Sunday, 15 January 2023

आध्यात्म में समस्त अनर्थों का मूल आसुरी भाव है; इस से कैसे बचें? ---

 आध्यात्म में समस्त अनर्थों का मूल आसुरी भाव है; इस से कैसे बचें? ---

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आज भगवान ने एक बहुत अधिक महत्वपूर्ण विचार सामने रखा है, इसलिए यह लेख लिखने को बाध्य हूँ। भगवान कहते हैं कि तुम्हारा यश, प्रसिद्धि, सम्मान पाने और कुछ होने या बनने की सूक्ष्मातिसूक्ष्म आकांक्षा एक आसुरी भाव है जो आध्यात्म में तुम्हारे समस्त अनर्थों का कारण है। इससे तुम्हें मुक्त होना पड़ेगा, तभी आगे की प्रगति तुम कर पाओगे।
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विहंगावलोकन करने पर यह बात मैं सत्य पाता हूँ। भगवान ने करुणावश अपनी परम कृपा कर के आगे का मार्ग भी बतला दिया है, जो व्यक्तिगत है। हम जब यह संकल्प या विचार करते हैं कि मैं यह साधना करता हूँ, यह साधना और करूंगा, ईश्वर को प्राप्त करूँगा आदि आदि, ये सब आसुरी भाव है।
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ईश्वर तो हमें सदा ही प्राप्त है, हम उन्हें क्या प्राप्त करेंगे? गीता के १६वें अध्याय में यह बात बहुत अच्छी तरह से समझाई गई है। साधना करने और साधक होने का भाव भ्रामक और मिथ्या है। एक नया आयाम खुल गया है।
हे प्रभु, अब यह मैं नहीं, तुम ही तुम हो। मैं आपकी शरणागत हूँ। मेरी रक्षा करो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जनवरी २०२३

आसुरी-भाव से हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ---

 आसुरी-भाव से हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ---

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परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारा आसुरी भाव है। यह हमारी आध्यात्मिक साधना को निष्फल कर देता है। कर्ताभाव ही आसुरी भाव है। सार रूप में इसका जनक हमारा -- लोभ, राग-द्वेष और अहंकार है। विस्तार से समझने के लिए गीता के १६ वें अध्याय, और केनोपनिषद का स्वाध्याय करें।
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देह को स्वयं से पृथक देखना चाहिए। देहाभिमान बिल्कुल भी न हो। निरंतर परमात्मा के साथ सत्संग करें। उनकी कृपा ही हमें इस आसुरी भाव से मुक्त कर सकती है। जब हमारे में यह भावना आ जाती है कि मैंने इतने दान-पुण्य किए, इतने सेवा-कार्य किए, इतने सद्कार्य किए, इतनी तपस्या की, तो हमारे सारे पुण्य क्षीण होजाते हैं, और हम असुर बन जाते हैं। यह आसुरी भाव देवताओं में भी होता है जो उनके पतन का कारण बनता है।
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भोग हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं। तप हम नहीं करते, हम स्वयं ही तप्त हो जाते हैं। काल समाप्त नहीं होता, हम स्वयं ही काल-कवलित हो जाते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, हम स्वयं ही जीर्ण हो जाते हैं।
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महाभारत के आदिपर्व, भागवत पुराण और मत्स्य पुराण में पांडवों के पूर्वज नहुषपुत्र ययाति की कथा आती है। कथा बहुत रोचक और बहुत लंबी है इसलिए महाभारत में ही पढ़नी चाहिए। घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे। एक बार देवताओं ने उनसे पूछ लिया कि इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ा तपस्वी कौन है? बहुत सोच-समझ कर ययाति ने उत्तर दिया कि मेरे से बड़ा तपस्वी इस पूरे ब्रह्मांड में कोई अन्य नहीं है। उनके इतना कहते ही उनके सारे पुण्य क्षीण हो गए और देवताओं ने धक्के मार कर उन्हें स्वर्ग से नीचे फेंक दिया। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र -- राजा अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें पुनः स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अन्त में मुक्ति प्राप्त हुई।
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ऐसे ही एक और राजा की कथा आती है जिनका नाम मैं इस समय भूल रहा हूँ। उन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे, और उनका यश और कीर्ति सारी पृथ्वी पर फैली हुई थी। अपनी संसारिक मृत्यु के नब्ब वर्ष पश्चात वे अपनी कीर्ति को देखने के लिए इस मृत्युलोक में बापस आए। वे पूरी पृथ्वी पर घूम लिए लेकिन एक भी ऐसा जीवित व्यक्ति नहीं मिला जिसे उनके बारे में कुछ पता हो। अंत में जब वे पूरी तरह निराश हो गए तब लोमश ऋषि ने उन्हें पहिचाना और उपदेश देकर उनका उद्धार किया।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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अपने हरेक कार्य का कर्ता परमात्मा को बनाओ, और अपने सारे गुण-दोष उन्हें समर्पित कर दो। वे ही सारे कार्य कर रहे हैं। रामचरितमानस में कहा गया है --
"उमा दारू जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं॥"
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गीता में भगवान कहते हैं --
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया..१८:६१॥"
अर्थात - हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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एक बात और बतलाई जा चुकी है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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यह आसुरी भाव हमें नर्क के द्वार का दर्शन तो करवा ही देगा। आप कुछ भी
कार्य करते हो, तब भाव यही रखो कि उस कार्य को स्वयं परमात्मा ही कर रहे हैं, और उसका श्रेय और फल भी परमात्मा को ही दो। यही हमें आसुरी भाव से मुक्त करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२३

