(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत). हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? ....
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एक शाश्वत् प्रश्न है कि हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर मैं अपनी भाषा में यदि सरलतम और स्पष्टतम शब्दों में देना चाहूँ तो इसका एक ही उत्तर है, और वह यह है कि हमारे में निष्ठा यानि ईमानदारी की कमी है| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान नहीं हैं, हम स्वयं को ठगना चाहते हैं और स्वयं के द्वारा ही ठगे जा रहे हैं| किसी भी सांसारिक उपलब्धी के लिए तो हम दिन रात एक कर देते हैं, हाडतोड़ परिश्रम करते हैं, पर जो उच्चतम उपलब्धी है वह हम सिर्फ ऊँची ऊँची बातों के शब्दजाल से ही प्राप्त करना चाहते हैं|
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वास्तविकता तो यह है की हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम सिर्फ सांसारिक सुखों को, सांसारिक उपलब्धियों को और अधिक से अधिक अपने अहंकार की तृप्ति के लिए ही भगवान की विभूतियों को प्राप्त करना चाहते हैं| हमारे लिए भगवान एक माध्यम है, पर लक्ष्य तो संसार है| यानि साध्य तो संसार है और भगवान एक साधन मात्र| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही ऐसा होता है जो परमात्मा को पाना चाहता है|
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प्राचीन भारत एक अपवाद था| यहाँ की सनातन संस्कृति ही विकसित हुई परमात्मा यानि ब्रह्म को पाने का ही लक्ष्य बनाकर| यहाँ की संस्कृति में सम्मान हुआ तो ब्रह्मज्ञों का ही हुआ| जीवात्मा का उद्गम जहाँ से हुआ है, वहाँ अपने स्त्रोत में उसे बापस तो जाना ही पड़ेगा चाहे लाखों जन्म और लेने पड़ें| तभी जीवन चक्र पूर्ण होगा| इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत सारा सद्साहित्य इस विषय पर उपलब्ध है| अनेक संत महात्मा हैं जो निष्ठावान मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन करते रहते हैं| अतः और लिखने की आवश्यकता नहीं है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति अवश्य होती है| कई बार अनुभूति ना होने पर भी ताप तो मिलता ही है| वैसे ही जब भी हम परमात्मा का स्मरण या ध्यान करते हैं तो उनके अनुग्रह की प्राप्ति अवश्य होती है| परमात्मा को पाने का मार्ग है अहैतुकी (Unconditional) परम प्रेम| प्रेम में कोई माँग नहीं होती, मात्र शरणागति और समर्पण होता है| प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण हो तो और कुछ भी नहीं चाहिए| सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| जो लोग सेवानिवृत है उन्हें तो अधिक से अधिक समय नामजप और ध्यान में बिताना चाहिए| सांसारिक नौकरी में अपना वेतन प्राप्त करने के लिए दिन में कम से कम आठ घंटे काम करना पड़ता है| व्यापारी की नौकरी तो चौबीस घंटे की होती है| कुछ समय भगवान की नौकरी भी करनी चाहिए| जब जगत मजदूरी देता है तो भगवान क्यों नहीं देंगे? उनसे मजदूरी तो माँगनी ही नहीं चाहिए| माँगना ही है तो सिर्फ उनका प्रेम; प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं| प्रेम को ही मजदूरी मान लीजिये| एक बात का ध्यान रखें ..... मजदूरी उतनी ही मिलेगी जितनी आप मेहनत करोगे| बिना मेहनत के मजदूरी नहीं मिलेगी| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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सार : हमें परमात्मा की प्राप्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान यानि ईमानदार नहीं हैं| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए भक्ति का झूठा दिखावा करते हैं| अपनी मानसिक कल्पना से और झूठे शब्द जाल से स्वयं को ठग रहे हैं| हमने परमात्मा को तो साधन बना रखा है, पर साध्य तो संसार ही है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को पुनश्चः प्रणाम| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ श्रीगुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
