Monday, 24 October 2022

माया (जो है नहीं, पर सत्य प्रतीत होती है) का एक आवरण और विक्षेप हमें सत्य का बोध नहीं होने देता। इस से कैसे बचें? ---

 माया (जो है नहीं, पर सत्य प्रतीत होती है) का एक आवरण और विक्षेप हमें सत्य का बोध नहीं होने देता। इस से कैसे बचें? ---

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जो सत्य को छिपा कर रखता है, और हमें निरंतर भ्रमित करता है, वह आवरण है। जब आवरण हटता है तभी हमें सत्य का पता चलता है। जीवन की अंतहीन भागदौड़ रूपी मृगतृष्णा को हम विक्षेप कह सकते हैं। हम इधर-उधर भटकते हैं, एक कार्य तो पूरा होता नहीं है, दूसरे के पीछे भाग पड़ते हैं, दूसरे को छोड़ तीसरे के पीछे; अपनी विफलता को छिपाने के लिये तरह तरह के बहाने बनाते हैं, यही विक्षेप है।
माया के और भी अनेक रूप हैं। सारे असुर और राक्षस यहीं हमारे अवचेतन मन में ही छिप कर बैठे हुए हैं, कहीं दूर नहीं है। ये मरते भी नहीं हैं, घूम-फिर कर बापस आ जाते हैं। इनके नाम गिनाता हूँ --
हमारा प्रमाद और दीर्घसूत्रता ही महिषासुर है। हमारा लोभ और लालच ही हिरण्यकशिपु है। हमारी कामुकता, वासनाएँ, और अहंकार रावण है। और भी इनके अनेक भाई-बंधु इधर-उधर हमारे अवचेतन मन में ही छिप कर बैठे हैं, जिन का काम ही धोखे से हमारा शिकार करना है।
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इन से बचने का एक ही उपाय है कि अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) भगवान को सौंप दो। दूसरा कोई उपाय नहीं है। तभी भगवान हम से सबसे पहिले हमारा मन मांगते हैं। मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत चीज है। नियंत्रित मन ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है, और अनियंत्रित मन हमारा सब से बड़ा शत्रु है। सबसे पहिले यह मन ही परमात्मा को सौंप दो। गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
आचार्य शंकर के अनुसार इसका भावार्थ है कि -- तूँ मन्मना -- मुझमें ही मनवाला हो। मद्भक्त -- मेरा ही भक्त हो। मद्याजी -- मेरा ही पूजन करनेवाला हो और मुझे ही नमस्कार किया कर। इस प्रकार चित्त को मुझ में लगाकर मेरे परायण -- शरण हुआ तूँ मुझ,परमेश्वर को ही प्राप्त हो जायगा। अभिप्राय यह कि मैं ही सब भूतों का आत्मा और परमगति -- परम स्थान हूँ। ऐसा जो मैं आत्मरूप हूँ, उसीको तू प्राप्त हो जायगा। इस प्रकार पहले के माम् शब्द से आत्मानम् शब्दका सम्बन्ध है।
(Fix thy mind on Me, devote thyself to Me, sacrifice for Me, surrender to Me, make Me the object of thy aspirations, and thou shalt assuredly become one with Me, Who am thine own Self.)
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भगवान दुबारा कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
आचार्य शंकर ने इसका भावार्थ किया है कि -- तूँ मुझ में मन वाला अर्थात् मुझ में चित्त वाला हो। मेरा भक्त अर्थात् मेरा ही भजन करने वाला हो, और मेरा ही पूजन करनेवाला हो, तथा नमस्कार भी मुझे ही किया कर। इस प्रकार करता हुआ, मुझ वासुदेव में ही (अपने) समस्त साध्य, साधन और प्रयोजन को समर्पण करके तूँ मुझे ही प्राप्त होगा। इस विषय में मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। (Dedicate thyself to Me, worship Me, sacrifice all for Me, prostrate thyself before Me, and to Me thou shalt surely come. Truly do I pledge thee; thou art My own beloved.)
भगवान को सत्यप्रतिज्ञ जानकर तथा भगवान की भक्ति का फल निःसन्देह - ऐकान्तिक मोक्ष है - यह समझकर, मनुष्य को केवल एकमात्र भगवान की शरण में ही तत्पर हो जाना चाहिये।
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अनियंत्रित अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के भी धर्म होते हैं जो हमें भटकाते हैं। उन सब को छोड़कर भगवान हमें शरणागत होने को कहते है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
यह गीता का चरम श्लोक है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भाष्यकारों ने इसकी जो व्याख्याएँ लिखी हैं वे इतनी लंबी हैं कि वे इस लेख में समा नहीं सकतीं। संक्षेप में इसका भावार्थ है -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
(Give up then thy earthly duties, surrender thyself to Me only. Do not be anxious; I will absolve thee from all thy sin.)
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मेरा एक साधक होने का, और उपासना करने का भाव मिथ्या था, और है। एकमात्र सत्य स्वयं परमात्मा हैं। यह सारी सृष्टि परमात्मा की एक लीला है जो निरंतर परिवर्तनशील है।
हे भगवती, रक्षा करो। त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०२२

