Wednesday 12 July 2017

एक विचार ..... (समाज और राष्ट्र की अवधारणा)

एक विचार ..... (समाज और राष्ट्र की अवधारणा)
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भारत में समाज और राष्ट्र की अवधारणा दुर्भाग्य से लगभग चौदह-पंद्रह सौ वर्षों पूर्व क्षीण हो गयी थी| वह एक घोर अज्ञान व अन्धकार का युग था इसीलिए हमें पिछले एक हज़ार वर्षों में पराजित और विदेशी लुटेरों का शिकार होना पडा| इसका दोष हम दूसरों पर नहीं डाल सकते| यदि पर्वत शिखर से बहता हुआ जल नीचे खड्डों में आता है तो खड्डे पहाड़ से क्या शिकायत कर सकते है? स्वयं की रक्षा के लिए खड्डे को ही शिखर बनना पडेगा| निर्बल को सब सताते हैं| संगठित और सशक्त राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखने का साहस किसी में नहीं होता|
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भारत में जब तक राष्ट और समाज हित की अवधारणा थी, तब तक किसी का साहस नहीं हुआ भारत की ओर आँख उठाकर देखने का| बिना किसी पूर्वाग्रह के यदि हम इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी ही कमी थी जिसके कारण हम गुलाम हुए| वे कारण अब भी अस्तित्व में हैं पर कुछ कुछ चेतना अब धीरे धीरे समाज में आ रही है|
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आप चाहे कितनी भी सद्भावना सब के लिए रखो पर हिंसक और दुष्ट प्राणियों के साथ नही रह सकते| ऐसे ही हमारे सारे कार्य यदि राष्ट्रहित में हों तो हमें प्रगति के शिखर पर जाने से कोई नहीं रोक सकता| इस बिंदु पर सब को स्वयं मंथन करना पड़ेगा|
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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सब राष्ट्र अपना निज हित देखते हैं| कोई किसी का स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता| जो भावुकता में निर्णय लिए जाते हैं वे आत्म घातक होते हैं| वैसे ही यदि हम अपने लोभ लालच, जातिवाद और प्रांतवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कार्य करें तो हमें विकसित होने से कोई नहीं रोक सकता|
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भारत का वेदान्त दर्शन समष्टि के हित की बात करता है| यदि पूरा विश्व ही समष्टि के हित की सोचे तो यह सृष्टि ही स्वर्ग बन जाएगी पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह सृष्टि विपरीत गुणों से बनी है| सारा भौतिक जगत ही सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से निर्मित है| बुराई और भलाई दोनों ही विद्यमान रहेगी| हमें ही इस द्वंद्व से ऊपर उठना पडेगा|
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सभी निजात्मगण को नमन| सब का कल्याण हो|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
जुलाई ०८, २०१६

अंतःकरण शुद्ध कैसे हो ? .....

अंतःकरण शुद्ध कैसे हो ? .....
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निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा|
परमात्मा की कृपा प्राप्त हो इसके लिए अंतःकरण की शुद्धि प्रथम आवश्यकता है| यही चित्त-वृत्तियों का निरोध और मन चंगा करने की बात का भावार्थ है|
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मन ही हम मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है| घर में कोई अतिथि आने वाला हो तो हम घर की साफ़-सफाई करते हैं, यहाँ तो हम साक्षात् परमात्मा को निमंत्रित कर रहे हैं| भगवान तो सर्वत्र हैं , फिर भी दिखाई नहीं देते| इसका कारण हमारे मन रूपी अंतःकरण की मलिनता है| और कुछ भी नहीं|
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अंतःकरण में परमात्मा की निरंतर उपस्थिति ही हमारे अंतकरण को शुद्ध कर सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है| लौकिक चेतना में हमारे समस्त कर्म हमारी कामनाओं द्वारा ही संचालित होते हैं, और हमारी कामनाओं का कारण हमारा अज्ञान है| हमें सच्चिदानंद और अपनी आनंदरूपता का बोध न होना ही हमारा अज्ञान है| जब तक अंतःकरण की शुद्धि नहीं होगी तब तक अज्ञान दूर नहीं हो सकता| यह अज्ञान ही हमारे सब बंधनों का कारण है|
पर अंतःकरण शुद्ध कैसे हो?