आप मुझे कितना भी दर्द और पीड़ा दो, लेकिन कभी भी अपने प्रेम से वंचित नहीं कर सकते ---

 हे परमशिव, आप मुझे कितना भी दर्द और पीड़ा दो, लेकिन कभी भी अपने प्रेम से वंचित नहीं कर सकते। संसार में यदि कष्ट कम हैं तो आप मुझे घोर नर्क में डाल सकते हो, लेकिन आप कभी मेरा साथ नहीं छोड़ सकते। जहाँ भी आपने मुझे रखा है, वहाँ किसी भी तरह के असत्य का अंधकार हो ही नहीं सकता। मैं आपका परमप्रेम, आपकी अनंत विराटता, और प्रकाशों का प्रकाश, ज्योतियों की ज्योति - ज्योतिषाम्ज्योति हूँ; यह नश्वर देह नहीं।

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अनेक जन्मों का पुण्य जब फलीभूत होता है तब भगवान के प्रति भक्ति जागृत होती है। भक्ति और समर्पण से ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है। भगवान की कृपा से ही भगवान की प्राप्ति होती है, न कि स्वयं के प्रयासों से। भगवान की कृपा से ही ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु लाभ होता है जो हमें भगवान की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है और ब्रह्मज्ञान देता है। गुरु वही है जो हमारे चैतन्य से अज्ञान का अंधकार मिटाता है। अन्य कोई गुरु नहीं हो सकता।
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वास्तव में भगवान स्वयं ही हमारे गुरु हैं। हम उनमें गुरुभाव रखेंगे तो वे भी हमारे में शिष्य भाव रखेंगे। हमारा लक्ष्य भगवान की प्राप्ति है, न कि इधर-उधर की फालतू बातें। गुरु महाराज का स्पष्ट सीधा आदेश है कि -- "जो मैं हूँ, तुम वही बनो।" मुझे पता है कि वे भगवान के साथ एक हैं, और मुझे भी भगवान के साथ एक होने का आदेश दे रहे हैं। स्पष्ट रूप से उन्होंने एक प्रकाशमय मार्ग दिखाया है, जहाँ कोई अंधकार नहीं है। किसी भी तरह का कोई संशय उन्होनें मुझमें नहीं छोड़ा है। सब कुछ स्पष्ट है।
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करुणावश अब वे ही सारी उपासना कर रहे हैं। वे एक प्रवाह है जो मेरे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हैं। मैं तो एक निमित्त साक्षी मात्र हूँ। हे प्रभु, मैं आपके साथ एक हूँ। जो आप हैं, मैं भी वही हूँ। आप मुझमें व्यक्त हो रहे हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३

