Tuesday, 23 August 2016

पता नहीं कब बुलावा आ जाए .....

****** इस तरह अपना जीवन जीओ कि यदि परमात्मा किसी भी क्षण बापस अपने पास बुला लें तो तत्क्षण संसार को धन्यवाद और विदा कह कर प्रभु को कह सको ---- "हे प्रभु, मैं इसी समय आपको साथ चल रहा हूँ|"
संसार में जब तक हो हर एक कार्य को मन लगाकर पूर्णता से करो ताकि उसे पूरा करने दुबारा बापस ना आना पड़े|
अपना पूर्ण अहैतुकि प्रेम निरंतर सब को दो व पूर्णता से जीओ| पता नहीं कब बुलावा आ जाए| *****

जब भी ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही होती है ......

जब भी ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही होती है उसे पाने की तो जो भी समय मिलता है वह उसी के चिंतन मनन में निकल जाता है|
परमात्मा किसी की रक्षा करेंगे या नहीं इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए| यह सृष्टि उसी की है| वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है| यदि वह चाहता है कि अधर्म का राज्य हो तो अधर्म और दुष्टों का ही राज्य होगा| नुकसान भी तो उसी का ही है, उसी के प्रेमी मित्र, साधू संत सब समाप्त हो जायेंगे|
जहाँ भी उसने अपनी संतानों को रखा है वहीं उसे आना ही पड़ेगा| जो भी उसके द्वारा अपनी संतानों के माध्यम से अनुभूत और व्यक्त हो रहा है वह उसी का है| यदि उसकी संतानें दुखी हैं तो वह स्वयं दुखी है, वे आनंद में हैं तो वह ही आनंद में है|
उसके प्रेमियों को उसकी पूर्णता से कम कुछ भी नहीं चाहिए| यदि उसकी इच्छा है कि वे दुखी होकर मर जाएँ तो वे सहर्ष मर जायेंगे| पर मरते समय भी ध्यान उसी का ही रहना चाहिए| शेष कुछ भी नहीं है| उसी की इच्छा पूरी हो|
वह अपनी सृष्टि को कैसे भी चलाये, अंततः दुखी वही है|

हम कोई मंगते भिखारी नहीं हैं .....

हम कोई मंगते भिखारी नहीं हैं| हम कुछ माँग नहीं रहे| उसका जो कुछ भी है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| उसकी सर्वव्यापकता हमारी सर्व व्यापकता है, उसका आनंद हमारा आनद है, उसका सर्वस्व हमारा है| उससे कम हमें कुछ भी नहीं चाहिये| एक पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है, वैसे ही उसकी पूर्णता पर हमारा पूर्ण अधिकार है|

(1) गायत्री मन्त्र में सविता देवता हैं, भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं| फिर इसे गायत्री मन्त्र क्यों कहते हैं? क्या इस के छंद के कारण इसका नाम गायत्री मन्त्र है? (2) क्या कोई सावित्री मन्त्र भी होता है?

प्रश्न: --
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(1) गायत्री मन्त्र में सविता देवता हैं, भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं| फिर इसे गायत्री मन्त्र क्यों कहते हैं?
क्या इस के छंद के कारण इसका नाम गायत्री मन्त्र है?
(2) क्या कोई सावित्री मन्त्र भी होता है?

