भारत कभी निरक्षर नहीं था ......
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(लेखक :
Vinay Jha )
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लार्ड विलियम बेंटिक के समय जब लार्ड मैकॉले की नयी शिक्षा नीति प्रस्तुत
की गयी थी, उसी काल में बंगाल-बिहार की पारम्परिक शिक्षा पर एडम महोदय की
विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी थी जो मैंने पढ़ी है | इसमें स्पष्ट लिखा
है कि लड़कियों की शिक्षा के बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु लड़कों
के बारे में एडम महोदय का निष्कर्ष है कि उस प्रांत में कुल 150748 गाँवों
में लगभग एक लाख पाठशालाएं थीं | अतः दो तिहाई गाँवों में स्कूल थे |
अर्थात केवल छोटे गाँवों में ही स्कूल नहीं थे |
एडम महोदय के शब्दों
में पाठशाला जाने योग्य आयुवर्ग के सभी छात्रों की कुल अनुमानित संख्या को
ध्यान में रखने पर प्रत्येक "31 या 32 लड़कों पर एक स्कूल था" !! एडम महोदय
के पास विशुद्ध आंकड़े नहीं थे, किन्तु विभिन्न स्रोतों से उन्होंने जो
आंकड़े उपलब्ध किये वे लगभग विश्वसनीय थे | उनका निष्कर्ष था कि "निम्नतम
वर्गों में भी अपने लड़कों को शिक्षित करने की इच्छा मन में गहरी बैठी थी"
(मैंने शब्दशः अनुवाद किया है)| उनकी रिपोर्ट के पृष्ठ 19 में ये बातें
लिखी हैं , जो सिद्ध करते हैं कि सभी जातियों , यहाँ तक कि तथाकथित
जनजातियों और तथाकथित दलितों में भी लगभग शत-प्रतिशत साक्षरता थी, औरतों को
छोड़कर !! औरतों के बारे में आंकडें उपलब्ध नहीं थे, किन्तु एडम महोदय का
मत है कि पुरुषों से औरतें पीछे थीं | उस समय इंग्लैंड में भी औरतों की
साक्षरता पुरुषों से लगभग 20% - 25% कम थी |
मनोरंजक तथ्य यह है कि एडम
महोदय के अनुसार कलकत्ता में स्कूलों और छात्रों की संख्या आबादी के हिसाब
से देहातों की अपेक्षा बहुत कम थी (पृष्ठ 20) !! अर्थात जहाँ अंग्रेजी
सत्ता अधिक प्रभावी थी, वहाँ साक्षरता कम थी ! अब समझ में आ गया न कि भारत
में शिक्षा और साक्षरता का विनाश किन लोगों ने किया ? जिन्होंने शिक्षा का
विनाश किया उन्होंने ही प्रचार किया कि ब्राह्मण दूसरों को पढने नहीं देते
थे और ब्राह्मणों ने ही दलितों को हर अधिकारों से वंचित किया जिस कारण
अम्बेडकर को "सामाजिक तथा शैक्षणिक पिछड़ों" के लिए आरक्षण का अनुच्छेद
संविधान में जोड़ना पडा और मनुस्मृति जलानी पड़ी, जबकि एडम महोदय की रिपोर्ट
में शिक्षकों की जातियों और फीस आदि पर विस्तृत विवरण हैं |
कमाल की
बात है कि फारसी मदरसों की संख्या बहुत कम थी, जिससे स्पष्ट है कि अधिकाँश
मुस्लिम बच्चे भी ब्राह्मण शिक्षकों की पाठशालाओं में पढ़ते थे !
उदाहरणार्थ, एडम महोदय ने Dr Buchanan की रिपोर्ट (1808) को उद्धृत किया है
जिसमें दिनाजपुर के विशाल जिले के बारे में उल्लेख है कि आबादी में 70%
मुस्लिम थे किन्तु 9 फारसी मदरसे थे और 135 हिन्दू पाठशाला थे जिनमें 16
उच्च शिक्षा के लिए थे (पृष्ठ 76, एडम रिपोर्ट) !
