Friday, 17 February 2017

मृत संजीवनी मन्त्र .....

मृत संजीवनी मन्त्र .....
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ॐ हौं ॐ जूँ ॐ सः ॐ भू: ॐ भुवः ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम्
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्
त्र्यंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्
भर्गो देवस्य धीमहि
उर्वा रूकमीव बन्धनान्
धियोयोनः प्रचोदयात्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
ॐ सत्यम ॐ तप: ॐ जन: ॐ मह: ॐ स्वः ॐ भुव: ॐ भू: ॐ स: ॐ जूँ ॐ हौं ॐ ||

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ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव । ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

भगवान शिव की साधना का परम सिद्ध स्तवराज ---- महर्षि तंडी द्वारा अवतरित सहस्रनाम :- ---

भगवान शिव की साधना का परम सिद्ध स्तवराज ----
महर्षि तंडी द्वारा अवतरित सहस्रनाम :-
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एक बार सत्ययुग में तंडी नामक ऋषि ने बहुत कठोर शिव तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न किया| आशुतोष भगवन शिव की कृपा से तंडी ऋषि की ज्योतिष्मती और मधुमती प्रज्ञा जागृत हो गयी| उनमें शिव तत्व का ज्ञानोदय हुआ|
उन्होंने जिस रूप में शिव ज्ञान की व्याख्या की है उसे भगवन वेदव्यास ने महाभारत के अनुशासनपर्व के पन्द्रहवें अध्याय में बर्णित किया है|
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जिस समय महर्षि तंडी को महादेव के दर्शन प्राप्त हुए उस समय उनके ह्रदय में महादेव के एक हज़ार सिद्ध नाम स्वयं जागृत हो गए| महर्षि ने उन नामों को ब्रह्मा को बताया| ब्रह्मा ने स्वर्गलोक में उन नामों का प्रचार किया| महर्षि तंडी ने पृथ्वी पर उन नामों को सिर्फ महर्षि उपमन्यु को बताया| महर्षि उपमन्यु भगवान श्री कृष्ण के गुरु थे| उन्होंने अपने शिष्य श्री कृष्ण को वे नाम बताये| श्री कृष्ण ने वे नाम युधिष्ठिर को बताये| इसका विषद बर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवन वेदव्यास ने किया है|
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एक बार भगवान श्री कृष्ण तपस्या करने हिमालय गए जहाँ उन्हें ब्रह्मर्षि उपमन्यु के दर्शन हुए| ब्रह्मर्षि उपमन्यु ने श्री कृष्ण को लगातार आठ दिनों तक शिव रहस्य का बर्णन सुनाया| इसके बाद श्री कृष्ण ने उन से गुरुमंत्र और दीक्षा ली| स्वयं श्री कृष्ण का कहना है ---
"दिनेSष्टमे तु विप्रेण दीक्षितोSहं यथाविधि|
दंडी मुंडी कुशी चीरी घृताक्तो मेखलीकृतः||"
अर्थात, हे युधिष्ठिर, अष्टम तिथि पर ब्राह्मण उपमन्यु ने मुझे यथाविधि दीक्षा प्रदान की| उन्होंने मुझे दंड धारण करवाया, मेरा मुंडन करवाया, कुशासन पर बैठाया, घृत से स्नान कराया, कोपीन धारण कराया तथा मेखलाबंधन भी करवाया|
तत्पश्चात मैंने एक महीने भोजन में केवल फल लिये, दुसरे महीने केवल जल लिया, तीसरे महीने केवल वायु ग्रहण की, चतुर्थ एवम् पंचम माह एक पाँव पर ऊर्ध्ववाहू हो कर व्यतीत किये| फिर मुझे आकाश में सहस्त्र सूर्यों की ब्रह्म ज्योति दिखाई दी जिसमें मैंने शिव और पार्वती को बिराजमान देखा|
ब्रह्मर्षि उपमन्यु की कृपा से मुझे शिवजी के जो एक सहस्त्र नाम मिले हैं, आज युधिष्ठिर मैं उन्हें तुम्हे सुनाता हूँ| ध्यान से सुनो| महादेव के ये सहस्त्र नाम समस्त पापों का नाश करते हैं और ये चारों वेदों के समान पवित्र हैं तथा उन्हीं के समान दैवीय शक्ति रखते हैं|
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(पूरा स्तोत्र 180 श्लोकों में है| बहुत बड़ा है जिसे यहाँ टंकण करना असंभव है| जिज्ञासु साधक इसे सीधे महाभारत से उतार लें| गीताप्रेस गोरखपुर से भी एक लघु पुस्तिका के रूप में उपलब्ध है| यहाँ मैं प्रथम व अंतिम श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ, और महर्षि तंडी ने जो शिव महिमा लिखी है उसके दो तीन श्लोक लिख रहा हूँ| महाभारत में भगवान वेदव्यास ने इसे बहुत ही सुन्दर रूप में वर्णित किया है|)
वासुदेव उवाच|
ततः स प्रयतो भूत्वा मम तात! युधिष्ठिर!!
प्रांजलिः प्राह विप्रषिर्नामसंग्रहमादितः|| 1
श्रीकृष्ण ने कहा -- हे धर्मराज! उसके बाद ब्रह्मर्षि उपमन्यु ने संयमित चित्त होकर तथा दोनों करों को जोड़कर मेरे समक्ष, प्रारंभ से महादेव के सकल संगृहीत नामों का वर्णन करना शुरू किया| 1|
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य: पठेत् शुचि:पार्थ! ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय:|
अभग्रयोगो वर्षं तुं सोSश्वमेधफलं लभेत्|| 180
इति ......|
(श्रीकृष्ण बोले) --- पृथानन्दन! जो व्यक्ति पवित्र, ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय और योगनिष्ठ होकर एक वर्षकाल तक इस स्तव का पाठ करता है, वह व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है| 180||
इति .......|
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तंडि उवाच|
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन भाविता:| तेषामेवात्मनात्मानं दर्शयत्येष हृच्छय:||
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते| यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न विद्यते||
यं लब्धा परमं लाभं नाधिकं मन्यते बुध:| यां सूक्ष्माम् परमां प्रप्तिम् गच्छन्नव्ययमक्षयम्||
यं सांख्या गुणतत्वज्ञा: सांख्यशास्त्र विशारदा:| सूक्ष्मज्ञानतरा सूक्ष्मं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बंधने:||
यंच वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च प्रतिष्ठितं| प्राणायाम परा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च||
ॐकार रथमारुह्य ते विशन्ति महेश्वरं| अयं स देवयानामादित्यो द्वारमुच्यते||
अर्थात जो लोग भक्तिभाव का अवलम्बन करके महादेव के शरणापन्न होते हैं, जीवरूपधारी ह्रुदयासन पर आधीन महादेव उनके सामने स्वयं अपने आप को प्रकट कर देते हैं|
जिन्हें जान लेने से जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है, और अधिक कुछ जान लेने की इच्छा नहीं रहती| ................................... ||
ॐ शिव|