भगवती, मुझे असंसारी, निष्कामी, निर्द्वन्द्व और प्रमादरहित बनायें ---

 भगवती, मुझे असंसारी, निष्कामी, निर्द्वन्द्व और प्रमादरहित बनायें ---

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यह पूर्ण हृदय से की गई प्रार्थना है -- भगवती मुझे असंसारी, निष्कामी, और प्रमादरहित बनाएँ। ध्यान साधना में सूक्ष्म जगत में तो प्रायः सभी साधक चले जाते हैं। यदि आप अपनी चेतना में प्रेममय होकर सूक्ष्म जगत से भी परे जा सकते हैं तो निश्चित रूप से आपको जगन्माता की अनुभूतियाँ होंगी। वैसे तो वे तीनों शरीरों और सभी तन्मात्राओं से परे विशुद्ध चेतना हैं, लेकिन करुणावश अपने भक्तों को अपना बोध करा ही देती हैं। उनकी अनुभूति शब्दातीत है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। जगन्माता के सभी रूप एक ही हैं, सिर्फ उनकी अभिव्यक्तियाँ ही अलग अलग हैं।
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मैं जगन्माता की आराधना एक विशेष उद्देश्य के लिए करता हूँ। कभी कभी पाता हूँ कि मेरे अवचेतन मन में अभी भी तमोगुण भरा पड़ा है। उसे दूर करना मेरे वश की बात नहीं है। साधना में विक्षेप उसी कारण से आता है। भगवती से प्रार्थना करता हूँ कि उस तमोगुण से ही नहीं, सभी गुणों से मुक्त कर मुझे त्रिगुणातीत अवस्था प्रदान करें, मुझे असंसारी, निष्कामी, निर्द्वन्द्व और प्रमादरहित बनायें।
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पूर्ण श्रद्धा-विश्वास पूर्वक प्रार्थना करने पर निश्चित रूप से उत्तर मिलता है। मुझे भी उत्तर मिला है। जगन्माता ने अपनी अनुभूतियाँ मुझे भी प्रदान की हैं और आश्वासन भी दिया है। श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा होगी तो वे जीवात्मा को परमात्मा की प्राप्ति करा देंगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अक्तूबर २०२२

भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठिए, हम ईश्वर के साथ एक हैं ---

 भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठिए, हम ईश्वर के साथ एक हैं ---

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सामान्य मानवीय चेतना से ऊपर उठिए, स्वयं को दीन-हीन व अकिंचन मत समझिये। हम यह देह नहीं, परमात्मा के निज रूप हैं। विश्व में आज तक जितने भी महान कार्य हुए हैं, वे सारे महान कार्य उन लोगों के माध्यम से सम्पादित हुए हैं जो अत्यंत सरल और सांसारिक रूप से सामान्य व्यक्ति थे। अपनी चेतना को ईश्वर की चेतना से जोड़िये। अपने अन्तस्थ में प्रभु को ढूँढिए। इस प्रक्रिया में अनायास ही अनेक दिव्य और अकल्पनीय कार्य हमारे माध्यम से हो जायेंगे।
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संसार में कुछ भी नि:शुल्क नहीं है। हर चीज का मुल्य चुकाना होता है। एक दीपक पहले स्वयं जलता है तब जाकर उसका प्रकाश औरों को मिलता है। दीपक पतंगों को प्यारा है। वे दीपक के प्रेम में इतने उन्मत्त हो जाते हैं कि उसकी लौ में स्वयं को जला देते हैं। पर वास्तव में सत्य कुछ और ही है। दीपक पहले अपने आप को जलाता है, उसके बाद ही पतंगे उस की लौ से प्रेम करते हैं। आप जो भी महान कार्य होते हुए देखना चाहते हैं, उसका संकल्प निरंतर निज चेतना में बनाए रखिये। आप का संकल्प कभी भी विस्मृत न हो, तो अवश्य ही सत्य सिद्ध होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अक्टूबर २०२२

