Sunday 28 May 2017

साधक कौन ?.....

साधक कौन ?.....
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किसी भी आध्यात्मिक साधना में किसी भी साधक को सिर्फ एक चौथाई यानि २५% भाग ही साधना का करना पड़ता है|
करुणावश उतना ही २५% भाग सद् गुरु महाराज अपने शिष्य के लिए स्वयं करते हैं,
बाकी का ५०% भाग कृपा कर के भगवान स्वयं करते हैं|
पर साधक का जो २५% भाग है, उसका शत प्रतिशत तो साधक को स्वयं ही पूरी निष्ठा से करना पड़ता है|
पारस पत्थर तो लोहे को सोना बनाता हैं, पर सद् गुरु महाराज तो शिष्य को अपने जैसा ही बना लेते हैं|
अतः पूर्ण रूप से समर्पित होकर पूरी निष्ठा से गुरु प्रदत्त साधना करनी चाहिए|
दीक्षा लेकर भी जो गुरु को दिए वचन को न निभाए वह निश्चित रूप से पाप का भागी है|


ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

सप्त व्याह्रतियों के साथ ब्रह्मगायत्री मन्त्र और प्राणायाम की साधना ---


सप्त व्याह्रतियों के साथ ब्रह्मगायत्री मन्त्र और प्राणायाम की साधना ----------
(गायत्री साधना की यौगिक व तांत्रिक विधि)
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(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)

 (निम्न प्रस्तुति व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, साधना के निजी अनुभवों और कुछ कुछ स्वाध्याय पर आधारित है)
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भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को 'गायत्री छन्दसामहम्' अर्थात छंदों में गायत्री कहा है|
गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में गायत्री मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है।
भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है .........
''जो व्यक्ति गायत्री का जप करते हैं उनको धन, पुत्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं| उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता| जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं| जिस स्थान पर गायत्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं|
जो लोग गायत्री का जप करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा वे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं| गौवों के बीच गायत्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है| घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें| गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|"
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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है|
इस मन्त्र का देवता सविता (सूर्य) है| वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है| इसी से उसे सावित्री कहते हैं|
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः| प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे||
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं|’’
ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं| गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है| सविता तेज का प्रतीक है| अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए|
गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और साधक उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है|
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वेसे तो वेद की महिमा अनन्त है, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है ----
"तत्सवितुर्वरेण्यं| भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो न: प्रचोदयात||"
उपरोक्त मन्त्र का अर्थ तो सभी को ज्ञात है अतः उस पर चर्चा नहीं करेंगे|
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गायत्री की महिमा अनंत है|
गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:। गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
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योग साधना में गायत्री मन्त्र का जाप ----
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गुरु प्रदत्त विधि से सूक्ष्म शरीरस्थ सुषुम्ना नाड़ी में होता है| गुरु कृपा से ही सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है|
उससे भी आगे परा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से भ्रूमध्य तक होकर वहाँ से सहस्त्रार में जाती है| और उत्तरा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से सीधे सहस्त्रार में जाती है| उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
वहाँ जो कूटस्थ ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जाप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर एक विराट ज्योति दिखाई देती है जिस पर ध्यान किया जाता है| जब चित्त में थोड़ी स्थिरता आती है तब फिर प्रार्थना और जप किया जाता है ----
ॐ "तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो योन: प्रचोदयात् |"
यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं|
यह एक जप है| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे|
फिर जप के पश्चात् उस ज्योति का ध्यान करते रहो और ॐ के साथ साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं ही हैं|
(पूरी विधि किसी शक्तिपात संपन्न सद्गुरु से सीखनी चाहिए)
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समापन --
ॐ "आपो ज्योति" मानसिक रूप से बोलते हुए दायें हाथ की तीन अँगुलियों से बाईँ आँख का स्पर्श करें,
"रसोsमृतं" से दायीं आँख का,
और "ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्" से भ्रूमध्य का स्पर्श करें|
फिर लम्बे समय तक अपने आसन पर बैठे और सर्वस्व के कल्याण की कामना करो| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और आप स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
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मुझे एक संत ने बताया था कि ऋग्वेद में एक मंत्र है जिस में "गायत्री" शब्द आता है और उस मन्त्र के दर्शन बिश्वामित्र से बहुत पूर्व शव्याश्व्य ऋषि को हुए थे|
प्रचलित गायत्री मन्त्र के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि थे| इस के चौबीस अक्षर हैं और तीन पद हैं| अतः यह त्रिपदा चौबीस अक्षरी गायत्री मन्त्र कहलाता है| बाद में अन्य महान ऋषियों ने गायत्री मंत्र से पहले "भू", भुवः, और "स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ भी जोड़ दीं| अतः पूरा मन्त्र अपने प्रचलित वर्त्तमान स्वरुप में आ गया|
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यह सप्त व्याह्रातियुक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और समाधी के लिए बहुत प्रभावी है|
इस साधना में यम नियमों का पालन, व भक्ति अनिवार्य है, अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा|
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आप सब में हृदयस्थ प्रभु को नमन |
ॐ तत्सत्| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२६ मई २०१५

अनुसरण किसका करें ? ....

अनुसरण किसका करें ? ....
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महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में महाराज युधिष्ठिर कहते है ......
"तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः ||"
अर्थात् .... तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं जिनका वचन प्रमाण माना जा सके| धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
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अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कौन से महापुरुष हैं जिनका अनुसरण किया जाए|
हर व्यक्ति अपनी अपनी चेतना के अनुसार पृथक पृथक उत्तर देगा|
मेरी जहाँ तक समझ है, तीन ही ऐसे महापुरुष हैं जिनका मैं अनुसरण कर सकता हूँ, यानि जिनको मैं पूर्णतः समर्पित हो सकता हूँ|
वे हैं ..... भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण और श्री हनुमान जी |
ये ही मेरे परम आदर्श हैं, और इनके जीवन का प्रत्येक अंश मेरे लिए परम आदर्श है| इनका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता|
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महाभारत में आता है कि सरोवर में जल लेने गये महाराज युधिष्ठिर को उस सरोवर में रहनेवाले यक्ष ने चार प्रश्न किये, और कहा कि उन चार प्रश्नों के उत्तर देने पर ही वह सरोवर का जल ले सकते हैं, अन्यथा नहीं| यक्ष के प्रश्नों के उत्तर न देने पर अन्य चारों पांडव मूर्छित हो चुके थे|
यक्ष ने पूछा ......
का वार्ता, किमाश्चर्यं, कः पन्था, कश्च मोदते ?
इति मे चतुरः प्रश्नान् पूरयित्वा जलं पिब ....
अर्थात् ...
(1) कौतुक करने जैसी क्या बात है ?
(2) आश्चर्य क्या है ?
(3) कौन सा मार्ग है ?
(4) कौन आनंदित रहता है ?
मेरे इन चार प्रश्नों के उत्तर देने के पश्चात् ही पानी पी सकते हो|
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महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया .....
 