एडम महोदय ने स्पष्ट
लिखा है कि दिव्य (वैदिक) विद्याएँ ब्राह्मण सबको नहीं देते थे | किन्तु
सांसारिक विद्याओं पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था |
उन्नीसवीं शती के आरम्भ तक साक्षरता लगभग 10% ही रह गयी थी, और वह भी मुख्यतः आधुनिक पद्धति वाले स्कूलों द्वारा ही |
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पहले यह तो प्रचारित करना चाहिए कि भारत निरक्षर नहीं था जैसा कि
अंग्रेजों ने बना दिया | बंगाल में एक लाख पाठशालाएं थीं तो देश में कितनी
होंगी ? जनसंख्या के हिसाब से छ-सात लाख, जो आज भी नहीं है ! कम से कम
दैनन्दिन का गणित और भाषा की पढ़ाई थी न !! आज तो बड़े बड़े वैज्ञानिकों और
गणित के प्रोफेसरों को देखता हूँ परचून की दूकान पर स्मार्टफ़ोन के
कैलकुलेटर पर हिसाब जोड़ते हुए | भूगोल के विद्वान हैं किन्तु अपने गाँव का
भूगोल नहीं जानते और न गाँवके लिए उनका ज्ञान किसी काम का है | इतिहासकार
हैं किन्तु अपने पाँच पुरखों का भी नाम नहीं जानते, अपने गाँव और समाज के
इतिहास में कोई रूचि नहीं | निपट मूर्ख हैं, कूड़ा-कर्कट दिमाग में ठूँसकर
विद्वान बनते हैं | इनसे बेहतर तो अनपढ़ लोग हैं जो श्रम करके खाते हैं,
गरीब देश में लाखों का वेतन नहीं लूटते | पादरी विलियम एडम की बाद वाली
रिपोर्टों में अधूरी और झूठी बातें जुड़वायी गयीं क्योंकि देशी पाठशालाओं को
बन्द कराने की मानसिकता ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बना ली थी, 1832 में ही
भारतीय विद्याओं से घृणा करने वाले लार्ड मैकॉले भारत सम्बन्धी मामलों पर
लन्दन में सबसे बड़े हाकिम बन गए थे |
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19 वीं
शताब्दी में (1857 के आसपास) मेरे गाँव में केशव चौधरी जी नाम के ब्राह्मण
बिना फीस के पाठशाला चलाते थे जिसमें सबको शिक्षा मिलती थी, किन्तु वैदिक
विद्याएँ केवल ब्राह्मणों को दी जाती थी | उस गाँव में तथाकथित दलित भी
बहुत से हैं | केशव चौधरी के बाद उनके शिष्य पशुपति ठाकुर जी ने पाठशाला का
प्रभार लिया | पशुपति ठाकुर जी घर से दूर गाँव की सीमा के बाहर एक
स्वनिर्मित मन्दिर पर रहते थे जहाँ उनका भोजन घरवाले पँहुचा देते थे | उनके
पाँचों पुत्र प्रोफेसर बने, बड़े पुत्र वाचस्पति ठाकुर जी BPSC (बिहार
पब्लिक सर्विस कमीशन) के अध्यक्ष बने, किन्तु पशुपति ठाकुर जी के
मरणोपरान्त संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना उनके शिष्यों ने की (उनके शिष्य
और ग्रामीण सांसद ने) ताकि हिन्दू पाठशाला की अति-प्राचीन परम्परा बन्द न
हो (उसी पाठशाला में पुरी गोवर्धन मठ के वर्तमान शंकराचार्य जी के दादा भी
पढ़ते थे जो मेरे ही ग्रामीण थे किन्तु सौ वर्ष पहले पास के गाँव में प्रवास
कर गए) | उस संस्कृत महाविद्यालय में प्राथमिक विद्यालय भी अन्तर्निहित था
(अभी भी है) | संस्कृत महाविद्यालय के प्रथम सचिव वाचस्पति ठाकुर जी थे और
वर्त्तमान सचिव मैं हूँ |
केशव चौधरी जी की अधिकाँश भूमि पर दलितों ने
कब्जा जमा लिया, कुछ भूमि दलितों से बचाने के लिए उनके वंशजों ने संस्कृत
महाविद्यालय को दान में दे दिया |
आज से चार वर्ष पूर्व उनके वंशज की
17 वर्ष की नाबालिग बच्ची का उन्हीं की भूमि पर बसने वाले एक दलित ने अपहरण
कर लिया | हमलोगों ने अपहर्ता को पुलिस से पकड़वाया, किन्तु हरिजन एक्ट के
भय से बच्ची के पिता ने मुकदमा नहीं किया | अपहर्ता का पिता दारू की अवैध
भट्ठी चलाता था जिसे लोगों ने बन्द कराया तो संस्कृत महाविद्यालय के ठीक
मुहाने पर शराब का ठेका खोल दिया जिसे मैंने बन्द कराया | उसने अपने बेटे
को सिखाया था कि कहीं से ब्राह्मणी पुतोहू ला दो, जितना पैसा चाहिए दूंगा !
