हमारा एकमात्र संबंधी हमारा 'आत्म-तत्व' है, यह 'आत्म-तत्व' ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है .....
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मेरी आस्था 'कूटस्थ परमात्मा' में है| 'कूटस्थ चैतन्य' में अब उनकी कृपा से किसी भी तरह का कोई आध्यात्मिक संशय या रहस्य नहीं रहा है| गुरुकृपा से सारे आंतरिक द्वार खुले हैं, प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं है| जब मुझ जैसे अकिंचन, साधनहीन, अशिक्षित, सामान्य से भी बहुत कम सामान्य व्यक्ति पर भगवान कृपा कर सकते हैं, तो आप तो बहुत बड़े बड़े साधन-सम्पन्न, उच्च-शिक्षित और प्रबुद्ध लोग हैं| अपने जीवन का केन्द्रबिन्दु परमात्मा को बनाइये| निश्चित रूप से सभी पर भगवान की कृपा होगी|
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यह "कूटस्थ" शब्द बहुत प्यारा है| भगवान श्रीकृष्ण ने इस शब्द का प्रयोग गीता में किया है| भगवान सर्वत्र हैं पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, इसलिए वे 'कूटस्थ' हैं| वे योगी जो दिन-रात भगवान का ध्यान करते हैं, अपने ध्यान में सहस्त्रार व ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर दिखाई देने वाले अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म व अनंत में सुनाई दे रहे नादब्रह्म को 'कूटस्थ' कहते हैं| वे इन्हीं पर ध्यान करते हैं| भगवान वास्तव में 'कूटस्थ' हैं| वे हमारे सभी सामाजिक सम्बन्धों में भी व्याप्त हैं| हमारा एकमात्र संबंध परमात्मा से है| माता-पिता के रूप में भी भगवान ने हमें प्रेम किया है, भाई-बहिनों, सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में भी भगवान आये हैं, और सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान ही है, और हम भी वही हैं| भगवान की यह चेतना ही 'कूटस्थ चैतन्य' कहलाती है|
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और भी स्पष्टता से कहें तो हमारा असली सम्बन्धी हमारा "आत्म-तत्व" ही है| वही 'प्रत्यगात्मा' है| भगवान ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, प्रतीत होने वाले अन्य सब उसी के रूप हैं| भगवान को उपलब्ध होने के अतिरिक्त अन्य सब कामनाएँ हमें त्यागनी होंगी, तभी हम इस सत्य को समझ पायेंगे| ये भगवान ही हैं जो इस "मैं" में भी व्यक्त हो रहे हैं| पृथकता का आभास ही 'आवरण' है जो हमें सत्य को समझने नहीं देता| इस सत्य से परे जाने का आकर्षण ही 'विक्षेप' है| यह आवरण और विक्षेप ही भगवान की 'माया' है जो उनकी कृपा से ही हमारा पीछा छोड़ती हैं| इन आवरण और विक्षेप का प्रभाव दूर होने पर ही भगवान का बोध होता है|
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भगवान हैं, यहीं पर हैं और सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, और सर्वदा रहेंगे| सभी पर उन की कृपा हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९