Friday 17 February 2017

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....
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(१) आज्ञा चक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो| यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| आप यह देह नहीं हैं| सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की आप परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, आप और आपके परम पिता एक हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण आप में हैं और आपके माध्यम से परमात्मा समस्त सृष्टि में व्यक्त हो रहे हैं|
जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो आप समष्टि की कर सकते हैं| ॐ ॐ ॐ ||
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(2) भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं ||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|

आगे भगवान कहते हैं ---
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, परमात्म सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|

पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है की जीवन भर मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|

यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए आपको आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा|
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(3) जिस स्थान को मेरुशीर्ष या मस्तक ग्रन्थि (Medulla) कहते हैं वह मनुष्य देह का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है| यहाँ मेरुदंड की समस्त नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती हैं| यह शिखा के स्थान से थोड़ा नीचे है| यहाँ कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| यहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा प्रवेश कर विभिन्न चक्रों को ऊर्जा देकर देह को जीवंत रखती है|
मेरुदंड से आ रही अति सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी यहाँ आकर दो भागों में बंट जाती है|
एक तो सीधी सहस्त्रार को चली जाती है और दूसरी भ्रू मध्य तक उल्टे अर्धचंद्राकार रूप में चली जाती है| सुषुम्ना का जो भाग मूलाधार से भ्रू मध्य तक गया है वह परा सुषुम्ना है| कुण्डलिनी इसी मार्ग में जागृत होकर विचरण करती है|

पर जो मार्ग मस्तक ग्रंथि से सीधा सहस्त्रार में गया है वह उत्तरा पथ, उत्तरायण का पथ या साक्षात् ब्रह्म मार्ग है| जीवात्मा का यहीं निवास है| यह मार्ग गुरु कृपा से ही खुलता है| सामान्य व्यक्ति में यह मार्ग मृत्यु के समय खुलता है| मृत्यु के समय जीवात्मा यहीं से ब्रह्मरंध्र को पार कर बाहर निकल जाती है| योगियों के लिए यही ह्रदय है, यही उनकी साधना की भूमि है| यहीं पर ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होते हैं जिसका प्रतिबिम्ब भ्रू मध्य में दिखाई देता है| यही पर प्रणव (अनहद नाद) की ध्वनी सुनाई देती है| यहाँ जो शक्ति जागृत होती है वह परम कुण्डलिनी है|
उसके बारे में भगवान शिव कहते हैं .....


"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली |
महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये |
आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म् ||"

महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं ....

महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ|
गुरु की आज्ञा से ध्यान तो भ्रू मध्य में किया जाता है पर उसकी अनुभूतियाँ खोपड़ी के पीछे की और होती हैं|
यह ज्योति ही वास्तव में चैतन्य जगत में प्रवेश का अनुमति पत्र है| अतः भ्रूमध्य में उस ज्योति पर और अनाहत नाद पर निरंतर ध्यान करें| यही स्वर्ग का द्वार है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
फरवरी १६, २०१३.

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