उत्तर: ----
===== (माननीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी द्वारा)
काशी विश्वनाथ बाबा की जय. मङ्गल सुप्रभात......प्रणाम.......जैसे जैसे हम बदलते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारे मंत्रों के अर्थ भी बदलते जा रहे हैं। पुराने वेदमंत्र आज नवीन अर्थ दे रहे हैं। पहले माना जाता था कि गायत्री मंत्र में उस सूर्य से प्रार्थना की जाती है जिसके चारों ओर हमारी धरती चक्कर लगाती है। सैकड़ों हज़ारों साल तक यही माना जाता रहा। आज भी बहुत लोग यही मानते हैं लेकिन फिर इसी गायत्री मंत्र का यह अर्थ भी सामने आया जिसमें परमात्मा से प्रार्थना की जाती है। इसी क्रम में अब गायत्री मंत्र का एक शाब्दिक अनुवाद भी पहली बार प्रकट हुआ है। यह अनुवाद आप भी देखिए -
हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।
तत्-उस, सवितुः-सूर्य, वरेण्यं-वरणीय, भर्गो-तेज, देवस्य-देव के, धीमहि-हम ध्यान करें, धियो-बुद्धियों को, यो-जो, नः-हमारी, प्रचोदयात्-प्रेरित करे......इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
मेरे हिसाब से तो गायत्री और सविता दोनों एक रूप हैं। भगवती गायत्री आद्याशक्ति प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। वास्तव में भगवती गायत्री नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सवित्र की पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया। कहते हैं कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।
कहीं-कहीं सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है। इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्। इस प्रकार गायत्री, सावित्री और सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं।
हाँ, 'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। कदाचित इसी लिए इसे गायत्री मन्त्र कहा जाता है।
महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गायी गयी है ।। यहाँ तक कि भीष्म पितामह युद्ध के समय अन्तिम शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं ।। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है ।।
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते हैं पितामह महाप्राज्ञ सर्व शास्त्र विशारद ।। कि जप्यं जपतों नित्यं भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।। देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहाः- यान पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री) का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं ।। जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।। गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री- गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं हैः- जपतां जुह्वता चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम् ।। ऋषिणाम् परमं जप्यं गुह्यमेतन्नराधिम ॥ तथातथ्येन सिद्धस्य इतिहासं पुरातनम् ।। तदेतत्ते समाख्यां तथ्य ब्रह्म सनातनम् ॥
हृदयं सर्व भूतानां श्रुतिरेषा सनातनी ।। सोमदित्यान्वयाः सर्वे राघवाः कुरवस्तथा ।। पठन्ति शुचयो नित्यं सावित्री प्राणिनां गतिम ॥
''हे नर श्रेष्ठ सदा जप में लीन रहने वाले तथा नित्य हवन करने वाले ऋषियों का यह परम जप तथा गुप्त मंत्र है ।। सर्वप्रथम इस गुह्य मंत्र का इतिहास 'पराशर' द्वारा देवराज के समक्ष वर्णन करता हूँ ।। यह गायत्री ब्रह्मस्वरूप तथा सनातन है ।। यही सर्वभूत का हृदय तथा श्रुति है ।। चन्द्रवंशी, सूर्यवंशीय, कुरुवंशी, सभी राजा पूर्ण पवित्र भाव से सर्व हितकारी इस महामंत्र सावित्री गायत्री का जप किया करते थे ।''
सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्मण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है।
पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-क्रेन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की तेज वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती- फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गयात्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—
तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्र दाधार पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। तेजो वै गयात्री। गो। ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। ज्योतिर्वै गायत्री। दविद्युतती वै गायत्री। गायत्र्येव भर्ग।। गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः तेजो वै गायत्री।
सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार भ्रम न रह जाय, उसे भौतिक अग्नि प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया है कि यह ‘तेजस्’ विशुद्धा रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता तेज को ब्रह्मतेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है—
सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते। सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।
सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते हैं।
आदित्यो ब्रह्मोत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्।
-छान्दोग्योपनिषद्-3 प्र. 19/1
सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।
इस प्रकार सावित्री और गायत्री मन्त्र में भेद नहीं है।
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं ...

