Sunday 9 September 2018

आज भाद्रपद की अमावस्या को राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण उत्सव हैं .....

आज भाद्रपद की अमावस्या को राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण उत्सव हैं .....
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(१) ठाकुर जी की पालकी के पीछे पीछे लोहार्गल तीर्थ से बाबा मालकेतु पर्वत (अपभ्रंस बोली में मालखेत) की २४ कोसीय परिक्रमा जो खाकी अखाड़े के महंत दिनेशदास जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों वैष्णव साधु-संतों की टोली और लाखों श्रद्धालुओं के साथ गोगा नवमी को आरम्भ हुई थी, आज अपराह्न में पूर्ण हो जायेगी|
बरसते पानी में खुले आसमान के नीचे तीर्थपरिक्रमार्थी श्रद्धालु महिलाएँ और पुरुष सूने पर्वतीय क्षेत्र में विश्राम और यात्रा कर रहे हैं| भोर में साधू-संतों के साथ साथ ठाकुर जी की पालकी के पीछे पीछे सारे श्रद्धालु भजन-कीर्तन करते हुए पुनश्चः चल देंगे और अपराह्न में बापस लोहार्गल पहुँच जायेंगे| आज अमावस्या के दिन लोहार्गल के सूर्यकुण्ड में महास्नान होगा| अरावली पर्वतमाला की दुर्गम पर इन दिनों हरी भरी पहाड़ियों के मध्य एक सप्ताह से आस्था की यह परिक्रमा चल रही है जिसमें राजस्थान के अलावा हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से भी आये श्रद्धालु हैं|
आसपास के ग्रामीणों ने और पुलिस व प्रशासन ने यथासंभव अच्छे से अच्छा प्रबंध कर रखा है|
इस २४ कोस की परिक्रमा में लाखों श्रद्धालु मालकेतु पर्वत के चारों ओर भगवान विष्णु की कृपा से निकली इन ७ जल धाराओं के दर्शन करते हैं जहां ये सात तीर्थ भी हैं .... लोहार्गल, किरोड़ी, शाकंभरी, नाग कुण्ड, टपकेश्वर महादेव, शोभावती और खोरी कुण्ड|
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(२) आज सभी सती मंदिरों का मुख्य आराधना दिवस है| झुंझुनू के विश्व प्रसिद्ध श्री राणी सती जी मंदिर का भी आज वार्षिकोत्सव व मुख्य आराधना दिवस है| पूरे भारत से आये लाखों श्रद्धालु इसमें भाग लेंगे| ये सभी सतियाँ वीरांगणाएँ थीं जिन्होनें रण भूमि में शत्रु सेनाओं से अंत समय तक युद्ध किया| कई सौ वर्षों के पश्चात आज तक भी जन मानस में इनके प्रति श्रद्धा है|
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हमारे परिवार के सदस्य आज भाद्रपद अमावस्या के दिन एक विशेष उत्सव मनाते हैं जो बाहरी विश्व के लिए ३ सितम्बर को था|
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सभी को नमन और शुभ कामनाएँ ! ॐ तत्सत् !
९ सितम्बर २०१८ 

सर्वाधिक सफल व बुद्धिमान कौन है ? .....

परमहंस योगानंद जी कहते थे कि ..... "वह व्यक्ति सर्वाधिक बुद्धिमान है जो सर्वप्रथम परमात्मा को ढूँढता है, और वह व्यक्ति सर्वाधिक सफल है जिसने परमात्मा को पा लिया है|"
जिसने परमात्मा को पा लिया, उसने सब कुछ पा लिया है, सृष्टि का समस्त ज्ञान और सारी विभूतियाँ उसके पीछे पीछे चलती हैं| इस सृष्टि में उसके लिए पाने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है| अतः सर्वप्रथम परमात्मा को प्राप्त करो, फिर सब कुछ अपनी आप ही मिल जाएगा|
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"But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you."
Matthew 6:33 King James Version (KJV)