(1) मासर्तुवर्षा परिवर्तनेन सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन |
अस्मिन् महामोहमये कराले भूतानि कालः पचतीति वार्ता ||
अर्थात् ....
इस कराल मोह में, महिने, वर्ष इत्यादि के परिवर्तन से, सूर्यरुप अग्नि के इंधन से काल रात-दिन प्राणियों को पकाता है; यह कौतुक करने की बात है |
 

(2) अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् |
शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ||
अर्थात् ....
प्रतिदिन कितने हि प्राणी यम मंदिर जाते हैं (मर जाते हैं), यह देखने के पश्चात भी शेष मनुष्य सदा जीवित रहना चाहते हैं| यह सबसे बड़ा आश्चर्य है|
 

(3) "तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम्
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः |"
अर्थात् ....
तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं केवल जिनका वचन प्रमाण माना जा सके; धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
 

(4) दिवसस्याष्टमे भागे शाकं पचति गेहिनी |
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ||
अर्थात् .......
हे जलचर ! दिन के आठवें भाग में (सुबह-शाम रसोई के वक्त) जिसकी गृहिणी खाना पकाती हो, जिसके सर पे कोई ऋण न हो, जिसे (अति) प्रवास न करना पड़ता हो, वह मनुष्य (घर) सदा आनंदित होता है ।
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ मई २०१६

क्या करें और क्या न करें ? ......

क्या करें और क्या न करें ? ......
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आज के जीवन की भागदौड़ में, अनेक प्रकार के दबावों और आकर्षणों के मध्य, कोई भी सान्सारिक व्यक्ति विचलित हुए बिना नहीं रह सकता|
क्या करें और क्या न करें ? यह प्रश्न सदा विचलित करता रहता है|
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सर्वश्रेष्ठ समाधान है ..... हम परमात्मा को जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता बनाकर उसे स्वयं में प्रवाहित होने दें| जब तक कर्ताभाव है तब तक शास्त्रोक्त कर्म करें|
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एक गृहस्थ को जीवन में कम से कम इतना तो धन संचय करना चाहिए कि किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े| आज कि दुनिया में वह व्यक्ति भाग्यशाली है जिस पर कोई ऋण यानि उधार न हो, जिसे आजीविका के लिए परदेशों में भटकना ना पड़ता हो, और जिसे घर में प्रेम से बनाया हुआ भोजन मिलता हो|
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जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ है अपने ह्रदय से पूछकर वो ही कार्य करें|


ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
२६ मई २०१६

जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....



जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....
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जैसा हम सोचते हैं वैसा ही प्रभा-मंडल हमारे चारों और बन जाता है और वह प्रभा-मंडल वैसी ही परिस्थितियों को हमारी और आकर्षित करता रहता है| सफलता के विचार सफलता लाते हैं, असफलता के विचार असफलता लाते हैं, और जो हम सोचते हैं वही हम बन जाते हैं| हम यदि सोचते हैं कि हमारा कार्य कठिन है तो वह वास्तव में कठिन हो जाएगा, यदि हम उसे आसान सोचेंगे तो वह सचमुच आसान हो जाएगा| हम अपनी मंजिल को दूर मानेंगे तो मंजिल दूर चली जायेगी, मंजिल को पास मानेंगे तो मंजिल पास ही आ जायेगी|
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ये ही नियम आध्यात्म में लागू होते हैं| यदि हम सोचते हैं कि भगवान मेरे से दूर है तो भगवान वास्तव में दूर हैं, और यदि हम सोचते हैं कि भगवान हमारे ह्रदय में है तो वास्तव में वे हमारे ह्रदय में ही होते हैं|
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सारी आध्यात्मिक साधनाओं का यही रहस्य है| अब और क्या लिखूं ? सार की बात लिख दी है| जो समझने वाले हैं वे समझ जायेंगे और जो नहीं समझ सकते वे कभी नहीं समझेंगे| हम भजन, जप, तप, ध्यान आदि करते हैं, निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं, उसका प्रयोजन यही है|
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सफलता का रहस्य प्रयास की गहनता और निरंतरता में है| हम भगवान का ध्यान जितना अधिक करेंगे उतनी ही अधिक और भी हमारी इच्छा ध्यान करने की होगी| जितना कम ध्यान करेंगे उतनी ही परमात्मा को पाने की प्यास कम होती चली जाती है|
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आत्मा की प्यास और तड़प यानि अभीप्सा तो परमात्मा के प्रति ही होती है| आत्मा को संतुष्टि परमात्मा से ही मिलती है| मन इन्द्रीय सुखों की पूर्ती हेतु संसार में भटकाता है पर संसार में किसी को कहीं भी संतुष्टि नहीं मिलती है क्योंकि जो आत्म-तत्व है वह तो परमात्मा को ही पाना चाहता है| हम इस बात को समझें या न समझें यह दूसरी बात है, पर यह सत्य है कि हमारा आत्म-तत्व परमात्मा को ही पाना चाहता है, उसकी अभीप्सा परमात्मा के ही प्रति है, वह अन्य कहीं संतुष्ट नहीं हो सकता| इन्द्रिय सुखों के प्रति प्रबल आकर्षण विखंडित व्यक्तित्व को जन्म देता है| यही हमारे असंतोष का कारण है|
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जो हम बनना चाहते हैं वह तो हम पहले से ही हैं| जिसे हम ढूँढ रहे हैं, वह भी हम स्वयं ही हैं| सुख, शान्ति, संतुष्टि, आनंद और पूर्णता हम स्वयं ही हैं| परमात्मा का ह्रदय ही हमारा स्वाभाविक घर है जहाँ हमें पहुँचना है| पर हम तो वहाँ पहले से ही हैं| जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह हम स्वयं हैं| पूर्ण प्रेम से निरंतर इसी भाव में प्रयासपूर्वक रहो| एक दिन हम स्वयं को अपने गंतव्य पर ही पायेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
२७ मई २०१७

भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा ......

भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा  ......
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भारत में इस समय सबसे अधिक दुर्दशा ब्राह्मणों की है| ब्राह्मणों की स्थिति तथाकथित दलितों से भी खराब है| वास्तव में इस समय देश में कोई दलित वर्ग है तो वह ब्राह्मणों का है| आरक्षण व्यवस्था ने ब्राह्मणों की आर्थिक और सामाजिक रूप से कमर तोड़ दी है| अब ब्राह्मणों को यदि जीवित रहना है तो संगठित होना पड़ेगा| आरक्षण के समर्थक सभी दल ऊंची ऊंची बातें ही करते हैं पर सामाजिक समरसता के शत्रु हैं| ब्राह्मणों के साथ साथ राजपूतों जैसी अन्य अनारक्षित सामान्य वर्ग की जातियों का भी यही हांल है| किसी भी तरह का आरक्षण न हो| हर कदम पर आरक्षण का विरोध करें|
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ब्राह्मणों ने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किये| ब्राह्मणों के विरुद्ध समस्त झूठा प्रचार अंग्रेजों ने किया| सन १८५८ ई. में अंग्रेजों ने ब्राह्मणों द्वारा चलाये जा रहे सारे गुरुकुलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया| उन का धन छीन कर उन्हें निर्वासित कर दिया| उनकी पुस्तकें जला दी गईं| उन का उद्देश्य था ब्राह्मण व्यवस्था को नष्ट करना| आज जितने भी धर्म ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सिर्फ इसीलिए उपलब्ध है कि ब्राम्हणों ने उन्हें रट रट कर सुरक्षित रखा| ब्राह्मण शासक वर्ग नहीं था| दलितोद्धार का आरम्भ ब्राह्मणों ने ही किया| जिन्हें आप दलित कहते हैं वे उच्च कोटि के क्षत्रिय ठाकुर थे| चूंकि उन्होंने इस्लाम कबूल नहीं किया इसलिए मुस्लिम शासकों ने उन्हें मल उठाने को बाध्य किया| उन्होंने अपनी मर्यादा भंग की पर धर्म नहीं छोड़ा इसलिए मुस्लिम शासकों ने उन्हें भंगी कह्ना शुरू किया| कई शताब्दियों तक उन्होंने विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध संघर्ष किया| दलितों में भी अनेक जातियां हैं| आरक्षण का लाभ उनकी एक जाति विशेष को ही मिला है| ब्राह्मणों के विरुद्ध सारा प्रचार धर्मनिरपेक्षतावादियों और मार्क्सवादियों का है जो वर्ग-संघर्ष में आस्था रखते हैं| सनातन धर्म में वर्ग संघर्ष का कोई स्थान नहीं है| ब्राह्मणों का जीवन त्याग तपस्या से पूर्ण रहा है| सब से अधिक त्याग और तपस्या किसी जाति ने की है तो वह है ब्राह्मण जाति| जाति प्रथा का विरोध भी किसी ने किया है तो सिर्फ ब्राह्मण जाति ने| दलितोद्धार का वर्त्तमान युग में सबसे बड़ा कार्य किया स्वामी दयानंद सरस्वती और वीर सावरकर जैसे लोगों ने जो स्वयं ब्राह्मण थे|
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वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित किसने व कब किया यह तो निष्पक्ष शोध का विषय है| यहाँ मैं कुछ ऐसे विद्यालयों व् गुरुओं की बात बताना चाहता हूँ जिन्हें मैंने बचपन में अंतिम सांसें लेते हुए देखा है| आज कोई उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता| मैंने अपनी आँखों से ऐसे गुरुओं को देखा है जो विद्यादान के बदले में कोई शुल्क नहीं लेते थे| नि:शुल्क विद्यार्थियों को पढ़ाते थे| वर्ष में एक बार गुरूजी चौकी पर बैठते थे और विद्यार्थी एक एक कर के क्षमतानुसार कुछ वस्त्र या अन्न या कुछ राशी उन्हें गुरु-दक्षिणा के रूप में देते जिनसे वे पूरे वर्ष भर काम चलाते|जो विद्यार्थी कुछ भी देने में असमर्थ होता गुरूजी उसके घर वर्ष में सिर्फ एक बार भोजन कर आते| बस इसी स्कूल फीस के बदले गुरूजी वर्ष भर बच्चों को अपना धर्म मान कर पढ़ाते| यह भारत के ब्राह्मणों का धर्म था जो आज की अंग्रेजी स्कूलों की चकाचोंध में खो गया है|

ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२७ मई २०१३

आत्मनिवेदन यानि नरमेध यज्ञ .......


