Sunday, 11 March 2018

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति , स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति .....

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति , स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति .....
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परमात्मा से परम प्रेम होने पर मनुष्य .... उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और आत्माराम हो जाता है| भक्ति यानि परम-प्रेम की जागृति होने पर पहिले तो मनुष्य उन्मत्त होकर असामान्य हो जाता है, फिर प्रेम में मत्त होकर परमात्मा की उपस्थिति के आभास से स्तब्ध हो जाता है, और फिर अपनी आत्मा में रमण करते करते आत्माराम हो जाता है|
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हे परम प्रिय प्रभु, मैं आपके साथ एक हूँ| जो आप हैं वह ही मैं हूँ और जो मैं हूँ वह ही आप हैं| आपका आनंद, आपकी शांति, आपका विवेक, आपकी करुणा, आपका प्रेम, और आपकी सर्वव्यापकता मैं ही हूँ, मेरे सिवा अन्य कोई नहीं है| जैसे जल की एक अकिंचन बूँद, महासागर में मिल कर महासागर ही बन जाती है. वैसे ही मैं और आप एक हैं, अब कभी अलग नहीं होंगे, सदा साथ साथ ही रहेंगे| मैं आपमें जागृत हूँ| मैं इस नश्वर .... भौतिक, सूक्ष्म और कारण देह की सीमाओं से परे सर्वव्यापक हूँ| मैं हर पुष्प में, सूर्य की हर किरण में, हर सद्संकल्प में, हर आत्मा में, हर अणु में, ऊर्जा के हर कण व प्रवाह में, और हर विचार में आपकी ही अभिव्यक्ति हूँ| कोई मुझे आपसे पृथक नहीं कर सकता|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ मार्च २०१६

हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध परमात्मा से है .....

हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध परमात्मा से है .....
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जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात ही नहीं बल्कि जीवन में सतत निरंतर एकमात्र सम्बन्ध यदि किसी का किसी से हो सकता है तो वह भगवान से ही है| हमारा अस्तित्व भी उन्हीं का एक संकल्प या उन के मन की एक कल्पना मात्र है| यह प्रभु का प्रेम ही है जो माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों के माध्यम से हमें प्राप्त होता है| यह मायावश भ्रम है कि हमारा कोई अपना-पराया है| यहाँ तक की गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी परमात्मा से ही सम्बन्ध है| गुरू भी एक निश्चित भावभूमि तक ले जा कर छोड़ देता है, आगे की यात्रा तो स्वयं को ही करनी पडती है| फिर न कोई गुरु है और न कोई शिष्य, एकमात्र परमात्मा ही सब कुछ है| सारे सम्बन्ध एक भ्रम मात्र हैं|
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हमारा अस्तित्व परमात्मा की एक अभिव्यक्ति है| वे ही इस देह को जीवंत रखे हुए हैं, वे ही इस हृदय में धडक रहे हैं|, जो भी हम अपनी आँखों से देख रहे हैं, वह परमात्मा ही है| हमारा पृथक अस्तित्व एक माया और भ्रम है| हमारा एकमात्र लक्ष्य सिर्फ उन के परम प्रेम की अभिव्यक्ति और उन में समर्पण ही है| जो भी हमें उन से दूर ले जाए वह कुसंग है जो सर्वदा त्याज्य है| जो उन का प्रेम हमारे में जागृत करे वह सत्संग है| जब हमें भूख लगती है तब भोजन तो स्वयं को ही करना पड़ता है| दूसरे का किया भोजन हमारा पेट नहीं भर सकता| वैसे ही स्वाध्याय, सत्संग और साधना तो स्वयं को ही करनी होगी| प्रभु के प्रेम में निरंतर डूबे रहना ही सत्संग है| प्रभु को विस्मृत करना कुसंग है|
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प्रभु की निरंतर सब पर कृपा बनी रहे| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ मार्च २०१४

शत्रु को कभी कम नहीं समझना चाहिए .....