९ सितम्बर २०१८ 

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " –

वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " – (लेखक: स्वामी मृगेंद्र सरस्वती "सर्वज्ञ शंकरेन्द्र")
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वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " { खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ के रचनाकार } । इनके पिता वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान थे और कन्नौज राज्य के मुख्य पण्डित थे । उस काल मेँ " उदयनाचार्य " न्याय के एक प्रकाण्ड पण्डित हुए । उदयनाचार्य ने श्रीहर्ष के पिता से कहा कि " हम तुमसे शास्त्रार्थ करेँगे । " उदयना चार्य बड़े विद्वान भी थे और बड़े भक्त भी थे लेकिन " नैयायिक " होने के कारण कट्टर द्वैतवादी थे । बड़े अच्छे भक्त थे लेकिन द्वैतवादी थे । सभा बैठी हुई थी , शास्त्रार्थ हुआ । शास्त्रार्थ मेँ श्रीहर्ष के पिता यद्यपि वेदान्त के पक्ष को लिये हुए थे लेकिन उदयनाचार्य से वे हार गये , क्योँकि शास्त्रार्थ बुद्धि का खेल है और विद्वान् उदयनाचार्य प्रकाण्ड थे । उस काल मेँ राजा ही धर्म का निर्णायक होता था । श्रीहर्ष के पिता जी बड़े दुःखी होकर घर आये । उस समय कान्यकुब्ज बहुत बड़ा राज्य था। भारत मेँ उसका स्थान प्रायः सम्राट जैसा था । श्रीहर्ष के पिता को मन मेँ बड़ा दुःख हुआ कि " मैँ ऐसा नालायक निकला कि मैने वेदान्त पक्ष को हारने दिया । अब राजा सर्वत्र द्वैतवाद का प्रचार करेगा । " नियम था कि शास्त्रार्थ मेँ जो विजयी हो जाये , चूँकी विचार के द्वारा निर्णय होता था , इसलिये वही ठीक है ऐसा निश्चय किया जाता था । जैसे कोई बहुत बड़ा सेनाध्यक्ष हो और उसकी किसी सैन्य व्युहरचना मेँ कोई खराबी आ जाने से वह बड़ा भारी युद्ध हार जाये तो उसके हृदय मेँ बड़ी चोट लगती है कि " मैँने अपने देश को अपनी गलती से खराब कर दिया " , इसी प्रकार धर्म के आचार्य का शास्त्र और बुद्धि ही सैन्यव्युह है , उसमेँ कोई विरोधी जीत जाये तो उसके मन मेँ भी होता है कि " मैँने अपने धर्म को अपनी बेवकूफी से नष्ट कर दिया है । " उसे हृदय मेँ कसक होती है । लेकिन जिसके हृदय मेँ यह कसक नहीँ होती , देश प्रेम नहीँ होता है , वह व्याख्या दिया करता है कि मैँ अमुक - अमुक कारणोँ से हार गया । इसी प्रकार जहाँ धर्म के प्रति कसक नहीँ होती , वह बैठकर बातेँ करता है कि हिन्दुस्तान के हिन्दु धर्म के पतन का क्या कारण है । कोई कहेगा छुआछूत कारण है , कोई कहेगा कि गरीबोँ की मदत नहीँ करते यह कारण है । ये सब बाते तो करेँगे लेकिन स्वयं कोई कदम नहीँ उठायेँगे । यदि मानते हैँ कि छुआछूत कारण है तो आपने उसे हटाने के लिये क्या किया है ? यदि आप मानते हो कि गरीबोँ के प्रति हमारी दृष्टि नहीँ थी तो उसके लिये क्या आपने अपनी आमदनी का आधा रुपया निकालकर मदत करने के लिये दे दिया ? जैसे देशद्रोही सेनाध्यक्ष ऐसे ही धर्म - द्रोही विद्वान भी हुआ करते हैँ । लेकिन श्रीहर्ष के पिता ऐसे नहीँ थे । उन्हेँ इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि वेदान्त धर्म , अद्वैतवाद की जगह अब द्वैती जीतेँगे । उदयनाचार्य वहाँ सभापण्डित बन गया । घर वापिस आकर श्रीहर्ष के पिता के मन मेँ इतना दुःख हुआ कि सप्ताह भर मे उनका शरीर छूट गया । उनका दो साल का पूत्र था । मरने से पहले अपनी पत्नी से कहा कि " मैँ तो वह दिन नहीँ देखूँगा , क्योँकि मेरे से अब सहन नहीँ होगा , लेकिन मेरे पुत्र को तुम अच्छी तरह तैयार करना । मैँ तेरे को वह मन्त्र बता जाता हूँ , पाँच वर्ष की उम्र मेँ इसका उपनयन करा देना और उसी दिन इस मन्त्र को इसे देकर इसे किसी शव पर बैठाना । शव पर बैठकर रात भर यह इस मंत्र का जप करता रहे तो इसे वाक् सिद्धि हो जायेगी और यह फिर वेदान्त - ध्वज को ऊँचा करेगा । वे तो उसी दिन मर गये ।
तीन साल बाद श्रीहर्ष पाँच साल का हो गया । माँ सोचने लगी कि " मैँ इसे शव पर कैसे बैठाऊँ ? यदि बैठा भी दिया तो इसे डर लगेगा । " लेकिन पति की आज्ञा थी कि जिस दिन उपनयन हो , उसी दिन यह भी कार्य करना । वह भी पूर्ण धर्मनिष्ठा वाली थी क्योँकि ऐसे पति की पत्नी थी । " हे मेरे नारायण ! " उसने जहर खा लिया और श्रीहर्ष को अपनी छाती पर बैठाकर कहा कि " रात भर इस मन्त्र का जप करते रहधा । " बेटे को इस बात का क्या पता था , वह तो माँ की छाती पर बैठा था , थोड़ी देर मेँ वह मर गई और वह रात्री भर जप करता रहा । प्रातःकाल चार बजे " भगवती वाणी " { श्रीमाता वाग्देवी } ने दर्शन दिया और बड़े प्रेम से स्पर्श करके कहा " बेटा क्या चाहिये ? " श्रीहर्ष ने कहा " मुझे पता नहीँ माँ से पूछो । " भगवती वाणी की आँख से पानी आ गया , कहा " अब तेरी माँ नहीँ रही । आज से " श्रुति " ही तेरी माता है । श्रुति का कोई मन्त्र ऐसा नहीँ होगा जो तुमको उपस्थित नहीँ होगा । " भगवती ने यह वर दिया , कहा कि " अब तुम सीधे कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ जाकर उदयनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करना । मैँ ही तेरी वाणी पर बैठकर शास्त्रार्थ करूँगी । " भगवती के स्पर्श से उसके हृदय मेँ विद्या का प्रादुर्भाव हुआ । वहाँ से गया और जाकर राजा के द्वारपाल से कहा कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ , राजा को खबर कर दो । " द्वारपाल हँस पड़ा और बच्चे को प्यार करने लगा जैसे छोटे बच्चे को करते हैँ । श्रीहर्ष ने कहा " मैँ ऐसे ही बात नहीँ कर रहा हूँ । " द्वारपाल श्रीहर्ष को लेकर राजा के पास पहुँचे और राजा ने देखा कि सुन्दर लड़का है , यज्ञोपवीत धारण किये हुये , भस्म लगा हुआ है । द्वारपाल ने राजा से कहा कि यह कहता है कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ । श्रीहर्ष झट से बोला " सभापण्डित नहीँ , उदयन से शास्त्रार्थ करूँगा ! मैँ उसे सभापण्डित नहीँ मानता । वह तो मैँ उसे शास्त्रार्थ के बाद मानूँगा । " राजा ने कहा " तेरे को किसने बताया है ? " कहा " इन सब बातोँ मेँ कुछ नहीँ रखा , राजन ! इन्हेँ मेरे सामने बैठाओ , मैँ शास्त्रार्थ करूँगा । " श्रीहर्ष ने देववाणी संस्कृत मेँ जबाब दिया तो उदयनाचार्य भी कुछ घबराये कि यह छोटा - सा बच्चा कैसे बोलता है ! अगले दिन शास्त्रार्थ का समय तय हुआ । सब समझे कि यह कोई तमाशा होगा । लेकिन 28 दिनोँ तक शास्त्रार्थ हुआ । सब आश्चर्यचकित हो गये कि यह कैसा लड़का है । श्रीहर्ष ने उदयन को शास्त्रार्थ मेँ हरा दिया और वेदान्त की ध्वजा फहराया । तब उसने बताया " मेरे पिता अमुक थे । तुने उनका अपमान किया , इसलिये मैँने यह किया । मुझे तुमसे कोई द्वेष नहीँ है । " फिर उन्होने वेदान्त - ग्रन्थोँ और अन्य ग्रन्थो की रचना की। साहित्य का ग्रन्थ उन्होँने पहले - पहले लिखना शुरु किया तो अपने मामा , जो साहित्य के बड़े विद्वान थे , उन्हेँ अपना ग्रन्थ दिखाया । मामा जी ग्रन्थ को देगर पहले तो बड़े प्रसन्न हुए और फिर रोने लगे ! श्रीहर्ष ने पृछा तो कहा " मेरे काल मेँ मेरा भांजा इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा वाला उत्पन्न हुआ इससे मेरे को बड़ी प्रसन्नता हुई और रोया इसलिये कि तेरी किताब बाँचेगा कौन ? मेरे जैसा साहित्य - मीमांसक एक - एक श्लोक को पचास - साठ बार पढ़ता है तो समझ मेँ आता है । बाकी कौन ऐसा है जो तेरी किताब बाँचेगा । इसलिये मुझे दुःख हुआ । उनके " खण्डनखण्डखाद्य " ग्रन्थ को समझना महान् कठिन है । आज भी इस महान् ग्रन्थ पर किसी भी विद्वान ने अपना टीका नहीँ लिख सके ।
माँ भारती सपुत को शत - शत प्रणाम करता हूँ ।

