Thursday, 26 December 2019

जो चुनावों में वोट नहीं डालते वे हमारी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है .....

हमारी दुर्दशा के लिए मैं उन लोगों को जिम्मेदार मानता हूँ जो चुनावों में वोट नहीं डालते| उन लोगों के कारण ही हमारा लोकतंत्र विफल है| हिंदुओं में सिर्फ जो तथाकथित दलित वर्ग है, वह ही शत-प्रतिशत मतदान करता है| मुसलमान भी शत-प्रतिशत मतदान करते हैं| हिंदुओं में पचास प्रतिशत सवर्ण हिन्दू ही मतदान करते हैं, पचास प्रतिशत तो घर से बाहर ही नहीं निकलते| इसलिए सवर्ण हिंदुओं की कोई कीमत नहीं है|जिनके मत अधिक होते हैं, उनकी ही कद्र होती है| मुसलमानों का वोट बैंक है और दलितों का भी है, पर सवर्ण हिंदुओं का नहीं है|
लोकतंत्र मतदाताओं द्वारा, मतदाताओं के लिए, मतदाता का ही शासन होता है| राजनेताओं को भी इस बात का पता है कि सवर्ण हिंदुओं का कोई वोट बैंक नहीं है, इसलिए वे मुसलमानों का तुष्टीकरण करते है और दलितों की हर बात मान कर उनका आरक्षण बढ़ा देते हैं| सवर्ण हिन्दू सिर्फ शोर मचा कर ही रह जाते हैं| जब तक सवर्ण हिन्दू अपना वोट बैंक नहीं बढ़ाते तब तक उनकी कोई कद्र नहीं होगी|
कृपा शंकर
१० दिसंबर २०१९

मैं क्यों व कैसे जीवित हूँ? ......

मैं क्यों व कैसे जीवित हूँ? ......
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जन्म-मरण और जीवन .... ये सब मेरे वश में नहीं हैं| अब तक मैं यही सोचता था कि अनेक जन्मों के संचित कर्मफलों के प्रारब्ध को भोगने के लिए यह जीवन जी रहा हूँ| पर अब सारा परिदृश्य और धारणा बदल गई है| जिन्होंने इस समस्त सृष्टि की रचना की है वे माँ भगवती जगन्माता ही यह जीवन जी रही हैं| मेरे और इस संसार के मध्य की कड़ी .... ये सांसें हैं| यह जगन्माता का सबसे बड़ा उपहार है| जिस क्षण ये साँसें चलनी बंद हो जाएंगी, उसी क्षण इस संसार से सारे संबंध टूट जाएँगे|
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ये साँसें चल रही हैं जगन्माता के अनुग्रह से| इन दो साँसों के पीछे का रहस्य भी भगवती की कृपा से मुझे पता है कि कैसे प्राणशक्ति इस देह में प्रवेश कर संचारित हो रही है और कैसे उसकी प्रतिक्रया से ये साँसें चल रही हैं| ये सांस कोई क्रिया नहीं, प्राणशक्ति के संचलन की प्रतिक्रिया है| इस प्राण का स्त्रोत और अंत कहाँ है, यह रहस्य भी स्पष्ट है| जिस क्षण जगन्माता की प्राणशक्ति का यह संचलन रुक जाएगा, उसी क्षण ये साँसें भी रुक जाएँगी और यह देह निष्प्राण हो जाएगी|
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कई रहस्य हैं जो जगन्माता के अनुग्रह से ही अनावृत होते हैं| वे रहस्य रहस्य ही रहें तो ठीक है| आप सब को नमन| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ दिसंबर २०१९

जबतक हम प्रकाशमान हैं, पूरी समष्टि ही प्रकाशमान है ....

सारी सृष्टि का अंधकार मिलकर भी एक छोटे से दीपक के प्रकाश को नहीं बुझा सकता| चारों ओर से प्राप्त हो रहे नकारात्मक समाचारों को पढ़कर मन लगभग पक्का मान लेता है कि समय बुरा है, विश्व-देश-समाज की स्थिति बुरी है| किन्तु ऐसा नहीं है| भगवान वासुदेव सर्वत्र हैं, उन का ध्यान करो|
>>>>> जबतक हम प्रकाशमान हैं, पूरी समष्टि ही प्रकाशमान है <<<<<
अपने कूटस्थ चैतन्य को ज्योतिर्मय परमात्मा की दिव्य ज्योति से आलोकित रखें| जब भी समय मिले, अपने चैतन्य में ओंकार के रूप में निरंतर प्रवाहित हो रही परमात्मा की वाणी को सुनें| हम आलोकमय होंगे तो पूरी सृष्टि आलोकित होगी| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ दिसंबर २०१९

हमारा युद्ध 'अधर्म' से है .....

