Sunday, 16 November 2025

सम्पूर्ण अस्तित्व व उससे परे जो कुछ भी है, वे सर्वस्व ही परमात्मा हैं --

 सम्पूर्ण अस्तित्व व उससे परे जो कुछ भी है, वे सर्वस्व ही परमात्मा हैं --

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मुझे सुख, शांति, संतुष्टि और आनंद -- ईश्वर की विराट अनंतता पर ध्यान के द्वारा ही मिलता है, वही मेरा स्वभाव है। मैं संहार-क्रम में कोई साधना नहीं कर सकता। विस्तार-क्रम ही मेरा स्वभाव है। परमात्मा स्वयं को कैसे भी व्यक्त करें, यह उनकी इच्छा, लेकिन वे एक क्षण के लिए भी वे मुझसे पृथक नहीं हो सकते। उनकी यह विराट अनंतता, सम्पूर्ण सृष्टि, और उससे परे का सम्पूर्ण अस्तित्व "मैं" हूँ; यह नश्वर भौतिक देह नहीं। ॐ ॐ ॐ॥
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परमात्मा मौन नहीं हैं। वे सब शब्दों, ध्वनियों व रूपों से परे हैं। वे अचिंत्य होकर भी चिंत्य हैं। उनका निरंतर चिंतन ही मेरा स्वभाव है। वे मेरे निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं।
हे प्रभु, मुझे अपने से अब और दूर मत करो, मुझे अपने साथ एक, और इस पृथकता के सम्पूर्ण बोध का स्वयं में विलय करो। किसी भी तरह की आकांक्षा का कभी जन्म ही न हो। मैं आपकी विराट अनंतता और परमप्रेम हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवंबर २०२५

आज कार्तिक पूर्णिमा का शुभ दिन है। इस दिन का बहुत अधिक महत्व है।

 आज कार्तिक पूर्णिमा का शुभ दिन है। इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। भगवान शिव और विष्णु की अनेक पौराणिक गाथाएँ, व कुछ लौकिक गाथाएँ भी इस दिन के साथ जुड़ी हुई हैं। सभी को यहाँ लिखना असंभव है। आज के दिन पवित्र नदियों में स्नान भी होता है। अपनी चेतना का परमशिव में विलय ही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ स्नान है। मैं अपनी सम्पूर्ण चेतना का विलय उनमें करता हूँ। वे मेरा समर्पण स्वीकार करें।

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"ॐ नमः शिवाय विष्णु रूपाय, शिव रूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णुं, विष्णोश्च हृदयं शिवः॥ (स्कन्दपुराण)
मैं विष्णुरूप शिव को, और शिवरूप विष्णु को नमन करता हूँ। शिव के हृदय में विष्णु हैं, और विष्णु के हृदय में शिव हैं।
जैसे शिव हैं वैसे ही विष्णु हैं, तथा जैसे विष्णु हैं वैसे ही शिव हैं। तत्व रूप में शिव और विष्णु में तनिक भी अंतर नहीं है। जैसी भी आपकी श्रद्धा और विश्वास है वैसे ही परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन, और ध्यान कीजिये। परमात्मा के अनंत ज्योतिर्मय रूप का निरंतर स्मरण और उसमें स्वयं की पृथकता के बोध का समर्पण -- परमात्मा का ध्यान है।
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कौन क्या कहता है, इसकी परवाह न करते हुए, निरंतर परमात्मा के प्रियतम रूप का स्मरण करते रहें। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
*अर्थात् - हे पार्थ ! जो अनन्य चित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्य युक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
*भावार्थ - परमात्मा से अन्य कुछ भी नहीं है। जिस का चित्त निरंतर परमात्मा की चेतना में रहता है, उस नित्य समाधिस्थ को भगवान अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं।
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कूटस्थ सूर्यमण्डल में अनन्यगामी चित्त द्वारा पुरुषोत्तम का ध्यान करें। सब कुछ इसी जीवन में प्राप्त हो जाएगा, यानि आप स्वयं इसी जीवन काल में परमात्मा को उपलब्ध हो जाएँगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवंबर २०२५

केवल वेदान्त-वासना बनी रहे, अन्य सारे भाव तिरोहित हो जायें।

 केवल वेदान्त-वासना बनी रहे, अन्य सारे भाव तिरोहित हो जायें। जब भी कुछ लिखने की प्रेरणा ईश्वर से मिलेगी तब लिखूंगा अवश्य। अन्यथा अपने मौन में सच्चिदानंद की चेतना में रहना ही मेरी साधना है। एक शक्ति मुझे परमात्मा की ओर बढ़ने की प्रेरणा निरंतर देती रहती है, वही मुझसे साधना कराती है। बहुत दूर रहने वाले कुछ निष्ठावान अति उन्नत साधक/साधिकाएँ कभी कभी मुझसे संपर्क कर अपने अनुभवों पर चर्चा करते हैं, तब मुझे बड़ा प्रोत्साहन मिलता है। साधना में कुछ नकारात्मक शक्तियाँ भी व्यवधान करती हैं, जिनसे रक्षा स्वयं भगवान करते हैं। सार की बात यही है कि परमात्मा की अभीप्सा ही शाश्वत है, आकांक्षाएँ नश्वर हैं। परमात्मा से एकत्व का भाव बना रहे। मैं, मेरे गुरु, और सच्चिदानंद परमब्रह्म परमात्मा -- तीनों एक हैं; उनमें कहीं कोई भेद नहीं है।

इन दिनों कुछ भी लिखने का मानस नहीं बन रहा है। फेसबुक पर हर विषय के अनेक प्रखर राष्ट्रभक्त विद्वान और लेखक हैं। इसलिए इस मंच को कभी छोड़ा नहीं। विश्व की वर्तमान स्थिति और वैश्विक घटनाक्रम से मैं भलीभांति अवगत हूँ। स्वधर्म और आध्यात्म को भी समझता हूँ। अपना स्वधर्म तो किसी भी परिस्थिति में मैं नहीं छोडूंगा, और उसका पालन अंत समय तक करूंगा। गीता में भगवान के निम्न वचन कभी पथभ्रष्ट नहीं होने देते ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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यह संसार अब रहने योग्य नहीं रहा है। अवशिष्ट अति अल्प जीवन परमात्मा के चिंतन, मनन, भजन, निदिध्यासन, और ध्यान में ही बीत जाये। यही मेरी प्रार्थना है। सभी को नमन।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ नवंबर २०२५

हमारा स्वधर्म क्या है?

 (प्रश्न) : हमारा स्वधर्म क्या है?

(उत्तर) : यदि श्रीमद्भगवद्गीता का बहुत गहराई से स्वाध्याय करें तो समझ में आता है कि शरणागति द्वारा भगवान को समर्पण ही हमारा स्वधर्म है। हम यह नश्वर देह नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म -- परमात्मा की उपासना और परमात्मा को अहैतुकी समर्पण है। इधर उधर से गीता के दो-चार श्लोक पढ़ने से काम नहीं चलेगा। पूरी गीता का ही स्वाध्याय करना होगा।
जो लोग गीता को नहीं समझ सकते वे रामचरितमानस का स्वाध्याय करें। रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसे कोई भी समझ सकता है, जिसके हृदय में भक्ति है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१० नवंबर २०२५

राधे-गोविंद जय राधे-राधे ---

 राधे-गोविंद जय राधे-राधे ---

श्रीराधाकृष्ण मुझ में हैं, या मैं श्रीराधाकृष्ण में हूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। प्रकृति और पुरुष दोनों ही साथ साथ नृत्य कर रहे हैं। श्रीकृष्ण पुरुष हैं जो यह समस्त विश्व बन कर आकाश रूप में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं। श्रीराधा प्रकृति हैं, जिन्होंने प्राण रूप में समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है। उनकी लीलाभूमि सर्वत्र है। वे ही मेरे प्राण हैं। मैं उनके साथ एक हूँ। ॐ तत्सत् !!
राधे-गोविंद जय राधे-राधे, राधे-राधे राधे-राधे।
राधे-गोविंद जय राधे-राधे, राधे राधे राधे-राधे॥
पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ,
गोविंद की जय जय, राधे की जय जय
पुरुष की जय जय, प्रकृति की जय जय
राधे-राधे राधे-राधे, राधे-गोविंद जय राधे-राधे
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कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
१० नवंबर २०२५