८ सितम्बर २०१८ 

आध्यात्मिक दृष्टि से तप क्या है? ध्यान हम क्यों करते हैं? परमात्मा को क्या चाहिए? ....

आध्यात्मिक दृष्टि से तप क्या है? ध्यान हम क्यों करते हैं? परमात्मा को क्या चाहिए? ....
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परमात्मा के पास सब कुछ है, उनका कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे निरंतर कर्मशील हैं| एक माइक्रो सेकंड (एक क्षण का दस लाखवाँ भाग) के लिए भी वे निष्क्रिय नहीं हैं| उनका कोई भी काम खुद के लिए नहीं है, अपनी सृष्टि के लिए वे निरंतर कार्य कर रहे हैं| यही हमारा परम आदर्श है| हम भी उनकी तरह निरंतर समष्टि के कल्याण हेतु कार्य करते रहें, तो हम भी परमात्मा के साथ एक हो जायेंगे| समष्टि के कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ ध्यान, ध्यान, और ध्यान| ध्यान हम स्वयं के लिए नहीं अपितु सर्वस्व के कल्याण के लिए करते हैं| परमात्मा को पाने का जो सर्वश्रेष्ठ मार्ग मुझे दिखाई देता है, वह है ... "पूर्ण प्रेम सहित परमात्मा का निरंतर ध्यान"|
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आध्यात्मिक दृष्टि से हमारी कोई भी कामना नहीं होनी चाहिये|
भगवान कहते हैं .....
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन| नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि||३:२२|
अर्थात् हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ|
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स्वयं के लिए न कर के जो भी काम हम समष्टि यानी परमात्मा के लिए करते हैं, वही तप है, वही सबसे बड़ी तपस्या है, और यह तपस्या ही हमारी सबसे बड़ी निधि है| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१८

हम शक्तिशाली बनें .....

जिस तरह के समाचार मिल रहे हैं, उनके अनुसार हमारी अस्मिता पर खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है| प्रश्न हमारे अस्तित्व का है अतः अपनी रक्षा करना भी हमारा धर्म है| इस संसार में शक्तिशाली की ही पूछ है, शक्तिहीन को सब सताते हैं| "क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो"|
(१) हम हर दृष्टी से शक्तिशाली बनने का प्रयास करते रहें|
(२) हम अपने धर्म का पालन यथासंभव पूर्ण रूप से करें|
(३) सरकार के नियंत्रण से से सभी हिन्दू मंदिरों का अधिकार बापस लेकर धर्माचार्यों द्वारा चुनी हुई संस्था के आधीन करें| हम हिन्दू लोग बड़ी श्रद्धा से मंदिरों को दान देते हैं जिनका दुरुपयोग सरकार द्वारा किया जाता है| मंदिरों के धन का उपयोग सिर्फ धर्म प्रचार के लिए ही होना चाहिए|
(४) निज विवेक के प्रकाश में सारे कार्य करे| भगवान हमारी रक्षा करेंगे |
कृपा शंकर 
७ सितम्बर २०१८ 

भूख लगने पर स्वयं को ही भोजन करना पड़ता है .....