आत्मनिवेदन यानि नरमेध यज्ञ .......
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योगियों के अनुसार कुण्डलिनी जागरण ................ गोमेध यज्ञ है,
मणिपुर चक्र का भेदन ...................................... अश्वमेध यज्ञ है,
अनाहत चक्र का भेदन ...................................... वाजपेय यज्ञ है,
आज्ञा चक्र का भेदन .......................................... सोम यज्ञ है,
और अपने आप को हवि रूप में
परमात्मा रुपी अग्नि में पूर्ण समर्पण ........................ नरमेध यज्ञ है|
यह आत्मनिवेदनात्मक भक्ति रुपी यज्ञ है|
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कोई भी प्राणी पवित्रता और शुद्ध भाव से अपने आपको शाकल्य मानकर और भगवान को अग्नि समझकर उन प्रभु को अपने आप को निरंतर समर्पित करता है, तो यह नरमेध यज्ञ उसे भगवान् की प्राप्ति करा देता है|

हवि डालते समय ओम् या किसी भगवन्नाम या मन्त्र का उच्चारण हम कर सकते हैं| यह सामग्रीनिरपेक्ष सात्विक यज्ञ है जिसे शरणागति या आत्मनिवेदन भक्ति भी कह सकते हैं| इस परम सात्विक नरमेध यज्ञ यानि आत्मनिवेदन रूपी भक्ति यज्ञ का आश्रय हम सब ले सकते हैं|

ॐ आत्मतत्वं समर्पयामी नम: स्वाहा । इदम् नरमेध यज्ञे आत्म कल्याणार्थाय इदम् न मम ।।
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२७ मई २०१५

नाद और बिंदु से संसार की उत्पत्ति ......

नाद और बिंदु से संसार की उत्पत्ति ......
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जब ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था, तब अचानक ही एक बिंदु की उत्पत्ति हुई, और वह बिंदु मचलने लगा| तब उसके अंदर भयानक परिवर्तन और विस्फोट होने लगे| शिव पुराण के अनुसार नाद और बिंदु के संयोग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है| नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश| इसे ही अनाहत नाद या अनहद की ध्वनि कहते हैं जो शाश्वत और सनातन है| इसी ध्वनि को हिंदुओं ने "ॐ" के रूप में व्यक्त किया है और यह ॐ ही परम ब्रह्म है जो स्वयं प्रकाशित है| ध्यान में सुनने और दिखाई देने वाली इसी ज्योतिर्मय अक्षर परम ब्रह्म की सतत् चेतना को योगी लोग कूटस्थ चैतन्य कहते हैं|
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ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ है .... निरंतर 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना'| ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं| विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म ही है| जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है, उसको स्थित भी रखता है, और बापस अपने में समेट भी लेता है| नृत्यकार और नृत्य में कोई अंतर नहीं है| जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है| यह सृष्टि भी परमात्मा यानि परम ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है|
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ॐ तत्सत् |ॐ ॐ ॐ ||
२६ मई २०१३

हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद हम स्वयं ही हैं .....

हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद  हम स्वयं ही हैं .....
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हम इस संसार में जिस खजाने को ढूँढ रहे हैं, वह खज़ाना तो हम स्वयं ही हैं|
हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद भी हम स्वयं ही हैं|

हमारे धर्म-ग्रन्थ कहते हैं .....
त्वं हि ब्रह्मैव साक्षात् परमुरुमहिमन्नक्षराणामकार-
स्तारो मन्त्रेषु राज्ञां मनुरसि मुनिषु त्वं भृगुर्नारदोऽपि ।
प्रह्लादो दानवानां पशुषु च सुरभि: पक्षिणां वैनतेयो
नागानामस्यनन्तस्सुरसरिदपि च स्रोतसां विश्वमूर्ते ॥

हे महान महिमाशाली! निस्सन्देह आप ही साक्षात परम ब्रह्म हैं। अक्षरों में आप ही 'अ' कार हैं, मन्त्रों में 'ऊं' कार, राजाओं में मनु, ब्रह्मर्षियों में भृगु और देवर्षियों में नारद हैं। हे विश्वमूर्ते! असुरों में आप ही प्रह्लाद हैं, पशुओं में सुरभि गाय, पक्षियों में गरुड, नागों में अनन्त, और नदियों में गङ्गा हैं।
अब इसके बाद कुछ भी कहने की क्या आवश्यकता है ? ॐ ॐ ॐ ||
May 26, 2015 at 11:40am ·

सृष्टि का एक रहस्य .....

सृष्टि का एक रहस्य .....
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सृष्टि का एक रहस्य है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं| जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है| ये विचार, ये भाव ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है| इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है| हब सब भगवान के ही अंश हैं, हम सब ही भगवान में एक हैं, पृथक पृथक नहीं, हम ही भगवान हैं, यह देह नहीं|
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता| किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम| इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं| किसी महान संत ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है| एक विद्यार्थी जो डॉक्टर बनना चाहता है उसे अपनी ही सोच के विद्यार्थियों के साथ रहना होगा| जो जैसा बनना चाहता है उसे वैसी ही अनुकूलता में रहना होता है|
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इसी तरह संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति मानवीय कार्य है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है| इसे कोई लाखों में से एक ही कर सकता है| लोग उस लाखों में से एक का ही उदाहरण देते हुए दूसरों को निरुत्साहित करते हैं| जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें हर प्रतिकूलता पर प्रहार करना होगा| सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों पर नियंत्रण| इसके लिए अपने अनुकूल वातावरण निर्मित करना पड़ता है|
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स्वामी रामतीर्थ स्वयं को बादशाह राम कहते थे| उनके लिए पूरी सृष्टि उनका परिवार थी, समस्त ब्रह्माण्ड उनका घर, और पूरा भारत ही उनकी देह थी|| बिना रुपये पैसे के पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया, विदेशों में खूब प्रवचन दिए और जिस भी वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती, प्रकृति उन्हें उस वस्तु की व्यवस्था कैसे भी स्वयं कर देती| अगर हमारे संकल्प में गहनता है तो इस सृष्टि में कुछ भी हमारे लिए अप्राप्य नहीं है| तपस्वी संत महात्मा एकांत में रहते है| भगवन उनकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है|
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो| जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हमारा ही है| यह समस्त सृष्टि हमारी ही है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहां तक के हम ही सम्राट हैं| सृष्टि के सारे सद्गुण हमारे ही हैं| अपने आप को परमात्मा को सौंप दो| परमात्मा का सब कुछ हमारा ही है| स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी क्या बचा रह गया है ???. हमें आभारी होना चाहिए कि भगवान ने हमें स्वस्थ देह दी है, अपना चिंतन दिया है, अहैतुकी प्रेम दिया है, हमारे सिर पर एक छत दी है, अच्छा पौष्टिक भोजन मिल रहा है, स्वच्छ जल और हवा मिल रही है, पूरे विश्व में हमारे शुभचिंतक मित्र है जो हम से प्रेम करते हैं, और हमारे गुरु महाराज हैं जो निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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जिस आसन पर बैठ कर हम भगवान का ध्यान करते हैं वह हमारा सिंहासन है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहाँ तक के हम सम्राट हैं| हम स्वयं ही वह सब हैं| पूरी सृष्टि हमारा परिवार है, समस्त ब्रह्मांड हमारा घर है, हम परमात्मा की दिव्य संतान हैं| जो कुछ भी भगवान का वैभव है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| वह सब हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं| हम और हमारे परम पिता परमात्मा एक हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह गया है| सब कुछ तो प्राप्त कर लिया है| मैं और मेरे प्रभु एक हैं, अब उन में और मुझ में कोई भेद नहीं रह गया है|

शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

हिन्दुओं में जातिवाद .......