कूटस्थ में अनुभूत हो रहे ज्योतिर्मय ब्रह्म ही साक्षात् परमात्मा हैं ---

 कूटस्थ में अनुभूत हो रहे ज्योतिर्मय ब्रह्म ही साक्षात् परमात्मा हैं। उन्हीं की हमें अभीप्सा है। प्रणव की ध्वनि भी उन्हीं से निःसृत हो रही है। श्रौता भी वे हैं, और दृष्टा भी। एकमात्र कर्ता भी वे ही हैं। परमात्मा की प्रत्यक्ष उपस्थिती के आभास के पश्चात किसी भी उपदेश की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान भक्ति और वैराग्य सब कुछ वे ही हैं। दिन-रात निरंतर उन्हीं का ध्यान करें, और उन्हीं की चेतना में रहें।

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उपरोक्त स्थिति में कूटस्थ कहाँ है? श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम-योग में इसका उत्तर है, जो प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा ही जानने योग्य है। कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर मेरुदण्ड के सभी चक्रों में विचरण करते करते सहस्त्रारचक्र को भी भेदकर अनंतताकाश से भी परे उस बिन्दु पर पहुँच जाती है जिसके बारे में गीता के पंद्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में वर्णन है। इसके पश्चात चेतना नीचे नहीं आनी चाहिए। वहीं रहें और परमात्मा को कर्ता, और स्वयं को निमित्त बनाकर, परमात्मा को स्वयं का ध्यान करने दें।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५"४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
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अन्य कुछ भी इस समय लिखने योग्य नहीं है। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें। परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी अन्य इस समय चिंतनीय नहीं है।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१२ नवंबर २०२५

जब धर्म ही नहीं रहेगा तो जय किसकी होगी? ---

 जब धर्म ही नहीं रहेगा तो जय किसकी होगी? ---

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कहते हैं -- "यतो धर्मस्ततो जयः"। लेकिन जब धर्म ही नहीं रहेगा तो जय किसकी होगी? इस संकट की घड़ी में हमारे राष्ट्र भारत की रक्षा आतताइयों से हो। हमारा जीवन ही जब नहीं रहेगा तो राष्ट्र और धर्म की रक्षा हम कैसे करेंगे? इसका एक ही समाधान है कि जो मृत्यु वे हमें देना चाहते हैं, वह मृत्यु हम उन्हें ही प्रदान करें। ऐसा करते समय हमारे में किसी भी तरह का क्रोध और घृणा न हो। हर समय हम निरंतर प्रेममय ही रहें।
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जीवन बहुत छोटा है, बुद्धि अति अल्प और सीमित है। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन कितना भी घना संकट हो, कोई घबराने की आवश्यकता नहीं है। भगवान में श्रद्धा और विश्वास रखें। अपना पूर्ण प्रेम उन्हें दें। भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं, वह है हमारा परम प्रेम। जब हम उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनकी भी परम कृपा हम पर अवश्य ही होगी।
भगवान ने गीता में वचन दिया है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- "मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे।"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥
अर्थात् -- "सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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कितना बड़ा वचन दे दिया है भगवान ने! और क्या चाहिए? यह सारे रहस्यों का रहस्य है, इस से बड़ा कोई दूसरा रहस्य नहीं है। जीवन के जो भी कार्य हम करें, वे भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करें, न कि अहंकार की तृप्ति के लिये। धीरे धीरे अभ्यास करते करते हम भगवान के प्रति इतने समर्पित हो जाएँ कि स्वयं भगवान ही हमारे माध्यम से कार्य करने लगें। हम उनके एक उपकरण मात्र बन जाएँ। कहीं कोई कर्ताभाव ना रहे, एक निमित्त-मात्र ही रहे| यह सबसे बड़ा आध्यात्मिक रहस्य और मुक्ति व विजय का मार्ग है।
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भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिये तुम युद्ध के लिये खड़े हो जाओ, और यश को प्राप्त करो; तथा शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं, हे सव्यसाचिन्, तुम निमित्तमात्र बन जाओ॥"
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हर समय परमात्मा की स्मृति बनी रहे। उन्हें हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें। हमारे पास देने के लिए अन्य है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का है।
हे भगवन, आपकी जय हो। आपका दिया हुआ यह अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) सब कुछ बापस आपको समर्पित है। मुझे आप के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। हम अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करेंगे।
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ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
१३ नवंबर २०२५