भूख लगने पर स्वयं को ही भोजन करना पड़ता है, दूसरों द्वारा किये गए भोजन से खुद का पेट नहीं भरता .....
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एक बार एक ऐसी संस्था में जाने का काम पड़ा जहाँ के निवासी दिन-रात वहाँ की सेवा का कार्य करते रहते, पर स्वयं कोई साधना नहीं करते थे| मैंने इस बारे में उनसे पूछा तो उत्तर मिला कि हमारे गुरूजी ने बहुत तपस्या की, परमात्मा का साक्षात्कार किया, अब हमें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; हम उनका कार्य कर रहे हैं, वे ही हमें परमात्मा का साक्षात्कार करा देंगे|
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कुछ सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि परमात्मा के एक ही पुत्र है, या एक ही पैगम्बर है, सिर्फ उसी में विश्वास रखो तभी स्वर्ग मिलेगा, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि में झोंक दिए जाओगे| उनका अंतिम लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति ही है, जिसके लिए सिर्फ विश्वास ही करना है| कुछ सम्प्रदाय या समूह कहते हैं कि हमारे फलाँ फलाँ गुरु महाराज ही सच्चे और पूर्ण गुरु हैं, उन्हीं में आस्था रखो, उन्हीं की बात मानो, तभी बेड़ा पार होगा, अन्यथा नहीं| उन लोगों की दृष्टी में दूसरे गुरु सच्चे और पूर्ण गुरु नहीं हैं|
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मुझे तो उपरोक्त बातें कुछ जँचती नहीं हैं| कुछ लोग तो मिलने पर गले ही पड़ जाते हैं, समझाने से भी जाते नहीं हैं| फिर एक और आश्चर्य और होता है कि हम लोग स्वयं भी दूसरों के पीछे पीछे मारे मारे फिरते हैं कि संभवतः उनके आशीर्वाद से हमें परमात्मा मिल जाएगा| मैं स्पष्ट रूप से मानता हूँ कि स्वयं का किया हुआ आत्म-साक्षात्कार ही काम का है, दूसरे का साक्षात्कार नहीं| यह बात भी समझ में आती है कि जिसने परमात्मा को जान लिया उसे किसी का भय नहीं हो सकता| विराट तत्व को जानने से स्थूल का भय, और हिरण्यगर्भ को जानने से सूक्ष्म का भय नहीं रहता है
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किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध महात्मा के सान्निध्य में पूर्ण विनय के साथ उपनिषदों व गीता का स्वाध्याय करने और साधना करने से सारे संदेह दूर हो सकते हैं पर हमारे शिष्यत्व में कमी नहीं होनी चाहिए| भगवान परम शिव हमारा निरंतर कल्याण कर रहे हैं| साधना तो हमें स्वयं को ही करनी होगी, इसमें कोई पतली गली नहीं है| आप सब को सादर नमन !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ सितम्बर २०१८

(पुनर्प्रस्तुत). राजस्थान के लोकदेवता गोगा जी .....

