगा? वहाँ जाने का रास्ता भी कौन देगा ?? ---

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आजकल रूस-यूक्रेन युद्ध पर कोई निष्पक्ष समाचार नहीं मिल रहे हैं। भारतीय मीडिया बिकी हुई है और रूस के विरुद्ध एकतरफा समाचार दे रही है। एक बात तो निश्चित है कि अमेरिका एक लुटेरा देश है। वह जो भी करता है, दूसरों को लूटने के लिए ही करता है। यूक्रेन के युद्ध के पीछे अमेरिका का हाथ है। रूस को उकसा कर यूक्रेन पर आक्रमण करवाया गया है। इसका उद्देश्य है रूस को पराजित कर के नष्ट करना। ब्रिटेन की नीति भी अमरीका जैसी ही है।
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पश्चिमी देशों और अमेरिका के लिए हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार इसलिए नहीं होता क्योंकि हम हिन्दू हैं, और उनको हिंदुओं से घृणा है। नैटो के प्रमुख देशों ने ही आधुनिक युग में सारे वैश्विक अपराध किये हैं, जिनके लिए कभी कोई गलती नहीं मानी। करोड़ों निरपराध लोगों का नरसंहार किया, करोड़ों को दास बनाकर बेचा, करोड़ों लोगों की सम्पत्ति लूटी। किन्तु मानवाधिकार के चैम्पियन बनते हैं !! ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल के अनुसार अमरीका में रेड इण्डियन का नर-संहार एक घटिया नस्ल को हटाकर श्रेष्ठ नस्ल की स्थापना थी। ब्रिटिश सरकार ही अमेरिका में रेड इण्डियन का नर-संहार करा रही थी। और दास−व्यापार के लिए अफ्रीकियों का भी। हिन्दु लोग भगवान की कृपा से ही बच गए, अन्यथा अंग्रेजों ने और उनसे पूर्व आए आक्रमणकारियों ने तो उन्हें पूरी तरह नष्ट करने का पूरा प्रयास किया था।
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कल्पना कीजिये -- कल को यदि ग़जवा−ए−हिन्द आरम्भ हो जाये और हिंदुओं को देश छोड़कर भागना पड़े तब विश्व का कौन सा देश हिंदुओं को शरण देगा? हमें अपना हित देखना होगा, और संगठित होना होगा। वंदे मातरम् !! भारत माता की जय !!
१४ मार्च २०२२