Sunday, 10 September 2017

दूसरों के गले काट कर कोई बड़ा नहीं बन सकता ....

दूसरों के गले काट कर कोई बड़ा नहीं बन सकता. दूसरों की ह्त्या कर के, पराई संपत्ति का विध्वंश कर के, और दूसरों को हानि पहुंचा कर कोई महान नहीं बनता. दूसरों को मारकर, और दूसरों को हानि पहुंचाकर लोग महान और पूर्ण बनना चाहते हैं, पर उनके लिए ऐसी पूर्णता एक मृगतृष्णा ही रहती है.
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पूर्णता बाहरी संसार में नहीं है. पूर्णता निजात्मा में ही संभव है. पूर्णता की खोज में मनुष्य ने पूँजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, फासीवाद, सेकुलरवाद, जैसे अनेक वाद खोजे, और अनेक कलियुगी मत-मतान्तरों, पंथों व सम्प्रदायों का निर्माण किया. पर किसी से भी मनुष्य को सुख-शांति नहीं मिली. इन्होने मनुष्यता को कष्ट ही कष्ट दिए.
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आज भी मानवता अशांत है और दूसरों के विनाश में ही पूर्णता खोज रही है. पर इतने नरसंहार और विध्वंश के पश्चात भी उसे कहीं सुख शांति नहीं मिल रही है. अभी भी अधिकाँश मानवता की यही सोच है कि जो हमारे विचारों से असहमत हैं उनका विनाश कर दिया जाए. पर क्या इस से उन्हें सुख शान्ति मिल जायेगी? कभी नहीं मिलेगी.
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पूर्णता स्वयं की आत्मा में ही हो सकती है, जो परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण से ही व्यक्त होती है. यह जो इतनी भयंकर मार-काट, अन्याय, और हिंसा हो रही है, अप्रत्यक्ष रूप से यह मनुष्य की निराशाजनक रूप से पूर्णता की ही खोज है. मनुष्य सोचता है कि दूसरों के गले काटकर वह बड़ा बन जाएगा, पर सदा असंतुष्ट ही रहता है और आगे भी दूसरोंके गले काटने का अवसर ढूंढता रहता है|
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पूर्ण तो सिर्फ परमात्मा ही है जिस से जुड़ कर ही हम पूर्ण हो सकते हैं, दूसरों के गले काट कर, या पराई संपत्ति का विध्वंश कर के नहीं.
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यहाँ मैं बाइबिल में (Matthew 26:52) ईसा मसीह को उद्धृत कर रहा हूँ ..... "Put your sword back in its place," Jesus said to him ...
"Those who use the sword will die by the sword. ... Then Jesus said to him, "Put your sword back into its place; for all those who take up the sword shall perish by the sword. ... Everyone who uses a sword will be killed by a sword.
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श्रुति भगवती पूर्णता के बारे में कहती है .....
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"

शांति मन्त्र ......
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७

धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है ....

धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है| जिससे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता वह धर्म नहीं, अधर्म है| हमारे भी जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा को उपलब्ध यानि पूर्णतः समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक होना है| हमारा जीवन धर्ममय हो|
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मैनें देश-विदेश में यह प्रश्न अनेक लोगों से पूछा है कि धर्म का उद्देश्य क्या है? सिर्फ भारत के संत स्वभाव के कुछ लोगों ने ही यह उत्तर दिया कि धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है, अन्यथा प्रायः सभी का इनमें से एक उत्तर था ..... (१) एक श्रेष्ठतर मनुष्य बनना, (२) जन्नत यानि स्वर्ग की प्राप्ति, (३) आराम से जीवनयापन, (४) सुख, शांति और सुरक्षा|
भारत में भी अधिकाँश लोगों का मत है .... बच्चों का पालन पोषण करना, दो समय की रोटी कमाना, कमा कर घर में चार पैसे लाना आदि ही धर्म है| यदि भगवान का नाम लेने से घर में चार पैसे आते हैं तब तो भगवान की सार्थकता है, अन्यथा भगवान बेकार है| अधिकाँश लोगों के लिए भगवान एक साधन है जो हमें रुपये पैसे प्राप्त कराने योग्य बनाता है, साध्य तो यह संसार है|
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सिर्फ भारत में ही, वह भी सनातन हिन्दू धर्म के कुछ अति अति अल्पसंख्यक लोगों के अनुसार ही परमात्मा की प्राप्ति यानि परमात्मा को उपलब्ध होना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है| परमात्मा की प्राप्ति का अर्थ है .... अपने अस्तित्व का परमात्मा में पूर्ण समर्पण| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही भगवान को अहैतुकी प्रेम करता है| सौभाग्य से हम भी उन अति अति अल्पसंख्यक लोगों में आते हैं| हम भीड़ का भाग नहीं हैं|
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मेरा यह स्पष्ट मत है कि जिससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती वह धर्म नहीं, अधर्म है| यदि हमने सारे ग्रंथों का अध्ययन कर लिया, खूब भजन-कीर्तन कर लिए, खूब धर्म-चर्चाएँ कर लीं, और खूब तीर्थ यात्राएँ कर लीं, पर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया है तो सब व्यर्थ हैं|
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जीव ही नहीं, सारी सृष्टि और सारी सृष्टि से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| हम सब भी उस परमात्मा के अंश हैं| अंश भी समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकता है, जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर महासागर बन जाती है, वैसे ही जीव भी परमात्मा में समर्पित होकर परमात्मा ही बन जाता है| परमात्मा ही सर्वस्व है|
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जब हम किसी चीज की कामना करते हैं, तब परमात्मा ही उस कामना के रूप में आ जाते हैं, पर स्वयं का बोध नहीं कराते| हम जब तक कामनाओं पर विजय नहीं पाते तब तक परमात्मा का बोध नहीं कर सकते| परमात्मा को प्रेम का विषय बना कर ही कामनाओं को जीत सकते हैं| काम, क्रोध, लोभ, मोह और राग-द्वेष ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं| परमात्मा तो नित्य प्राप्त है| परमात्मा ही हमारा स्वरूप है| जीव ही नहीं, समस्त सृष्टि ही परमात्मा है, हम स्वयं भी वह स्वयं हैं| हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है| उस अज्ञात परमात्मा को अपने से एक समझते हुए ही उससे पूर्ण प्रेम और समर्पण करना होगा| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७