(पुनर्प्रस्तुत). राजस्थान के लोकदेवता गोगा जी ..... (August 20, 2014)
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वीर प्रसूता भारत माँ ने जैसे और जितने वीर उत्पन्न किये हैं वैसे पूरे विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं हुए| भारत का इतिहास सदा गौरवशाली रहा है| हजारों वर्षों के वैभव और समृद्धि के बाद पिछले एक हज़ार वर्षों का कालखंड कुछ खराब रहा जो हमारे ही सामूहिक बुरे कर्मों का फल था| वह समय ही खराब था जो निकल चुका है| पर इसमें कभी भी भारत ने पूर्णतः पराधीनता स्वीकार नहीं की और निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा| राजस्थान में अनेक वीरों को आज भी लोक देवता के रूप में पूजा जाता है| इनमें प्रमुख हैं ---- पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, हडबुजी और महाजी| इन सब ने धर्मरक्षार्थ बड़े भीषण युद्ध किये और कीर्ति अर्जित की|
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#गोगानवमी पर पूरे राजस्थान में घर घर में पकवान बनाए जाते हैं और मिट्टी से बनी गोगाजी की प्रतिमा को प्रसाद लगाकर रक्षाबन्धन पर बाँधी हुई राखियाँ व रक्षासूत्र खोलकर उन्हें चढाए जाते हैं|
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जब महमूद गजनवी सोमनाथ मंदिर का विध्वंश करने और लूटने जा रहा था तब राजपूताने में गोगाजी (गोगा राव चौहान) ने ही उसका रास्ता रोका था| उन्होंने उसके द्वारा भेजे गए हीरे जवाहरातों के थाल पर ठोकर मार दी और अपनी छोटी सी सेना को युद्ध का आदेश दिया| इसका विवरण आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी कालजयी कृति "जय सोमनाथ" में भी किया है|
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घमासान युद्ध हुआ| गजनी की विशाल सेना के सामने उनकी छोटी सी सेना कहाँ टिकती| ९० वर्ष के वृद्ध गोगाजी ने अपने सभी पुत्रों, पौत्रों, भाइयों, भतीजों, भांजों व सभी संबंधियों सहित जन्मभूमि और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया| उनके परिवार की समस्त मातृशक्ति ने जीवित अग्नि में कूद कर जौहर किया ताकि विधर्मी उनकी देह को ना छू सकें|
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उनका एक पुत्र सज्जन बचकर सोमनाथ चला गया| मंदिर के विध्वंस के बाद जब गज़नवी की सेना लूट के माल के साथ बापस लौट रही थीं तब वह उनका मार्गदर्शक बन गया और उसकी सेना को मरुभूमि में ऐसा फँसाया कि गजनी के हजारो सिपाही प्यास से मर गए|
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जिस स्थान पर गोगाजी का शरीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं| यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है| इसके पास में ही गोरखटीला है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है| चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था|
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गोगाजी को गुरु गोरखनाथ जी से एक वरदान प्राप्त था अतः उन्हें सर्पों का देवता माना जाता है| आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है| गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है| लोकधारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है| भादवा माह के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है| नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है।
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चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी सर्वाधिक वीर और ख्याति प्राप्त राजा हुए| गोगाजी का राज्य सतलुज से हांसी (हरियाणा) तक था। ये गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म भी गुरु गोरखनाथ के वरदान से हुआ था| विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।
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भारत में एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की और सही इतिहास पढाये जाने की आवश्यकता है| हमें हमारा गौरवशाली इतिहास नहीं पढ़ाया जाता, सिर्फ पराधीनता की दास्ताँ पढाई जाती है| हमें वो ही इतिहास पढ़ाया जाता है जिसे हमारे शत्रुओं ने हमें नीचा दिखाने के लिए लिखा था|
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जय हो भारतभूमि और सनातन धर्म, जिसने ऐसे वीरों को जन्म दिया|
जय जननी जय भारत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अगस्त २०१४
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पुनश्चः :---
(१) दुर्दांत लुटेरे महमूद गज़नवी की सेना में चार लाख से अधिक सैनिक थे जिनमें हज़ारों घुड़सवार और ऊँटसवार थे| वह अफगानिस्तान, फारस और मध्य एशिया के सारे लुच्चे-लफंगों, चोर-बदमाशों और लुटेरों को अपनी सेना में भर्ती कर के ले आया था| उसकी सेना वैतनिक नहीं थी| वह अपने सिपाहियों को यह लालच देकर लाया था कि हिन्दुस्थान में खूब धन है जिसे लूटना है| लूट के माल का पाँचवाँ हिस्सा उन का और बाकी बादशाह का| साथ साथ यह भी छूट थी कि जितने हिन्दुओं की ह्त्या करोगे उतना पुण्य मिलेगा, और हिन्दुओं की ह्त्या कर के उनकी स्त्रियों का बलात्कार और अपहरण चाहे जितना करो| वे अपहृत महिलाएँ भी अपहरणकर्ताओं की संपत्ति रहेगी|
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(२) आक्रमण से पहिले उसने सूफी संतों के वेश में अपने सैंकड़ों जासूसों को भारत में भेजा जिहोनें आक्रमण की भूमिका बनाई, पूरे रास्ते के नक़्शे बनाए, वे सारे स्थान चिन्हित किये जहाँ जहाँ से धन, सिपाहियों के लिये खाद्यान्न और जानवरों के लिए चारा मिलेगा| आक्रमण के मार्ग में जगह जगह उन्होंने दरगाहें बनाईं और वे सारे स्थान चिन्हित किये जहाँ आक्रमण से लाभ होगा| भोले-भाले हिन्दुओं ने "अतिथि देवो भवः" मानकर उन जासूसों का साधू-संत मान कर स्वागत किया| महमूद गज़नवी का मुख्य जासूस अलबरुनी था| उसी ने गज़नवी को भारत को लूटने और सोमनाथ मंदिर के विध्वंश के लिए प्रेरित किया था| उसी ने सोमनाथ के विध्वंशित ढाँचे पर नमाज़ पढवाई थी| उसी के नेतृत्व में तथाकथित सूफी संतों ने पूरे भारत का भौगोलिक व सांस्कृतिक अध्ययन किया था कि किस मार्ग से आक्रमणकारी सेना को जाना है, कहाँ कहाँ लूटपाट करनी है और किस किस का वध करना है, हिन्दुओं की कौन कौन सी कमजोरियां हैं, कैसे हिन्दुओं को मुर्ख बनाकर लूटा जा सकता है आदि आदि | रास्ते में जगह जगह दरगाहों के रूप में अपने अड्डे बना दिए जो उसके जासूसों और स्वागतकर्ता मार्गदर्शकों से भरे हुए थे| रास्ते में उसकी सेना के लिए रसद आदि की व्यवस्था भी उन लोगों ने कर रखी थी| भारत ने उन दुष्ट जासूस सूफियों को संत मानकर उनकी अतिथि सेवा की जो हमारी सद्गुण विकृति थी| अजमेर के राजा का गजनी की सेना सामना नहीं कर पाई| अजमेर के राजा को कहा कि बस, अब हम और नहीं लड़ेंगे, व वचन दिया कि हम बापस चले जायेंगे| बापस जाने की बजाये उसकी सेना वहीं आसपास छिप गयी और जब अजमेर की सेनाएँ सायंकालीन पूजापाठ और संध्या में व्यस्त थीं तब अचानक धोखे से आक्रमण कर अजमेर के राजा को सेना सहित मार दिया| इससे पूर्व राजपूताने में ही गोगा राव चौहान की सेना ने मरते दम तक युद्ध कर महमूद के दांत खट्टे कर दिए थे| वह छल कपट और अधर्म से लड़ता हुआ आगे बढ़ता रहा| हिन्दुओं ने धर्म युद्ध लड़े जैसे शरणागत की रक्षा व आमने सामने ही लड़ना आदि| पर आक्रमणकारी असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ थे जिन्होंने युद्ध जीते तो सिर्फ अधर्म से ही|
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(३) गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य, जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गा गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है। गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा|
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(४) इनके अतुलित शौर्य व पराक्रम को देख कर गजनवी ने इन्हें जाहरपीर या कहा था| यह जाहरपीर शब्द अपभ्रंस होकर जाहरवीर हो गया|