हमारा युद्ध 'अधर्म' से है| हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारा भ्रष्ट आचरण है| हमारे भ्रष्ट आचरण के कारण ही पर्यावरण का प्रदूषण है| हमारी सारी समस्याओं के पीछे हमारा लोभ और अहंकार है| यह लोभ और अहंकार ही हिंसा की जननी है| हर कदम पर हमें घूसखोरी, बेईमानी, मिलावट, ठगी, झूठ, कपट, कुटिलता, परस्त्री/पुरुष व पराए धन की कामना ..... आदि दिखाई दे रही है, यह सत्य पर असत्य की विजय है|
अब मेरी आस्था सिर्फ परमात्मा में ही रह गई है, इस संसार से मैं निराश हूँ| आजकल लोग भगवान से प्रार्थना भी अपने झूठ, कपट और बेईमानी में सिद्धि के लिए करते हैं| लोग धर्म की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, पर अधर्म एक शिष्टाचार बन गया है| भारत की सबसे बड़ी समस्या और असली युद्ध अधर्म से है, जिसे हम ठगी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बेईमानी कहते हैं| अन्य समस्यायें गौण हैं| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१९

गीता जयंती पर सभी को शुभ कामनाएँ, अभिनंदन व नमन ....

गीता जयंती पर सभी को शुभ कामनाएँ, अभिनंदन व नमन ....
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गीता की सैंकड़ों टीकाएँ हैं| हर टीकाकार ने अपने अपने दृष्टिकोण व मान्यताओं के अनुसार गीता जी की अलग अलग टीका की है| किन्हीं भी दो टीकाओं में समानता नहीं है| गीता का ज्ञान देते समय भगवान श्रीकृष्ण के मन में क्या था यह तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही बता सकते हैं| हम उनकी कृपा के पात्र बनें और उन्हीं की चेतना में रहें| गीता का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण से ही प्राप्त हो| हम इस योग्य बनें|
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गीता पर मुझे सबसे प्रिय तो शंकर भाष्य है| फिर उसके बाद श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की परंपरा में ..... भूपेन्द्रनाथ सान्याल, स्वामी प्रणवानन्द, व परमहंस स्वामी योगानन्द की लिखी टीकायें पसंद हैं| लखनऊ के रामतीर्थ प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित गीता की टीका भी बहुत ही अच्छी है| इन के अलावा भी दस-बारह विद्वानों की लिखी टीकाओं का अवलोकन किया है जो मेरे पास हैं|
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अब किसी भी टीका या भाष्य के स्वाध्याय की कोई अभिलाषा नहीं है| प्रत्यक्ष परमात्मा के साक्षात्कार की ही अभीप्सा है|
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अपना कर्ताभाव यदि हम भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दें और स्वयं एक निमित्त मात्र बन कर उपासना करें तो सब कुछ समझ में आ जाएगा| यदि हम इस रथ का सारथी स्वयं भगवान पार्थसारथी को बनायेंगे तो वे स्वयं ही हमारे स्थान पर रथी बन जाएँगे, और शनैः शनैः यह रथ भी वे ही बन जाएँगे| दूसरे शब्दों में इस नौका के कर्णधार भी वे हैं, और यह नौका भी वे ही हैं| इस विमान के पायलट भी वे हैं और यह विमान भी वे ही हैं|
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१९

बिना परमात्मा की चेतना के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है .....

