Monday, 16 April 2018

परमप्रेम और समर्पण ....

परमप्रेम और समर्पण ....
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हम जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर लघुता को अपनाते हैं तो निश्चित रूप से विफल होते हैं| दूसरों का जीवन हम क्यों जीते हैं? दूसरों के शब्दों के सहारे हम क्यों जीते हैं? पुस्तकों और दूसरों के शब्दों में वह कभी नहीं मिलता जो हम ढूँढ रहे हैं, क्योंकि अपने ह्रदय की पुस्तक में वह सब लिखा है|
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कुछ बनने की कामना से हम कुछ नहीं बन सकेंगे, क्योंकि जो हम बनना चाहते हैं, वह तो पहले से ही हैं|
कुछ पाने की खोज में भटकते रहेंगे, कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि ----- जो हम पाना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं|
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जीव और शिव, आत्मा और परमात्मा, भक्त और भगवान ------ इन सब के बीच की कड़ी है ..... परमप्रेम और समर्पण| जब हम स्वयं ही वह परमप्रेम बन जाते हैं तो फिर बीच में कोई भेद नहीं रहता| यही है रहस्यों का रहस्य | उठो इस नींद से, और पाओ कि हम स्वयं ही अपने परम प्रिय हैं| हम खंड नहीं, अखंड हैं| हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्णता हैं| हम स्वयं ही मूर्तिमंत परम प्रेम हैं|
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जिसने हमें अब तक भ्रम में डाल रखा था वे हैं हमारे ही चित्त की तरल चंचल वृत्तियाँ जिन्हें हम कभी शांत नहीं कर सके| अतः अब बापस हम उन्हें परमात्मा को समर्पित कर रहे हैं| ये चित्त की चंचलता पता नहीं कब से भटका रही है| शांत होने का नाम ही नहीं ले रही है| इन्हें बापस स्वीकार कीजिये क्योंकि इन्हें शांत करना अब हमारे वश की बात नहीं है| देना ही है तो अपना स्थायी परम प्रेम दीजिये, इसके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए|
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अज्ञान के अनंत अन्धकार से घिरे इस दुर्गम अशांत महासागर के पथ पर सिर्फ एक ही मार्गदर्शक ध्रुव तारा है, और वह है आपका प्रेम| वह ही हमारी एकमात्र संपदा है जो कभी कम ना हो|
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न तो हमें श्रुतियों और स्मृतियों आदि शास्त्रों का कोई ज्ञान है और न ही उन्हें समझने की क्षमता| इस देह रूपी वाहन में भी अब कोई क्षमता नहीं बची है| हमारी इन सब लाखों कमियों, दोषों, और अक्षमताओं को बापस आपको अर्पित कर रहे हैं| सारे गुण-दोष, क्षमताएँ-अक्षमताएँ, पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे संचित व प्रारब्ध सब कर्मों के फल और सम्पूर्ण पृथक अस्तित्व, सब कुछ बापस आपको अर्पित है, इसे स्वीकार करें| आप के अतिरिक्त अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए|
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आपकी अनंतता हमारी अनंतता है, आपका प्रेम हमारा प्रेम है, और आपका अस्तित्व हमारा अस्तित्व है| आप और हम एक हैं| आपका यह परम प्रेम सबको बाँटना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है|

ॐ नमःशिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१७ अप्रेल २०१६

"धर्म" और "अधर्म" में भेद क्या है .....

(१७ अप्रेल २०१४)
"धर्म" और "अधर्म" में भेद क्या है .....
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'धर्म' और 'अधर्म' इन पर जितनी चर्चाएँ हुई हैं, वाद विवाद, युद्ध और अति भयावह क्रूरतम अत्याचार और हिंसाएँ हुई हैं, उतनी अन्य किसी विषय पर नहीं| धर्म के नाम पर, अपनी मान्यताएं थोपने के लिए, अनेक राष्ट्रों और सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया, धर्म के नाम पर लाखों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ कर दी गईं जो आज भी अनवरत चल रही हैं| मनुष्य के अहंकार ने धर्म सम्बन्धी अपनी अपनी मान्यताएँ अन्यों पर थोपने के लिए सदा हिंसा का सहारा लिया है|

पर धर्म के तत्व को समझने का प्रयास सिर्फ भारतवर्ष में हुआ है| भारत का प्राण -- धर्म है| भारत सदा धर्म-सापेक्ष रहा है| धर्म की शरण में जाने का आह्वान सिर्फ भारतवर्ष से ही हुआ है| धर्म की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने यहाँ समय समय पर अवतार लिए है| धर्म की रक्षा हेतु ही यहाँ के सम्राटों ने राज्य किया है| धर्म की रक्षा के लिए ही असंख्य स्त्री-पुरुषों ने हँसते हँसते अपने प्राण दिए हैं|

भारत में धर्म की सर्वमान्य परिभाषा -- "परहित" को ही माना गया है| कणाद ऋषि के ये वचन भी सबने स्वीकार किये हैं कि ---- जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह ही धर्म है| पर यह भी विचार का विषय है कि अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि कैसे हो सकती है|

महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है|
धर्म और अधर्म पर बहुत चर्चाएँ होती हैं| पर जहाँ तक मेरी अल्प और सीमित बुद्धि की समझ है ---- प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है| यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा| मन और बुद्धि गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा|

ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे| हमारी क्या औकात है ????? पर कोई उन्हें पूछें तो सही|

आपकी देहरूपी रथ का रथी -- आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है| बुद्धि -- कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकता है| उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है| धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें| जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं|

अंततः मेरा ह्रदय तो यही कहता ही कि जो भी कार्य अपने अहँकार को परमात्मा को समर्पित कर, समष्टि के कल्याण के लिए किया जाए वही धर्म है| व्यष्टि का अस्तित्व भी समष्टि के लिए ही हो| यही धर्म है|

आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम| धन्यवाद|
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०१४