परम आस्था व भक्तिभाव से भरी बाबा मालकेतु की २४ कौसीय परिक्रमा :-----

परम आस्था व भक्तिभाव से भरी बाबा मालकेतु की २४ कौसीय परिक्रमा :-----
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यह राजस्थान राज्य में होने वाली सबसे बड़ी धार्मिक परिक्रमा है जो लोहार्गल तीर्थ से ठाकुर जी की पालकी के साथ वैष्णव साधू-संतों के नेतृत्व में भाद्रपद कृष्ण नवमी (गोगा नवमी) को आरम्भ होकर क्षेत्र के सभी तीर्थों से होती हुई सातवें दिन अमावस्या को बापस लोहार्गल में आकर समाप्त हो जाती है| परिक्रमा हेतु २४ कोस पैदल ही चलना पड़ता है| परिक्रमा के पश्चात श्रद्धालु सूर्यकुंड में स्नान कर अपने अपने घरों को बापस लौट जाते हैं|
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मालकेतु पर्वत (१०५० मीटर ऊँचाई) अरावली पर्वतमाला में राजस्थान के झुंझुनूं जिले में विश्व प्रसिद्ध लोहार्गल तीर्थ में है| यह झुंझुनू से ७० की.मी.दूर उदयपुरवाटी कस्बे के पास नवलगढ़ तहसील में है| यह पूरा क्षेत्र एक तपोभूमि है जहाँ अनगिनत साधू-संतों ने तपस्या की है| अभी भी अनेक साधू-संत उस क्षेत्र में तपस्यारत मिल जायेंगे| अनेक प्राचीन मंदिर यहाँ हैं| यह स्थान पांडवों की प्रायश्चित स्थली है| यहाँ के सूर्यकुंड में स्नान करते समय पांडवों के सारे अस्त्र-शस्त्र पानी में गल गए थे|
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स्थानीय भाषा में लोहार्गल शब्द अपभ्रंस होकर लुहागर हो गया है| भगवान परशुराम जी ने भी पश्चाताप के लिए यहाँ अपने पापों से मुक्ति के लिए यज्ञ किया था| पास ही में महात्मा चेतनदास जी द्वारा निर्माण करवाई हुई एक विशाल बावड़ी भी है| यहाँ का प्राचीन मुख्य मंदिर सूर्य मन्दिर है जिसके साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर भी है| कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है| पास ही में चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर बाबा मालकेतु जी का मंदिर है| मालकेतु पर्वत को बाबा मालकेतु के रूप में पूजा जाता है| यह पर्वत एक सिद्ध स्थान हैं|
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प्राचीन काल में भगवान विष्णु के आशीर्वाद से यहाँ के पर्वतों से सात जलधाराएँ निकलीं ..... जो सूर्यकुंड, नागकुंड, खोरीकुंड, किरोड़ी, शाकम्भरी, टपकेश्वर महादेव, व शोभावती में गिरती हैं| भाद्रपद की गोगा नवमी से अमावस्या तक इन सातों धाराओं की पूजा की जाती है तथा सातों धाराओं के चारों ओर २४ कोसीय परिक्रमा लगाई जाती है|
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इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है| भक्तों का यहाँ वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है| यहाँ समय समय पर विभिन्न धार्मिक अवसरों जैसे ग्रहण, सोमवती अमावस्या आदि पर मेला लगता है| श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं| यहाँ प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है| पर भादवे में गोगा नवमी से अमावस्या तक होने वाली २४ कोसीय परिक्रमा का महत्त्व सबसे अधिक है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ सितम्बर २०१८

यह नर देह भवसागर पार कराने वाली एक नौका है ....

रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है| यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है|
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||
(यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं|)
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
(जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है|)
अतः भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है|
३ सितम्बर २०१८ 

मेरी आयु और मेरा जन्मदिवस >>>>>

मेरी आयु और मेरा जन्मदिवस >>>>>
मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ जिसकी आयु अनंतता है| अहं से बोध्य आत्मा कालचक्र और आयुगणना से परे नित्य है| पता नहीं मैनें अब तक कितनी देहों में जन्म लिया है और कितनी देहों में मृत्यु को प्राप्त हुआ हूँ| परमात्मा ने कृपा कर के मुझे पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ नहीं दीं और इस जन्म में भी भूलने की आदत डाल दी, अन्यथा निरंतर एक पीड़ा बनी रहती|
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वर्तमान में मैं जिस देह रुपी वाहन पर यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह वाहन भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद अमावस्या को, और ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार ०३ सितम्बर को अपने वर्तमान लौकिक जीवन के ७० वर्ष पूरे कर लेगा|
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इस देह का जन्म ०३ सितम्बर १९४८ को राजस्थान के झूँझणु नाम के एक कस्बे के मुद्गल गौत्रीय गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था| (वर्तमान में इस कस्बे का नाम अपभ्रंस होकर झुंझुनूं हो गया है| इस कसबे को शताब्दियों पूर्व एक वीर योद्धा झुझार सिंह जाट ने बसाया था, क्योंकि यह स्थान अरावली की पहाड़ियों से लगा हुआ और मरुभूमि के मध्य में होने से युद्ध और किलेबंदी के लिए बहुत उपयुक्त था)| हमारे पूर्वज दो सौ वर्षों से भी बहुत पहिले हरियाणा के बावल नाम के कस्बे से यहाँ आकर बसे थे|
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विगत जीवनक्रम एक स्वप्न सा लगता है और अनंत कालखंड में यह समस्त जीवन एक स्वप्न मात्र बनकर ही रह जाएगा| परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा अस्तित्व है और उसका दिव्य प्रेम ही हमारा आनन्द| इस आनंद के साथ हमारा अस्तित्व सदा बना रहे, और हम तीव्र गति से "निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" की ओर प्रगतिशील हों|
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आप सब दिव्यात्माओं को प्रणाम करता हूँ| आप सब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं अपने मार्ग पर सतत चलता रहूँ और कभी भटकूँ नहीं| जय श्रीराम !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ सितम्बर २०१८

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति .....