शत्रु को कभी कम नहीं समझना चाहिए .....
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१ अगस्त १७९८ से ३ अगस्त १७९८ तक ब्रिटेन और फ्रांस की विशाल नौसेनाओं में मिश्र के तट पर अबोकिर की खाड़ी में नील नदी के मुहाने के पास भूमध्य सागर में एक अति भयानक युद्ध हुआ था, जिसमें फ़्रांसिसी नौसेना की हार हुई और उस युद्ध के बाद भारत पर अंग्रेजों का शासन पक्का हो गया| मैसूर के टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत पर आक्रमण करने के लिए फ्रांस के शासक जनरल नेपोलियन बोनापार्ट को निमंत्रण दिया था| उसी कड़ी में फ्रांस ने सबसे पहिले मिश्र पर अपना पूरा अधिकार कर लिया, जहाँ से उसे और आगे ब्रिटिश भारत की ओर प्रस्थान करना था|
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पिछले तीन महीनों से एडमिरल नेल्सन के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना लगातार फ्रांसीसी नौसेना को ढूँढ रही थी जो एडमिरल फ्रांकोइस पॉल ब्रुयेस अल्गैलियर्स के नेतृत्व में थी और कहीं भी उसकी स्थिति का पता नहीं चल रहा था| फ्रांस की स्थल सेना ने पूरे मिश्र पर अपना अधिकार कर लिया था और फ्रांसीसी नौसेना सिकंदरिया (Alexandria) से २० मील दूर सुरक्षित स्थान पर समुद्र में लंगर डाले खड़ी थी|
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१ अगस्त १७९८ की शाम को जब अन्धेरा सा हो गया था और बहुत कम दिखाई दे रहा था, ब्रिटिश नौसेना ने अपने से भी बहुत अधिक बड़ी फ्रांसीसी नौसेना को ढूँढ ही लिया| फ़्रांसिसी एडमिरल ने निर्णय लिया कि अगले दिन सूर्योदय से पूर्व प्रकाश होते ही युद्ध शुरू कर देंगे और युद्ध की तैयारी करनी आरम्भ कर दी| यही उसकी भूल थी जो उसकी पराजय में बदल गयी|
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ब्रिटिश एडमिरल नेल्सन ने एक क्षण की भी देरी करना उचित नहीं समझा और तुरंत आक्रमण के आदेश दे दिए| नेल्सन ने अपने बेड़े को शाम के अंधेरे में ही दो भागों में बाँटकर फ़्रांसिसी बेड़े को अपने बीच में ले लिया और अपनी तोपों से गोलाबारी शुरू कर दी| बड़ा भयानक युद्ध तीन घंटों तक चला और रात को दस बजे फ़्रांसिसी ध्वजवाहक पोत (Flagship) ल'ओरिएंट डुबो दिया गया| फ्रांसीसी एडमिरल उस आक्रमण में मारा गया पर तीन अगस्त तक युद्ध चलता रहा| नेपोलियन बोनापार्ट की स्थल सेना मिश्र में फँस गयी और कुछ भी न कर सकी|
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इस युद्ध से यही शिक्षा मिलती है कि अपने शत्रु को कभी कम नहीं आँकना चाहिए, और उसके आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए|
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इस युद्ध के बाद ब्रिटेन की कवयित्री मिसेज फेलिसिया डोरोथिया हेमंस की सन १८२६ में लिखी एक कविता 'Casabianca' ने फ़्रांसिसी एडमिरल के १२ वर्ष की आयु के उस बेटे को अमर बना दिया जो अपने डूबते हुए जहाज पर, जिसमें विस्फोट होकर आग लग गयी थी, और चारों और मरे हुए नौसैनिकों की लाशें बिखरी हुई थीं, अपने पिता की आज्ञा मानकर खडा रहा, और अपनी जान बचाने का कोई प्रयास नहीं किया| उस वीर बालक को मरते दम तक यह पता ही नहीं चला था कि उसका पिता मारा गया है, पर उसके लिए तो पिता की आज्ञा ही सर्वोपरि थी| दोनों ओर से सैंकड़ों तोपें चल रही थीं, जिनके गोलों के विस्फोट के प्रकाश में ब्रिटिश नौसेनिकों ने देखा कि फ्रांस के जलते हुए फ्लैगशिप पर एक बारह वर्ष का बालक खड़ा हुआ है जो चारों ओर लगी हुई आग से भी विचलित नहीं हुआ और अंत समय तक अडिग खड़ा रहा| बाद में पता चला कि वह तो अपने पिता की आज्ञा का पालन कर रहा था|
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सन १८२६ में लिखी गयी अंग्रेजी साहित्य की वह प्रसिद्ध कविता Casabianca इस प्रकार है .....
The boy stood on the burning deck,
Whence all but he had fled;
The flame that lit the battle’s wreck,
Shone round him o’er the dead.
Yet beautiful and bright he stood,
As born to rule the storm;
A creature of heroic blood,
A proud, though childlike form.
The flames rolled on – he would not go,
Without his father’s word;
That father, faint in death below,
His voice no longer heard.
He called aloud – ‘Say, father, say
If yet my task is done?’
He knew not that the chieftain lay
Unconscious of his son.
‘Speak, father!’ once again he cried,
‘If I may yet be gone!’
– And but the booming shots replied,
And fast the flames rolled on.
Upon his brow he felt their breath
And in his waving hair;
And look’d from that lone post of death,
In still yet brave despair.
And shouted but once more aloud,
‘My father! must I stay?’
While o’er him fast, through sail and shroud,
The wreathing fires made way.
They wrapped the ship in splendour wild,
They caught the flag on high,
And streamed above the gallant child,
Like banners in the sky.
There came a burst of thunder sound –
The boy – oh! where was he?
Ask of the winds that far around
With fragments strewed the sea!
With mast, and helm, and pennon fair,
That well had borne their part,
But the noblest thing which perished there,
Was that young faithful heart.
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(बहुत शानदार कविता है जिसे पढ़ते समय आँखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी)
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मार्च २०१८