Thursday, 25 April 2019

हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? ....

(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत). हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? ....
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एक शाश्वत् प्रश्न है कि हमें परमात्मा की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर मैं अपनी भाषा में यदि सरलतम और स्पष्टतम शब्दों में देना चाहूँ तो इसका एक ही उत्तर है, और वह यह है कि हमारे में निष्ठा यानि ईमानदारी की कमी है| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान नहीं हैं, हम स्वयं को ठगना चाहते हैं और स्वयं के द्वारा ही ठगे जा रहे हैं| किसी भी सांसारिक उपलब्धी के लिए तो हम दिन रात एक कर देते हैं, हाडतोड़ परिश्रम करते हैं, पर जो उच्चतम उपलब्धी है वह हम सिर्फ ऊँची ऊँची बातों के शब्दजाल से ही प्राप्त करना चाहते हैं|
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वास्तविकता तो यह है की हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम सिर्फ सांसारिक सुखों को, सांसारिक उपलब्धियों को और अधिक से अधिक अपने अहंकार की तृप्ति के लिए ही भगवान की विभूतियों को प्राप्त करना चाहते हैं| हमारे लिए भगवान एक माध्यम है, पर लक्ष्य तो संसार है| यानि साध्य तो संसार है और भगवान एक साधन मात्र| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही ऐसा होता है जो परमात्मा को पाना चाहता है|
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प्राचीन भारत एक अपवाद था| यहाँ की सनातन संस्कृति ही विकसित हुई परमात्मा यानि ब्रह्म को पाने का ही लक्ष्य बनाकर| यहाँ की संस्कृति में सम्मान हुआ तो ब्रह्मज्ञों का ही हुआ| जीवात्मा का उद्गम जहाँ से हुआ है, वहाँ अपने स्त्रोत में उसे बापस तो जाना ही पड़ेगा चाहे लाखों जन्म और लेने पड़ें| तभी जीवन चक्र पूर्ण होगा| इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत सारा सद्साहित्य इस विषय पर उपलब्ध है| अनेक संत महात्मा हैं जो निष्ठावान मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन करते रहते हैं| अतः और लिखने की आवश्यकता नहीं है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति अवश्य होती है| कई बार अनुभूति ना होने पर भी ताप तो मिलता ही है| वैसे ही जब भी हम परमात्मा का स्मरण या ध्यान करते हैं तो उनके अनुग्रह की प्राप्ति अवश्य होती है| परमात्मा को पाने का मार्ग है अहैतुकी (Unconditional) परम प्रेम| प्रेम में कोई माँग नहीं होती, मात्र शरणागति और समर्पण होता है| प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण हो तो और कुछ भी नहीं चाहिए| सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| जो लोग सेवानिवृत है उन्हें तो अधिक से अधिक समय नामजप और ध्यान में बिताना चाहिए| सांसारिक नौकरी में अपना वेतन प्राप्त करने के लिए दिन में कम से कम आठ घंटे काम करना पड़ता है| व्यापारी की नौकरी तो चौबीस घंटे की होती है| कुछ समय भगवान की नौकरी भी करनी चाहिए| जब जगत मजदूरी देता है तो भगवान क्यों नहीं देंगे? उनसे मजदूरी तो माँगनी ही नहीं चाहिए| माँगना ही है तो सिर्फ उनका प्रेम; प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं| प्रेम को ही मजदूरी मान लीजिये| एक बात का ध्यान रखें ..... मजदूरी उतनी ही मिलेगी जितनी आप मेहनत करोगे| बिना मेहनत के मजदूरी नहीं मिलेगी| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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सार : हमें परमात्मा की प्राप्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि हम परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं चाहते| हम स्वयं के प्रति निष्ठावान यानि ईमानदार नहीं हैं| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए भक्ति का झूठा दिखावा करते हैं| अपनी मानसिक कल्पना से और झूठे शब्द जाल से स्वयं को ठग रहे हैं| हमने परमात्मा को तो साधन बना रखा है, पर साध्य तो संसार ही है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को पुनश्चः प्रणाम| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ श्रीगुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
११ अप्रेल २०१५

प्राचीन भारत की व्यवस्था मनुस्मृति पर आधारित थी .....