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति .....
आज से ७३ वर्ष पूर्व २ सितम्बर १९४५ को द्वितीय विश्व युद्ध, जापान के आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ था| इस युद्ध का आरम्भ १ सितम्बर १९३९ को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ हुआ था| यह युद्ध ६ वर्षों तक चला और इसमें ६ से ७ करोड़ के लगभग लोग मारे गए थे| इस युद्ध के बारे में वर्षों पूर्व मैंने काफी अध्ययन किया था|
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अंग्रेजों ने यह तथ्य छिपाया था पर सत्य तो यह है कि भारत के लाखों सिपाही इस युद्ध में मारे गए थे| अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों का उपयोग युद्ध में चारे के रूप में किया जिसमें आग में ईंधन की तरह मरने के लिए लाखों भारतीयों को झोंक दिया गया था| बर्मा के क्षेत्र में तो हज़ारों भारतीय सिपाहियों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया गया था, उनका राशन यूरोप भेज दिया गया|
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लगभग ६१ देशों की सेनाएँ इस युद्ध में शामिल हुईं थीं| भारत तो अंग्रेजों का गुलाम था अतः भारतीय सिपाहियों का लड़ना उनकी मजबूरी थी| इस युद्ध लड़ने वाले दो भागों में बंटे हुए थे .... मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र| लड़ने वाले देशों ने अपनी सारी आर्थिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में झोंक दी थी|
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इस युद्ध में अंग्रेजों की कमर टूट गयी थी जिसके परिणाम स्वरुप भारत को स्वतन्त्रता मिली| संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना भी इस युद्ध के बाद ही हुई|
कृपा शंकर 
२ सितम्बर २०१८ 

बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन कैसे लाएँ ? .....

बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन कैसे लाएँ ? .....
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बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन किसी आलोचना या निंदा से नहीं आयेगा| उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर अपनी सोच में और अपनी चेतना में सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा| भीतर की पूर्णता से ही बाहर की पूर्णता आयेगी| भीतर के विकास से ही बाहर का विकास होगा| निज आत्मा की पूर्णता ही बाहरी विश्व की पूर्णता है|
पूर्णता सिर्फ परमात्मा में है | स्वयं में पूर्णता सिर्फ परमात्मा के ध्यान से ही आ सकती है| ध्यान भी तभी होगा जब परमात्मा के प्रति हमारे ह्रदय में परम प्रेम होगा| सबसे बड़ी सेवा हम अव्यक्त ब्रह्म को स्वयं में व्यक्त कर के ही कर सकते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ सितम्बर २०१८

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>
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अंतर्रात्मा की घोर व्याकुलता और तड़फ ...... वास्तव में परमात्मा के लिए ही होती है | हमारा अहंकार ही हमें परमात्मा से दूर ले जाता है | हमारी अंतर्रात्मा जो हमारा वास्तविक अस्तित्व है को आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के ध्यान में ही आता है | हमारी खिन्नता का कारण अहंकारवश अन्य विषयों की ओर चले जाना है | वास्तविक सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं |
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जितनी दीर्घ अवधी तक गहराई के साथ हम ध्यान करेंगे, उसी अनुपात में उतनी ही आध्यात्मिक प्रगति होगी | मात्र पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्टि नहीं मिल सकती | पुस्तकों को पढने से प्रेरणा मिलती है, यही उनका एकमात्र लाभ है |
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जिसे उपलब्ध होने के लिए ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, चैतन्य में जिसके अभाव में ही यह सारी तड़प और वेदना है, वह परमात्मा ही है | जानने और समझने योग्य भी एक ही विषय है, जिसे जानने के पश्चात सब कुछ जाना जा सकता है, जिसे जानने पर हम सर्वविद् हो सकते हैं, जिसे पाने पर परम शान्ति, परम संतोष व संतुष्टि प्राप्त हो सकती है, वह है ... परमात्मा |
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जिससे इस सृष्टि का उद्भव, स्थिति और संहार यानि लय होता है .... वह परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही है जो सभी रूपों में व्यक्त हो रहा है | जो कुछ भी दिखाई दे रहा है या जो कुछ भी है, वह परमात्मा ही है | परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है | इसकी अनुभूति गहन ध्यान में ही होती है, बुद्धि से नहीं | परमात्मा अनुभव गम्य है, बुद्धि गम्य नहीं |
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सारी पूर्णता, समस्त अनंतता और सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा ही है | उस परमात्मा को हम चैतन्य रूप में प्राप्त हों, उसके साथ एक हों | उस परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१६

आत्मनिष्ठ श्रद्धा-विश्वास निश्चित रूप से फलदायी होते हैं .....