किसी के पीछे पीछे मत भागिये ---

 किसी के पीछे पीछे मत भागिये। खुद के ही पीछे पीछे भागोगे तो खुद ही खुदा बन जाओगे। पाने की कामना एक धोखा है। सब कुछ प्राप्त है, पाने को कुछ भी नहीं है। केवल बनना ही बनना है। जीव परमात्मा का अंश है तो जन्म किसका होता है, और मरता कौन है? चोरासी लाख योनियों में और स्वर्ग/नर्क में कौन जाता है? भोगों को कौन भोगता है?

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पाप/पुण्य और धर्म/अधर्म की चेतना से ऊपर उठना होगा। केवल परमात्मा का चिंतन कीजिये। स्वर्ग, नर्क, मुक्ति, मोक्ष आदि सब फालतू की बाते हैं। स्वर्ग का तो ज्ञान नहीं, एक बार पता नहीं कौन से नर्क में अनायास ही मैं चला गया था। वहाँ का अनुभव लिया जिसकी स्मृति स्पष्ट है फिर किसी ने मुझे धक्के मार कर बाहर निकाल कर फेंक दिया, और धमका कर कहा कि दुबारा इधर मत आना। फिर उधर देखा ही नहीं।
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कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करो। यही कल्याण का मार्ग है। जो पुरुषोत्तम हैं, वे ही परमशिव हैं। भगवान ने एक ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि हर कोई मुझसे मिल भी नहीं सकता। चेतना में मैं सदा आपके साथ हूँ।
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"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता॥" (गालिब)
यदि मैं नहीं होता तो कितना अच्छा होता !! तब सिर्फ भगवान खुद ही होते। मेरे होने ने ही भगवान को मुझ से दूर करने का अनर्थ कर दिया। मैं नहीं रहूँगा, तो मेरे स्थान पर सिर्फ भगवान ही होंगे।
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१३ नवंबर २०२५