भारत में अंग्रेजों के आने तक सभी हिन्दू राजा मनुस्मृति से मार्गदर्शन लेते थे| हजारों वर्षों तक मनुस्मृति ही भारत का संविधान थी| कुटिल धूर्त अंग्रेजों ने मनुस्मृति को ही प्रक्षिप्त यानि विकृत करवा दिया| मनुस्मृति के ७वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है| हिन्दू राजाओं के शासन काल में राजधर्म की शिक्षा के मूल में वेद ही थे|

महाभारत में राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है| महाभारत युद्ध के उपरांत महाराज युधिष्ठिर को भीष्म ने भी राजधर्म का उपदेश दिया था| मनुस्मृति के ७वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है| विदुर नीति, शुक्रनीति में भी राजधर्म की शिक्षा है| कालान्तर में चाणक्य ने भी राजधर्म पर बहुत कुछ लिखा है| जयपुर के राजाओं ने बड़े बड़े विद्वानों की सभा कर उनसे राजधर्म पर पुस्तकें लिखवाई थीं|

भारत की प्राचीन राज्य व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ थी| राजा धर्मनिष्ठ होते थे जिन पर धर्म का अंकुश रहता था| हर युग के राजा तपस्वी ऋषियों से मार्गदर्शन लेते थे| राजा निरंकुश न होकर जन-कल्याण के लिए समर्पित होते थे| श्रुतियों के अनुसार राजा की नीतियाँ निर्धारित होती थीं|

भारत में वर्त्तमान लोकतंत्र अगले पचास वर्षों में पूरी तरह विफल हो जाएगा, और कोई नई व्यवस्था आयेगी जो वर्तमान व्यवस्था से श्रेष्ठतर ही होगी|
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०१९

"दुर्गा सप्तशती" के बारे में कुछ शब्द .....

"दुर्गा सप्तशती" के बारे में कुछ शब्द .....
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जिस प्रकार योग साधकों के लिए "गीता" सर्वोत्तम ग्रन्थ है, वैसे ही शक्ति साधकों के लिए "दुर्गा सप्तशती" सर्वोत्तम ग्रन्थ है| जैसे अपने "महाभारत" ग्रन्थ में वेदव्यास जी ने "गीता" के रहस्य मनुष्य जाति के कल्याण के लिए प्रस्तुत किये, वैसे ही उन्होंने ''मार्कण्डेय पुराण'' में ''दुर्गा सप्तशती'' के रहस्य भी मनुष्य जाति के कल्याण के लिए ही प्रस्तुत किये| ये दोनों ही ग्रन्थ वेदव्यास जी के माध्यम से प्रकट हुए हैं|
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"दुर्गा सप्तशती" में सात सौ श्लोक हैं जो जो तीन चरित्रों में विभाजित हैं| प्रथम चरित्र (महाकाली) में पहिला अध्याय, मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) में दूसरा तीसरा व चौथा अध्याय, और उत्तर चरित्र (महासरस्वती) में शेष अन्य अध्याय आते हैं| प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों (कुल २१ देवियों) का उल्लेख है|
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आचार्यों के अनुसार तंत्र शास्त्रों का उद्गम वेदों से है| ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का आविर्भाव हुआ है| ये तीनों वेद तीनों महाशक्तियों (महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती) के स्वरूप हैं| ये तीनों तंत्र देवी के तीनों स्वरूपों की अभिव्यक्ति हैं| इनमें तीन बीजमंत्र हैं जिनका देव्याथर्वशीर्ष में विस्तार से वर्णन है| श्रीविद्या का रहस्य भी देव्याथर्वशीर्ष में दिया है| आचार्यों के मुख से सुना है कि श्रीविद्या की उपासना शक्ति की उच्चतम उपासना है, और श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम दीक्षा है जिसके बाद अन्य कोई भी दीक्षा नहीं दी जा सकती|
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माँ भगवती ही परम कृपा कर के अपने रहस्य अपने भक्त के सम्मुख अनावृत करती हैं| उनकी कृपा के बिना इन को समझना असम्भव है| सभी पर भगवती की कृपा बनी रहे| जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरे इस जीवन की यह संध्या है जिसमें जो भी अत्यल्प समय अवशिष्ट है वह परमात्मा के ध्यान और चिंतन में ही बीत जाए, कोई कामना नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०१९

ज्ञेय सिर्फ परमात्मा ही है .....