बिना परमात्मा की चेतना के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है .....
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चैतन्य में सिर्फ परमात्मा हों| उनके किस रूप की उपासना करें इसका निर्णय उपासक स्वयं करे| सब रूप उन्हीं के हैं व सारी सत्ता भी उन्हीं की है| परमात्मा से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं हो| किसी भी तरह की निरर्थक टीका-टिप्पणी वालों से कोई मतलब न हो, और न ही आत्म-घोषित ज्ञानियों से| तरह तरह के लोग मिलते हैं, जो एक नदी-नाव का संयोग मात्र है, उससे अधिक कुछ भी नहीं| भूख-प्यास, सुख-दुःख, शीत-उष्ण, हानि-लाभ, मान-अपमान और जीवन-मरण ..... ये सब इस सृष्टि के भाग हैं जिनसे कोई नहीं बच सकता| इनसे हमें प्रभावित भी नहीं होना चाहिए| ये सब सिर्फ शरीर और मन को ही प्रभावित करते हैं| देह और मन की चेतना से ऊपर उठने के सिवा कोई अन्य विकल्प हमारे पास नहीं है| चारों ओर छाए अविद्या के साम्राज्य से हमें बचना है और सिर्फ परमात्मा के सिवाय अन्य किसी भी ओर नहीं देखना है| नित्य आध्यात्म में ही स्थित रहें, यही हमारा परम कर्तव्य है| स्वयं साक्षात् परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं, कुछ भी हमें नहीं चाहिए| यह शरीर रहे या न रहे इसका भी कोई महत्व नहीं है| बिना परमात्मा के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है|
७ दिसंबर २०१९

रहस्यों का रहस्य .....

रहस्यों का रहस्य .....
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यह सारी सृष्टि परमात्मा परमशिव और पराशक्ति की कल्पना, अभिव्यक्ति और एक खेलमात्र है| सारी लीला वे ही खेल रहे हैं| हम तो उन के एक उपकरण और निमित्त मात्र हैं| जो भी दायित्व हमें परमात्मा ने दिया है वह हमें अपने पूर्ण मनोयोग से परमात्मा को ही कर्ता मानकर करना चाहिए| आधे-अधूरे मन से कोई काम न करें| हर काम पूरा मन लगाकर यथासंभव पूर्णता से करें| हमारे किसी भी कार्य में प्रमाद और दीर्घसूत्रता न हो| परमात्मा को स्वयं के माध्यम से कार्य करने दें|अपनी आध्यात्मिक साधना भी निमित्त मात्र होने के भाव से करें| भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||"
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अपने माध्यम से सारा कार्य परमात्मा को करने दें| एक अकिंचन साक्षी की तरह रहें, उस से अधिक कुछ भी नहीं| महासागर के जल की एक बूंद, जो प्रचंड विकराल लहरों की साक्षी है, महासागर से मिलकर स्वयं भी महासागर हो सकती है| नारायण नारायण नारायण !
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हर जीव की देह के भीतर एक परिक्रमा-पथ है जिस पर प्राण-तत्व के रूप में वे जगन्माता भगवती स्वयं विचरण कर रही हैं| इस प्राण-तत्व ने ही सारी सृष्टि को चैतन्य कर रखा है| जिस जीव के परिक्रमा-पथ पर प्राण-तत्व अवरुद्ध या रुक जाता है, उसी क्षण उस की देह निष्प्राण हो जाती है|
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हर जीवात्मा परमशिव का ही एक अव्यक्त रूप है, जिसे एक न एक दिन क्रमशः व्यक्त होकर परमशिव में ही मिल जाना है| यही चौरासी का चक्र है| वे परमशिव हमारे ज्योतिर्मय अनंताकाश में सर्वव्यापी सूर्यमण्डल के मध्य में देदीप्यमान हैं| हम उनके साथ नित्यमुक्त और एक हैं पर इस लीलाभूमि में उनसे बिछुड़े हुए हैं|
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"जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।"
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"आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।
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धर्मस्य तत्वम् निहितं गुहायाम्, धर्म का तत्व तो निविड़ अगम्य गुहाओं में छिपा हुआ है, पर जगन्माता उसे करुणावश सुगम भी बना देती है| सुगम ही नहीं, उसे स्वयं प्रकाशित भी कर देती हैं| यह उनका अनुग्रह है| यह अनुग्रह सभी पर हो|
आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०१९