हम सदा परमात्मा की गोद में हैं .....

हम सदा परमात्मा की गोद में हैं| वास्तव में हम हैं ही नहीं| सर्वत्र वे ही हैं|
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रात्रि में परमात्मा का ध्यान कर निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| सिर के नीचे तकिया नहीं जगन्माता का वरद हस्त ही हो| प्रातःकाल जगन्माता की गोद में ही उठें और वहीं बैठकर प्रभुप्रेम में ध्यानस्थ हो जाएँ|
उससे अधिक प्रिय और सुन्दर अनुभूति और क्या हो सकती है जब हम पाते हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा स्वयं जगन्माता के रूप में हमें प्यार कर रहे हैं, ठाकुर जी ही हमें प्रेम करने लगे हैं| जब चारों ओर हम परमात्मा को पाते हैं, और परमात्मा ही हमारे प्रेम में पड़ गए हैं तो हमें और क्या चाहिए ?

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....
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(१) आज्ञा चक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो| यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| आप यह देह नहीं हैं| सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की आप परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, आप और आपके परम पिता एक हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण आप में हैं और आपके माध्यम से परमात्मा समस्त सृष्टि में व्यक्त हो रहे हैं|
जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो आप समष्टि की कर सकते हैं| ॐ ॐ ॐ ||
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(2) भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं ||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|

आगे भगवान कहते हैं ---
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, परमात्म सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|

पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है की जीवन भर मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|

यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए आपको आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा|
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(3) जिस स्थान को मेरुशीर्ष या मस्तक ग्रन्थि (Medulla) कहते हैं वह मनुष्य देह का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है| यहाँ मेरुदंड की समस्त नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती हैं| यह शिखा के स्थान से थोड़ा नीचे है| यहाँ कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| यहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा प्रवेश कर विभिन्न चक्रों को ऊर्जा देकर देह को जीवंत रखती है|
मेरुदंड से आ रही अति सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी यहाँ आकर दो भागों में बंट जाती है|
एक तो सीधी सहस्त्रार को चली जाती है और दूसरी भ्रू मध्य तक उल्टे अर्धचंद्राकार रूप में चली जाती है| सुषुम्ना का जो भाग मूलाधार से भ्रू मध्य तक गया है वह परा सुषुम्ना है| कुण्डलिनी इसी मार्ग में जागृत होकर विचरण करती है|

पर जो मार्ग मस्तक ग्रंथि से सीधा सहस्त्रार में गया है वह उत्तरा पथ, उत्तरायण का पथ या साक्षात् ब्रह्म मार्ग है| जीवात्मा का यहीं निवास है| यह मार्ग गुरु कृपा से ही खुलता है| सामान्य व्यक्ति में यह मार्ग मृत्यु के समय खुलता है| मृत्यु के समय जीवात्मा यहीं से ब्रह्मरंध्र को पार कर बाहर निकल जाती है| योगियों के लिए यही ह्रदय है, यही उनकी साधना की भूमि है| यहीं पर ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होते हैं जिसका प्रतिबिम्ब भ्रू मध्य में दिखाई देता है| यही पर प्रणव (अनहद नाद) की ध्वनी सुनाई देती है| यहाँ जो शक्ति जागृत होती है वह परम कुण्डलिनी है|
उसके बारे में भगवान शिव कहते हैं .....


