परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए विरक्त होना आवश्यक है ? ....
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मेरे विचार से आज के युग में विरक्त होना आवश्यक है| संकल्प शक्ति से अधिक शक्तिशाली तो चारों ओर का वातावरण है| व्यक्ति को आजीविका के लिए अनेक प्रकार के व्यक्तियों से मिलना पड़ता है, देश-विदेश में पता नहीं कहाँ कहाँ भटकना पड़ता है, उनके और घर परिवार के सदस्यों के भी नकारात्मक विचारों का प्रभाव पड़ता है| समाज का वातावरण आजकल बहुत अधिक विषाक्त है, अतः किसी को जब भी परमात्मा की एक झलक मिले तभी से निःसंग विरक्त होकर एकांत में भगवान की साधना करनी चाहिए| घर, परिवार और समाज में रहकर यह असम्भव है| यह मैं अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ| किसी को अपने घर-परिवार में यदि सकारात्मक और सहायक वातावरण मिले तो दूसरी बात है|
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कोई दो लाख में से एक व्यक्ति के ह्रदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा होती है| यह अनेकानेक जन्मों के संचित कर्मों का फल होता है| अच्छे संतों से मिलना भी कई जन्मों के अच्छे कर्मों का फल होता है|
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प्राचीन भारत की बात दूसरी थी| तब सभी ऋषि मुनि गुह्स्थ होते थे| बड़े बड़े चक्रवर्ती राजा भी जब विरक्त होते थे तो सपत्नीक ही वन में तपस्या करने जाते थे| जब हमारे अन्तःस्थल से कामना-वासनाएँ पूरी तरह से निकल जाती है तभी वास्तविक वैराग्य प्राप्त होता है, पर उसका अभ्यास तो करना चाहिए| वास्तविक वैराग्य एक उपलब्धि है न की स्वयं पर एक थोपा हुआ अहंकार|
प्राचीन काल के वेदज्ञ ऋषि प्रियजनों के बीच रहकर विकर्म के अन्दर निष्कर्म, और विषयहीनता के भाव के साथ संसार में निर्लिप्त रहकर ब्रह्मसाधना करते थे| वे सब प्रकार के भोगों के बीच रहते हुए भी वीतराग होकर अपने गृहों को तपोवन बना लेते थे| याज्ञवल्क्य ऋषि की दो पत्नियां मैत्रेयी तथा कात्यायिनी थी फिर भी उन्होंने अमरत्व पाया| क्या वशिष्ठ तथा अरुंधती, अगस्त्य तथा लोपामुद्रा, भृगु तथा पुलोमा, अष्टावक्र तथा सुप्रभा, अंगीरा तथा श्रद्धा, अत्री तथा अनुसूया, मरीची तथा कलादेवी, पुलह तथा क्षमा, पुलस्त्य तथा हविर्भू, क्रतु तथा सन्नति, इत्यादि गृहस्थ ऋषियों के आध्यात्मिक स्तर की आज कोई बराबरी कर सकता है?
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पर वो युग दूसरा था और आज का युग दूसरा है| अतः उनसे तुलना न करें| आज के युग में समाज में रहकर वीतराग होना अति कठिन है| नित्यानित्यवस्तुविवेक, शमदमादि षटसम्पत्ति, मुमुक्षुत्व आदि का अभ्यास आजकल घर परिवार में रहकर करना बहुत अधिक कठिन या असंभव है|
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विस्तार भय से अधिक नहीं लिख रहा हूँ| कम से कम शब्दों में अपने भाव व्यक्त कर दिए हैं| आप सब मेरी निजात्मा हो, आप सब में हृदयस्थ प्रियतम परमात्मा को नमन!
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मेरे विचार से आज के युग में विरक्त होना आवश्यक है| संकल्प शक्ति से अधिक शक्तिशाली तो चारों ओर का वातावरण है| व्यक्ति को आजीविका के लिए अनेक प्रकार के व्यक्तियों से मिलना पड़ता है, देश-विदेश में पता नहीं कहाँ कहाँ भटकना पड़ता है, उनके और घर परिवार के सदस्यों के भी नकारात्मक विचारों का प्रभाव पड़ता है| समाज का वातावरण आजकल बहुत अधिक विषाक्त है, अतः किसी को जब भी परमात्मा की एक झलक मिले तभी से निःसंग विरक्त होकर एकांत में भगवान की साधना करनी चाहिए| घर, परिवार और समाज में रहकर यह असम्भव है| यह मैं अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ| किसी को अपने घर-परिवार में यदि सकारात्मक और सहायक वातावरण मिले तो दूसरी बात है|
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कोई दो लाख में से एक व्यक्ति के ह्रदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा होती है| यह अनेकानेक जन्मों के संचित कर्मों का फल होता है| अच्छे संतों से मिलना भी कई जन्मों के अच्छे कर्मों का फल होता है|
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प्राचीन भारत की बात दूसरी थी| तब सभी ऋषि मुनि गुह्स्थ होते थे| बड़े बड़े चक्रवर्ती राजा भी जब विरक्त होते थे तो सपत्नीक ही वन में तपस्या करने जाते थे| जब हमारे अन्तःस्थल से कामना-वासनाएँ पूरी तरह से निकल जाती है तभी वास्तविक वैराग्य प्राप्त होता है, पर उसका अभ्यास तो करना चाहिए| वास्तविक वैराग्य एक उपलब्धि है न की स्वयं पर एक थोपा हुआ अहंकार|
प्राचीन काल के वेदज्ञ ऋषि प्रियजनों के बीच रहकर विकर्म के अन्दर निष्कर्म, और विषयहीनता के भाव के साथ संसार में निर्लिप्त रहकर ब्रह्मसाधना करते थे| वे सब प्रकार के भोगों के बीच रहते हुए भी वीतराग होकर अपने गृहों को तपोवन बना लेते थे| याज्ञवल्क्य ऋषि की दो पत्नियां मैत्रेयी तथा कात्यायिनी थी फिर भी उन्होंने अमरत्व पाया| क्या वशिष्ठ तथा अरुंधती, अगस्त्य तथा लोपामुद्रा, भृगु तथा पुलोमा, अष्टावक्र तथा सुप्रभा, अंगीरा तथा श्रद्धा, अत्री तथा अनुसूया, मरीची तथा कलादेवी, पुलह तथा क्षमा, पुलस्त्य तथा हविर्भू, क्रतु तथा सन्नति, इत्यादि गृहस्थ ऋषियों के आध्यात्मिक स्तर की आज कोई बराबरी कर सकता है?
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पर वो युग दूसरा था और आज का युग दूसरा है| अतः उनसे तुलना न करें| आज के युग में समाज में रहकर वीतराग होना अति कठिन है| नित्यानित्यवस्तुविवेक, शमदमादि षटसम्पत्ति, मुमुक्षुत्व आदि का अभ्यास आजकल घर परिवार में रहकर करना बहुत अधिक कठिन या असंभव है|
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विस्तार भय से अधिक नहीं लिख रहा हूँ| कम से कम शब्दों में अपने भाव व्यक्त कर दिए हैं| आप सब मेरी निजात्मा हो, आप सब में हृदयस्थ प्रियतम परमात्मा को नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ मई २०१६
कृपा शंकर
४ मई २०१६