आत्मनिष्ठ श्रद्धा-विश्वास निश्चित रूप से फलदायी होते हैं .....
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जिसकी जैसी भी श्रद्धा है वह उसी पर अडिग रहे| क्योंकि प्रकृति में जो कुछ भी मिलता है वह निज श्रद्धा से ही मिलता है, कहीं अन्य से नहीं| बिना श्रद्धा-विश्वास के कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता| सबसे अच्छा तो यह है कि श्रद्धा-विश्वास निज आत्मा में हो, कहीं अन्यत्र नहीं| सत्य का अनुसंधान स्वयं में ही करें, वह कहीं बाहर नहीं है| हम भगवान से कुछ मांगते हैं, प्रार्थनाएँ करते हैं, उसके परिणामस्वरूप हमें जो कुछ भी मिलता है वह भगवान की कृपा से, हमारे श्रद्धा-विश्वास से ही मिलता है|
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पर हर सफलता व उपलब्धि के लिए श्रेय तो हमें भगवान को ही देना चाहिए ताकि कोई अहंकार न जन्में| जिस आचरण की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, पहले उस आचरण को हम स्वयं अपने जीवन में उतारें| गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है कि हमें बुद्धिभेद उत्पन्न कर किसी की श्रद्धा को भंग नहीं करना चाहिए व निज आचरण से ही दूसरों को सुधारना चाहिए| भगवान कहते हैं .....
"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्| जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्||३:२६||
अर्थात ज्ञानी पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर उनसे भी वैसा ही कराये||
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रामचरितमानस में श्रद्धा-विश्वास को ही भवानी शंकर बताया गया है.....
''भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ| याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्||” (बालकाण्ड 2).
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इस से अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो भी इस लेख को पढ़ रहे हैं, वे सब विवेकशील समझदार मनीषी हैं| आप सब को नमन! आप परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१८

असत्य रूपी अन्धकार चारों ओर है पर उसका निदान क्या है? ....

असत्य रूपी अन्धकार चारों ओर है पर उसका निदान क्या है? उसे हम कैसे दूर कर सकते हैं?
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उसे नष्ट करने के लिए एक ज्योति जलानी होगी| पहले तो अन्धकार को पहिचानें कि वास्तव में अन्धकार है, तभी तो उसका प्रतिरोध हम कर सकते हैं| भगवान ने हमें विवेक दिया है| उस विवेक के प्रकाश में अपने शांत दिमाग से यह निर्णय करें कि वर्त्तमान परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं? फिर भगवान को ह्रदय में रखते हुए जो भगवान चाहते हैं वही करें| कर्ता भगवान को ही बनाएँ| भगवान को अपने माध्यम से कार्य करने दें|
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हर समस्या का यही सही समाधान है| अपनी मानसिक शांति न खोएँ, चित्त को शांत रखें, किसी भी तरह का क्रोध न करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१८

वैदिक राष्ट्रगीत .....

वैदिक राष्ट्रगीत .....
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु माँ विद्विषावहै ||"
(हे परमात्मा ! हम (गुरू-शिष्य) दोनों की रक्षा करो, हम दोनों का पालन करो, हम दोनों साथ में रहकर तेजस्वी दैवी कार्य करें, हम दोनों का किया हुआ अध्ययन तेजस्वी और दैवी हो, और हम दोनों परस्पर एक दुसरे का द्वेष न करें|)
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ॐ आ ब्रम्हन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां
आस्मिन्राष्ट्रे राजन्य इषव्य
शूरो महारथो जायतां
दोग्ध्री धेनुर्वोढाअनंवानाशुः सप्तिः
पुरंधिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः
सभेयो युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां|
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलिन्यो न औषधयः पच्यन्तां
योगक्षेमो नः कल्पताम ||
ॐ ॐ ॐ !!
(इस राष्ट्र में ब्रह्मतेजयुक्त ब्राह्मण उत्पन्न हों| धनुर्धर, शूर और बाण आदि का उपयोग करने वाले कुशल क्षत्रिय जन्म लें| अधिक दूध देने वाली गायें हों| अधिक बोझ ढो सकें ऐसे बैल हों| ऐसे घोड़े हों जिनकी गति देखकर पवन भी शर्मा जाए| राष्ट्र को धारण करने वाली बुद्धिमान तथा रूपशील स्त्रियां हों| विजय संपन्न करने वाले महारथी हों| समय समय पर योग्य वर्षा हो, वनस्पति वृक्ष और उत्तम फल हों| हमारा योगक्षेम सुखमय बने|) ॐ ॐ ॐ !!

प्रेम और उपासना .....

प्रेम और उपासना .....
भगवान से प्रेम और उनकी उपासना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| भगवान को अपने पूर्ण प्रेम के साथ निरंतर अपने समीप अपनी चेतना में रखें, कभी उन को भूलें नहीं| यही उपासना है जिसका अर्थ है समीप बैठना|
योगमार्ग के साधक भगवान का ध्यान कूटस्थ मे यानि आज्ञाचक्र व उससे ऊपर ज्योति व नाद के रूप में करते हैं, भक्ति मार्ग के साधक हृदय में साकार रूप में| बस यही अंतर है|
परमात्मा का विस्मरण ही पाप है जो वासना रूपी अज्ञानता के कारण होता है| वासना के स्थान पर उपासना को प्रतिष्ठित करें| बिना प्रेम के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते| प्रेम की पराकाष्ठा ही ज्ञान को जन्म देती है|
व्यर्थ की आलोचना और चर्चा से कोई लाभ नहीं है| कभी कोई बात समझ में नहीं आये तब परमात्मा के अपने प्रियतम नाम का जप करें और उन के मोहक रूप का ध्यान करें| भगवान स्वयं आगे का मार्ग दिखाएँगे और रक्षा भी करेंगे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अगस्त २०१८