 हिन्दुओं में जातिवाद .......
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हिन्दुओं में जाती प्रथा (जातिवाद) अब तक समाप्त हो जाती पर भारत के संविधान और सरकारी नीतियों ने इसे जीवित बना रखा है| सरकारी कागजों में जाती का उल्लेख प्रतिबंधित करने मात्र से ही जाती प्रथा समाप्त हो जायेगी| सबके साथ समान व्यवहार हो और किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हो तो जाती प्रथा नहीं रहेगी| इसे राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए जीवित बना रखा है|
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हिन्दू धर्मावलम्बी वैसे ही संगठित नहीं है, पर उनमें से ब्राह्मण जाती के लोग तो सर्वाधिक असंगठित हैं| यही उनके पतन का सबसे बड़ा कारण है| जब तक ब्राह्मणों में उप जाती भेद है तब तक ब्राह्मण एकता कभी भी नहीं हो सकती|
ब्राह्मण ब्राह्मण है, उन्हें अपनी सभी उपजातियों को विसर्जित कर देना चाहिए| उनकी कई उप जातियाँ हैं जैसे .... गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, शाकद्वीपीय, मैथिली, सरयुपारीन, सनाढ्य, त्यागी, पुष्करणा, दाधीच, श्रीमाली, भूमिहार, खंडेलवाल, महियाल, चित्तपावन, देशस्थ, कोंकणी, अयंगार, अय्यर, नम्बूदरी, नियोगी आदि आदि आदि| इन सब को विसर्जित कर देने का समय आ गया है|

हाथी के दांत खाने के और, और दिखाने के और ....

हाथी के दांत खाने के और, और दिखाने के और ....
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भारत में कई लोग अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के बारे में धारणा रखते थे कि ये इस्लामिक आतंकवाद के विरोधी हैं और आतंकवादियों का नाश कर के ही छोड़ेंगे, उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का विचित्र शीर्षासन देखकर निराशा हुई होगी| अमेरिका के लिए अपने आर्थिक हित सर्वोपरी हैं| अमेरिका एक कारोबारी देश है जिसका भगवान सिर्फ पैसा है| और ट्रम्प महोदय तो स्वयं एक सफल कारोबारी हैं| कोई कारोबार करना सीखे तो उनसे सीखे|
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राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए उन्होंने अमेरिका का इस्लाम विरोधी मानस भाँप कर इस्लाम और आतंकवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू बता दिया था| अमेरिका के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों को उन्होंने सम्मोहित कर लिया| सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध लगा कर अपनी छवि एक इस्लाम विरुद्ध नेता के रूप में बनाई|
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लेकिन उनकी सऊदी यात्रा ने उनकी पोल खोल दी| सऊदी अरब में वे इस्लामी आतंकियों को धमकाते धमकाते गए थे जहाँ विश्व के सुन्नी बहुमत वाले ५५ देशीं के राष्ट्राध्यक्ष उपस्थित थे| वहाँ उन्होंने अपने व्यापारिक हित को अधिक महत्व दिया और सउदी अरब के साथ 350 अरब डॉलर के रक्षा-समझौते और 200 बिलियन डॉलर के अन्य व्यापारिक समझौते कर के, करोड़ों डॉलर कमा कर, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में एक नई जान फूँक दी| इसे कहते हैं असली कारोबारी|
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वहाँ उन्होंने एक नंगी तलवार हाथ में लेकर अरबी संगीत पर नृत्य भी किया, सऊदी अरब की खूब तेल मालिश की और आतंकवाद का सारा दोष अकारण शिया देश ईरान पर डाल दिया| उन्होंने पाकिस्तान को घास इसलिए नहीं डाली क्योंकि भिखारी पकिस्तान के साथ अमेरिका की दोस्ती सदा एक घाटे का सौदा रही है| अमेरिका ने पाकिस्तान का उपयोग सिर्फ भारत को डराने धमकाने के लिए ही किया है|
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दुनिया में फैले इस्लामी आतंकवाद को धन देने वाला सबसे बड़ा देश सऊदी अरब ही है| सबसे अधिक हिंसक और आक्रामक वहाबी इस्लाम सऊदी अरब का फैलाया हुआ है| ट्रंप ने सउदी अरब में दुनिया के सुन्नी बहुल 55 मुस्लिम देशों के नेताओं को संबोधित किया| मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प निकट भविष्य में सुन्नी सउदी अरब और शिया ईरान में युद्ध आरम्भ करवा कर ही अमेरिकी हित साधेंगे, वैसे ही जैसे पूर्व में अमेरिका ने ही ईरान और इराक में आपस का युद्ध करवाया था| उन्होंने अपने रोगी (अरब देशों) के सही मर्ज का तो पता लगा लिया पर एक गलत दवाई दी जिससे रोग सदा बना रहे और अमेरिकी हित सधता रहे|
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राष्ट्रपति ट्रम्प के ही साथ गए एक सैन्य अधिकारी तो इस्लामी देशों के नेताओं को "द इस्लामिस्ट माफिया" कहते हुए सुने गए| अमेरिका को तानाशाहों द्वारा शासित या बादशाहों द्वारा शासित सऊदी अरब जैसे देश ही पसंद है जो अमेरिका से बिना किसी आवश्यकता के अनाप सनाप खूब हथियार खरीद सकते हैं, क्योंकि वहाँ उनको कोई प्रश्न नहों कर सकता| सऊदी अरब में वहाँ के बादशाह के किसी निर्णय का विरोध करने वाले का तो सिर सार्वजनिक रूप से काट दिया जाता है| अतः वहां किसी का सहस नहीं होता कि वह सरकार का विरोध करे|
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सऊदी अरब सरकार द्वारा अरबों डॉलर से खरीदे हुए टैंकों और युद्धक विमानों का प्रयोग भारत के विरुद्ध हो सकता है क्योंकि सऊदी अरब और पाकिस्तान में एक रक्षा समझौता है| भारत में होने वाली सारी आतंकी गतिविधियों के लिए धन पकिस्तान के माध्यम से सऊदी अरब से ही आता है| सऊदी अरब को किसी भी देश से कोई खतरा नहीं है, वह इतने सारे हथियारों का करेगा क्या? उसके पास तो सेना बनाने के लिए आदमी ही नहीं है अतः वह निश्चित रूप से भाड़े पर पाकिस्तानियों को भर्ती करेगा| अभी भी उसने ५५ देशों के सुन्नी मुसलमानों की एक इस्लामी सेना बना रखी है जिसके सेनापती पाकिस्तान के पूर्व स्थल सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ हैं|
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अतः मेरे प्यारे भारत वासियों अपनी रक्षा के लिए स्वयं सशक्त बनो| अमेरिका आदि देशों और पश्चिमी देशों पर निर्भर मत रहो| भारत में हुई आतंकी घटनाओं पर इन देशों ने कभी भारत का साथ नहीं दिया|
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हर देश की विदेश निति भावुकता से नहीं, अपने राष्ट्रीय और आर्थिक हितों को दृष्टी में रखकर बनती है| हम स्वयं सशक्त और राष्ट्रवादी होंगे तो ही दुनिया हमारा साथ देगी, अन्यथा नहीं|
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वन्दे मातरम् | भारत माता की जय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
 कृपा शंकर
२५ मई २०१७

