Saturday 7 December 2019

एक बार उनके हाथों में डोर देकर तो देखो .......

एक बार उनके हाथों में डोर देकर तो देखो .......
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महाभारत के महा भयंकर युद्ध में महारथी अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा| अगले दिन युद्ध में जयद्रथ को कौरव सेना ने रक्षा कवच में घेर लिया और उसकी रक्षा के लिए सारी शक्ति लगा दी| कौरव सेना का संहार करते हुए अर्जुन ने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर जयद्रथ कहीं भी दिखाई न दिया| संध्या होने ही वाली थी और सूर्य भगवान अस्ताचल की ओट में छिपने को अग्रसर थे| सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण को अपने भक्त की चिंता थी| उन्होंने अपनी माया से सूर्य को बादलों से ढक दिया| सन्ध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया| कहते हैं उन्होंने काल की गति ही रोक दी| युद्ध बंद होने की सूचना देने के लिए बाजे बज उठे| पांडव सेना में हाहाकार मच गया| कौरव सेना प्रसन्नता से झूम उठी| अब अर्जुन का आत्मदाह देखने के लिए दुर्योधन आदि कौरव हर्षातिरेक में उछल पड़े| अब तक छिपा हुआ जयद्रथ भी कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा|
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अर्जुन ने अग्नि में आत्मदाह की तैयारी कर ली| श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूछा कि किसके भरोसे तुमने ऐसी कठोर प्रतिज्ञा की? अर्जुन नतमस्तक हो गया और कहा कि आपके ही श्री चरणों में शरणागति जो ली है उसी का भरोसा है, अब आप ही मेरी गति हैं| शरणागत भक्त की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अब अपनी माया समेट ली| मायावी बादल छँट गए और कमलिनीकुलवल्लभ भगवान भुवनभास्कर मार्तंड बादलों की ओट से निकलकर प्रखर हो उठे|
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जयद्रथ को सामने खडा देखकर श्रीकृष्ण बोले ..... 'पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है, उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका| वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है|' सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई थी| सूर्य अभी भी चमक रहा था जिसे देखकर जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई| जयद्रथ भागने को उद्द्यत हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था| श्रीकृष्ण ने चेतावनी देते हुए बोले ..... 'हे अर्जुन! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक ज़मीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा| इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे| उत्तर दिशा में यहाँ से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है| तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे|'
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया| उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे ले जा कर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में गिरा दिया| जयद्रथ का पिता चौंक कर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया| सिर के ज़मीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए| इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई, और भगवान ने अपने भक्त की रक्षा की|
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एक बार हम शरणागत होकर तो देखें| अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| यह शरणागति ही सबसे बड़ी गति है| हे प्रभु, मैं आपका हूँ, और सदा आपका ही होकर रहूँगा| भगवान के शरणागत हो जाना सम्पूर्ण साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का ही मानती है| उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन, बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों| एक बार जीवन की डोर उनके हाथों में देकर तो देखें|
भगवान श्रीकृष्ण हमारे चैतन्य में निरंतर अवतरित हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे|
."कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने | प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः||"
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ॐ तत्सत ! शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ नवम्बर २०१६

भारत की सबसे बड़ी समस्या चरित्रहीनता यानि भ्रष्टाचार की है .....

वर्तमान भारत की सबसे बड़ी समस्या चरित्रहीनता यानि भ्रष्टाचार की है| दुर्भाग्य से आज वस्तुस्थिति यह है कि किसी भी कार्यालय में बिना घूस दिए कुछ भी काम नहीं होता| हर कदम पर घूस देनी पड़ती है| झूठ, कपट और कुटिलता बहुत अधिक बढ़ गई हैं, और बढ़ती ही जा रही हैं| आजादी के बाद तो यह भ्रष्टाचार रक्तबीज और सुरसा के मुँह की तरह बढ़ा है, और दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है| अब तो निजी संस्थानों में भी भ्रष्टाचार बढ़ रहा है| खुद के लाभ के लिए दूसरों को ठगने की प्रवृति निजी संस्थानों में भी बहुत अधिक बढ़ गई है| कई बार तो मुझे लगता है कि यह पूरी सृष्टि नष्ट होकर दुबारा बसे तभी भ्रष्टाचार नहीं होगा| वैसे भी यह (अ)सभ्यता विनाश की ओर जा रही है|
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भारत में भ्रष्टाचार का आरंभ ब्रिटिश शासन में आरंभ हुआ| अंग्रेजों ने अपनी नौकरशाही और पुलिस को एक सुव्यवस्थित रूप से भ्रष्ट बनाया ताकि भारत भ्रष्ट हो| अंग्रेज खुद भी मूलतः समुद्री डाकू और बेईमान कौम थे जिन्होनें अपनी ईमानदारी के झूठे किस्से प्रचारित करवाए|
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आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने एक उपन्यास "सोना और खून" लिखा था जिसमें उन्होनें वर्णन किया है कि ब्रिटिश भारत में धीरे धीरे भ्रष्टाचार कैसे व्यवस्थित योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजी शासन द्वारा आरंभ किया गया| मध्य भारत में ठगी का आरंभ उस समय की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण हुआ जब अंग्रेजी राज्य भारत में कायम हुआ ही था| बाद में ठगी का अंत भी अंग्रेजों ने ही किया क्योंकि यह ठगी अंग्रेजी शासन के हित में नहीं थी| अंग्रेजों से पूर्व भी भारत में आए सारे विदेशी आक्रांता ठग और बेईमान थे|
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भारत में भ्रष्टाचार और बेईमानी कैसे समाप्त हो यह एक यक्ष-प्रश्न है| लोकतंत्र में कठोर कानून बनाए भी नहीं जा सकते| हिंदुओं में धर्मशिक्षा का अभाव और धर्मनिरपेक्षता भी भ्रष्टाचार के कारण हैं|