मेरा जीवन एक खुली पुस्तक है, न तो मेरा प्रोफाइल लॉक है और न कुछ गोपनीय है ---

 मेरा जीवन एक खुली पुस्तक है, न तो मेरा प्रोफाइल लॉक है और न कुछ गोपनीय है ---

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मैं अपने विचार खुल कर रखता हूँ, किसी को अच्छे लगें तो पढ़ें, नहीं लगें तो गल्प (गप्प) समझ कर उपेक्षा कर दें। मेरी अनुभूतियाँ ही प्रमाण हैं, कोई माने तो ठीक है, न माने तो मुझे ब्लॉक कर दें। यह फेसबुक आदि जो सोशियल मीडिया हैं, वे सब यहूदियों की संपत्ति है। वे उसका उपयोग हमें करने दे रहे हैं यह उनकी महानता है। मैं तो सनातन धर्मानुयायी एक हिन्दू ब्राह्मण हूँ। मुझे मेरे धर्म और संस्कृति पर अभिमान है। इब्राहिमी मज़हबों (Abrahamic Religions) और मार्क्सवाद में मेरी कोई आस्था नहीं है, हालांकि इन का मुझे पर्याप्त अध्ययन है।
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मेरी मित्रता दंडी सन्यासियों से भी है, और वैष्णवाचार्यों से भी। अनेक विद्वान भी मेरे मित्र हैं। भगवान परमशिव का मैं ध्यान करता हूँ, भगवान श्रीराधाकृष्ण मेरे प्राण हैं। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण मेरे परम आदर्श और आराध्य हैं। श्रीमद्भगवद्गीता और वेदान्त दर्शन का मुझे कामचलाऊ अनुभूतिजन्य ज्ञान है, जिस पर किसी भी तरह का कोई संशय मुझे नहीं है। मैं इस आलेख में दो-तीन बातें कहना चाहता हूँ --
(१) कोई चाहे या न चाहे, उसे भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर आना ही पड़ेगा, इस जन्म में या अगले कुछ जन्मों के पश्चात। प्रकृति अपने नियमों में बड़ी कठोर है, वह बाध्य कर के सब को एक न एक दिन सन्मार्ग पर ले ही आएगी। जितनी शीघ्र आप आ जाएँगे उतना अच्छा है। अन्यथा संसार की विषमताएँ आपको बाध्य कर के इस मार्ग पर ले आयेंगी।
(२) आप अकेले नहीं है। भगवान सदा हमारे साथ हैं। वे एक क्षण के लिए भी हमारे से अलग नहीं होते हैं। हम कष्ट पा रहे हैं इसका कारण हमारा कर्ताभाव यानि अहंकार और लोभ है। भगवान हर समय हमारा मार्गदर्शन करते हैं। श्रद्धा के अभाव में हम उनकी उपेक्षा कर देते हैं। अपनी दिव्य उपस्थिती का आभास वे करा ही देते हैं। एक बार मैं भगवान परमशिव का ध्यान कर रहा था। मेरी चेतना इस शरीर में नहीं थी। एक प्रश्न उठा कि वह कौन है जो ध्यान कर रहा है। उसी समय मुझे अपनी चेतना में आभास हुआ कि सामने भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण शांभवी मुद्रा में स्वयं बैठे हैं, और अपने परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। उस समय से मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। एक दिन अनुभूति हुई कि भगवान श्रीराधाकृष्ण ही मेरे प्राण हैं। यह शरीर उन्हीं की कृपा से चैतन्य है। जिस समय भी वे चाहेंगे उसी समय यह शरीर शांत हो जाएगा। भगवती श्रीराधा जी कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में सुषुम्ना की उपनाड़ी ब्राह्मी में विचरण कर रही हैं, और कूटस्थ में श्रीकृष्ण को नमन कर के लौट आती हैं। जिस क्षण भी वे श्रीकृष्ण के साथ एक हो जाएंगी, उसी क्षण यह जीवात्मा यानि मैं भी मुक्त हो जाऊँगा। वैसे तो मैं नित्य-मुक्त हूँ। कोई बंधन नहीं है। सारे बंधन जाने-अनजाने में मैनें ही स्वयं पर थोप दिये थे, उन्हीं का फल भुगत रहा हूँ।
(३) भगवान ने ही मुझे यह आभास कराया है कि सारी सृष्टि मेरे साथ एक है। सम्पूर्ण विश्व ही मेरे साथ भगवान की उपासना कर रहा है। मैं सांस लेता हूँ तो सारी सृष्टि मेरे साथ सांस लेती है। मैं भगवान का ध्यान करता हूँ तो सारी सृष्टि भगवान का ध्यान करती है। इस साधना का फल मुझे नहीं, सम्पूर्ण समष्टि को ही मिलेगा। मैं इस देह के लिए नहीं, पूरी समष्टि के लिए जी रहा हूँ। मैं यह शरीर नहीं, परमात्मा की विराट अनंतता और पूर्णता हूँ। स्वयं को यह शरीर समझना ही मेरे सारे कष्टों का कारण है।
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ईश्वर की संपूर्णता में मैं आप सब में उन को नमन करता हूँ। मुझ अकिंचन के पास ईश्वर के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ अक्तूबर २०२२

हिन्दुत्व को बचाने के लिए गुरुकुलों की स्थापना आवश्यक है ---

 हिन्दुत्व को बचाने के लिए गुरुकुलों की स्थापना और उन्हें वही मान्यता मिलना आवश्यक है जो मदरसों व कान्वेंट स्कूलों को है। सभी मुसलमान अपने बच्चों को मदरसों में पढ़ने को भेजते हैं, और सभी ईसाई कोनवेंट स्कूलों में। एक भयंकर षड़यंत्र के अंतर्गत भारत का संविधान हिन्दू विरोधी बनाया गया है, जो हिंदुओं को अपना धर्म पढ़ाने की अनुमति नहीं देता। धर्मशिक्षण के अभाव में हिन्दू बालक धर्म-विहीन होते जा रहे हैं। आजकल सब हिन्दू अपने बच्चों को अंग्रेज़ बनाना चाहते है, भारतीय नहीं। यही स्थिति रही तो देश की अस्मिता हिन्दुत्व खतरे में है।

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मुझे पीड़ा सिर्फ एक ही चीज को देखकर होती है कि हिंदुओं के किशोरों व युवाओं को अपने धर्म का बिलकुल भी ज्ञान नहीं है, (इसका कारण भारत के संविधान की हिन्दू विरोधी धाराएँ हैं)। जब कि मुसलमानों के बच्चों और बच्चियों में अपने मज़हब का पूरा ज्ञान होता है। वे अपने बच्चों को मदरसों में दीनी तालीम अवश्य दिलवाते हैं। उनके अनेक स्कूली बच्चे कुरान मजीद की तिलावत का पाठ बिना देखे अपनी स्मृति से करते हैं। फिर उर्दू भाषा का ज्ञान हरेक मुसलमान बालक के लिए अनिवार्य है। हिंदुओं में हजारों में से दो-तीन बालक ही संस्कृत पढ़ना चाहते हैं। स्वस्तिवाचन यानि वैदिक भद्रसूक्त तो हजारों में से एक-दो बालको को ही आता होगा। हिन्दू समाज में विकृति यह है कि हरेक हिन्दू अपने बच्चों कों अंग्रेज़ बनाना चाहता है, कोई भी हिन्दू नहीं बनाना चाहता। मैंने कुछ मित्रों को सलाह दी कि अपने बच्चों को संस्कृत पढ़ाओ, तो उनका उत्तर था कि बच्चों को मंदिर का पुजारी नहीं बनाना है। यज्ञोपवीत संस्कार भी एक औपचारिकता सा हो गया है जो विवाह से पूर्व एक-दो घंटों में सम्पन्न करा दिया जाता है। संध्या-गायत्री आदि का ज्ञान बहुत कम युवकों को है।
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यह संसार मेरा नहीं, परमात्मा का है। धर्म की पुनर्स्थापना का काम उनका है। मैं तो अंत समय तक अपने धर्म पर दृढ़ रहूँगा। ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१६ अक्तूबर २०२२