कल स्वामी विवेकानंद के ऊपर अनेक लेख लिखे गए थे। लेकिन कुछ बातों का लोग उल्लेख नहीं करते ---

 कल स्वामी विवेकानंद के ऊपर अनेक लेख लिखे गए थे। लेकिन कुछ बातों का लोग उल्लेख नहीं करते।

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स्वामी विवेकानंद को "स्वामी विवेकानंद" का नाम खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने दिया था। इससे पूर्व उनका नाम "स्वामी विविदिशानन्द था। खेतड़ी के राजा अजीत सिंह, अलसीसर के ठाकुर साहब के पुत्र थे जो खेतड़ी ठिकाने में गोद गए थे। स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की प्रेरणा और सारा खर्च राजा अजीत सिंह ने दिया था। स्वामी विवेकानंद को मारवाड़ी पगड़ी भी उन्होंने ही पहनाई थी, जिसे स्वामी विवेकानंद बाहर हर समय पहिनते थे।
खेतड़ी के ही एक परम विद्वान पंडित जी थे जिन्होंने स्वामी विवेकानंद को संस्कृत भाषा और संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराया था। उन्होंने ही स्वामी विवेकानंद को अनेक धर्म-शास्त्रों/ग्रंथों का अध्ययन करवाया था।
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जसरापुर के स्व.पंडित झाबरमल जी शर्मा को भी धन्यवाद देना चाहिए। विवेकानंद जी का सारा उपलब्ध साहित्य खेतड़ी ठिकाने के अभिलेखागारों में छिपा हुआ था, जिसे पंडित झाबरमल जी शर्मा ने विश्व के समक्ष उजागर किया। आज जो कुछ भी हम स्वामी विवेकानंद के बारे में जानते हैं, उसके पीछे पंडित झाबरमल जी शर्मा की तपस्या है।
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उस काल में पास ही के चिड़ावा नगर में अनेक बहुत बड़े विद्वान पंडित हुआ करते थे। उस समय चिड़ावा में पंडित स्नेही राम जी लाटा भी रहते थे, जो वेद-वेदांगों के प्रख्यात विद्वान थे। चिड़ावा के वचनसिद्ध महात्मा पंडित गणेशनारायण जी शर्मा भी उसी काल में थे। पता नहीं इन दोनों की कभी स्वामी विवेकानंद जी से भेंट हुई या नहीं। इस बारे में कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
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मैं रामकृष्ण मिशन के मंदिरों और आश्रमों में कुछ निजी कारणों से नहीं जाता। वहाँ माँ काली के साथ मदर टेरेसा का भी चित्र होता है। पूरा मिशन लगता है अमेरिकन ईसाईयों के प्रभाव में है। मैं इस संस्था का पूरा सम्मान करता हूँ, लेकिन मदर टेरेसा के चित्रों और संस्था के ईसाईकरण के कारण मेरी कोई रुचि इस संस्था में नहीं है। इस संस्था के सन्यासियों को मैंने मांस-मच्छी खाते हुए देखा है जो मेरी आस्था के विरुद्ध है। अतः उनमें मेरी कोई श्रद्धा नहीं है।
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कोई गलत बात मैंने लिखी है तो क्षमा चाहता हूँ। धन्यवाद। जयसियाराम !!
१३ जनवरी २०२३