"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली |
महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये |
आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म् ||"

महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं ....

महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ|
गुरु की आज्ञा से ध्यान तो भ्रू मध्य में किया जाता है पर उसकी अनुभूतियाँ खोपड़ी के पीछे की और होती हैं|
यह ज्योति ही वास्तव में चैतन्य जगत में प्रवेश का अनुमति पत्र है| अतः भ्रूमध्य में उस ज्योति पर और अनाहत नाद पर निरंतर ध्यान करें| यही स्वर्ग का द्वार है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
फरवरी १६, २०१३.

सारे दुखों और कष्टों का कारण .....

दूसरों की तो मैं क्या कह सकता हूँ, सिर्फ स्वयं की ही बात कह सकता हूँ|
सारे दुखों और कष्टों का कारण है ......
>>> "गुण गोविन्द गायो नहीं कियो न हरि को ध्यान" <<< ....
यदि अब तक के जन्मों में हरि का ध्यान किया होता और गोविन्द के गुण गाये होते तो यह जन्म भी क्यों होता? अब भी समय है| हे मन, संभल जा| इस देह को क्या चाहिए? दो रोटी जो कहीं से भी मिल सकती है| वृक्षों के फल और नदियों के जल पर तो किसी का एकाधिकार नहीं है| तुझे चाहिए दिन रात निरंतर हरि का ध्यान कर| उसी में सार है, बाकी सब निःसार है|
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गुण गोविन्द गायो नहीं, जनम अकारथ कीन |
कहे नानक हरी भज मना, जा विध जल की मीन ||
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ॐ ॐ ॐ |

मैं अपनी कमियों के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं कर सकता .....

मैं अपनी कमियों के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं कर सकता .....
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अपनी कमियों के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ| पिछले जन्मों में आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं की, परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया, यही मेरा सबसे बड़ा दोष है| मैनें अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही यह जन्म लिया है| आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं की, इसी महा दोष के कारण बाकी कई दोष भी अपने आप ही जुड़ गए हैं|

मैंने जन्म लिया है यही मेरा सबसे बड़ा अपराध है| पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण यदि मेरा जन्म नहीं होता तो मुझे इस जन्म में कष्ट नहीं उठाने पड़ते| परमात्मा से वियोग ही सबसे बड़ा कष्ट है, जो अन्य कष्टों को जन्म देता है| सभी प्रकार के संचित कर्मों से मुक्त होना ही है, परमात्मा को पूर्ण समर्पण करना ही है|
मार्ग प्रशस्त है| कोई संदेह या शंका नहीं है| भगवान परम शिव की परम कृपा है|
 

 "परमात्मा के लिए असीम प्रेम" ही एकमात्र सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है| जैसे मछली जल के बिना नहीं रह सकती वैसे ही मानव का जीवन परमात्मा के बिना मृत्यु है|

ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ......

भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ......
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मनुष्य के हृदय में भगवान की भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है| यह जितनी शीघ्र घटित हो जाए उतना ही अच्छा है| यह कई जन्मों में जाकर धीरे धीरे घटित होती है| मनुष्य संसार में सुखों की खोज करता है पर उसे निराशा ही मिलती है| सब सुखों को अंततः वह विष मिले हुए मधु की तरह ही पाता है| सब ओर से निराश होकर अंततः वह भगवान की ओर उन्मुख होता है|

जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही भक्ति में भी क्रम होते हैं| एक बालक चौथी में है, एक दसवीं में है, एक स्नातक है, सबकी समझ का अंतर अलग अलग होता है, वैसे ही साधना और भक्ति में भी क्रम हैं|
एक सद्गुरु ही बता सकता है किस साधक के लिए कौन सी साधना उपयुक्त है| भगवान भी हर निष्ठावान को सही मार्ग दिखाते हैं|

मैं सनातन धर्म के सभी सम्प्रदायों का सम्मान करता हूँ| हर सम्प्रदाय के दर्शन में गहराई है और हर सम्प्रदाय में एक से बढकर एक अच्छे अच्छे संत और विद्वान् हैं| सभी का सम्मान हमें करना चाहिए| जो बलात् अपना मत औरों पर थोपते हैं वे धार्मिक नहीं, अपितु असुर राक्षस हैं|

आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र मापदंड यही है कि यदि हम बीते हुए कल की अपेक्षा आज अधिक आनंदमय हैं तो प्रगति कर रहे हैं, अन्यथा नहीं|

परमात्मा के प्रति अहैतुकी (Unconditional) परम प्रेम का उदय मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी है| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन | ॐ ॐ ॐ ||