Friday, 7 February 2025

भगवान स्वयं ही उनके रूप में आए थे ---

भगवान स्वयं ही उनके रूप में आए थे ---

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मुझे मेरे प्रियजनों के निधन व उन से वियोग की कभी-कभी बड़ी पीड़ा हो जाया करती थी| भगवान की कृपा से एक दिन मुझे अनुभूति हुई कि भगवान स्वयं ही उनके रूप में मेरे समक्ष आए थे|
मेरे माता-पिता, बड़े भाई, सभी संबंधी, मित्र/शत्रु सब भगवान की ही लीला के रूप थे| जब भगवान सदा मेरे साथ हैं तो भगवान में वे भी सदा मेरे साथ ही हैं|
पृथकता का बोध एक भ्रम है| सारी सृष्टि भगवान की चेतना से चैतन्य है| उनके सिवाय अन्य कुछ या कोई भी नहीं है|
भगवान से पृथकता का बोध ही हमारे सब दुःखों/कष्टों का कारण है| स्वयं भगवान ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस ह्रदय से सभी को अपना प्रेम दे रहे हैं| मैं नहीं हूँ, मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है|
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ फरवरी २०२१

अद्वैत वेदान्त एक अनुभूति है जो बुद्धि से परे है ---

 अद्वैत वेदान्त एक अनुभूति है जो बुद्धि से परे है ---

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बुद्धि से हम अनुमान ही लगा सकते हैं। जब हमारी चेतना मेरुदंडस्थ सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रार में प्रवेश करती है, तभी हमें अद्वैत की अनुभूति हो सकती है। अद्वैत वेदान्त एक अनुभूति है जो बुद्धि से परे है।
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अजपा-जप (जिसे वेदों में हँसवतीऋक कहा गया है) (हँसः योग) का अभ्यास हमें नित्य नियमित करना चाहिए, इसके अभ्यास से आगे के प्रकाशमय द्वार स्वतः ही खुलते जाते हैं। कहीं भी अंधकार नहीं रहता। प्रणव का जप, कुंडलिनी जागरण, आज्ञाचक्र का भेदन, ब्रह्मरंध्र की प्रतीति, सूक्ष्म जगत में प्रवेश, ब्रह्मज्योति के दर्शन, अनंतता की अनुभूति, पंचमुखी महादेव और परमशिव की अनुभूतियाँ -- सब स्वतः ही गुरुकृपा से होने लगते हैं। हम जीवभाव से शिवभाव में स्थित हो जाते हैं। तभी हम "शिवोहं" और "अहं ब्रह्मास्मि" कहने के अधिकारी बनते हैं। यही अद्वैत वेदान्त है। इसे समझने के लिए भगवान की उपासना करनी पड़ती है।
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अद्वैत वेदान्त के आचार्य भगवान आचार्य गौड़पाद हैं, जिन्होंने "माण्डूक्यकारिका" नामक ग्रन्थ की रचना की। इनके शिष्य आचार्य गोविंदपाद थे, जो आचार्य शंकर के गुरु थे। आचार्य शंकर ने अपने परम गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए, सर्वप्रथम भाष्य 'माण्डुक्यकारिका' पर ही लिखा था।
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गौडपादाचार्य का माण्डूक्यकारिका में अद्वैत के साधक के प्रति सन्देश --
"न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥३२॥"
(अवधूतोपनिषद् का ११वां मंत्र भी यही कहता है।
भावार्थ -- किसी का (निरोध) लय नहीं है, किसी की उत्पत्ति नहीं है, कोई आबद्ध (बँधा) हुआ नहीं है, कोई साधक नहीं है, कोई (मुमुक्षु) अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने वाला नहीं है तथा कोई मुक्त भी नहीं है, यही वास्तविक स्थिति है॥
There is no dissolution, no birth, none in bondage, none aspiring for wisdom, no seeker of liberation and none liberated. This is the absolute truth.
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सादर सप्रेम नमन !! ॐ शिव !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ फरवरी २०२३

हमारे पतन का कारण हमारे जीवन में तमोगुण की प्रधानता थी --

 किसी भी कालखंड में जब भी हमारा पतन हुआ, उसका मुख्य और एकमात्र कारण हमारे जीवन में तमोगुण की प्रधानता का होना था। हमारी जो भी प्रगति हो रही है, वह तमोगुण का प्रभाव घटने, और रजोगुण में वृद्धि के कारण हो रही है।

सार्वजनिक जीवन में सतोगुण की प्रधानता तो बहुत दूर की बात है, निज जीवन में हमें सतोगुण का ही चिंतन और ध्यान करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्ययोग नामक दूसरे अध्याय के स्वाध्याय से यह बात ठीक से समझ में आती है। वास्तव में गीता का आधार ही उसका सांख्य योग नामक अध्याय क्रमांक २ है, जिसे समझ कर ही हम आगे की बातें समझ सकते हैं।
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हमें अपनी चेतना के ऊर्ध्व में परमात्मा के सर्वव्यापी परम ज्योतिर्मय कूटस्थ पुरुषोत्तम का ही ध्यान करना चाहिए। जो बात मुझे समझ में आती है, वही लिखता हूँ। ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत तो स्वयं परमात्मा हैं, बाकी सब से केवल सूचना ही प्राप्त होती है। कूटस्थ का अर्थ होता है परमात्मा का वह ज्योतिर्मय स्वरूप जो सर्वव्यापी है लेकिन प्रत्यक्ष में कहीं भी इंद्रियों से दिखता नहीं है। उसका कभी नाश नहीं होता। योगमार्ग में ध्यान में दिखाई देने वाली ज्योति और नाद को "कूटस्थ" कहते हैं।
ॐ परमात्मने नमः !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२५

राष्ट्रसेवा/देशसेवा/समाजसेवा किसे कहते हैं ?

(प्रश्न) : राष्ट्रसेवा/देशसेवा/समाजसेवा किसे कहते हैं?

(उत्तर) : ---
(१) लौकिक दृष्टि से अपने कर्तव्य-कर्म को यानि हर अच्छे कार्य को पूर्ण सत्यनिष्ठा से सम्पन्न करना ही राष्ट्र, देश, व समाज की सेवा है।
(२) धार्मिक दृष्टि से हमारे जिस कार्य से तमोगुण का ह्रास हो, व सतोगुण में वृद्धि हो, वह सबसे बड़ी सेवा है जो हम राष्ट्र, देश व समाज के लिए कर सकते हैं।
(३) आध्यात्मिक दृष्टि से आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) यानि भगवत्-प्राप्ति ही समष्टि की सबसे बड़ी सेवा है। समष्टि में राष्ट्र, देश व समाज ही नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि आ जाती है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
७ फरवरी २०२५