हृदय रोग से बचाव:-----

हृदय रोग से बचाव:-----
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(१) चिंतामुक्त जीवन तो जीना ही होगा| (२) नित्य प्रातः उठते ही हल्के गर्म पानी में आधा नीबू निचोड़ कर, एक चम्मच शहद, और एक चम्मच सेव का सिरका (Apple Cider Vinegar) मिला कर पीना चाहिए| (३) दिन में एक या दो लहसुन, थोड़ी सी अदरक, लगभग दस ग्राम अलसी, और एक अनार नित्य खाना चाहिए| (४) रात्री में सोने से पहिले अर्जुन की छाल का काढ़ा पीना चाहिए| अर्जुन की छाल को दूध में भी उबाल सकते हैं| अर्जुन की छाल के साथ थोड़ी सी दालचीनी भी हो तो यह काढ़ा अधिक प्रभावशाली होगा| (४) चीनी, नमक, मैदा, मावा और घी का प्रयोग कम से कम हो| (५) नित्य आधा घंटा खुली हवा में तेजी से घूमना भी चाहिए| (६) यह हृदय रोग का रामबाण इलाज है| इस से हृदयाघात (heart attack) से पूरी तरह बचाव होता है|

मंदिरों में आरती के समय घंटे-घड़ियाल-टाली-शंख आदि क्यों बजाते हैं? ....

मंदिरों में आरती के समय घंटे-घड़ियाल-टाली-शंख आदि बजाना पूर्णतः एक वैज्ञानिक विधि है जो भक्ति को जागृत करती है| मैं जो लिख रहा हूँ वह अपने प्रत्यक्ष अनुभवों से लिख रहा हूँ, किसी की नकल नहीं कर रहा| जो नियमित ध्यान साधना करते हैं, और जिन्होने प्राचीन भक्ति साहित्य का अध्ययन किया है, वे मेरी बात को बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं| यही बात अनेक संत-महात्मा-योगियों द्वारा लिखी गई है जिस का भक्ति साहित्य में बहुत अच्छा और स्पष्ट वर्णन है| लगभग चालीस वर्ष पूर्व मैंने भक्ति साहित्य में से ढूंढ ढूंढ कर इन्हीं बातों का एक संकलन भी किया था जो अब पता नहीं कहाँ खो गया| पर वे बातें मेरे स्मृति में हैं, जिनको मैंने अनुभूत भी किया है|
भक्ति का स्थान हमारी सूक्ष्म देह में अनाहत चक्र है| अनाहत चक्र का स्थान मेरुदंड में पीछे की ओर Shoulder Blades यानि कंधों के नीचे जो पल्लू हैं, उनके मध्य में है| ध्यान साधना में गहराई आने पर विभिन्न चक्रों में विभिन्न ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, जैसे मूलाधार में भ्रमर गुंजन, स्वाधिष्ठान में बांसुरी, मणिपुर में वीणा, और अनाहत चक्र में घंटे-घड़ियालों-नगाड़े-टाली-शंख आदि की मिश्रित ध्वनि| इस ध्वनि पर ध्यान करने से हृदय में भक्ति जागृत होती है| इसी की नकल कर के मंदिरों में आरती के समय ये बाजे बजाने की परंपरा का आरंभ हुआ| यह ध्वनि सीधे अनाहत चक्र को आहत करती है जहाँ भक्ति का स्थान है| इनसे भक्ति जागृत होती है|
फिर सिर भी स्वतः ही झुक जाता है और हाथ जुड़कर भ्रूमध्य को स्पर्श करने लगते हैं| भ्रूमध्य से ठीक सामने पीछे की ओर Medulla (मेरुशीर्ष) में आज्ञाचक्र है जहाँ जीवात्मा का निवास है| भ्रूमध्य से अँगूठों का स्पर्श होते ही अंगुलियों में एक सूक्ष्म ऊर्जा बनती है और सामने प्रतिष्ठित देवता को निवेदित हो जाती है| हाथ जोड़कर नमस्कार करने के पीछे भी यही विज्ञान है|
इस विषय पर लिखने को बहुत कुछ है पर विषय लंबा न हो इसलिए फिर कभी लिखूंगा| आप सब को नमन !
ॐ तत्सत |
६ दिसंबर २०१९

जगन्माता के एक स्तोत्र "श्रीललिता सहस्त्रनाम" का परिचय ....