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं .................
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मेरे एक प्रिय विद्वान और भक्त मित्र ने जिनका विचार अपनी सरकारी सेवा से निवृति के पश्चात विरक्त साधू बनने का था, सेवा-निवृति से पहिले ही अपनी स्वयं की कमाई से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान में जो चार धामों में भी आता है, अपने लिए एक विशाल आश्रम का भवन बनवा लिया| एक अच्छी सी कार भी खरीद ली| भक्तों के रहने का स्थान, सत्संग करने का कमरा, एक मंदिर भी बनवा लिया, और अन्य सारी सुविधाएँ भी जुटा लीं| सेवा-निवृत होते ही आराम से विधिवत रूप से बाबाजी बन गए और अपने आश्रम में रहने लगे|
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यहीं से उनकी सारी समस्याओं का आरम्भ हुआ| अच्छी सरकारी नौकरी में थे अतः पेंशन के अच्छे रूपये आते थे और बचत भी कर रखी थी अतः कोई आर्थिक समस्या तो थी नहीं| पर मायावी सांसारिक मोह नहीं छुटा| उनके पूर्वाश्रम की पत्नी बड़ा अनुनय विनय कर के शिष्या और सेविका बन कर आ गयी, धीरे धीरे पूर्वाश्रम का पुत्र और पुत्रवधू भी आ गयी| पुत्रवधू को डर था कि कहीं बाबाजी अपनी करोड़ों की संपत्ति किसी को चेला बनाकर नहीं दे दे अतः वह सारी संपति अपने नाम करवाने के लिए कलह करने लगी| पूर्व पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू व पुत्रवधु के पीहर वाले सब एक होकर बाबाजी से लड़ाई झगड़े और उत्पीड़न तक पर उतर आये|
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बाबाजी मुझसे सलाह और सहायता माँगने लगे| मैंने उनको सलाह दी कि इस सारी संपति को बेचकर अपने गुरु स्थान वृन्दावन चले जाओ और रुपया पैसा अपने विवेकानुसार परमार्थ में खर्च कर दो, या अपना स्थान अपनी गुरु-परम्परा के साधुओं को सौंप दो| पर महात्मा जी को अपनी भव्य संपति से इतना मोह हो गया कि कहीं भी जाना उनको अच्छा नहीं लगा| वृन्दावन तो उनको बहुत गंदा स्थान लगा| उन्होंने मुझसे दो हट्टे-कट्टे दबंग अच्छे शिष्यों की व्यवस्था करने की प्रार्थना की|
मैंने उनसे कहा कि अच्छे शिष्य भी भाग्य से मिलते हैं, अतः मैं यह व्यवस्था नहीं कर सकूँगा| अब स्थिति यह है कि महात्मा जी मुझसे अनुरोध कर रहे हैं की मैं उनके आश्रम को संभाल लूँ और उनकी कहीं अन्यत्र व्यवस्था कर दूं| मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें मना कर दिया है| अब उनके इस मोह के कारण उनकी परंपरा के साधू भी उन्हें साधू ही नहीं मानते और उन्हें गृहस्थ बताते हैं|
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मैं और भी कुछ लोगों को जानता हूँ जो अपने घर, संपति, परिवार और बड़ाई के मोह से आध्यात्मिक मार्ग पर नहीं चल पाए|
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अभी हाल में ही मेरे एक और सेवानिवृत इंजिनियर मित्र ने अपने लिए एक बहुत बड़ा कोठीनुमा आश्रम बनवाया है और सपत्नीक उसमें रहते हैं| पति-पत्नी दोनों ही भक्त हैं और बड़े प्रेम से साथ रहकर साधना करने का प्रयास करते हैं| उन्हें कोई विशेष लाग-लपेट नहीं है| उनका पुत्र एक दुसरे नगर में अच्छे पद पर है जिसका स्वयं का मकान है|
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यह लेख लिखने का मेरा उद्देश्य यही बताना है कि जब और जिस भी समय वैराग्य हो जाये , या जब भी ईश्वर की एक झलक मिले, उसी समय विरक्त होकर गृह-त्याग कर देना चाहिए और किसी भी तरह की लाभ-हानि का चिंतन नहीं करना चाहिए|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही कहा है .......
"सुख संपति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||
ए सब राम भगति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे हरि सुन्दर .....

हे हरि सुन्दर, हे हरि सुन्दर, तेरे चरणों पर शीश नमन करता हूँ |
हे हरि, उन सब का हरण कर लो, जिन्होनें तुम से मेरा हरण कर लिया है |
सब कुछ तो तुम ही हो, समस्त अस्तित्व और उससे भी परे जो कुछ भी है, वह तुम ही हो | तुम्हारे से पृथक कुछ भी नहीं है | फिर भी यह अतृप्त प्यास, तड़प और वेदना क्यों है ?
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सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म |
प्रज्ञानं ब्रह्म |
अयमात्मा ब्रह्म |
अहं ब्रह्मास्मि |
तत्वमसि |
सर्व खल्विदं ब्रह्म |
सच्चिदानंद ब्रह्म |
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समस्त अस्तित्व ब्रह्म है | जिस प्रकार एक जन्मांध किसी रंग को नहीं पहिचान सकता, उसी तरह तर्क-वितर्क और बुद्धि से उसे समझना असंभव है|
वह सिर्फ अहैतुकी परम प्रेम, समर्पण उसकी महती अनुकम्पा यानि परम कृपा के द्वारा ही समझा जा सकता है|

जब तुम ही सर्वस्व हो फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ह्रदय की अभीप्सा कैसे शांत हो ? .......