भगवान के साथ हम सर्वत्र कैसे रहें? ---

 भगवान के साथ हम सर्वत्र कैसे रहें? ---

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आने वाले पंच दिवसीय दीपोत्सव और सभी उत्सवों की अग्रिम शुभ कामनाएँ, और नमन !! मैं सदा आपके साथ एक हूँ। कहीं भी जाने को कोई स्थान नहीं है। जहाँ सब हैं, वहीं मैं भी सभी के साथ एक हूँ। आभासीय जगत में कहीं भी रहूँ, किसी से मिलूँ या न मिलूँ, वह दूसरी बात है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
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भगवान के साथ हम सर्वत्र कैसे रहें? इस का उत्तर यह है कि हम ऊंचे से ऊंचे स्थान पर अपनी चेतना में रहें। ऊंचे से ऊंचे स्थान पर रहेंगे तो सर्वत्र रहेंगे। वह स्थान कौन सा है? ध्यानस्थ होकर अपनी चेतना में इस शरीर से बाहर जितना ऊपर आप जा सकते हैं, चले जाइए। वहाँ एक ज्योतिर्मय जगत है। वहीं परमात्मा हैं। वह ज्योति आप स्वयं हैं। उसी का ध्यान कीजिये ---
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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उसी के बारे में श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥" (कठोपनिषद् २/२/१५)
अन्वयार्थ -
"तत्र सूर्यः न भाति। चन्द्रतारकं न। इमाः विद्युतः न भान्ति। अयम् अग्निः कुतः भायात् । तं भान्तं एव सर्वं अनुभाति। तस्य भासा इदं सर्वं भाति ॥"
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और कहीं जाने को स्थायी स्थान नहीं है। वही हमारा स्थायी घर है। वही हमारा स्थायी निवास है। वहीं रहने के लिए हमने यह जन्म लिया है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०२२

मेरा जीवन दर्शन ---

 मेरा जीवन दर्शन ---

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मुझे ईश्वर की साधना/उपासना के लिए अब कोई प्रयास या औपचारिकता नहीं करनी पड़ती। सारी साधना/उपासना जगन्माता भगवती स्वयं करती हैं। भगवान मेरी माता भी हैं, पिता भी है, और सर्वस्व भी हैं। मैं तो एक निमित्त-मात्र हूँ। मुझे किसी के उपदेश की अब कोई आवश्यकता नहीं है।
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कर्मयोग --- मेरा कर्मयोग सिर्फ और सिर्फ भगवान का निरंतर प्रेममय स्मरण और निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति है। इसके अतिरिक्त मेरा कोई अन्य कर्मयोग नहीं है। मेरे कर्मयोग के तीन भाग हैं --
पहला भाग तो यह कि अन्तःकरण की चेतना सदा कूटस्थ-ब्रह्म में स्थित रहे। उन्हीं का निरंतर दर्शन और श्रवण होता रहे।
दूसरा भाग गोपनीय है जिसकी चर्चा अन्य व्यक्ति की पात्रता देखकर ही की जा सकती है, हर किसी से नहीं।
तीसरा भाग है कि -- यह मोटरगाड़ी जिस पर मैं लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह गाड़ी सदा स्वस्थ रहे और ठीक से चलती रहे।
इनके अतिरिक्त मेरा कोई अन्य कर्मयोग नहीं है।
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भक्तियोग और ज्ञानयोग -- मेरा स्वधर्म ही मेरा भक्तियोग और ज्ञानयोग है। मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, नश्वर देह नहीं। आत्मा का यानि मेरा स्वधर्म है -- परमात्मा का निरंतर परमप्रेममय स्मरण, चिंतन, और निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति। आत्मा सदा परमात्मा में रमण करती हुई उनके साथ एक रहे -- मेरे लिए यही मुक्ति है और यही मोक्ष है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा स्वधर्म नहीं है। मैं दुबारा कहता हूँ कि यही मेरी भक्ति है और यही मेरा ज्ञान है। मेरा अनुभव ही मेरा प्रमाण है।
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सांसारिक जीवन से रुचि समाप्त हो गई है। जब तक भगवान चाहेंगे तब तक यह मोटरगाड़ी चलती रहेगी। अब इस संसार में किसी से कोई राग-द्वेष नहीं है। मन पूर्णतः भर गया है, कोई कामना नहीं है। जीवन में अच्छा-बुरा जो भी हुआ वह सब और उन के कर्मफल -- भगवान को समर्पित कर दिये हैं। भगवान की इच्छा ही मेरी इच्छा है।
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मेरा एकमात्र संबंध सिर्फ परमात्मा से ही रह गया है। सभी संबंधियों, मित्रों और परिचितों में भगवान ही दिखाई देते हैं। इस शरीर में भी भगवान ही जी रहे हैं, मैं नहीं। इस शरीर के शांत होने के पश्चात मैं वहीं रहूँगा जिस के बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।" मेरी श्रद्धा और विश्वास मुझे वहाँ ले जाएँगे। मैं न तो किसी प्रेतयोनि में जाऊंगा और न किसी पितृयोनी में। मैं नित्यमुक्त आत्मा हूँ जो सदा परमात्मा के साथ रहेगी।
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मेरे परिवार वालों को मेरे लिए न तो किसी पिंडदान की आवश्यकता है और न ही किसी श्राद्ध की। मूलाधार चक्र में भगवती कुंडलिनी ही पिंड है, और सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति ही विष्णुपद है। दूसरे शब्दों में इस सृष्टि को जिसने धारण कर रखा है, वह शक्ति राधा जी हैं, जो कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में व्यक्त हैं; और कूटस्थ ज्योति व नाद स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। दिन में अनेक बार जागृत भगवती कुंडलिनी सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठकर सहस्त्रार में विष्णुपद को नमन कर के बापस लौट आती हैं। यही मेरा पिंडदान है, और श्रद्धा के साथ की हुई यह क्रिया ही श्राद्ध है।
कूटस्थ का केंद्र उन्नत साधकों में इस शरीर से बाहर बहुत ऊपर परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव में चला जाता है। परमशिव एक अनुभूति है, जो बुद्धि से परे है। उसे सिर्फ अनुभूत ही किया जा सकता है। इस विषय पर भी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती।
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सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो भगवान की भक्ति है, जिसके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। एक बार वह भक्ति जागृत हो जाये तो सारा ज्ञान अपने आप ही आ जाता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है। वह उच्चतम भक्ति है। वह प्राप्त हो जाये तो भगवत्-प्राप्ति में विलंब नहीं होता।
आप सभी को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अक्तूबर २०२२

हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती? ---

 हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?

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हमें भगवान की प्राप्ति इसलिए नहीं होती, क्योंकि हमने भगवान को कभी चाहा ही नहीं। हम भगवान की आराधना उनकी विभूतियों की प्राप्ति के लिए करते हैं, न कि उनके लिए। इसलिए हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को पाने का उपाय -- "अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" (मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी) बताया है। रामचरितमानस में "अनपायनी भक्ति" की बात कही गई है (पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग)।
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भगवान तो कल्पतरू हैं। हमारे मन में जैसा भी भाव होता है, वही उन से मिल जाता है। ऊँचे से ऊँचे साधक -- अपवर्ग की कामना करते हैं, जो नहीं होनी चाहिए। हम लोग उनसे "अर्थ और काम" ही चाहते हैं, जो बहुत घटिया बात है।
हमारे मन में भक्ति कर के अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष कुछ भी पाने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। तब फिर भगवान स्वयं को ही दे देते हैं। यदि माँगना ही है तो उनसे उनका परमप्रेम मांगो, अन्य कुछ भी नहीं। तभी भगवत्-प्राप्ति होगी।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अक्तूबर २०२२

कूटस्थ में भगवान श्रीकृष्ण सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं ---

 कूटस्थ में भगवान श्रीकृष्ण सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं ---

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भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण -- सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं, इसलिए वे वासुदेव हैं। वे कूटस्थ भी हैं, क्योंकि वे समान रूप से सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। इन भौतिक आँखों से वे नहीं दिखाई देते लेकिन जो भक्त कूटस्थ चैतन्य में हैं, उन को भगवान की अनुभूति निरंतर होती रहती है। यह कूटस्थ शब्द बड़े गहन अर्थ वाला है क्योंकि यह भगवान श्रीकृष्ण की भाषा है। भगवान गीता में कूटस्थ की उपासना करने को कह रहे हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
अर्थात् - परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् - इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकारके पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।
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हिन्दू दर्शन में "कूटस्थ" शब्द -- आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। विभिन्न स्वनामधन्य भाष्यकारों ने इस शब्द की बहुत विस्तृत विवेचना की है। कूटस्थ होने के कारण ब्रह्म अचल और नित्य है। वह सदा एक रूप में रहनेवाला पारमार्थिक तत्व है।
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योग साधनाओं में भ्रूमध्य में ध्यान करते करते गुरु कृपा से एक दिन ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। उस ज्योति के साथ साथ प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देती है। उस सर्वव्यापक ब्रह्मज्योति और नाद का ही ध्यान किया जाता है। उस ब्रहमज्योति और नाद को ही मैं कूटस्थ कहता हूँ। उसका केंद्र धीरे धीरे ऊपर उठते उठते परमशिव तक चला जाता है। उसकी चेतना में निरंतर रहना ही कूटस्थ चैतन्य है।
इस विषय पर मैं अनेक लेख लिख चुका हूँ। और लिखने की इच्छा नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अक्तूबर २०२२

