हम अकेले भी हैं और नहीं भी हैं .....
.
द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार .... ये सब अनुभूतियाँ हैं जो हमें हमारी तत्कालीन मनःस्थितियों के अनुसार होती हैं| इन सब से ऊपर उठ कर इन सब का आनंद लें, इन की चर्चा और विवेचना से कोई लाभ नहीं है|
.
दीर्घ और गहन ध्यान साधना में हमें परमात्मा की अनुभूति प्राण और आकाश तत्व के रूप में होती है,जिन्हें शब्दों में व्यक्त करना प्रायः असंभव है| इन की अनुभूतियों का आनंद लें| सामने मिठाई रखी हो तो मजा उसको खाने में है, न कि उसकी विवेचना करने में| परमात्मा एक रस है जिसको चखो, खाओ, पीओ, अपने भीतर प्रवाहित होने दो और उसमें डूब जाओ|
.
परमात्मा की परम कृपा है कि मैं अकेला भी हूँ और नहीं भी हूँ| मैं सिर्फ परमात्मा के प्रेम की ही बातें करता हूँ इसलिए कोई मिलने-जुलने या सामाजिकता वाले लोग मेरे पास नहीं आते| किसी से वेदान्त की चर्चा करता हूँ तो वह लौट कर फिर कभी बापस नहीं आता| इसलिए परमात्मा के ध्यान का खूब समय मिल जाता है| यह परमात्मा की कृपा है| दो-चार परमात्मा के प्रेमियों से ही संपर्क रहता है, अन्य किसी से नहीं है| अकेला इसलिए नहीं हूँ कि परमात्मा सदा मेरे साथ हैं| वास्तव में मेरे होने का एक भ्रम ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वे स्वयं परमात्मा ही हैं|
.
अब आज की अंतिम बात .... परमात्मा माता है या पिता?
यह भी साधक की मनःस्थिति पर निर्भर है| जब हृदय प्रेम से भर जाता है तब परमात्मा का मातृरूप सामने आता है, और जब विवेक की प्रधानता होती है तब पितृरूप|
.
आप सभी को शुभ कामनाएँ और मेरे ह्रदय का पूर्ण प्रेम आप सब को समर्पित है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०१९