जन्म और मृत्यु .....

जन्म और मृत्यु .....

 प्राणी का जन्म मृत्यु के लिए ही होता है, .... यह सनातन सत्य है| जन्म और मृत्यु के मध्य का समय ही जीवन है| विचारणीय विषय यह है कि इसकी सार्थकता यानि सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता हैै? प्रत्येक प्राणी जो इस संसार में जन्म लेता है वह क्या बनेगा इसका उसे कोई ज्ञान नहीं होता| पर इतना तो उसे बोध होता ही है कि वह मृत्यु को एक न एक दिन अवश्य प्राप्त होगा| यही परम सत्य है|
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"जीवन और मृत्यु" क्या हमारे वश में है? पता नहीं कितनी बार हम जन्में और मरे हैं| कब तक यह चक्र चलता रहेगा? कुछ भी नहीं कह सकते| शास्त्र कहते हैं कि कर्म फल भोगने के लिए हम जन्म लेते हैं| पर एक कर्म फल भोगने के चक्कर में हज़ारों कर्मफल संचित कर लेते हैं| इस मायावी चक्र से कैसे मुक्ति पाएँ?
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श्रीमद्भागवत की कथा में राजा परीक्षित को जब यह ज्ञान हुआ कि आत्मा अजर-अमर है, तो उसका मृत्यु का भय समाप्त हो गया| मुक्ति की परिकल्पना ही एक असत्य है| आत्मा तो नित्य मुक्त है| अहंकार और मोह ही बंधन के कारण हैं| इनसे मुक्त होना ही मुक्ति है| अहं का पूर्ण समर्पण ही मुक्ति है| मन में कोई शुभ विचार आए तो उसे उसी दिन उसी समय पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए| कल पर टालना ही मृत्यु है|
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जो हमारे वश में ही नहीं है, उस पर हम हम क्या कर सकते है? पर जो हमारे वश में है वह तो इसी क्षण कर सकते हैं| सबसे बड़ी सेवा और सबसे महान कार्य जो हम जीवन में कर सकते हैं वह है ..... "परमात्मा को पूर्ण समर्पण और निज जीवन में उसे व्यक्त करने का प्रयास" ..... जो हमें निरंतर करना चाहिए|
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हे जगन्माता, तुम्हीं परमब्रह्म हो, तुम्ही परमशिव हो, तुम्ही विष्णु हो, तुम्हीं नारायण हो| मैं तुम्हें नहीं जानता, पर तुम मेरे ह्रदय में प्रेमरूप में स्थित हो, तुम मेरे ह्रदय का परम प्रेम हो| प्रेम रूप में तुम सदा मेरे साथ हो|
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मैं मेरे सारे बुरे-अच्छे कर्म और उनके फल, मेरी सारी बुराइयाँ और अच्छाइयाँ ..... सब तुम्हें समर्पित करता हूँ| मुझे कोई मुक्ति नहीं चाहिए| चाहिए तो बस तुम्हारे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम| उससे कम कुछ भी नहीं| मैं सदा तुम्हारे ह्रदय में रहूँ| फिर चाहे कितने भी ज्न्म और मृत्यु हो मुझे उससे कोई मतलब नहीं है|
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ॐ तत्सत ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

कृपाशंकर
25 May 2015

आनंद की झलक :----

आनंद की झलक :----
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मनुष्य मौज-मस्ती करता है सुख की खोज में| यह सुख की खोज, अचेतन मन में छिपी आनंद की ही चाह है| सांसारिक सुख की खोज कभी संतुष्टि नहीं देती, अपने पीछे एक पीड़ा की लकीर छोड़ जाती है|
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आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं सिर्फ ..... परमात्मा के ध्यान में| परमात्मा ही आनंद है, परम प्रेम जिसका द्वार है|
प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के छः चक्रों में ऊर्ध्वगमन, कूटस्थ में अप्रतिम ब्रह्मज्योति के दर्शन और ओंकार का नाद, सहस्त्रार में व उससे भी आगे सर्वव्यापी भगवान परमशिव की अनुभूतियाँ जो शाश्वत आनंद देती हैं, वह भौतिक जगत में असम्भव है|
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 एक ध्वनी ऐसी भी है जो किसी शब्द का प्रयोग नहीं करती | उस निःशब्द ध्वनी में तन्मय हो जाना उच्चतम साधनाओं में से एक है | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता मनुष्य की समस्त पीडाओं का एकमात्र कारण है ....