जगन्माता के एक स्तोत्र "श्रीललिता सहस्त्रनाम" का परिचय ......
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भारतीय दर्शन में परमात्मा की "परम पुरुष" के रूप में ही नहीं, "जगन्माता" के रूप में भी आराधना होती है| जगन्माता के सैंकड़ों स्तोत्र हैं, पर जिन्हें संस्कृत भाषा का थोड़ा सा भी ज्ञान है, उनके लिए काव्यात्मक और आध्यात्मिक दृष्टि से जगन्माता का सर्वाधिक प्रभावशाली स्तोत्र "श्रीललिता सहस्रनाम" है| यह ब्रह्माण्ड पुराण का अंश है| ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तर खण्ड में "ललितोपाख्यान" के रूप में भगवान हयग्रीव और महामुनि अगस्त्य के संवाद के रूप में इसका विवेचन मिलता है| कुछ भक्त इसकी रचना का श्रेय लोपामुद्रा को देते हैं जो अगस्त्य ऋषि की पत्नी थीं| जो भी हो यह स्तोत्र उतना ही शक्तिशाली है जितना "विष्णु सहस्त्रनाम" या "शिव सहस्त्रनाम" है|
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इसको समझकर सुनते ही कोई भी निष्ठावान साधक स्वतः ही ध्यानस्थ हो जाएगा| ध्यान साधना से पूर्व इस स्तोत्र को सुनने या पढ़ने से बड़ी शक्ति मिलती है| किसी भी भक्त की अंतर्चेतना पर इसके अत्यधिक प्रभावशाली मन्त्रों का सकारात्मक प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है|
इसकी प्रथम पंक्ति है .....
"श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी, चिद्ग्निकुण्डसम्भूता देवकार्यसमुद्यता"
इसका भावार्थ होगा .....
श्रीमाता :---- सबका आदि उत्स एवं पालन करने वाली शक्ति|
श्रीमहाराज्ञी :---- शास्त्रों में जो राजाओं का वर्णन है उसके अनुसार इंद्रियों का राजा मन, मन का श्वास , श्वास का लय एवं लय का नाद| नाद सबका राजा| उसका स्त्रीलिंग करें तो राज्ञी| श्री महाराज्ञी अर्थात आदि सृष्टि की महान निस्पन्द निःशब्दता की अधिष्ठात्री|
श्रीमत सिंहासनेश्वरी :---- सब तत्त्वों से ऊपर जो तत्त्व है उसके ऊपर विराजने वाली| (सौंदर्य लहरी में "सुधा सिन्धोर्मध्ये ......" मंत्र देखें)
चिदग्नि कुण्ड संभुता :---- चेतना कुंड से प्रकट होने वाली ।
दो त्रिकोणाकार अग्नि कुण्ड हैं .... एक मूलाधार में, जिसका वर्णन कुंडलिनी ध्यान तथा नारायण सूक्त में आता है| दूसरा सहस्रार का मूल त्रिकोण| सहस्रार के त्रिकोण से प्रकट होकर सृष्टि करती हुई मूलाधार के त्रिकोण में सोती है|
देव कार्य समुद्यता :---- शरीर में ईश्वरीय शक्ति के कारण जो क्रियाएं होती हैं वो जो करवाती हैं|
यहाँ पर ध्वनि, ज्योति एवं स्पन्दन का संकेत दिखता है .....
श्री महाराज्ञी से ध्वनि, श्रीमत सिंहासनेश्वरी से स्पन्दन और चिदग्नि..... से ज्योति|
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श्रीविद्या के आचार्य अगस्त्य ऋषि हैं| वे सारे तंत्रागमों के भी आचार्य हैं, जैसे शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि, और भक्तिसूत्रों के आचार्य देवर्षि नारद हैं| आदि शंकराचार्य (आचार्य शंकर) श्रीविद्या के उपासक थे| आचार्य शंकर ने तत्कालीन अनेक मतों का खंडन किया था अतः तांत्रिक कापालिकों की अभिचार क्रिया से उन्हें भयंकर शारीरिक पीड़ा हो गई| उनका पूरा शरीर रोगग्रस्त हो गया| तब उन्होने सौ श्लोकों की रचना कर त्रिपुरसुंदरी राजराजेश्वरी श्रीललिता की आराधना की, जिससे वे तत्काल पूर्ण स्वस्थ हो गए| वे श्लोक "सौंदर्य लहरी" के नाम से प्रसिद्ध हैं| श्रीविद्या के गूढ़तम और सर्वाधिक प्रभावशाली मंत्र इन श्लोकों में छिपे हुए हैं| आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम दीक्षा है, जिसके बाद और कोई दीक्षा नहीं दी जाती| इसे किसी अधिकृत आचार्य से ही सीख कर साधना करनी चाहिए, पुस्तकें पढ़कर नहीं| यह लेख एक परिचयात्मक लेख ही है|
(पुनश्च :-- आचार्य शंकर को अद्वैत दर्शन का आचार्य कहा जाता है जो गलत है| अद्वैत दर्शन को प्रतिपादित किया था आचार्य गौड़पाद ने जो आचार्य शंकर के गुरु आचार्य गोविंदपाद के गुरु थे|)
ॐ तत्सत् ||
५ दिसंबर २०१९ 

कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....

कूटस्थ चैतन्य में रहो, कूटस्थ चैतन्य में रहो, और कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....
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यह मेरी सीमित और अल्प बुद्धि के अनुसार सबसे बड़ी साधना है| इस से बड़ी कोई अन्य साधना नहीं है| इसका अर्थ बहुत अच्छी तरह से समझाया जा चुका है| हम अपना पूर्ण प्रेम भगवान को देंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) भी स्वतः ही भगवान का हो जाएगा| भगवान हमारे से हमारा रुपया-पैसा नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ हमारा प्रेम ही मांग रहे हैं| प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है| प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है| प्रेम के बदले में भगवान स्वयं को ही दे रहे हैं| इससे अधिक और है ही क्या?
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
अर्थात (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो मुझे नमस्कार करो इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे||
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो| (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ, (क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो||
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गीता में आध्यात्म के सबसे बड़े, बड़े से बड़े रहस्य छिपे हुए हैं जो बुद्धि की समझ से परे हैं| वे भगवान की परम कृपा से ही समझ में आते हैं| अपनी कृपा वे उन्हीं पर करते हैं, जो उन्हें प्रेम करते हैं| गीता भारत का प्राण है| भगवान वासुदेव की परम कृपा सब पर हो|
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव |
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव ||
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०१९

जब कृपा होय रघुनाथ की बाल न बांका होय .....

"जितने तारे गगन मे उतने शत्रु होंय, जब कृपा होय रघुनाथ की बाल न बांका होय||"
भय की क्या बात है? भगवान श्रीराम स्वयं हमारी रक्षा कर रहे हैं| वाल्मीकि रामायण में उनका दिया हुआ वचन है ....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(६/१८/३३)
अर्थात जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ’‒यह मेरा व्रत है|
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ऐसे ही वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण का शरणागत कभी इस संसार-बंधन में बापस नहीं आ सकता| चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाए, यदि गीता वाले वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण हृदय में हैं तो कोई किसी का कुछ भी नहीं बिगड़ सकता| उस महाविनाश के मध्य में भी निर्भय खड़े होकर हम कह सकते हैं....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
भगवान वासुदेव हम सब की रक्षा करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९

हे पुरोहितो, इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो .....