गीता में भगवान कहते हैं कि जानने योग्य सिर्फ वे भगवान ही हैं जिन्हें जानने के पश्चात व्यक्ति सब कुछ जान जाता है, अर्थात सर्वज्ञ हो जाता है .... .....
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"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌ ||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ||
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"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः| वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ||९:१७||"
अर्थात् इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ||
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"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ | एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ||१३:१२||"
निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है||
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"ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते| अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||१३:१३||"
हे अर्जुन! जो जानने योग्य है अब मैं उसके विषय में बतलाऊँगा जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है||
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ज्ञेय सिर्फ परमात्मा ही है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०१९

भगवान को कौन प्राप्त कर सकता है ?,,,,,

भगवान को कौन प्राप्त कर सकता है ?
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भगवान करुणा और प्रेमवश अनुकम्पा कर के ही स्वयं को अनावृत करते हैं| हम भगवान का नाम-स्मरण, चिंतन और ध्यान उनकी परम अनुकम्पा और अनुग्रह के बिना नहीं कर सकते| गीता के दसवें अध्याय विभूति-योग में उन्होंने यह स्पस्ट कहा है .....
"तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ | ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते||१०:१०||"
"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः| नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||१०:११||

अर्थात् जो सदा अपने मन को मुझमें जो सदैव अपने मन को मुझमें स्थित रखते हैं और प्रेम-पूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं, उन भक्तों को मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वह मुझको ही प्राप्त होते हैं||१०:१०||
हे अर्जुन! उन भक्तों पर विशेष कृपा करने के लिये उनके हृदय में स्थित आत्मा के द्वारा उनके अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से दूर करता हूँ||१०:११||
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वे साधनागम्य नहीं, प्रेमगम्य हैं| इसे ही संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में कहा है ....
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई| जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई||"
और
"मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा" ....
बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते| अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है|
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भगवान प्रेम और समर्पण से ही प्राप्त हो सकते हैं, अन्य किसी उपाय से नहीं|
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०१९

गणगौर के पर्व से जुडी घुड़ला वध की कथा .....

गणगौर के पर्व से जुडी घुड़ला वध की कथा .....
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कुछ वर्षों पूर्व तक गणगौर पूजने वाली कन्याएँ एक छोटे मटके में कई छेद कर के उसमें दीपक जलाकर घुड़ला के गीत गाती हुई घर घर घुमाती थीं| यह घुड़ला खान के वध का उत्सव होता था| घुड़ला खान अकबर का एक मुग़ल सरदार था जो अत्याचार और पैशाचिकता में अकबर जैसा ही नर-पिशाच राक्षस था| नागौर जिले के पीपाड़ गाँव के पास कोसाणा नाम के स्थान पर एक तालाब है जहाँ लगभग दो सौ कन्याएँ व्रत कर के गणगौर की पूजा कर रही थीं कि उधर से घुडला खान अपनी फ़ौज के साथ निकला| उसकी गन्दी दृष्टी उन बच्चियों पर पडी तो उसकी पैशाचिकता जाग उठी, और उसकी फौज ने उन बच्चियों का अपहरण कर लिया| गाँव के लोगों ने विरोध किया तो उनकी ह्त्या कर दी गयी| यह समाचार किसी घुड़सवार ने जोधपुर के राव सातल सिंह राठौड़ तक पहुंचाया| सातल सिंह जी ने घुड़ला खान का पीछा किया और उसे रोक लिया| घुड़ला खान ने राव सातल सिंह को चेतावनी दी कि उसे रोकना अकबर बादशाह को रोकना होगा| राव सातल सिंह जी ने कहा कि जो होगा सो देखा जाएगा पर तुम्हें इस अपराध का दंड अवश्य मिलेगा| उनकी तलवार के एक वार से घुडला खान का सिर कटकर दूर जा गिरा| राजपूत सेना मुगलों पर टूट पड़ी और सभी बच्चियों को मुक्त कराकर मुग़ल फौज को भगा दिया| घावों से अधिक खून बह जाने के कारण राव सातल सिंह जी वीर गति को प्राप्त हुए| वहीं कोसाणा के तालाब पर उनका अंतिम संस्कार कर समाधि बना दी गयी| उन बच्चियों ने घुडला खान के सिर को एक घड़े में रख कर घड़े में छेद किये और पूरे गाँव में घुमाया| हर घर में रोशनी की गयी तब से कई सौ वर्षों तक घुड़ल्या घुमाने की परम्परा राजस्थान में चली जो अब समाप्तप्राय है|
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०१९

आज कई वर्षों के बाद काली-पीली आंधी आई है, दिन में भी रात सी हो गयी है ....

