(प्रश्न) : भगवान का स्मरण हम कैसे, किस रूप में, और कब करें?
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(उत्तर) : यह बहुत ही व्यक्तिगत प्रश्न है जो स्वयं से ही प्रत्येक व्यक्ति को पूछना चाहिए। यदि स्वयं पर विश्वास नहीं है तो जिन को हमने गुरु बनाया है, उन गुरु महाराज से पूछना चाहिए। यदि फिर भी कोई संशय है, तो भगवान पर आस्था रखते हुए स्वयं भगवान से ही पूछना चाहिए। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का और उपनिषदों का स्वाध्याय स्वयं करें, और जैसा भगवान ने बताया है, वैसे ही करें। किसी भी तरह का कोई भी संशय निज मानस में नहीं रहना चाहिये। मेरा अनुभव है कि हरेक आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर निश्चित रूप से भगवान से मिलता है। आध्यात्म में कुछ भी अस्पष्ट नहीं है। सब कुछ एकदम स्पष्ट है।
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मेरी तीर्थयात्रा -- मेरा व्यक्तिगत निजी अनुभव है जो अति दिव्य और अवर्णनीय है। यह यात्रा भगवान स्वयं करते हैं, जिसका मैं एक निमित्त साक्षी मात्र हूँ। यह यात्रा लगातार अविछिन्न रूप से चलती रहती है। मैं इस यात्रा में परमात्मा को केवल समर्पण ही कर सकता हूँ, अन्य कोई विकल्प नहीं है। उन सभी तीर्थयात्रियों को मैं नमन करता हूँ, जो तीर्थों से पवित्र होकर आते हैं। तीर्थों से हमें स्वतः ही वह सत्संग प्राप्त होता है जो अनायास ही ज्ञान, भक्ति और वैराग्य प्रदान करता है। यह पुण्य-कर्म है धर्म-कार्य है और सभी धर्मनिष्ठ लोगों का कर्तव्य है।
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हिन्दू मंदिरों की संरचना ऐसी होती है जहाँ का वातावरण साधना के अनुकूल होता है, जहाँ जाते ही मन समर्पण और भक्तिभाव से भर जाता है। मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं। यह समर्पण का भाव ही हमारी रक्षा करता है।
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द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार, और सगुण-निर्गुण --- ये सब बुद्धि-विलास की बातें हैं। इनमें कोई सार नहीं है। अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल जो भी साधना संभव है, हो, वह अधिकाधिक कीजिये। भगवान को अपना परमप्रेम पूर्ण रूप से दीजिये, यही एकमात्र सार की बात है।
कृपा शंकर
१७ फरवरी २०२५