गर्भाधान संस्कार ---

 गर्भाधान संस्कार ---

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सनातन हिन्दू धर्म को मान्यता प्राप्त विद्यालयों में पढ़ाना कानूनी रूप से वर्जित है, इसलिये हिंदुओं को धर्म-शिक्षा के अभाव में अपने धर्म का ज्ञान नहीं है। हिन्दू धर्म में सौलह संस्कारों का बड़ा महत्व है, उनका ज्ञान न होना भी हमारी अज्ञानता यानि सांस्कृतिक पतन का एक कारण है। हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले सौलह महत्वपूर्ण संस्कार हैं, जो जीवन को सही दिशा देते हैं। ये हैं -- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि शामिल हैं।
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इनमें गर्भाधान संस्कार सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। स्त्री-पुरुष के सहवास के समय जब पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते हैं तब सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है। उस समय दोनों की जैसी भी भावना होती है, वैसी ही आत्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है। इसमें स्त्री के विचार अधिक प्रभावी होते हैं। प्राचीन भारत ने इतनी महान आत्माएँ उत्पन्न कीं इसका कारण यह था कि उस समय लोगों को इन संस्कारों का ज्ञान था। अनेक महान आत्माएँ इस समय जन्म लेने की प्रतीक्षा में हैं, लेकिन वे जन्म नहीं ले पा रही हैं, क्योंकि उनको सही माता-पिता नहीं मिल रहे हैं। मेरे इस शरीर की आयु ७९ वर्ष की हो गयी है, अपनी युवावस्था में मैं बहुत घूमा-फिरा हूँ, विश्व के अनेक देशों की यात्रा मैंने की है, और इस पृथ्वी की पूरी परिक्रमा भी की है, लेकिन मुझे अपने पूरे जीवन काल में केवल दो हिन्दू ब्राह्मण दंपत्ति ऐसे मिले हैं जिन्होंने गर्भाधान संस्कार से संतान उत्पन्न की और धर्म का ज्ञान उन्हें दिया। एक तो सज्जन उड़ीसा के, और दूसरे सज्जन पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे। गर्भाधान संस्कार की प्रक्रिया बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
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संतान उत्पन्न करने से पूर्व स्त्री-पुरुष को कुछ महीनों तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और परमात्मा की साधना करनी चाहिए। फिर देवी/देवताओं व पूर्वजों से मानसिक रूप से आशीर्वाद लेकर तन और मन की पवित्रता के साथ शुभ मुहूर्त में संकल्पपूर्वक गर्भाधान करना चाहिये। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संतान स्वस्थ, शक्तिशाली और गुणी हो। आप जैसी भी संतान उत्पन्न करना चाहें वैसी ही संतान उत्पन्न कर सकते हैं। माता-पिता को शांतिपूर्ण व आनंदित रहना चाहिए और पवित्र विचारों को धारण करना चाहिये। यह संतान के चरित्र और स्वभाव को प्रभावित करता है। संतान के गुणों का निर्माण उनको जन्म देने से पूर्व ही आप कर सकते हैं।
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वैसे हिंदुओं के साथ बहुत अधिक अन्याय हो रहा है। वे अपने धर्म की शिक्षा अपने विद्यालयों में अपने बच्चों को नहीं दे सकते। उनके मंदिर सेकुलर सरकारों के आधीन हैं, जो अधर्म है। मंदिरों की कमाई हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए होनी चाहिये, लेकिन वह मौलवियों और पादरियों को वेतन के रूप में दी जाती है। हज यात्रा के लिए भी हिन्दू मंदिरों की कमाई दी जाती है, जो अधर्म है। पहले हर बड़े मंदिर के साथ एक गुरुकुल, व्यायामशाला और गौशाला होती थी। आजकल यह असंभव है क्योंकि हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट ब्रिटिश काल से ही हो रही है। उससे पूर्व नवाब और बादशाह लोग मंदिरों का विध्वंश कर उनकी संपत्ति लूट लेते थे। स्वयं भगवान ही रक्षा कर सकते हैं। धर्म की रक्षा हो, अधर्म का नाश हो।
हरिः ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२५

भारत में अल्प-संख्यक, धर्म-निरपेक्ष, सांप्रदायिक, पिछड़ा और अति-पिछड़ा होने का मापदण्ड क्या है? ---

 (प्रश्न) : भारत में अल्प-संख्यक, धर्म-निरपेक्ष, सांप्रदायिक, पिछड़ा और अति-पिछड़ा होने का मापदण्ड क्या है?

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सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि अल्पसंख्यक कौन है?
भारत में यदि मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होते हैं तो "यहूदी" और "पारसी" असली अल्पसंख्यक हैं। भारत में यहूदियों की संख्या एक हज़ार से भी कम है। भारत में पारसी मजहब के अनुयायी भी एक लाख से कम हैं। भारत में यहूदी और पारसी मतानुयायिओं को "अल्पसंख्यक क्यों नहीं माना जाता ?
जो नास्तिक हैं वे भी मज़हब के आधार पर अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैं। नास्तिकों को अल्पसंख्यक क्यों नहीं माना जाता?
जो किन्नर यानि हिंजड़े हैं उनका भी अपना अलग ही मज़हब होता है। मज़हब के आधार पर वे अल्पसंख्यक क्यों नहीं हैं?
और भी अनेक नगण्य मजहबों के लोग भारत में रहते हैं। क्या वे अल्पसंख्यक नहीं हैं?
भारत में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा वास्तव में एक पाखण्ड और धोखा है। ऐसे ही पिछड़ा और अति-पिछड़ा आदि की अवधारणाएं भी धोखा है। धन्यवाद।
१५ नवम्बर २०२५