May 24, 2013

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता मनुष्य की समस्त पीडाओं का एकमात्र कारण है|

सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण|
प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे|
 

जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं|

संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति|
तब आपका अस्तित्व ही दूसरों के लिए वरदान बन जाता है|

तब आप इस धरा को पवित्र करते हैं, पृथ्वी पर चलते फिरते भगवान बन जाते हैं, आपके पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है|

भारतवर्ष ....

भारतवर्ष ........
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सनातन धर्म ही भारतवर्ष है, और भारतवर्ष ही सनातन धर्म है| भारतवर्ष ऊर्ध्वमुखी चेतना के ऐसे लोगों का समूह है जो निरंतर विभा में रत हैं| सनातन धर्म ही भारतवर्ष की राजनीति है|
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मुझे गर्व है ऐसे भारत पर जहाँ गंगा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, गोमती, गोदावरी, नर्मदा, कृष्णा और कावेरी जैसी अनेक पवित्र नदियाँ हैं, जहाँ हिमालय की गुफाएँ हैं और ऐसे महान भक्त, त्यागी-तपस्वी, विरक्त संत हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं|
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यह संत-महात्माओं, त्यागी-तपस्वियों, सिद्ध-योगियों, भक्तों, दानियों और शूरवीरों का देश सदा अज्ञान और अन्धकार में नहीं रह सकता|
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परमात्मा की सबसे अधिक अभिव्यक्ति कहीं हुई है तो बस इसी देश में|
हजारों वर्षों के कालखंड में पिछले एक हज़ार वर्षों का समय अज्ञानान्धकार का था जो व्यतीत हो चुका है| अब आगे आने वाला समय प्रकाश ही प्रकाश का है| भारत का भविष्य सनातन धर्म है और इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष है| परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम की अभिव्यक्ति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का ध्येय है|
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एक प्रचंड प्रबल आध्यात्मिक ब्रह्मतेज का प्राकट्य इस राष्ट्र में होने वाला है जो सब तरह की दुर्बलताओं का विनाश कर एक नए भारत को साकार रूप देगा|
भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होगी|
सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा समस्त विश्व में होगी|
इसे कोई नहीं रोक सकता क्योंकि यही ईश्वर की इच्छा है जिसको क्रियान्वित करने के लिए समस्त प्रकृति बाध्य है|
असत्य और अन्धकार की शक्तियों का पूर्ण विनाश निश्चित है|
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ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२४ मई २०१५.

अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो .....

 अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो .....
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मैं समान विचार और समान साधना पद्धति के लोगों का एक समूह बनाना चाहता था जो सप्ताह में कम से कम एक दिन एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर आकर मिले और कम से कम दो घंटे तक सामूहिक ध्यान करे जिसमें कुछ समय प्रार्थना, भजन और स्वाध्याय का भी हो|
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पर मैं मेरे इस उद्देश्य में विफल रहा| मैं इस बारे में मैं कोई बहाना नहीं बनाना चाहता| यह मेरे प्रयासों या मेरी क्षमता में कमी और मेरी विफलता ही थी|
बड़े नगरों में तो निष्ठावान साधकों के इस तरह के कई समूह हैं, पर छोटे स्थानों पर यह एक कठिन कार्य है| संभवतः यह मेरी नियती ही थी|
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कुछ साधकों को मैंने तैयार भी किया पर अपने व्यवसाय और नौकरी आदि के लिए वे दूर चले गए|
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एकांतवास, निःसंगत्व, वैराग्य आदि मेरे प्रारब्ध में नहीं थे| मन बड़ा बेचैन और अशांत रहने लगा| फिर एक विचार ने बड़ी शान्ति, स्थिरता और दृढ़ता प्रदान की| वह विचार था कि एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का है, अन्य कोई तो है ही नहीं| जल की एक बूँद जैसे महासागर में मिलकर स्वयं महासागर बन जाती है, वैसे ही इस परिछिन्न आत्मा को अपरिछिन्न परमात्मा में समर्पित हो जाना चाहिए|
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यह संसार अपने नियमों से चलता है, न कि मेरी कामनाओं और अपेक्षाओं से| मेरा कुछ कामना करना ही गलत था| मैं कुछ नहीं करता, सब कुछ तो भगवान ही कर रहे हैं| जैसी भी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो| इस विचार ने ही मुझे जीवित रखा है|
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हे प्रभु, अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो| कभी मेरी कोई इच्छा पूरी भी मत करना| कोई इच्छा जागृत ही न हो|
हे प्रभु, तुम महासागर हो, और मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे साथ एक है|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

गायत्री मन्त्र की अनिवार्यता ....

गायत्री मन्त्र की अनिवार्यता ....
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जिन का भी यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है उन्हें तो हर परिस्थिती में गायत्री मन्त्र का नियमित जाप करना अनिवार्य है| इसके बिना वह व्यक्ति द्विजत्व से च्युत हो जाता है, उसकी अन्य कोई भी साधना सफल नहीं होती|

कुछ आचार्यों के अनुसार गायत्री मन्त्र की कम से कम दस माला तो नित्य जपनी ही चाहिए| एक माला तो कम से कम किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है|

योग मार्ग के साधक सप्त व्याहृतियों के साथ षटचक्रों में एक गुरु प्रदत्त गुप्त विधि से गायत्री मन्त्र का जप करते हैं जो बड़ी प्रभावी है|

कुछ आचार्यों के अनुसार जिन पुरुषों का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है उनकी पत्नियाँ भी गायत्री मन्त्र के जाप की अधिकारिणी हैं|

इस विषय पर किसी भी विवाद में न पड़कर अपनी अपनी गुरु परम्परानुसार गायत्री की उपासना करनी चाहिए|

कोई संदेह हो तो किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन लें| पर साधना करें अवश्य| ॐ ॐ ॐ ||

