हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिः नाम ----
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लाख बाधाएँ आयें, पर हिम्मत मत हारो, लगे रहो| हम सभी का अन्तःकरण बार-बार भागकर अंधकार की ओर आकर्षित होता है जहाँ माया का साम्राज्य है| वहाँ सारे विकार, निराशा और धोखा ही धोखा है|
लेकिन साथ-साथ अंतर्रात्मा को एक शक्ति प्रकाश की ओर भी खींच रही है, जहाँ तृप्ति, आनंद और संतुष्टि है| हर व्यक्ति के चैतन्य में यह भयंकर द्वंद्व चल रहा है जो बड़ा दुःखदायी है|
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माया की दो शक्तियाँ हैं .... आवरण और विक्षेप| आवरण तो अज्ञान का पर्दा है जो सत्य को ढके रखता है| विक्षेप कहते हैं उस शक्ति को जो भगवान की ओर से ध्यान हटाकर संसार की ओर बलात् प्रवृत करती है| इस से मुक्त होना बड़ा कठिन है| दुर्गा सप्तशती में लिखा है ...
"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||"
बड़े बड़े ज्ञानियों को भी यह महामाया बलात् मोह में पटक देती है फिर सामान्य सांसारिक प्राणी तो हैं ही किस खेत की मूलीै?
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परब्रह्म परमात्मा की परम कृपा से ही हम माया से पार पा सकते हैं, निज बल से नहीं| इसके लिए पराभक्ति, सतत निरंतर अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है| गीता में भगवान कहते हैं ...
"शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्||६:२५||
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्| ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्||६:२६||"
अर्थात् शनैः शनैः अभ्यास करता हुआ उपरति यानी वैराग्य/उदासीनता को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे|| यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस जिस विषय के लिए संसार में विचरता है, उस उस विषय से हटाकर इसे बार बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे|
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भगवान को पूर्ण रूप से हृदय में बैठाकर, प्रयास पूर्वक अन्य सब ओर से ध्यान हटाने का अभ्यास करें| किसी भी अन्य विचार को मन में आने ही न दें| पूर्ण रूप से मानसिक मौन का अभ्यास करें| स्वयं को ही देवता बनाना होगा, ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ ‘देवता होकर देवताका पूजन करे|’ परमात्मा को छोडकर अन्य सब प्रकार के चिंतन को रोकने का अभ्यास करना होगा| बाहरी उपायों में बाहरी व भीतरी पवित्रता का ध्यान रखना होगा, विशेषकर के भोजन सम्बन्धी| यह मार्ग "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयोवदन्ति" वाला मार्ग है| अब जब इस तीक्ष्ण छुरे की धार वाले मार्ग का चयन कर ही लिया है तो पीछे नहीं हटना है| अनुद्विग्नमना, विगतस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ मुनि की तरह निर्भय होकर चलते ही रहना है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जून २०२०