आज कई वर्षों के बाद काली-पीली आंधी आई है, दिन में भी रात सी हो गयी है|
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पच्चिस-तीस वर्ष पहिले तक इस मरुभूमि में चैत्र माह के लगते ही आंधियाँ आनी प्रारम्भ हो जाती थीं| कई बार तो आंधियाँ तीन-तीन चार-चार दिनों तक लगातार चलती थीं जिनमें रेत के अनेक टीले भी स्थानांतरित हो जाते थे| पर काली-पीली आंधी तो गर्मी के मौसम में वर्ष में लगभग दो-तीन बार ही आती थीं| पीले रंग की बहुत ही बारिक रेत आसमान में इतनी गहरी छा जाती थी कि दिन में भी रात का सा अन्धेरा हो जाता| इसलिए इन्हें काली-पीली आंधी कहते थे| राजस्थान में अनेक स्थानों पर हरियाली हो जाने के कारण ये आनी बंद हो गयी थीं| आंधियाँ आनी भी बहुत ही कम नहीं के बराबर हो गयी हैं|
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पर आज आचानक ही काली-पीली आंधी आई है| पीले रंग की बहुत ही बारीक बारीक रेत उड़ रही है और दिन में भी अन्धेरा सा हो गया है| पूरा घर मिट्टी से भर गया है|
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बचपन में हमने टिड्डी-दल भी बहुत देखे हैं जो आसमान में छाकर दिन में भी रात का सा अन्धेरा कर देते थे| ये टिड्डियाँ जहाँ भी बैठतीं वहाँ की सारी हरियाली का नाश कर देती थीं और उस क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था| ये टिड्डियाँ उत्तरी-पश्चिमी अफ्रिका से आती थीं और अपने पीछे-पीछे अकाल और बर्बादी को लेकर चलती थीं| अब तो इनको इनके मूल स्थान पर ही नष्ट कर दिया जाता है, अतः आजकल के नवयुवकों को पता ही नहीं है कि टिड्डियाँ क्या होती हैं|
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
७ अप्रेल २०१९

ध्यान में प्राप्त आनंद की अनुभूति हमें पूरी सृष्टि यानी पूरे ब्रह्मांड से जोड़ कर एक रखती है .....

ध्यान में प्राप्त आनंद की अनुभूति हमें पूरी सृष्टि यानी पूरे ब्रह्मांड से जोड़ कर एक रखती है .....
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यह बात हमें श्रुति भगवती यानि उपनिषदों ने बताई है पर आधुनिक भौतिक विज्ञान भी इसी निष्कर्ष पर पहुँच रहा है| विश्व के भौतिक विज्ञानियों के समक्ष यह एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न रहा है कि quantum particles अपना व्यवहार क्यों बदल देते हैं जब उन्हें observe किया जाता है? यह भी कि entangled subatomic particles चाहे वे कितनी भी दूर हों, एक दूसरे के संपर्क में क्यों रहते हैं?
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जेनेवा स्विट्ज़रलैंड के पास Large Hadron Collider में “unified field theory” पर चल रहे प्रयोगों में एक बहुत बड़े भारतीय भौतिक वैज्ञानिक ने बहुत लम्बे समय तक चले प्रयोगों के बाद यह पाया कि जिस तरह electromagnetism, gravity, और atomic forces होती हैं, उसी तरह की एक और अति सूक्ष्म pervasive quantum force होती है जो सारे subatomic particles को आपस में जोड़ती है| वह force इतनी सूक्ष्म होती है कि हमारे विचारों से भी प्रभावित होती है| वह force यानि वह शक्ति ही है जो सारे ब्रह्मांड को आपस में जोड़ कर एक रखती है| यह खोज जिन भारतीय वैज्ञानिक ने की उन्होनें बड़ी विनम्रता से अपने नाम पर इस शक्ति का नाम रखने से मना कर दिया| इस शक्ति को कुछ भी नाम देने का इन्हें अधिकार था क्योंकि मुख्यतः यह खोज इन्हीं की थी| पर वे इस खोज के पश्चात एक गहरे ध्यान में चले गए जिसका अभ्यास वे नित्य नियमित करते थे| उस गहन ध्यान में उन्होंने स्वयं से यह प्रश्न पूछा कि इस conscious universal force का वे क्या नाम दें जो समस्त ब्रह्मांड को जोड़कर एक रखती है? इसका उत्तर भी तुरंत आया और इसका नाम उन्होंने "BLISSONITE" रखा|
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हमारे शास्त्रों के अनुसार ध्यान में प्राप्त आनंद ही है जो हमें ब्रह्म से जोड़कर एक रखता है| ब्रह्म है ... पूर्णत्व, जिसके बारे में वृहदारण्यक तथा ईशावास्य उपनिषद कहते हैं ...
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते|
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||" ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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यह आनंद ही है जो इस सृष्टि की रचना करता है और सारी सृष्टि को जोड़कर एक रखता है| यह सर्वत्र व्याप्त है| तैतरीय उपनिषद कहता है ....
"ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो वृहस्पतिः। शं नो विष्णुरुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि। ॠतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"


कृपा शंकर 
५ अप्रेल २०१९

नवरात्रों का आध्यात्मिक महत्व ....