बड़ी से बड़ी बात जो भगवान की परम कृपा से मैं लिख सकता हूँ, वह यह है कि ---

 बड़ी से बड़ी बात जो भगवान की परम कृपा से मैं लिख सकता हूँ, वह यह है कि -

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खुली आँखों से हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है; और बंद आँखों के अंधकार के पीछे दिखाई दे रही पूरी प्रकाशमय अनंतता -- हम स्वयं हैं; यह नश्वर शरीर नहीं। जहाँ तक भी हमारी कल्पना जाती है, और जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब परमात्मा है, और वही हम स्वयं हैं। हम में और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। हम यह नश्वर देह नहीं, परमात्मा के साथ एक हैं।
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हर साँस के साथ, और जब साँस नहीं चल रही तब भी हम परमात्मा के साथ उन की ज्योतिर्मय अनंतता हैं। पूरा स्पष्ट मार्गदर्शन भगवान ने गीता में और उपनिषदों में दिया है। उनको अपना सर्वश्रेष्ठ परम प्रेम दो। वे अपनी परम कृपा कर के सब कुछ समझा देंगे।
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इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। सब पर भगवान की परम कृपा हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३

प्रेम और सदाचार क्या है? ---

 प्रेम और सदाचार क्या है? ---

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हमारा प्रेम परमात्मा की उपस्थिति है। हम प्रेममय हो सकते हैं, लेकिन किसी को प्रेम नहीं कर सकते। हम कौन हैं कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा हैं। किसी को प्रेम करने का अधिकार सिर्फ परमात्मा को है। जैसे भगवान मार्तंड भुवन-भास्कर सूर्य अपना प्रकाश बिना किसी शर्त सब को देते हैं, वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त है। युद्ध भूमि में शत्रु का संहार भी हम प्रेम से ही करें, किसी तरह का क्रोध या घृणा उस समय हम में नहीं हो।
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परमात्मा में निरंतर रमण ही सद् आचरण यानि सदाचार है। जिसमें हमारी आत्मा निरंतर रमण कर सके उसका निज जीवन में आविर्भाव ही सदाचार है।
जो परमात्मा में निरंतर रमण करते हैं उन्हें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं है। उनके मुँह से जो निकल जाता है वही उपदेश है।
ॐ तत्सत् !!
१३ जनवरी २०२३

मकर संक्रांति की क्या शुभ कामना दूँ? मेरी हरेक साँस में संक्रांति है ---

 मकर संक्रांति की क्या शुभ कामना दूँ? मेरी हरेक साँस में संक्रांति है ---

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मैं साँस लेता हूँ तो वह मकर-संक्रांति है। साँस छोड़ता हूँ तो वह कर्क-संक्रांति है।
उत्तरायण और दक्षिणायण -- अब कहीं बाहर नहीं, मेरे इस शरीर में ही हरेक साँस के साथ घटित हो रहे हैं। मेरा सहस्त्रारचक्र -- उत्तर दिशा है; मूलाधारचक्र -- दक्षिण दिशा है; भ्रूमध्य -- पूर्व दिशा है; और आज्ञाचक्र -- पश्चिम दिशा है। सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी मेरा परिक्रमा पथ है।
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जब साँस लेता हूँ तब घनीभूत-प्राण (कुंडलिनी) मूलाधारचक्र से उठकर सब चक्रों को भेदते हुए, सहस्त्रारचक्र में आ जाते हैं, यह मकर संक्रांति है। जब साँस छोड़ता हूँ तब ये घनीभूत-प्राण (कुंडलिनी) उसी मार्ग से बापस मूलाधार-चक्र में चले जाते हैं। यह कर्क संक्रांति है। मैं इन का साक्षीमात्र हूँ। इन का रहस्य परम गोपनीय हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३
You, आचार्य सियारामदास नैयायिक, पं. अभिषेक जोशी and 69 others

मकर-संक्रांति - उर्ध्वगति का उत्सव और आत्मसूर्य की ओर प्रयाण है ---

 मकर-संक्रांति - उर्ध्वगति का उत्सव और आत्मसूर्य की ओर प्रयाण है; निरंतर सर्वव्यापी कूटस्थ-चैतन्य में रहें, जिसमें स्थिति ही ब्राह्मी-स्थिति है जिसका उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दिया है ---