११ अप्रेल २०१५
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एक शाश्वत् प्रश्न है कि हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर मैं अपनी भाषा में यदि सरलतम और स्पष्टतम शब्दों में देना चाहूँ तो इसका एक ही उत्तर है, और वह यह है कि हमारे में निष्ठा यानि ईमानदारी की कमी है| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान नहीं हैं, हम स्वयं को ठगना चाहते हैं और स्वयं के द्वारा ही ठगे जा रहे हैं| किसी भी सांसारिक उपलब्धी के लिए तो हम दिन रात एक कर देते हैं, हाडतोड़ परिश्रम करते हैं, पर जो उच्चतम उपलब्धी है वह हम सिर्फ ऊँची ऊँची बातों के शब्दजाल से ही प्राप्त करना चाहते हैं|
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वास्तविकता तो यह है की हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम सिर्फ सांसारिक सुखों को, सांसारिक उपलब्धियों को और अधिक से अधिक अपने अहंकार की तृप्ति के लिए ही भगवान की विभूतियों को प्राप्त करना चाहते हैं| हमारे लिए भगवान एक माध्यम है, पर लक्ष्य तो संसार है| यानि साध्य तो संसार है और भगवान एक साधन मात्र| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही ऐसा होता है जो परमात्मा को पाना चाहता है|
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प्राचीन भारत एक अपवाद था| यहाँ की सनातन संस्कृति ही विकसित हुई परमात्मा यानि ब्रह्म को पाने का ही लक्ष्य बनाकर| यहाँ की संस्कृति में सम्मान हुआ तो ब्रह्मज्ञों का ही हुआ| जीवात्मा का उद्गम जहाँ से हुआ है, वहाँ अपने स्त्रोत में उसे बापस तो जाना ही पड़ेगा चाहे लाखों जन्म और लेने पड़ें| तभी जीवन चक्र पूर्ण होगा| इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत सारा सद्साहित्य इस विषय पर उपलब्ध है| अनेक संत महात्मा हैं जो निष्ठावान मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन करते रहते हैं| अतः और लिखने की आवश्यकता नहीं है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति अवश्य होती है| कई बार अनुभूति ना होने पर भी ताप तो मिलता ही है| वैसे ही जब भी हम परमात्मा का स्मरण या ध्यान करते हैं तो उनके अनुग्रह की प्राप्ति अवश्य होती है| परमात्मा को पाने का मार्ग है अहैतुकी (Unconditional) परम प्रेम| प्रेम में कोई माँग नहीं होती, मात्र शरणागति और समर्पण होता है| प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण हो तो और कुछ भी नहीं चाहिए| सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| जो लोग सेवानिवृत है उन्हें तो अधिक से अधिक समय नामजप और ध्यान में बिताना चाहिए| सांसारिक नौकरी में अपना वेतन प्राप्त करने के लिए दिन में कम से कम आठ घंटे काम करना पड़ता है| व्यापारी की नौकरी तो चौबीस घंटे की होती है| कुछ समय भगवान की नौकरी भी करनी चाहिए| जब जगत मजदूरी देता है तो भगवान क्यों नहीं देंगे? उनसे मजदूरी तो माँगनी ही नहीं चाहिए| माँगना ही है तो सिर्फ उनका प्रेम; प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं| प्रेम को ही मजदूरी मान लीजिये| एक बात का ध्यान रखें ..... मजदूरी उतनी ही मिलेगी जितनी आप मेहनत करोगे| बिना मेहनत के मजदूरी नहीं मिलेगी| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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सार : हमें परमात्मा की प्राप्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान यानि ईमानदार नहीं हैं| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए भक्ति का झूठा दिखावा करते हैं| अपनी मानसिक कल्पना से और झूठे शब्द जाल से स्वयं को ठग रहे हैं| हमने परमात्मा को तो साधन बना रखा है, पर साध्य तो संसार ही है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को पुनश्चः प्रणाम| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ श्रीगुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
११ अप्रेल २०१५