हम अपने चित्त की विकृतियों को नष्ट कर, चित्त को शुद्ध कर, वांछित सद्गुणों का अपने भीतर विकास कर, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर, अपने चैतन्य की सीमितता का अतिक्रमण कर सकें ..... इस शुभ कामना के साथ आने वाला भारतीय नववर्ष / नवसंवत्सर मंगलमय हो|
(इस दिन शुभ मुहूर्त में घट स्थापना के साथ वासंतीय नवरात्र आरम्भ करें)
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नवरात्रों का आध्यात्मिक महत्व ....
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नवरात्रों के बारे में विशेष ज्ञान तो मार्कंडेय-पुराण व देवी-भागवत जैसे ग्रंथों में मिलेगा, पर इनका थोड़ा-बहुत ज्ञान तो भारतीय संस्कृति में सभी को है| जितना अल्प व सीमित ज्ञान मुझे अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त है, उसे ही यहाँ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ|
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नवरात्रों में जगन्माता की आराधना महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूप में की जाती है| दुर्गा इन तीनों का संयुक्त रूप है| महाविद्याओं के साधक नवरात्रों में महाविद्या की साधना करते हैं, और भगवान श्रीराम व हनुमान जी के उपासक इनमें भगवान श्रीराम व हनुमान जी की उपासना करते हैं| वर्ष में दो बार तो प्रकट रूप में और दो बार गुप्त नवरात्र आते हैं| अश्विन मास के नवरात्र सबसे प्रमुख माने जाते हैं, दूसरे प्रमुख नवरात्र चैत्र माह के होते हैं| इन दोनों नवरात्रों को क्रमश: शारदीय व वासंतीय नवरात्र के नाम से जाना जाता है| इन के अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास के नवरात्र गुप्त नवरात्र कहलाते हैं जो विशेषतः दस महाविद्याओं की साधना के लिए होते हैं|
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भगवान माता भी है और पिता भी| मातृरूप में मुख्यतः दुर्गा देवी की आराधना की जाती है, जिन का प्राकट्य तीन रूपों .... महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूपों में है| नवरात्रों में हम माता के इन तीनों रूपों की आराधना उन की प्रीति के लिए करते हैं|
महाकाली की आराधना से हमारे अंतर की विकृतियों और दुष्ट वृत्तियों का नाश होता है| माँ दुर्गा का एक नाम है महिषासुर-मर्दिनी है| महिष का अर्थ होता है ... भैंसा, जो तमोगुण का प्रतीक है| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक ये तमोगुण के प्रतीक हैं| महिषासुर वध हमारे भीतर के तमोगुण के विनाश का प्रतीक है|
ध्यानस्थ होने के लिए अंतःकरण का शुद्ध होना आवश्यक होता है जो महालक्ष्मी की कृपा से होता है| सच्चा ऐश्वर्य है आतंरिक समृद्धि| हमारे में सद्गुण होंगे तभी हम भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| हमारे में सभी सद्गुण आयें इसके लिए महालक्ष्मी की साधना की जाती है|
आत्मा का ज्ञान ही ज्ञान है| इस आत्मज्ञान को महासरस्वती प्रदान करती हैं|
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नवरात्रि का सन्देश यही है कि हम अपने चित्त की विकृतियों को नष्ट कर के चित्त को शुद्ध करें, वांछित सद्गुणों का अपने भीतर विकास करें, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करें और सभी सीमितताओं का अतिक्रमण करें| यही वास्तविक विजय है|
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जितना अल्प व सीमित ज्ञान मुझे अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त है, उसे ही यहाँ कम से कम शब्दों में लिख दिया है| अधिक जानकारी के लिए ग्रंथों का स्वाध्याय करें| मैंने मेरी बात कम से कम शब्दों में व्यक्त कर दी है जो लगभग पर्याप्त है| इससे अधिक लिखना मेरे लिए बौद्धिक रूप से संभव नहीं है| सबका कल्याण हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अप्रेल २०१९
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पुनश्चः :---- हम अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति द्वारा परमात्मा को पूर्णतः समर्पित होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर सकें | यह सबसे बड़ी उपलब्धि है | जो योगमार्ग के साधक हैं, वे परमशिव का यथासंभव खूब ध्यान करें |
शुभ कामनाएँ !
रामनवमी की शुभ कामनाएँ भी अभी से स्वीकार करें| भरोसा नहीं है जीवन का, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो | साँसे भी तो भगवान स्वयं ही ले रहे हैं | हर सांस पर उन का स्मरण रहे |