प्रश्न: --
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(1) गायत्री मन्त्र में सविता देवता हैं, भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं| फिर इसे गायत्री मन्त्र क्यों कहते हैं?
क्या इस के छंद के कारण इसका नाम ग
ायत्री मन्त्र है?
(2) क्या कोई सावित्री मन्त्र भी होता है?
उत्तर: ----
===== (माननीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी द्वारा)
काशी विश्वनाथ बाबा की जय. मङ्गल सुप्रभात......प्रणाम.......जैसे जैसे हम
बदलते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारे मंत्रों के अर्थ भी बदलते जा रहे हैं।
पुराने वेदमंत्र आज नवीन अर्थ दे रहे हैं। पहले माना जाता था कि गायत्री
मंत्र में उस सूर्य से प्रार्थना की जाती है जिसके चारों ओर हमारी धरती
चक्कर लगाती है। सैकड़ों हज़ारों साल तक यही माना जाता रहा। आज भी बहुत लोग
यही मानते हैं लेकिन फिर इसी गायत्री मंत्र का यह अर्थ भी सामने आया
जिसमें परमात्मा से प्रार्थना की जाती है। इसी क्रम में अब गायत्री मंत्र
का एक शाब्दिक अनुवाद भी पहली बार प्रकट हुआ है। यह अनुवाद आप भी देखिए -
हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।
तत्-उस, सवितुः-सूर्य, वरेण्यं-वरणीय, भर्गो-तेज, देवस्य-देव के, धीमहि-हम
ध्यान करें, धियो-बुद्धियों को, यो-जो, नः-हमारी, प्रचोदयात्-प्रेरित
करे......इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के
रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
मेरे
हिसाब से तो गायत्री और सविता दोनों एक रूप हैं। भगवती गायत्री आद्याशक्ति
प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए
स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। वास्तव में भगवती गायत्री
नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सवित्र की पुत्री के रूप में
अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया। कहते हैं कि सविता के
मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को
समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई। इस मंत्र में सवित्र
देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।
कहीं-कहीं
सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है।
इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम
प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन
है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्। इस प्रकार गायत्री, सावित्री और
सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं।
हाँ, 'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। कदाचित इसी लिए इसे गायत्री मन्त्र कहा जाता है।
महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गायी गयी
है ।। यहाँ तक कि भीष्म पितामह युद्ध के समय अन्तिम शरशय्या पर पड़े होते
हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की
प्रेरणा देते हैं ।। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के
अध्याय 150 में दिया गया है ।।
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते
हैं पितामह महाप्राज्ञ सर्व शास्त्र विशारद ।। कि जप्यं जपतों नित्यं
भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।।
देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा
शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहाः- यान
पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री
ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन
व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति
सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री
यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते
दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण
कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा
प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री)
का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं
।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं
लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते
हैं ।। जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि
काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न
ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को
ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा
जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।। गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने
से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा
ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री-
गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं हैः- जपतां जुह्वता चैव नित्यं च
प्रयतात्मनाम् ।। ऋषिणाम् परमं जप्यं गुह्यमेतन्नराधिम ॥ तथातथ्येन
सिद्धस्य इतिहासं पुरातनम् ।। तदेतत्ते समाख्यां तथ्य ब्रह्म सनातनम् ॥
हृदयं सर्व भूतानां श्रुतिरेषा सनातनी ।। सोमदित्यान्वयाः सर्वे राघवाः कुरवस्तथा ।। पठन्ति शुचयो नित्यं सावित्री प्राणिनां गतिम ॥
''हे नर श्रेष्ठ सदा जप में लीन रहने वाले तथा नित्य हवन करने वाले ऋषियों
का यह परम जप तथा गुप्त मंत्र है ।। सर्वप्रथम इस गुह्य मंत्र का इतिहास
'पराशर' द्वारा देवराज के समक्ष वर्णन करता हूँ ।। यह गायत्री ब्रह्मस्वरूप
तथा सनातन है ।। यही सर्वभूत का हृदय तथा श्रुति है ।। चन्द्रवंशी,
सूर्यवंशीय, कुरुवंशी, सभी राजा पूर्ण पवित्र भाव से सर्व हितकारी इस
महामंत्र सावित्री गायत्री का जप किया करते थे ।''
सविता और
सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि
तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है।
प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक
प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं।
वह अदृश्य है। ब्रह्मण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में
सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है।
पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-क्रेन्द्र
से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण
तेज की तेज वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और
फूलती- फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित
सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की
शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता
होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या
मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी
भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं।
गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’
कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को
तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और
गयात्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—
तेजसा वै
गायत्री प्रथमं त्रिरात्र दाधार पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। तेजो वै
गयात्री। गो। ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। ज्योतिर्वै गायत्री। दविद्युतती
वै गायत्री। गायत्र्येव भर्ग।। गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः तेजो वै
गायत्री।
सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार भ्रम न रह जाय, उसे
भौतिक अग्नि प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया
है कि यह ‘तेजस्’ विशुद्धा रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता तेज को
ब्रह्मतेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के
छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है—
सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते। सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।
सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते हैं।
आदित्यो ब्रह्मोत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्।
-छान्दोग्योपनिषद्-3 प्र. 19/1
सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।
इस प्रकार सावित्री और गायत्री मन्त्र में भेद नहीं है।
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी