सिंहावलोकन --- (११ वर्ष पुराना लेख शेयर कर रहा हूँ)
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विगत की स्मृतियों का सार व्यक्त करने को ह्रदय कह रहा है| अतः ह्रदय का आदेश मानते हुए कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ| मुझे बाल्यकाल व किशोरावस्था की स्मृतियों का बोध प्रभु कृपा से अभी तक है|
मन में सदा से ही अनेक कुंठाएँ और वासनाएँ थीं व ह्रदय में एक सुप्त अभीप्सा थी किसी अज्ञात लक्ष्य को प्राप्त करने की|
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आज के मापदंडों के अनुसार तो उस समय चारों ओर अज्ञान और अंधकार ही था| अच्छा वातावरण नहीं था| कोई अच्छे मार्गदर्शक भी नहीं थे| न तो कंप्यूटर थे और न ही आज की तरह की सूचना प्रोद्योगिकी| सामान्य लोग भी अधिक पढ़े लिखे नहीं थे| सरकारी कार्यालयों और बैंकों में बाबू लोग दसवीं-ग्यारहवीं पास ही होते थे|
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पर वह ज़माना आज से अच्छा था| किसी भी प्रकार की ट्यूशन, कोचिंग आदि का दबाव विद्यार्थी जीवन में नहीं था| विद्यार्थियों को इतना समय मिल जाता था कि वे शाम को खेल के मैदान में या पुस्तकालयों में या संघ की शाखाओं में जा सकते थे| प्रातःकालीन भ्रमण का समय भी मिल जाता था|
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बिजली तो हमारे यहाँ सन १९६३ में आई थी| उससे पूर्व किरोसिन की लालटेन या लैंप की रोशनी में ही रात को पढ़ते थे| गाँव में तो घी का दिया जलाकर उसी के प्रकाश में विद्यार्थी पढ़ते थे| घरों में पानी भी कुँए से भरकर लाना पड़ता था| घर में पानी आता था पर घर से बाहर पानी नहीं जाता था अतः रास्तों में अधिक कीचड नहीं होता था| विद्यालयों में अध्यापक लोग बहुत ही लगन और निष्ठा से पढ़ाते थे| कभी भी वे गृहशिक्षा यानि ट्यूशन पर जोर नहीं देते थे| समाज में अध्यापकों का सम्मान खूब था| विद्यार्थी भी अध्यापकों का खूब सम्मान करते थे और अध्यापक लोग भी अपने विद्यार्थियों का खूब ध्यान रखते थे| गाँवों से बच्चे नित्य पैदल ही आते जाते थे| सरकारी विद्यालय मुश्किल से एक दो ही थे, प्रायः सारे विद्यालय सेठ साहूकारों के द्वारा बनाए गए और उन्हीं के द्वारा संचालित थे|
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समाज का वातावरण भी धार्मिक था| हमारे पिताजी और ताऊजी नित्य प्रातः साढ़े तीन बजे उठ कर बालू रेत के टीलों में यानि जंगल में शौचादि से निवृत होकर कुँए पर स्नान करते और कम से कम दो घंटे तक हमारे पारिवारिक शिवालय में शिव जी की पूजा करते| हमारे पिताजी बताते थे कि हमारे सभी पूर्वज परम शिव भक्त थे| माँ से मुझे कृष्ण भक्ति के भी संस्कार मिले|
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महिलाएं भी प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही कुँए से पानी निकाल कर नहाती थीं और सब एक साथ मंदिर जातीं| मंदिर में सब महिलाओं का आपस में मिलना होता था| वहीँ वे एक दुसरे का सुख दुःख पूछ लेतीं| अतः समाज में एकता रहती और महिलाओं में कोई संवादहीनता नहीं थी|
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प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठकर जंगल में शौचादि से निवृत होना मेरी नित्य की दिनचर्या थी| फिर तीन-चार किलोमीटर दौड़ कर जाने की और फिर घूमते हुए बापस आने की| नहाने के लिए कुँए से ही पानी लाना पड़ता था| घर में नहाना एक विलासिता थी| शाम को या तो किसी पुस्तकालय में जाता या संघ की शाखा में| उस ज़माने में संघ के प्रचारक पढ़े लिखे और विद्वान् ही नहीं, त्यागी तपस्वी भी होते थे| संघ के प्रचारकों ने ही विवेकानंद साहित्य से परिचय कराया और संघ कार्यालय में ही विवेकानंद साहित्य का अध्ययन किया| 15-16 वर्ष तक की आयु में ही सम्पूर्ण विवेकानद साहित्य, रामायण, महाभारत और अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ गहनता से पढ़ ली थीं| यहीं से आध्यात्म में रूचि जागृत हुई|
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अब ये बातें सब स्वप्न सी लगती हैं| युग इतनी तीब्रता से परिवर्तित हुआ है कि आज की पीढ़ी विश्वास नहीं कर सकती कि वे कैसे दिन थे| हम लोग भी अपने से बड़ों की बातों पर आश्चर्य करते थे| उन्होंने भी बहुत बड़े बदलाव देखे थे|| हमारे जीवन काल में ही इतने बड़े परिवर्तन हुए हैं कि सोच कर आश्चर्य होता है| युग ऐसे ही बदलता रहेगा| हर्ष के और पीड़ा के क्षण ऐसे ही आते रहेंगे| पता नहीं सृष्टिकर्ता की क्या मंशा है| पर जो भी हो रहा है ठीक हो रहा है और प्रकृति के नियमानुसार हो रहा है| नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है|
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"जिसे तुम समझे हो अभिशाप
जगत की ज्वालाओं का मूल|
ईश का वह रहस्य वरदान
उसे तुम कभी न जाना भूल||" (प्रसाद)
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विडम्बना तो यह है कि सारा जीवन अपनी कुंठाओं से मुक्त होने और वासनाओं की पूर्ति में ही व्यतीत हो गया| अब तो प्रभु से यही प्रार्थना है कि वे हमें निरंतर अन्धकार से प्रकाश की ओर व असत्य से सत्य की ओर ले जाते रहें| फिर कभी असत्य और अन्धकार की शक्तियों से संपर्क ना हो| ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय॥
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मेरे जीवन के अब तक के समस्त अनुभवों का सार यही है की जब तक परमात्मा की प्राप्ति ना हो जाए यानि जब तक आत्मसाक्षात्कार न हो जाये तब तक किसी भी प्रकार का मनोरंजन यानि अन्य किसी भी दिशा में मन को लगाना स्वयं के प्रति अपराध है| मनोरंजन का अर्थ है ---- परमात्मा को भूलना|
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पुनश्च: --- मेरे पिताजी ने तो ठाकुर-ठिकानेदारों व राजा-महाराजाओं का अंतिम समय, अंगरजों के अत्याचार, स्वतंत्रता का आंदोलन, देश का विभाजन व तथाकथित स्वतंत्रता का समय देखा था। उनका भी अपने समय का विचित्र ही अनुभव रहा होगा।
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ॐ तत्सत्| ॐ शिव|
कृपा शंकर
०६ दिसंबर २०१३