ब्रह्मज्ञान और सनकादिक ऋषि ---

 ब्रह्मज्ञान और सनकादिक ऋषि ---

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जब भी ब्रह्मज्ञान की बात होती है तो सबसे पहले स्वतः ही भगवान सनतकुमार को नमन होता है। वे ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उन्हीं की कृपा से हम सब को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ है। हर युग में और हर कालखंड में वे भक्तों के समक्ष प्रकट हुए हैं। उन्होने ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम देवर्षि नारद को दिया था जो स्वयं भक्ति के आचार्य हैं।
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ब्रह्मा जी का प्राकट्य जल में कमल के पुष्प पर हुआ था। उन्होने उस पुष्प के डंठल से नीचे उतर कर अपना मूल जानना चाहा। कुछ समझ में नहीं आया तो बापस कमल पर आकर बैठ गए। तभी उन्हें "तपस तपस" शब्द सुनाई दिया, जिसे सुनकर वे समाधिस्थ हो गए और सौ वर्ष तक तपस्यारत रहे।
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तत्पश्चात भगवान विष्णु से उन्हें सृष्टि रचना की प्रेरणा मिली। ब्रह्मा जी ने सबसे पहिले नित्यविरक्त नित्यसिद्ध चार मानस पुत्रों -- सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार की रचना की। ये चारों भाई -- भगवान विष्णु के प्रथम अवतार माने जाते हैं। ये चारों भी तपस्या में ही लीन हो गए, और सर्वदा पाँच वर्ष की आयु के ही रहे। हजारों वर्ष व्यतीत हो गए, ये न तो कभी जवान हुये और न कभी बूढ़े हुए। पूरे ब्रह्मांड में ये भ्रमण करते हैं, और जहाँ भी इनकी कृपा होती है, वहीं प्रकट हो जाते हैं। इस पृथ्वी पर तो भगवान सनतकुमार की विशेष कृपा रही है।
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दक्षिण भारत के तमिलनाडु में कुछ लोगों की मान्यता है कि भगवान शिव के षंमुखी दूसरे पुत्र कार्तिकेय, जिन्हें स्कन्द, कुमार और आरमुगम् आदि भी कहा जाता है, वे भगवान सनतकुमार के ही मानस रूप हैं। पार्वती जी ने सनतकुमार जैसा ही पुत्र चाहा था। वे ही देवताओं के सेनापति बने थे। उनके पास वेलायुध नाम का एक अमोघ अस्त्र भी था।
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वेदों के ज्ञान के बारे में तो एक दूसरी ही कथा प्रचलित है कि वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ मानसपुत्र अथर्व ऋषि को दिया, अथर्व ने सत्यवाह को, सत्यवाह ने अंगिरस को, अंगिरस ने अंगिरा को, और अंगिरा ने लोमश आदि ऋषियों को दिया। इस तरह वेदों का ज्ञान फैला।
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बात भगवान सनतकुमार की चल रही थी, भटक कर दूर चले गए। भगवान सनतकुमार को नमन। हमारे में इतनी पात्रता विकसित हो कि भगवान के इन अवतारों का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें। ॐ नमो भगवते सनतकुमाराय !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०२२

हमारी माता कौन हैं?

भगवान की आराधना हम चाहे उनके मातृ-रूप की करें या पितृ-रूप की, साधना में सफलता -- भक्ति से ही मिलती है। बिना भक्ति के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। हर तरह के संकटों से रक्षा भी हमारी भक्ति ही करती है। श्रद्धा और विश्वास का जन्म भी भक्ति से ही होता है, व ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति भी भक्ति से ही होती है।

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अतः बिना किसी संकोच के मैं यह कह सकता हूँ कि भगवान की भक्ति ही हमारी माता है। जगन्माता के सारे रूप भक्ति की ही विभिन्न आयामों में अभिव्यक्तियाँ हैं।

असली स्वतन्त्रता दिवस की बधाई, शुभ कामनाएँ, और अभिनंदन ---

 असली स्वतन्त्रता दिवस की बधाई, शुभ कामनाएँ, और अभिनंदन ---

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भारत का वास्तविक स्वतंत्रता दिवस तो आज है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने २१ अक्तूबर १९४३ को 'आजाद हिन्द फौज' के सर्वोच्च सेनापति के नाते सिंगापुर में स्वतन्त्र भारत की प्रथम सरकार बनायी थी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुरिया और आयरलैंड सहित ११ देशों ने मान्यता प्रदान की थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूह इस अस्थायी सरकार को दे दिये थे। सुभाष बोस उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। ३० दिसंबर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया था।
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एक षडयंत्र द्वारा उन्हें देश से भगा दिया गया। आज़ाद हिन्द फौज के १६ हजार से अधिक सैनिक देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते हुए मरे थे, जिन्हें मरणोपरांत सम्मान नहीं मिला। आजाद हिन्द के फौज के जीवित बचे सैनिकों को सेना में बापस नहीं लिया गया, और उन्हें वेतन और सेवानिवृति का कोई लाभ भी नहीं मिला।
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१५ अगस्त १९४७ तो भारत का विभाजन दिवस था, जिसमें लगभग ३० लाख लोगों की हत्या हुई, हजारों महिलाओं का बलात्कार हुआ, हजारों बच्चों और महिलाओं का अपहरण हुआ, और करोड़ों लोग विस्थापित हुए। इतनी कम अवधि में इतना भयानक नर-संहार विश्व के इतिहास में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ। इस दिन लाशों से भरी हुई कई रेलगाडियाँ विभाजित भारत यानि पाकिस्तान से आयीं जिन पर खून से लिखा था -- "Gift to India from Pakistan."
१९७६ में छपी पुस्तक Freedom at midnight में उनके चित्र दिये दिये हुए थे। वह कलंक का दिन भारत का स्वतन्त्रता दिवस नहीं हो सकता। यह कैसा स्वतन्त्रता दिवस था जिसमें भारत माता की दोनों भुजाएँ और आधा सिर काट दिया गया।
जवाहर लाल नेहरू जी तो भारत का अंग्रेजों द्वारा कूटनीति से बनाया गया दूसरा प्रधानमंत्री था। जब ये प्रधानमंत्री बने तब इनको शपथ लॉर्ड माउंटबेटन ने दिलाई थी। जो शपथ इन्होंने ली वह पता नहीं भारत के प्रति वफादारी की थी या ब्रिटेन के प्रति।
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तेरा गौरव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें| भारत माता की जय !
वन्दे मातरं ! जय हिन्द !
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०२२