हे पुरोहितो, इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो .....
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'पुरोहित' शब्द का अर्थ है जो इस पुर का हित करता है| प्राचीन भारत में जिन ब्राह्मणों को पुरोहित कहते थे वे राष्ट्र का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की व्यवस्था करते थे| पुरोहित में चिन्तक और साधक दोनों के गुण होते हैं, जो सही परामर्श दे सकें| एक वैदिक मंत्र है .....
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ..... (यजुर्वेद ९:२३)
अर्थात् "हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत ओर जाग्रत बनाए रखेंगे"|
ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है ....
"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् | होतारं रत्नधातमम् ||"
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उपरोक्त मंत्र का आध्यात्मिक अर्थ तो मैं नहीं लिख सकता क्योंकि वह बहुत गहन और लंबा है और उसे कोई पढ़ेगा भी नहीं| पर भौतिक अर्थ आंशिक रूप से समझाया जा सकता है|
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इस पृथ्वी के देवता अग्नि हैं| भूगर्भ में जो अग्नि रूपी ऊर्जा (geothermal energy) है, उस ऊर्जा, और सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन है| वह अग्नि ही हमें जीवित रखे हुए है| इस पृथ्वी से हमें जो भी धातुएं और रत्न प्राप्त होते हैं वे इस भूगर्भीय अग्नि रूपी ऊर्जा से ही निर्मित होते हैं| अतः यह ऊर्जा यानी अग्निदेव ही इस पृथ्वी के पुरोहित हैं|
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ऊर्जा को ही अग्नि का नाम दिया हुआ है| हमारे विचारों और संकल्प के पीछे भी एक ऊर्जा है| ऐसे ऊर्जावान व्यक्तियों को ही हम पुरोहित कह सकते हैं जो अपने संकल्पों, विचारों व कार्यों से हमारा हित करने में समर्थ हों|
ऐसे लोगों को ही मैं निवेदन करता हूँ कि वे इस राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९

हमारा एकमात्र संबंधी हमारा 'आत्म-तत्व' है, यह 'आत्म-तत्व' ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है .....

हमारा एकमात्र संबंधी हमारा 'आत्म-तत्व' है, यह 'आत्म-तत्व' ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है .....
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मेरी आस्था 'कूटस्थ परमात्मा' में है| 'कूटस्थ चैतन्य' में अब उनकी कृपा से किसी भी तरह का कोई आध्यात्मिक संशय या रहस्य नहीं रहा है| गुरुकृपा से सारे आंतरिक द्वार खुले हैं, प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं है| जब मुझ जैसे अकिंचन, साधनहीन, अशिक्षित, सामान्य से भी बहुत कम सामान्य व्यक्ति पर भगवान कृपा कर सकते हैं, तो आप तो बहुत बड़े बड़े साधन-सम्पन्न, उच्च-शिक्षित और प्रबुद्ध लोग हैं| अपने जीवन का केन्द्रबिन्दु परमात्मा को बनाइये| निश्चित रूप से सभी पर भगवान की कृपा होगी|
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यह "कूटस्थ" शब्द बहुत प्यारा है| भगवान श्रीकृष्ण ने इस शब्द का प्रयोग गीता में किया है| भगवान सर्वत्र हैं पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, इसलिए वे 'कूटस्थ' हैं| वे योगी जो दिन-रात भगवान का ध्यान करते हैं, अपने ध्यान में सहस्त्रार व ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर दिखाई देने वाले अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म व अनंत में सुनाई दे रहे नादब्रह्म को 'कूटस्थ' कहते हैं| वे इन्हीं पर ध्यान करते हैं| भगवान वास्तव में 'कूटस्थ' हैं| वे हमारे सभी सामाजिक सम्बन्धों में भी व्याप्त हैं| हमारा एकमात्र संबंध परमात्मा से है| माता-पिता के रूप में भी भगवान ने हमें प्रेम किया है, भाई-बहिनों, सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में भी भगवान आये हैं, और सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान ही है, और हम भी वही हैं| भगवान की यह चेतना ही 'कूटस्थ चैतन्य' कहलाती है|
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और भी स्पष्टता से कहें तो हमारा असली सम्बन्धी हमारा "आत्म-तत्व" ही है| वही 'प्रत्यगात्मा' है| भगवान ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, प्रतीत होने वाले अन्य सब उसी के रूप हैं| भगवान को उपलब्ध होने के अतिरिक्त अन्य सब कामनाएँ हमें त्यागनी होंगी, तभी हम इस सत्य को समझ पायेंगे| ये भगवान ही हैं जो इस "मैं" में भी व्यक्त हो रहे हैं| पृथकता का आभास ही 'आवरण' है जो हमें सत्य को समझने नहीं देता| इस सत्य से परे जाने का आकर्षण ही 'विक्षेप' है| यह आवरण और विक्षेप ही भगवान की 'माया' है जो उनकी कृपा से ही हमारा पीछा छोड़ती हैं| इन आवरण और विक्षेप का प्रभाव दूर होने पर ही भगवान का बोध होता है|
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भगवान हैं, यहीं पर हैं और सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, और सर्वदा रहेंगे| सभी पर उन की कृपा हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९