ह्रदय की अभीप्सा कैसे शांत हो ? .......
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अभीप्सा ..... ह्रदय की एक प्यास होती है जो निरंतर बढती रहती है, कभी शांत नहीं होती| जब वह अभीप्सा जागृत होती है तब ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है, और ह्रदय तड़प उठता है| अभीप्सा में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
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बढ़ते बढ़ते वह प्यास सारे भौतिक, प्राणिक और मानसिक स्तरों का अतिक्रमण कर जाती है| यानि किसी भी भौतिक, प्राणिक और मानसिक उपायों या उपलब्धियों से शांत नहीं होती| संसार की कोई भी वस्तु उसे शांत नहीं कर सकती|
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उस अभीप्सा को शांत करने के लिए कई बार मनुष्य भटकता है| उसकी प्रबल जिज्ञासा भटकाते भटकाते उसे अनेक प्रकार का बौद्धिक अध्ययन करवाती है पर वह प्यास बौद्धिकता से शांत नहीं होती| अनेक ठग गुरुओं के चक्कर में वह ठगा भी जाता है जो चेले मूँडने को सदैव उपलब्ध रहते हैं| अनचाहे हर प्रकार के सलाहकार भी मिल जाते हैं| पर वह प्यास फिर भी अतृप्त रहती है|
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अंततः वह मनुष्य परमात्मा से प्रार्थना करता है तब भगवान स्वयं ही कृपा कर के उसका किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन कर देते हैं| पर यह तो उसकी होने वाली एक लम्बी यात्रा का आरम्भ मात्र है| अनेक भटकाव फिर भी आते हैं पर करुणा कर के कृपासिंधु भगवान उसे बार बार सन्मार्ग पर ले आते हैं| हिमालय जैसी बड़ी बड़ी भूलें भी क्षमा कर दी जाती हैं|
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यह अभीप्सा सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के अहैतुकी परम प्रेम यानि परा भक्ति से ही शांत होती है|
जहाँ तक मेरा अनुभव है ऐसी ही अत्यधिक बेचैन कर देने वाली प्रचंड अग्नि की दाहकता वाली यह अभीप्सा कोई छोटे मोटे उपायों से नहीं बल्कि कई कई घंटों की गहन ध्यान साधना के बाद ही शांत होती है|
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हम सब के हृदयों में ऐसी ही पराभक्ति जागृत हो, हम सब के हृदयों में वह अभीप्सा जागृत हो, इसी शुभ कामना के साथ सब को सादर नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....
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ईश्वर भक्ति वीरता को जन्म देती है जो वीर नहीं उससे भक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह प्रेम से नहीं डर से बंधा है हे मनुष्य, तू उस वीरता को धारण कर और चक्रवर्ती बन|
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"जाके ह्रदय ना राम वैदेही, तजिहे ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही |
तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बंधू , भरत महतारी|
बलि गुरु तज्यो, कंत बृजबानितनी, भये मुद मंगलकारी !!
नाते नेह राम के मनियत, सुह्रदय सु -सेब्य जहाँ लौ|
अंजन कहा आँखि जेहि फूटे , बहुतेक कहौ कहा लौ|
तुलसी सौ सब भांति परम हित , पूज्य प्राण ते प्यारौ|
जासो होए सनेह राम पद , एतो मतों हमारो ||"
अर्थात् ........
जिसके ह्रदय में भगवान के लिए भक्ति नहीं हो, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए|
जिस प्रकार प्रहलाद ने पिता का, विभीषण ने भाई का, भरत ने माता का और गोपियाँ पति का त्याग कर मुदित मंगलकारी हुईं| अंजन लगाने से यदि आँख फूट जाये और रोशनी ही चली जाये तो क्या लाभ अंजन लगाने से ? जिस के संग से भगवान से प्रेम बढे वह ही परम हितकारी है, यही हमारा मत है|
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मीरा बाई ने बहुत दुखी होकर संत तुलसीदास जी से सलाह माँगी थी .......
"घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई|
साधू संग अरु भजन करत मोहि,
देत कलेश अधनाइ||
बालेपन से मीरा किनी, गिरिधर लाल मिताई|
सो तो अब छुटै नहीं, क्यों हो लगी लगन बरियाई||"
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तुलसीदास जी ने मीराबाई को सलाह देते हुए ही उपरोक्त पद लिखा था जो आज भी प्रासंगिक है| तुलसीदास जी का उत्तर मिलते ही मीराबाई अपना घर मेवाड़ छोड़कर स्थायी रूप से वृन्दावन आ गईं|

जब तक मीराबाई मेवाड़ में थीं वहाँ विधर्मियों का कोई आक्रमण नहीं हुआ| उनके मेवाड़ छोड़ने के पश्चात ही वहाँ विधर्मियों के आक्रमण आरम्भ हो गए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||