"भूमा" तत्व का ध्यान और सिद्धि -- जीवन की संपूर्णता है ---

 "भूमा" तत्व का ध्यान और सिद्धि -- जीवन की संपूर्णता है ---

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"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥ (छान्दोग्योपनिषद (७/२३/१)
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भूमा-तत्व का ध्यान ही जीवन में परमात्मा को व्यक्त करने का मार्ग है। जो सब तरह के भेदों और सीमाओं से परे है, वह है भूमा तत्व। यह सृष्टि की और हमारे जीवन की संपूर्णता है। जो भूमा है, वह सनातन, बृहत्तम, विभु, सर्वसमर्थ, नित्यतृप्त ब्रह्म है। जो भूमा है, वही सुख है, वही अमृत और सत्य है, "भूमा" में ही सुख है, अल्पता में नहीं। पूर्ण भक्ति से समर्पित होकर परमात्मा की अनंतता और विराटता पर ध्यान करते करते "भूमा" की अनुभूति होती है।
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ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा -- "सुखं भगवो विजिज्ञास इति"। जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है -- "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति"। भूमा में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में नहीं । जो भूमा है, व्यापक है, वह सुख है। कम में सुख नहीं है। भूमा का अर्थ है -- सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन।
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दूसरे शब्दों में "भूमा" -- साधना की लगभग पूर्णता है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर एक भूमि है। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो जाता है, तब यह भूमा है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात जो अनुभूति होती है, वह भूमा है। भूमा एक अनंत विराटता की अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। इसकी अनुभूति उन्हें ही होती है जो परमात्मा की अनंत विराटता पर ध्यान करते हैं।
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महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने कालजयी महाकाव्य "कामायनी" में भूमा शब्द का प्रयोग किया है --
"तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान।
(कामायनी)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०२२

मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव की एक अनुभूति ---

 मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव की एक अनुभूति ---

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परमशिव का अर्थ है परम-कल्याणकारी। परमशिव एक अद्वैतानुभूति है जो गुरुकृपा या शिवकृपा से उन सभी साधकों को होती है जो शिव की ज्योतिर्मय विराट अनंतता का ध्यान करते हैं। यह बुद्धि से परे का विषय है। जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, उनकी कभी मृत्यु भी नहीं हो सकती। उन मृत्युंजयी परमशिव के साथ गहरे ध्यान में कोई भी साधक स्वयं भी परमशिव ही हो जाता है। इस देह रूपी वाहन का जन्म और मृत्यु हो सकती है, लेकिन परमशिव चेतना की नहीं।
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परमशिव शब्द का प्रयोग भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने "सौन्दर्य लहरी" नामक ग्रंथ में किया है। तत्पश्चात कश्मीर शैव दर्शन के आचार्यों, विशेष कर उनकी एक शाखा "प्रत्यभिज्ञा" के आचार्यों ने इसका प्रयोग किया है। वेदांती महात्माओं के सत्संग में भी हमें यह शब्द बहुत सुनने को मिलेगा। मुझे इसकी अनुभूति सिद्ध महात्माओं के सत्संग और स्वयं भगवान परमशिव की कृपा से हुई है।
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हमें परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो, इस पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए। जितनी देर हम स्वाध्याय करते हैं, उससे सात-आठ गुणा अधिक समय तक हमें परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सुषुम्ना मार्ग के सभी चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रारचक्र का भी भेदन कर ब्रह्मरंध्र से भी बहुत ऊपर परमात्मा की अनंतता में विचरण करने लगती है। तब हमें विस्तार की अनुभूतियाँ होती हैं। सूक्ष्म जगत में एक ज्योतिर्मय चक्र और भी है, जिस से भी पार जाना पड़ता है। वहाँ एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन होते हैं। वहाँ आलोक ही आलोक है। कहीं कोई अंधकार नहीं है। वह पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र पंचमुखी महादेव है। जब उनके दर्शन होने लगें तब स्वयं को उनमें समर्पित कर दो। फिर इधर-उधर कहीं भी मुड़कर मत देखो। पीछे की तरफ तो भूल से भी मत देखो। पीछे की ओर महाकाल, यानि निश्चित मृत्यु है। उस नक्षत्र का भी भेदन करने पर जो अनुभूति होती है, वह परमशिव है। कुंडलिनी महाशक्ति वहीं परमशिव से मिलती हैं। वहीं मुक्ति और मोक्ष है, वहीं कैवल्य है।
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जो परमशिव हैं वे ही सदाशिव हैं जो सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय हैं।
वे ही रुद्र हैं। ‘रु’ का अर्थ है -- दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है -- द्रवित करना या हटाना। दुःख को हरने वाला रूद्र है।
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है --- 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा। परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है।
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उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है, जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है। पहले मुझे अनेक शिवलिंगों की अनुभूतियाँ होती थीं। अब तो एक ही शिवलिंग दिखाई देता है -- मूलाधार चक्र पर। ऊपर ही ऊपर अनंत से परे तो स्वयं भगवान परमशिव हैं।
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परमशिव ही ऊर्ध्वमूल है, जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२२

हम ज्योतिर्मय ब्रह्म के साथ एक हों ---

 हम ज्योतिर्मय ब्रह्म के साथ एक हों ---

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भगवान सब तरह के धर्म-अधर्म, सिद्धान्त और नियमों से परे हैं। उनकी प्रेरणा और कृपा से मैं भी स्वयं को सब तरह की साधनाओं, उपासनाओं, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, और कर्तव्यों से मुक्त कर रहा हूँ। वे निरंतर मेरे दृष्टि-पथ में हैं। वे मुझसे पृथक अब नहीं हो सकते। मेरा एकमात्र धर्म -- परमात्मा से परमप्रेम और उनको पूर्ण समर्पण है। यही मेरा स्वधर्म है।
“ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥"
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कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है। हम अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित हो कर ही समष्टि की वास्तविक सेवा कर सकते हैं। हम सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति हैं। भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के अन्तर में ही उन्हें जागृत करना होगा। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ अक्टूबर २०२२

स्वयं प्रकाशमय होकर ही हम अंधकार को दूर कर सकते हैं ---

 

💥स्वयं प्रकाशमय होकर ही हम अंधकार को दूर कर सकते हैं ---
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🙏हमें स्वयं को जीव से शिव बनना पड़ेगा, तभी हम समष्टि का कल्याण कर सकेंगे। शिवनेत्र होकर कमर को सीधी रखते हुये एक कंबल के आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाइए। यदि बैठने में कठिनाई आ रही है तो नितंबों के नीचे एक गद्दी लगा लीजिये। फिर भी कठिनाई आ रही है तो भूमि पर कंबल बिछा कर उस पर एक बिना हत्थों की कुर्सी रख लीजिये और उस कुर्सी पर बैठ जाइए। कमर झुक गई है तो कोई लाभ नहीं होगा। कमर तो सीधी रखनी ही पड़ेगी। दोनों नासिकाओं से सांस चलनी चाहिए। अनुलोम-विलोम से दोनों नासिकाएँ खुल जाएँगी। हठयोग में अनेक क्रियाएँ हैं जिनसे नासिकाओं में अवरोध नहीं रहते। यदि फिर भी नाक से सांस लेने में कठिनाई आ रही है तो यह मेडिकल समस्या है। किसी अच्छे ENT सर्जन से अपना इलाज करवाएँ। यदि आप की कमर झुक गई है तो इस जन्म में आपको इसकी सिद्धि नहीं मिल सकती। यह साधना मत कीजिये। अगले जन्म में आप को पुनश्च अवसर मिलेगा। तब तक जपयोग कीजिये।
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शिवनेत्र होने का अर्थ है कि दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर स्थिर रहे। सर्वव्यापी ज्योतिर्मय शिव का ध्यान कीजिये। यदि आप नए साधक हैं तो ब्रह्मज्योति के दर्शन में समय लगेगा; भ्रूमध्य में एक ब्रह्मज्योति की परिकल्पना कीजिये। उसके प्रकाश को सारे ब्रह्मांड में, सारी सृष्टि में फैला दीजिये। वह प्रकाश आप स्वयं हैं। जितनी भी आकाश-गंगाएँ, उनके नक्षत्र, ग्रह-उपग्रह आदि हैं, व जो कुछ भी सृष्ट हुआ है, वह आप स्वयं हैं। आप यह देह नहीं हैं। इस देह भाव से आपको मुक्त होना ही पड़ेगा। आपकी देह से सारा कार्य भगवान स्वयं संपादित कर रहे हैं। वे ही आपके पैरों से चल रहे हैं, वे ही आपकी आँखों से देख रहे हैं, वे ही आपके हृदय में धडक रहे हैं, और वे ही आपकी नासिकाओं से साँस ले रहे हैं।
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आप जहाँ भी जाते हैं, वहाँ भगवान स्वयं जाते हैं, जहाँ भी आपके पैर पड़ते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है। जिस पर आपकी दृष्टि पड़ती है, वह निहाल हो जाता है। "शिवो भूत्वा शिवं यजेत" अर्थात शिव बनकर ही शिव की आराधना करें। आप स्वयं ज्योतिर्मय परमब्रह्म परमशिव हैं। सदा इसी भाव में रहो। जब भी समय मिले खूब अजपाजप कीजिये, ओंकार-श्रवण कीजिये, श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों का स्वाध्याय कीजिये। यदि आप रामभक्त हैं तो राममय होकर रहिए, कृष्णभक्त हैं तो कृष्णमय होकर रहिए। यदि आप द्विज हैं और गायत्री साधना करते हैं, तो गायत्री मंत्र के सविता देव की भर्गः ज्योति का खूब ध्यान कीजिये। लेकिन रहो सदा अपने शिवभाव में ही।
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यह ज्योतिर्मय शिवभाव ही आपके माध्यम से एक ब्रह्मतेज का प्राकट्य करेगा, जिससे समष्टि का कल्याण होगा। चारों ओर छाया तमस इसी ब्रहमतेज से दूर होगा। दीपावली की मंगलमय शुभ कामना और नमन !!
🌷🌹🥀🪷🌺🌸💐🙏🕉️🕉️🕉️🙏💐🌸🌺🪷🥀🌹🌷
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०२२