भगवान शिव के माथे पर सदा गंगाजी क्यों विराजमान हैं ----------

भगवान शिव के माथे पर सदा गंगाजी क्यों विराजमान हैं .......
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गंगा का अर्थ है .....ज्ञान | हमारे पंचकोषात्मक (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय) देह के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा नित्य विराजमान है| भगवान शिव तो परम चैतन्य के प्रतीक ही नहीं स्वयं परम चैतन्य हैं| समस्त सृष्टि के सर्जन-विसर्जन की क्रिया उनका नृत्य है| परमात्मा की ऊँची से ऊँची विराट से विराट परिकल्पना जो मनुष्य का मस्तिष्क परमात्मा की कृपा से ही कर सकता है वह भगवान शिव का स्वरुप है| उनके माथे पर चन्द्रमा कूटस्थ चैतन्य, गले में सर्प कुण्डलिनी महाशक्ति, उनकी दिगंबरता सर्वव्यापकता, और देह पर भभूत वैराग्य के प्रतीक हैं| ऐसे ही उनके माथे पर गंगा जी समस्त ज्ञान का प्रतीक है जो निरंतर प्रवाहित हो रही है| जिस तरह मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान और बुद्धिमता का भंडार भरा पड़ा है वैसे ही सर्व व्यापक भगवान शिव के माथे पर सम्यक चैतन्य की आधार माँ गंगाजी नित्य विराजमान हैं|
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भगवान शिव का स्वरुप पूर्णता का प्रतीक है| स्वर्णिम लहराती जटा उनकी व्यापकता की सूचक है जिसमें उन्होंने सारे संसार का भार उठा रखा है| गले में लिपटा सर्प काल स्वरुप है जिस पर वश करने के कारण ही वे मृत्युंजय हैं| यदि वे विष को अपने कंठ में धारण नहीं करते, तो देवताओं को अमृत कभी नहीं मिल पाता| वही अमृत हमें कुम्भ के मेलों में मिल रहा है| सारी सृष्टि के हलाहल का उन्होंने पान कर लिया, पर स्वयं अमृतमय होने के कारण वह हलाहल नीचे नहीं उतर रहा है अतः वे नीलकंठ हैं| त्रिशुल त्रिगुणात्मक शक्तियों और तीन प्रकार के कष्टों के विनाश का सूचक है| व्याघ्र चर्म मन की चंचलता के दमन का सूचक है| नन्दी रुपी धर्म पर भस्म लपेटे हुये पूर्ण निर्लिप्तता के साथ वे सारी सृष्टि में विचरण करते हैं| माँ भगवती पार्वती, गणेश और कार्तिकेय ..... सब की पृथक पृथक उपासना भी महा फलदायी है, पर एक शिव की उपासना में ही सभी का फल मिल जाता है| उनकी महिमा अनंत है|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मई २०१३

मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और धर्म-प्रचार में ही खर्च हो ---

मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और धर्म-प्रचार में ही खर्च हो ---
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प्राचीन काल से ही यह परम्परा थी कि मंदिरों का उपयोग एक साधना स्थल के रूप में ही होता था| मंदिरों की वास्तु शैली और दिनचर्या ऐसी होती थी साधकों की साधना के दिव्य स्पंदन वहाँ सुरक्षित रहते और वहाँ आने वाले श्रद्धालुओं के हृदयों को दिव्य भावों और पवित्रता से भर देते|
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मंदिरों के साथ एक गौशाला, पाठशाला, अन्नक्षेत्र और सदावर्त भी होते थे| मंदिरों का धन सिर्फ वहाँ की सुव्यवस्था और धर्मप्रचार के लिए ही होता था| गौशाला में गौसंवर्धन का कार्य होता| भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित व गायों पर निर्भर थी| पाठशाला में बच्चों को आरम्भिक रूप से लौकिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती थी| वहाँ से पढ़े विद्द्यार्थी बड़े चरित्रवान होते थे| अन्नक्षेत्र से ब्रह्मचारी विद्यार्थियों को अन्नदान दिया जाता था| सदावर्त से साधू सन्यासियों को उनकी आवश्यकता के सामान की पूर्ती की जाती थी|
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कालांतर में विदेशी आक्रमणों के कारण यह व्यवस्था नष्ट हो गयी| मंदिर भी वे ही बचे जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू शासकों का संरक्षण प्राप्त था| हिन्दू शासकों व हिन्दू सेठ साहूकारों द्वारा संचालित मन्दिर ही सुव्यवस्थित रहे| पर राजा महाराजाओं का राज्य समाप्त होने पर हिन्दू मंदिरों की लूट खसोट आरम्भ हो गयी| अधिकांश मंदिर भारत की धर्मनिरपेक्ष (अधर्मसापेक्ष) सरकार ने अपने अधिकार में कर लिए| उनके धन का दुरुपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर दिया|
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इस धर्मनिरपेक्ष सरकार ने किसी दरगाह, मस्जिद या चर्च को अपने अधिकार में नहीं लिया, सिर्फ मंदिरों को ही लिया कयोंकि इसकी योजना धीरे धीरे हिन्दू धर्म को नष्ट करने की थी| बाकि बचे मंदिरों पर जिनकी चली उन्होंने अपना निजी अधिकार कर लिया और घर बना लिए|
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भोले भाले हिन्दू, मंदिरों में रूपया चढाते रहे यही सोचकर कि वे भगवान को चढ़ा रहे हैं, पर आज तक क्या किसी ने भगवान को या किसी देवी-देवता को रुपया उठाते या स्वीकार करते हुए देखा है क्या? उनका क्या उपयोग होता है यह कोई नहीं सोचता| पैसा वहीं चढ़ाना चाहिए जहाँ उसका सदुपयोग होता हो|
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अब समय आ गया है कि हिन्दू मंदिरों को हिन्दू धर्माचार्यों द्वारा निर्मित/संचालित ट्रस्टों को सशर्त सौंप दिया जाए कि वे उनका निर्धारित सदुपयोग ही करेंगे| इस विषय पर सभी हिन्दुओं को विचार करना चाहिए और कुछ निर्णायक कदम उठाने चाहियें| धन्यवाद|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मई २०१४