हम निश्चय कर के निरंतर प्रयास से परमात्मा को हर समय अपने ह्रदय में रखें, परमात्मा की ह्रदय में निरंतर उपस्थिति ही हमारे अंतकरण को शुद्ध कर सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है|

उस अवर्णनीय अनंत अगम्य अगोचर अलक्ष्य अपार प्रेमास्पद परमात्मा को नमन, जो मेरा अस्तित्व है, और मेरे ही नहीं, सभी के ह्रदयों में बिराजमान है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा का निरंतर ध्यान ही हमारा वास्तविक Business है .....

परमात्मा का निरंतर ध्यान ही हमारा वास्तविक Business है .....
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"Business" शब्द का सही अर्थ होता है .... "सरोकार", यानि वह कार्य जिसमें कोई स्वयं को व्यस्त रखता है| हिंदी में उसका अनुवाद .... "व्यापार" .... शब्द गलत है|
एक बार एक भारतीय साधू से किसी ने अमेरिका में पूछा .... Sir, What is your business ?
उस साधू का उत्तर था .... I have made it my business to find God.
हमारी व्यक्तिगत साधना हमारा सरोकार है, व्यापार नहीं| परमात्मा को पाने का सतत प्रयास ही हमारा वास्तविक Business है |
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व्यवहारिक रूप से व्यापार तो कुछ लाभ पाने के लिए होता है| पर आध्यात्म में तो कुछ पाने के लिए हैं ही नहीं, यहाँ तो सब कुछ देना ही देना पड़ता है| यहाँ तो अपने अहंकार और राग-द्वेष को मिटाना यानि समर्पित करना पड़ता है| वास्तविक भक्ति अहैतुकी होती है| कुछ माँगना तो एक व्यापार है, प्रेम नहीं| परम प्रेम ही भक्ति है, भक्ति में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| जहाँ कोई माँग उत्पन्न हो गयी वहाँ तो व्यापार हो गया|
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योग साधना में ..... सुषुम्ना में जागृत पराशक्ति विचरण करते हुए हमें ही जगाती है | सभी चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रार में परमशिव तक जाकर बापस लौट आती है | इसके आरोहण और अवरोहण के साक्षी मात्र रहें, कर्ताभाव से मुक्त हों | गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का जप गुरुप्रदत्त विधि से निरंतर चलता रहे | चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हुए ही ध्यानस्थ हो जाएँ |
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हे अगम्य, अगोचर, अलक्ष्य, अपार, सर्वव्यापी परमात्मा परम शिव, हे नारायण, यह सर्वव्यापी हृदय ही तुम्हारा घर है| तुम्हारी सर्वव्यापकता ही मेरा हृदय और मेरा अस्तित्व है| तुम अपरिभाष्य और अवर्णनीय हो| तुम्हे भी नमन, और स्वयं को भी नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||

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"Business" शब्द का सही अर्थ होता है .... "सरोकार", यानि वह कार्य जिसमें कोई स्वयं को व्यस्त रखता है| हिंदी में उसका अनुवाद .... "व्यापार" .... शब्द गलत है|
एक बार एक भारतीय साधू से किसी ने अमेरिका में पूछा .... Sir, What is your business ?
उस साधू का उत्तर था .... I have made it my business to find God.
हमारी व्यक्तिगत साधना हमारा सरोकार है, व्यापार नहीं| परमात्मा को पाने का सतत प्रयास ही हमारा वास्तविक Business है |
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व्यवहारिक रूप से व्यापार तो कुछ लाभ पाने के लिए होता है| पर आध्यात्म में तो कुछ पाने के लिए हैं ही नहीं, यहाँ तो सब कुछ देना ही देना पड़ता है| यहाँ तो अपने अहंकार और राग-द्वेष को मिटाना यानि समर्पित करना पड़ता है| वास्तविक भक्ति अहैतुकी होती है| कुछ माँगना तो एक व्यापार है, प्रेम नहीं| परम प्रेम ही भक्ति है, भक्ति में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| जहाँ कोई माँग उत्पन्न हो गयी वहाँ तो व्यापार हो गया|
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योग साधना में ..... सुषुम्ना में जागृत पराशक्ति विचरण करते हुए हमें ही जगाती है | सभी चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रार में परमशिव तक जाकर बापस लौट आती है | इसके आरोहण और अवरोहण के साक्षी मात्र रहें, कर्ताभाव से मुक्त हों | गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का जप गुरुप्रदत्त विधि से निरंतर चलता रहे | चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हुए ही ध्यानस्थ हो जाएँ |
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हे अगम्य, अगोचर, अलक्ष्य, अपार, सर्वव्यापी परमात्मा परम शिव, हे नारायण, यह सर्वव्यापी हृदय ही तुम्हारा घर है| तुम्हारी सर्वव्यापकता ही मेरा हृदय और मेरा अस्तित्व है| तुम अपरिभाष्य और अवर्णनीय हो| तुम्हे भी नमन, और स्वयं को भी नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||

यहूदी मज़हब बदनाम क्यों हुआ ? .....

यहूदी मज़हब बदनाम क्यों हुआ ? .....
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यहूदी, ईसाईयत और इस्लाम .... ये तीनों ही अब्राहमिक मत हैं| यहूदी एक व्यापारी कौम थी जिनका पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और प्रायः सारे यूरोप में खूब बोलबाला था| अधिकाँश व्यापार इन लोगों के हाथ में ही था, और ये लोग जबरदस्त सूदखोर थे| ईसा मसीह स्वयं एक यहूदी थे पर उनको इन सूदखोर लोगों से इतनी घृणा थी कि उन्होंने सूदखोरी का सदा विरोध किया|
इनकी सूदखोरी के कारण ही इस्लाम ने भी सदा इनका विरोध किया| सूद बसूलने में ये यहूदी बड़े निर्दयी थे| यहूदियों ने सूदखोरी कर कर के लोगों को खूब लूटा, इसी कारण अन्य मतावलंबियों में इनके प्रति घृणा भर गयी|
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अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक शेक्सपीयर ने अपना नाटक Merchant of Venice यहूदियों की सूदखोरी के विरुद्ध ही लिखा था| इनको अपने सूद यानी ब्याज की रकम से इतना अधिक प्यार था कि उसके समक्ष इनका राष्ट्रीय हित भी गौण था| इसीलिये जर्मनी में ईसाईयों को इनसे घृणा हो गयी थी|
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इन्होनें अन्य सब मतों का सदा विरोध किया और उन्हें बदनाम करने का भी प्रयास किया| East India Company में भी अधिकाँश धन यहूदियों का ही था| वे इस कंपनी के लगभग मालिक ही थे| कार्ल मार्क्स भी एक यहूदी था| इतिहास में इनके धर्मगुरु भी सदा से ही सनातन धर्म के विरोधी रहे है
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आज भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए इजराइल का साथ आवश्यक है| इसलिए मैं भारत-इजराइल मित्रता का समर्थक हूँ| पर हमें अधिक अपेक्षा उनसे नहीं रखनी चाहिए| जितनी हमें इजराइल की आवश्यकता है, उस से अधिक इजराइल को भारत की आवश्यकता है| हमें उन से सैन्य और कृषि तकनीक लेकर आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए| अंततः यहूदी हैं तो असुर ही, पता नहीं उनका असुरत्व कब जागृत हो जाए| अन्य असुरों के विरुद्ध ही हमें उनकी सहायता चाहिए| पर लम्बे समय में ये हमारे मित्र और समर्थक नहीं रहेंगे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
५ जुलाई २०१७

मानसिक व्यभिचार से बचें .....

मानसिक व्यभिचार से बचें .....
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मन में बुरी बुरी कल्पनाओं का आना, और उन कल्पनाओं में मन का लगना मानसिक व्यभिचार है| यह मानसिक व्यभिचार ही भौतिक व्यभिचार में बदल जाता है| यह मानसिक व्यभिचार आध्यात्म मार्ग की सबसे बड़ी बाधा तो है ही लौकिक रूप से भी समाज में दुराचार फैलाता है|
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इससे कैसे बचें इसका निर्णय प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ले| आजकल किसी को कुछ कहना भी अपना अपमान करवाना है| समाज का वातावरण बहुत अधिक खराब है| बड़े बड़े धर्मगुरु भी अपनी बात कहते हुए संकोच करते हैं|
फेसबुक पर तो अपनी वॉल पर यह बात लिख सकता हूँ, पर किसी को कुछ कहने का अर्थ है गालियाँ, तिरस्कार और अनेक अपमानजनक शब्दों को निमंत्रित करना| आज के युग में व्यक्ति स्वयं को बचाकर रखे, और उपदेश ही देना है तो अपने बच्चों को ही दे, और किसी को नहीं| आजकल तो स्वयं के बच्चे भी नहीं सुनते| इतना लिख दिया यही बहुत है|
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"तेरे भावें कछु करे भलो बुरो संसार |
नारायण तून बैठ के अपनों भवन बुहार ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

विरही को कहीं सुख नहीं है ...

विरही को कहीं सुख नहीं है ....
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"कबीर बिछड्या राम सूँ , ना सुख धूप न छाँह" |
सुख सिर्फ राम में ही है, बाकी सब मृगतृष्णा है| विरही को कहीं सुख नहीं है|
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नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग विछाय | पलकों की चिक डारिकै पिय को लिया रिझाय ||
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पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात | देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात ||
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ॐ ॐ ॐ ||

अंतमति सो गति, पर अंतमति कैसी होती है ......

अंतमति सो गति, पर अंतमति कैसी होती है ......
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भगवान का वचन है कि अंतकाल में जो मेरा स्मरण करते हुए मरते हैं वे मुझे ही प्राप्त होते हैं| अब प्रश्न यह है कि प्रयाणकाल में क्या भगवान सचमुच याद आते हैं ?
भगवान के वचन हैं ....
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||
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हम स्वयं को यह सोचकर मूर्ख न बनाएँ कि जीवन भर तो मौज-मस्ती करेंगे और जब हाथ-पैर नहीं चलेंगे तब अपना समय आयेगा और भगवान का नाम लेते लेते मर जायेंगे|
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अंतिम समय बड़ा भयंकर होता है| मनुष्य शारीरिक या मानसिक कष्ट या मूर्छा में ही प्राण त्यागता है| उस समय भगवान तभी याद आते हैं यदि जीवन में दीर्घकाल तक उनका स्मरण चिंतन करते करते हम देहाभिमान से मुक्त हो गए हों, अन्यथा नहीं|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दो मिनट का मौन .....

दो मिनट का मौन .....
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दो मिनट मौन रखकर किसी भी दिवंगत आत्मा के लिए श्रद्धांजली देने से मृतात्मा को कोई शांति नहीं मिलती है| यह एक पाश्चात्य परम्परा और दिखावा मात्र है, जिसका सनातन धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है|
अगर किसी दिवंगत आत्मा को वास्तव में शान्ति पहुँचानी है तो उसके लिए संकल्प कर के कम से कम एक घंटे तक भगवान का नाम-जप करना चाहिए, और किसी अच्छे पुरोहित से यज्ञ/हवन और श्राद्ध करवाना चाहिए|
यज्ञ/हवनआदि संभव न हो तो भी दिवंगत आत्मा की शांति के लिए संकल्प लेकर कुछ देर नाम-जप व गीता या रामचरितमानस का पाठ तो तो अवश्य ही करना चाहिए|

शरणागति .....

शरणागति .....
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भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त ज्ञान देकर अंत में परम गोपनीय से गोपनीय, और गूढ़तम से गूढ़ रहस्य बताते हैं कि सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय का त्याग करके एक मेरी शरण में आ जा| मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर|
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः " ||गीता 18/66||
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गीता का सार अठारहवाँ अध्याय है और अठारहवें अध्याय का भी सार उसका 66 वाँ श्लोक है| इस श्लोक में भगवान् ने सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करके अपनी शरण में आने की आज्ञा दी है, जिसे अर्जुन ने ‘करिष्ये वचनं तव’ कहकर स्वीकार किया और अपने क्षात्र-धर्म के अनुसार युद्ध भी किया|
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यहाँ जिज्ञासा होती है कि सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करने की जो बात भगवान् ने कही है, उसका तात्पर्य क्या है ?
दूसरी बात, जब अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता 2/7) कहकर भगवान् की शरण हुए तो लगता है कि उस शरणागति में कुछ कमी रही होगी तभी उस कमी की पूर्ति अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में हुई है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि शरणागति क्या है ?
कैसे शरणागत हों ?
कैसे समर्पित हों ?
क्या सिर्फ हाथ जोड़कर सर झुकाने ही शरणागति प्राप्त हो सकती है ? मन तो पुनश्चः कुछ क्षणों में संसार की वासनाओं और अहंकार में डूब जाएगा| ऐसा क्या उपाय है जिससे स्थायी शरणागति प्राप्त हो?
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‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ..... भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय, धर्म के निर्णय का विचार भी छोड़कर अर्थात् क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही शरण में आ जा|
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना ..... यह सम्पूर्ण साधनों का सार है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे ..... पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं प्रत्युत पतिदेव का मानती है, पति के गोत्र में ही अपना गोत्र और जाति मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र, जाति, नाम आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हमारी जाति वही है जो परमात्मा की है| यह भी कह सकते हैं कि हमारी जाति अच्युत है| हमारा गौत्र और धर्म भी वही है जो परमात्मा का है| अपना कहने को हमारा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है वह परमात्मा का है|
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यह तभी संभव है जब हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति हो| रामचरितमानस में कहा गया है ....
"बार बार बर माँगऊ हरषि देइ श्रीरंग|
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग||"
"अनपायनी" शब्द का अर्थ है ..... "शरणागति" |
महान तपस्वी, योगी, देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं, हे मेरे श्रीरंग, अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे भिक्षा दीजिए|
भगवान बोले, क्या दूं?
तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों का सदा अनुपायन करता रहूँ| अर्थात आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे|
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ऐसी ही शरणागति की महिमा है देवता भी इससे अछूते नहीं हैं|
शरणागति का प्रसंग वेदों में, स्मृतियों में, पुराणों में, और मीमांसा में भी आयाहै|
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अर्जुन तब तक दुखी रहे, जब तक भगवान का प्रतिपादन तर्क- वितर्क से करते रहे| जब शरणागति की महिमा समझ ली तो बिलकुल शान्त हो गए, जैसे दूध के ऊपर पानी के छींटे देने से झाग बैठ जाती है|
तमाम सन्तों को शांति तभी मिली, जब वे शरणागत हुए|
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जहाँ तक मुझे मेरी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया है,
शरणागति है ..... पूर्ण भक्ति के साथ गहन ध्यान साधना द्वारा अपने अहंकार यानि अपनी पृथकता के बोध को परमात्मा में समर्पित कर देना|
परमात्मा का वाचक ओंकार यानि ॐ है| ओंकार पर गुरु प्रदत्त विधि से ध्यान ..... ब्रह्मरन्ध्र में "ॐ" ध्वनि के सागर में स्वयं को विलीन कर देना है|
सारे उपनिषद् ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| भगवान श्री कृष्ण ने गीता में --- प्रयाणकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करते हुए देह त्याग करने की महिमा बताई है| मध्यकाल के संतों का सारा साहित्य इस साधना की महिमा से भरा पड़ा है|
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आप सभी निजात्मगण को शुभ कामनाएँ और और प्रेम ! आप सब में परमात्मा को प्रणाम !
ॐ गुरू ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
01July2016

निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन वृद्धि होनी चाहिए .....

 निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन वृद्धि होनी चाहिए ....
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सरकारी कर्मचारियों के जो वेतन और भत्ते बढ़ रहे हैं, उसी अनुपात में निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ वेतन वृद्धि होनी चाहिए|
निजी क्षेत्र में इतना भयंकर शोषण है कि सरकारी कर्मचारी को जो वेतन मिलता है उससे एक चौथाई में निजी क्षेत्र का एक कर्मचारी किसी भी सरकारी कर्मचारी से चौगुना कार्य करता है|
निजी क्षेत्र में आजकल कर्मचारियों को दैनिक वेतन पर रखते हैं| सप्ताह में सात दिन कार्य, न तो कोई छुट्टी मिलती है और न कोई भविष्य निधि| जरा सा विरोध करते ही बाहर निकाल देते हैं|
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ार बार हड़ताल कर के सरकारी कर्मचारी वेतनवृद्धि के लिए सरकार को बाध्य कर देते हैं| बढती हुई मँहगाई का यह भी एक कारण है| निजी क्षेत्र में कोई हडताल की सोच ही नहीं सकता| ये भी देश के नागरिक हैं| इनके साथ भेदभाव क्यों?
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बिना घूस दिए किसी भी सरकारी कार्यालय में कुछ भी कार्य नहीं होता| जितना वेतन सरकारी कर्मचारियों को जिस काम का मिलता है क्या वे सचमुच उतना काम करते हैं? ईमानदार सरकारी कर्मी बहुत कम हैं, और उनसे अफसर भी खफा रहते हैं, उन पर काम का भी बोझ बहुत ज्यादा होता है|
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एक सामान्य नागरिक के लिए "सरकार" उच्च शासक वर्ग नहीं, बल्कि एक पुलिस का सिपाही और दफ्तर का बाबु होती है| देश को धर्म-परायण या ईमानदार तभी कहा जाएगा जब पुलिस का हर सिपाही और दफ्तर का हर बाबु पूर्ण ईमानदार होगा|

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग .......

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग .......
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आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है जिसका रहस्य सिर्फ प्रभु कृपा से ही ध्यान साधक योगी समझ पाते हैं| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है|
उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है| संत पलटूदास जी कहते हैं कि उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है| पर उस ज्योति के दर्शन और उस नाद का श्रवण सद् गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं करा सकता|
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उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ......
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
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उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ----- ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ---- अनाहत नादब्रह्म है, यही राम नाम की ध्वनी है|
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'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सद्ग गुरु के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है|
बाहर हम जो दीपक जलाते हैं ---- वे प्रतीक मात्र हैं| बाहर कि घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उस अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं|
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ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२९ जून २०१५
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पुनश्चः :--
ज्योतिर्मय ब्रह्म पर ध्यान करते करते हम शब्द ब्रह्म तक पहुँच जाते हैं| मेरे अपने अनुभव के अनुसार जब हम शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ध्यान करते हैं तब गुरुकृपा से ज्योति के भी दर्शन होते हैं और और नाद भी सुनाई देने लगता है| जैसे जैसे अज्ञान दूर होता है, कामनाएँ भी नष्ट होने लगती हैं और हम जीवन मुक्ति की ओर अग्रसर होने लगते हैं| ॐ ॐ ॐ ||

हम विजयी हैं ......

हम विजयी हैं ......
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हम पराजित राष्ट्र नहीं हैं| यह राष्ट्र सदा विजयी रहा है और विजयी रहेगा| अनंत काल में कुछ समय के लिए यहाँ अन्धकार छा जाता है पर हमारा विजयी भाव निश्चित रूप से उसे पराभूत कर देता है| अन्धकार का समय निकल चुका है| भारत की आत्मा, भारत की अस्मिता अब निश्चित रूप से विजयी होगी|
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हमें हमारे राष्ट्र की परम्पराओं, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म पर अभिमान है| अभी जो अन्धकार दिखाई दे रहा है वह सूर्योदय से पूर्व का है| असत्य और अन्धकार की शक्तियों का नाश होगा| भारत जागेगा और अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा|
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हमें सिर्फ एक ही काम करना है कि कैसे भी स्वधर्म का पालन कर स्वधर्म की रक्षा करें| बाकी काम प्रकृति करेगी| हमें अपने राष्ट्र और धर्म की आलोचना करने वालों का मुँह बंद करना होगा| भारत की अधिकांश मीडिया, प्रेस और राजनीतिक शक्तियाँ विदेशियों के हाथों में बिकी हुई है, उन्हें प्रभावहीन करें| निज विवेक के प्रकाश में अपना सर्वश्रेष्ठ करें अपने परिवार में और युवा पीढ़ी में अच्छे संस्कार दें| हर प्रकार की नकारात्मकता का परित्याग करें, भगवान हमारे साथ हैं|
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हम विजयी थे, विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे| परमात्मा की शक्ति हमारे साथ है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अब कोई कामना न रहे ......

अब कोई कामना न रहे ......
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पिछले चार-पाँच वर्षों से जो भी आध्यात्मिक प्रेम के भाव आते थे वे फेसबुक के इस सार्वजनिक मंच पर व्यक्त हो जाया करते थे| अब पूर्ण संतुष्टि है, कोई कामना नहीं रही है, आगे कोई कामना हो भी नहीं, यही भगवान से प्रार्थना है|
इस मंच पर अनेक दिव्य और महान आत्माओं से मिलना हुआ है, बहुत अच्छा सत्संग मिला है, और सभी से अत्यधिक प्रेम मिला है| मैं सभी का आभारी हूँ और सब को सप्रेम साभार नमन करता हूँ|
अब परात्पर गुरु और परमशिव के प्रति परम प्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा बढ़ती ही जा रही है| अन्य सब भाव अब शनै शनै लुप्त हो रहे हैं| थोड़ा बहुत प्रारब्ध बचा है वह भी एक दिन कट ही जाएगा|
ध्यान साधना की दीर्घता और गहराई और अधिक बढाने की निरंतर प्रेरणा मिल रही है| जीवन अब परमात्मा को समर्पित है, जैसा वे चाहें वैसा करें| मेरी कभी कोई कणमात्र भी कामना न रहे यही उनसे प्रार्थना है|
आप सब से भी हार्दिक प्रार्थना है कि अपना अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करें|
ॐ सह नाववतु| सह नौ भुनक्तु| सह वीर्यं करवावहै| तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
हरि ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा की कृपा ही सार है, बाकी सब निःसार है .....

परमात्मा की कृपा ही सार है, बाकी सब निःसार है .....
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कर्मफल और संस्कार ये दोनों ही अतीन्द्रिय हैं ये भगवान की कृपा से ही समझ में आते हैं| हम जैसा सोचते हैं, जैसे वातावरण में व जैसे लोगों के साथ रहते हैं, और जैसा खाते-पीते हैं, वैसे ही संस्कार पड़ते हैं|
हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल भुगतना ही पड़ता है| प्रकृति अपना कार्य सतत निष्पक्ष भाव से करती रहती है| प्रकृति के नियमों को न समझना हमारी ही कमी है इसके लिए भगवान को दोष देना अनुचित है| हाँ, भगवान की शरण लेने से और अहंकार का त्याग करने से कर्मफलों से मुक्ति मिल सकती है| हमारा स्वभाव भी हमारे कर्मों का ही फल है| यदि स्वभाव प्रकृति की और है तो वह बंधन में डालता है, यदि परमात्मा की ओर है तो स्वतंत्रता दिलाता है| वास्तविक स्वतन्त्रता परमात्मा में ही है| अहंकार से मुक्ति परमात्मा की कृपा से ही मिलती है| मोक्ष कहो या मुक्ति .... ये सब भगवान की कृपा से ही प्राप्त होते हैं, न कि निज प्रयास से|
जितना मेरे सामर्थ्य में था उतना ही लिख पाया हूँ, बाकी मेरे सामर्थ्य से परे है| परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

शबद अनाहत बागा ...........

शबद अनाहत बागा ...........
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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए|
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भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बांग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिल ही गए हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ----
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिनी जागी॥
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥"
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्‍वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्‍नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ जून २०१३

सभी मित्रों से मेरी व्यक्तिगत प्रार्थना :---

सभी मित्रों से मेरी व्यक्तिगत प्रार्थना :---
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(१) रात्री में शीघ्र सो जाएँ| सोने से पूर्व परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर ही सोएँ| अपनी सारी चिंताएँ जगन्माता को सौंप दें|

(२) प्रातः परमात्मा की चेतना में ही उठें| हरिस्मरण करते हुए थोड़ा जल पीकर शौचादि से निवृत होकर कुछ मिनट तक कुछ प्राणायाम जैसे अनुलोम-विलोम व उज्जयी आदि, और शरीर की क्षमतानुसार कुछ आसन जैसे सूर्य नमस्कार, पश्चिमोत्तानासन, महामुद्रा, आदि कर के ऊनी आसन या कुशासन पर पूर्व या उत्तर की और मुँह कर के कमर सीधी रखते हुए स्थिर होकर सुख पूर्वक सुखासन/पद्मासन/सिद्धासन जैसे किसी आसन में बैठ जाएँ| यदि सीधे बैठने में कठिनाई हो तो नितम्बों के नीचे कोई छोटा तकिया लगा लें| शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों के गोलकों को बिना किसी तनाव के भ्रूमध्य के निकटतम लाकर आँखें बंद रखते हुए दृष्टी भ्रूमध्य पर ही निरंतर रखें| पूर्ण भक्ति (परम प्रेम) के साथ अपने गुरु व गुरु-परम्परा को प्रणाम करते हुए अपनी अपनी गुरुपरम्परानुसार ध्यान करें|

(३) प्रातः 03:30 से 05.30 तक मैं भी आपके साथ साथ लगातार ध्यान करूँगा आप मुझे उस समय अपने साथ ही पाओगे| आपका साथ मुझे अत्यधिक संबल देगा| आप मेरा साथ दोगे तो यह आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होगी और आप पर परमात्मा के आशीर्वादों की बड़ी वर्षा होगी|

(४) ध्यान का समापन शान्तिमंत्र और समष्टि के कल्याण की कामना के साथ करें| ध्यान के बाद कुछ देर तक उठें नहीं| अपने इष्टदेव के मन्त्र का जप करते रहें||

(५) उसके उपरांत प्रातः भ्रमण, व्यायाम आदि करें | ध्यान से पूर्व यदि स्नान आदि न भी कर सकें तो कोई बात नहीं, भगवान शिव को स्मरण कर चुटकी भर भस्म अपने सिर पर छिड़क लें और ध्यानस्थ हो जाएँ|

ॐ ॐ ॐ ||

25 जून 1975 का वह काला दिन .....

25 जून 1975 का वह काला दिन .....
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इंदिरा गाँधी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के अपने विरुद्ध किये गए एक फैसले को पलटने के लिए देश में आपात्काल लगा दिया था| नेहरू खानदान की और कोंग्रेस की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से पता नहीं क्या शत्रुता थी जो सब से पहिले संघ पर ही प्रहार किया गया| संघ पर प्रतिबंध लगाकर सारे स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया| वे ही बच पाए जो समय पर भूमिगत हो गए थे| इस आपातकाल का सर्वाधिक विरोध और प्रतिकार भी संघ के स्वयंसेवकों ने ही किया था| जहाँ भी संघ का साहित्य मिलता उसे पुलिस द्वारा जला दिया जाता था| किसी स्वयंसेवक के घर में सब्जी काटने का चाक़ू मिला उस पर भी आर्म्स एक्ट लगा दिया| 

सारे विरोधी दलों के नेता बंदी बना लिए गए| २६ जून को सारे समाचार पत्रों के सम्पादकीय या तो खाली थे या काली स्याही से पुते हुए थे| लोगों ने आल इंडिया रेडियो सुनना छोड़कर BBC लन्दन सुनना शुरू कर दिया था| एक स्वयंसेवक की बेटी की का विवाह था, पुलिस उसे कन्यादान से पहिले ही विवाह में से उठाकर ले गयी|
इस तरह से बहुत अधिक अवर्णनीय अत्याचार हुए| मेरे परिचित लगभग सारे स्वयंसेवक मित्र बंदी बना लिए गए थे, जो बचे उन्होंने बाद में आन्दोलन कर के स्वयं को गिरफ्तार करवा लिया|


मुझे सितम्बर में ही विदेश जाने का अवसर मिल गया था अतः पूरे उन्नीस महीनों के पश्चात ही मैं भारत बापस आया, तब तक सरकार बदल चुकी थीऔर आपात्काल समाप्त हो गया था|


भगवान करे वैसे दिन बापस भारत में न आयें|