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भ्रूमध्य में परमात्मा की अनंतता का ध्यान करें। स्वयं को सीमित न करें। जो कुछ भी हमें सीमित करता है, उसका उसी क्षण त्याग कर दें। बिना तनाव के भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, पूर्णखेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में, प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए, उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का गुरु महाराज के आदेशानुसार नित्य नियमित ध्यान करते रहें। शिवकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति एक न एक दिन ध्यान में प्रकट होगी। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय-ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ-चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उन्नत साधनाओं का आरंभ है। साधनाएँ गोपनीय हैं जिनकी चर्चा उन साधकों से ही हो सकती है, जिनका जीवन पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है।
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परमात्मा की कृपा से आगे के सब द्वार खुल जायेंगे। कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं रहेगा। भगवान हमारे से सिर्फ हमारा प्रेम माँगते हैं जो हम तभी दे सकेंगे जब हमारे में सत्यनिष्ठा होगी, अन्यथा नहीं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२३

हिन्दू समाज इस समय बिल्कुल भी सोया हुआ या असंगठित नहीं है ---

 हिन्दू समाज इस समय बिल्कुल भी सोया हुआ या असंगठित नहीं है। विश्व का सबसे अधिक जागृत समाज है। सिर्फ धर्म-शिक्षा का अभाव है, जिससे हिंदुओं को पहले तो अंग्रेजों व पूर्तगालियों ने, फिर काँग्रेस सरकार ने वंचित किया। अभी भी गुरुकुलों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त नहीं है, जब कि मदरसों व कॉन्वेंटों की शिक्षा को है। भारत का संविधान हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा का अधिकार सरकारी मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में नहीं देता, क्योंकि हमारा संविधान यथार्थ में बुहुविधान है, न कि संविधान (समान कानून और नीति-नियम)।

जब समान नागरिक संहिता लागू हो जाएगी तब हिन्दू समाज विश्व का हर दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ समाज होगा।
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अपराजेय हिन्दू समाज कभी पराजित हुआ तो अपनी सद्गुण-विकृति के कारण ही हुआ, न कि किसी अन्य कारण से। हम पानीपत का तीसरा युद्ध भी हारे तो अपनी सद्गुण-विकृति से हारे, न कि किसी अन्य कारण से। मेरा अब भी मानना है कि पानीपत के तीसरे युद्ध में यदि मराठा सेना जीतती तो भारत में अंग्रेजी राज्य कभी भी स्थापित नहीं हो सकता था। अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों को छल-कपट से हराकर ही उनसे छीनी थी, न कि धर्मयुद्ध से हराकर।
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भारत कभी भी पराधीन नहीं हुआ। भारत की पराधीनता का सारा इतिहास झूठा है। विदेशी शासकों ने भारत के कुछ शासकों के साथ मिलकर ही उनके सहयोग से भारत पर राज्य किया। (महान इतिहासकार प्रो.डॉ.रामेश्वर मिश्र पंकज, और प्रो.डॉ.कुसुमलता केडिया ने इसे अपने ऐतिहासिक ग्रंथों में सिद्ध किया है)
भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा।
वंदे मातरं।
१५ जनवरी २०२३

उपसंहार ---

 उपसंहार ---

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मेरी आध्यात्मिक आयु तो सिर्फ "एक" है जो "अनंतता" है। लेकिन सरकारी अभिलेखों के अनुसार मेरी लौकिक आयु ७६+ है। इसी क्षण से मैं अपना समय सिर्फ उन्हीं को दे सकता हूँ जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमात्मा का साक्षात्कार (आत्म-साक्षात्कार) है; जो नित्य कम से कम तीन घंटे भगवान की उपासना करते हैं, और दिन में निरंतर २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, परमात्मा की चेतना में रहते हैं। सभी सामाजिक संस्थाओं को और सामाजिक संपर्क भी ३१ मार्च २०२३ के पश्चात छोड़ रहा हूँ।
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मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ सारा ब्रह्मांड, सारी अनंतता, और सारी सृष्टि परमात्मा की उपासना करती है। मैं सारी सृष्टि के साथ एक हूँ। मैं और मेरे प्रभु एक हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जनवरी २०२३