बच्ची पिता के घर लौटी किन्तु दोबारा उसी दलित ने अपहरण कर लिया, जिसके
बाद उस बच्ची के पिता शर्म के मारे गाँव छोड़कर भाग गए |
केशव चौधरी जी
दलितों को न पढ़ाते और उनके पोते ने दलितों को बसने के लिए भूमि नहीं दी
होती तो आज केशव चौधरी का वंश बर्बाद और बदनाम न होता ! उन्हीं दलितों ने
संस्कृत महाविद्यालय को बन्द कराने के लिए कई बार हंगामा किया और दूर से
नक्सलों को भी बुलाया जिन्हें समझा कर मैंने विदाकर दिया और उनके स्थानीय
कम्युनिस्ट (CPI) मित्रों पर मुकदमा करके गिरफ्तारी का आदेश करा दिया | अब
इन लोगों को टीवी द्वारा अम्बेडकर की भी जानकारी मिल गयी है और अब उन्हें
सिखाया जा रहा है कि हज़ारों वर्षों से ब्राह्मणोंने उनका शोषण किया है और
पढने नहीं दिया | कम्युनिस्ट पार्टी का साथ कई ब्राह्मण भी दे रहे हैं |
पूरे देश का लगभग यही हाल रहा है |
एडम महोदय के काल में ही मद्रास और मुंबई प्रेसिडेंसियों में भी शिक्षा पर सर्वेक्षण हुआ था जिनके निष्कर्ष भी लगभग समान थे |
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तीस वर्ष पहले मैंने पढ़ा था कि 19वीं शती के मध्य में भारत में एक भी
खेतिहर मजदूर नहीं था, अंग्रेजों और जमींदारों की लूट-खसोट के कारण छोटे
किसान भूमिहीन होते गए जो आज़ादी के बाद भी जारी है, आज भी गरीब किसान या तो
मजदूर बनते हैं या आत्महत्या करते हैं | वह पुस्तक एक विद्यार्थी ने चुरा
ली, किन्तु दिल्ली में आज भी उपलब्ध है | लेखक (स्वर्गीय) ब्रिटिश
कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे किन्तु उच्च कोटि के बुद्धिजीवी थे ; उस
पुस्तक की खासियत थी कि अंग्रेजों और उनके भारतीय पिट्ठूओं (गान्धी-नेहरु
सहित) सबका भंडाफोड़ करने वाले मूल दस्तावेज लेखक ने छाप दिए जिस कारण
अंग्रेजों ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया था | ब्रिटिश राज के इतने
मूल दस्तावेज किसी दूसरी पुस्तक में नहीं मिलेंगे -- स्वर्गीय रजनी पाल्मे
दत्त की "India Today" जो आधुनिक भारतीय इतिहास पर महानतम ग्रन्थ है (इनकी
माँ स्वीडन के पाल्मे परिवार की थी जिसने स्वीडन को ओलोफ पाल्मे नाम का
प्रधानमन्त्री दिया था, और पिता बंगाली थे)| रजनी पाल्मे दत्त से वैचारिक
मतभेद रखने वाले भी न तो उनके दस्तावेजों को काट सकते हैं और न ही उनके
तर्कों को | उदाहरणार्थ, 1937 ईस्वी का नेहरु का वह पत्र इस पुस्तक में
प्रकाशित है जिसने कांग्रेस के उस समय के मित्र जिन्ना को पाकिस्तान की
माँग करने के सिवा कोई रास्ता नहीं छोड़ा , गान्धी जी का वह बयान छपा है
जिसमें उन्होंने 1946 के नौसेना विद्रोह का विरोध किया था, ब्रिटिश वाइसराय
का ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के नाम पत्र छपा है जिसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा
था कि नौसेना विद्रोह के बाद अब अंग्रेज भारत पर राज नहीं कर सकते, जिसे
पढ़ते ही ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने तत्क्षण घोषणा कर दिया कि भारत चाहे
या न चाहे अगस्त 1947 तक अंग्रेज भारत छोड़ देंगे | किन्तु हमें पढ़ाया जाता
है कि गान्धी-नेहरु के डर से अंग्रेज भाग गए !!
(1942 के आन्दोलन का
भी गान्धी-नेहरु ने नेतृत्व नहीं किया था, वे लोग तो जेल में आराम फरमा रहे
थे और बाहर लाखों लोगों पर ब्रिटिश हवाई जहाज बम बरसा रहे थे क्योंकि
दसियों हज़ार थानों से ब्रिटिश पुलिस और अफसरों को लोगों ने बलपूर्वक भगा
दिया था -- बहुत ही हिंसक आन्दोलन था जिसे अब कांग्रेस अहिंसक कहती है |
आन्दोलन का आरम्भ जिन लोगों ने किया वे लोग आजीवन कांग्रेस के विरोधी रहे
और 1947 तक केन्द्रीय कारागारों में बन्द या फरार रहे, किन्तु ब्रिटिश शासन
जब तक रहा तबतक वे लोग राष्ट्रीय आन्दोलन में एकता चाहते रहे जबकि सत्ता
के लिए गान्धी-नेहरु अंग्रेजों से सौदेबाजी कर रहे थे |)
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1868 ईस्वी में पुनः प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट की छायाप्रति मेरे पास है
जो 123 MB की फाइल है | यदि दूसरे लोग पढ़ना चाहें तो ले सकते हैं |
साभार : विनय झा