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि -----

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि -----
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आज से पूरे एक-सौ-एक वर्ष पूर्व ११ नवम्बर १९१८ को प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, जो २८ जुलाई १९१४ को आरम्भ हुआ था| भारत उस समय पराधीन था| इस युद्ध में ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार मारे गए सभी ७४,१८७ भारतीय सिपाहियों को श्रद्धांजलि| भगवान उन सब को सद्गति दे|
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वे तो बेचारे अपनी आजीविका के लिए ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हुए थे जिन्हें ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए युद्ध की आग में ईंधन की तरह झोंक दिया गया और वे विदेशी धरती पर ही मारे गए| उनका कोई अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ| जयपुर राज्य के शेखावाटी जिले के ही लगभग ७००० सिपाही इस युद्ध में मारे गए थे|
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एक बात जो बताई नहीं जाती और छिपाई गयी है वह यह कि प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों में सबसे अधिक सैनिक भारत के ही मारे गए थे| भारत चूंकि ब्रिटेन के आधीन था अतः असहाय था इसलिए भारत के सैनिकों को बलि के बकरों यानि युद्ध में चारे के रूप में मरवाया गया था|
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काश ! प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले भारत के उन दस लाख सिपाहियों में समाज और राष्ट्र की चेतना होती और उनकी बंदूकों का मुंह अंग्रेजों की ओर मुड़ गया होता ! द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हिन्द फौज द्वारा यही हुआ और अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पडा| दुर्भाग्य से भारत को आज़ाद कराने का श्रेय आज़ाद हिन्द फौज को नहीं मिला और भारत की सत्ता अंग्रेजों के मानस पुत्रों के हाथ ही आ गयी|
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इस युद्ध में दस लाख से अधिक भारतीय सेना ने भाग लिया जो ब्रिटेन के आधीन थी| ६२,००० से अधिक सिपाही तो युद्ध के मोर्चे पर ही मारे गए, और ६७,००० से अधिक घायल हुए| ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार कुल ७४,१८७ भारतीय ब्रिटिश सिपाही इस युद्ध में मरे| ये जर्मनी के विरुद्ध पूर्वी अफ्रिका और पश्चिमी यूरोप में मारे गए थे|

उन सभी दिवंगत सैनिकों को श्रद्धांजलि !
कृपा शंकर
११ नवम्बर २०१९

कोई जलते हुए कोयलों से भरी हुई एक परात मेरे सिर पर रख दे .....

हे श्रीहरिः, यदि कोई जलते हुए कोयलों से भरी हुई एक परात मेरे सिर पर रख दे, या मुझे जीवित ही एक प्रज्ज्वलित विशाल अग्निकुंड में फेंक दे, तो उस दाहकता से मुक्त होने की छटपटाहट और पीड़ा जितनी गहन और जैसी भी हो, उस से द्वीगुणित पीड़ा, छटपटाहट और अभीप्सा मेरे हृदय में निरंतर तुम्हें पाने की हो| तुम्हारे बिना अब और जी नहीं सकते| इसी क्षण स्वयं को प्रकट करो|
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तुम्हारा एक नाम 'सत्कृति' भी है, जिसका अर्थ है जो अपने भक्त के शरीर त्यागने के समय में उसकी सहायता करे| तुम्हारा दिया हुआ वचन है ...
"वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्| अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्||"
अर्थात यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता है तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ|
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मैनें अपने पूर्व जन्मों में स्वयं के अवचेतन मन में भरी हुईं वासनाओं और कामनाओं से मुक्ति के कोई उपाय नहीं किए, इसी लिए यह जन्म लेना पड़ा| इसमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है| जीवन में जो भी दुःख-सुख, कष्ट और पीड़ाएँ भुगतीं वे भी मेरे स्वयं के ही कर्मों का फल थीं| कभी भूल से कोई पुण्य किया होगा जिसके परिणामस्वरूप तुम्हारी भक्ति मिली| अब निश्चय कर संकल्प सहित अपने आप को तुम्हारे हाथों में सौंप रहा हूँ| जहाँ से मैं विफल रहा हूँ, वहाँ से तुम मेरा हाथ थाम लो| और कुछ भी नहीं चाहिए| किसी भी कामना या अपेक्षा का जन्म ही न हो|
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जीवन के इस संध्याकाल में अब कहीं भी जाने की या चला कर किसी से भी मिलने की कोई कामना नहीं रही है| तुम अपनी इच्छा से कहीं भी ले जाओ या किसी से भी मिला दो| मेरी स्वयं की कोई इच्छा नहीं है| जीवन से पूर्ण संतुष्टि और ह्रदय में पूर्ण तृप्ति तो तुम ही दे सकते हो| मुझे कोई असंतोष या शिकायत नहीं है| मुझे तुम्हारी प्रत्यक्ष उपस्थिति चाहिए, कोई ज्ञान आदि नहीं| मैं, मैं नहीं, अब तुम ही तुम हो| सब बाधाओं को दूर करो और स्वयं को पूर्ण रूप से व्यक्त करो|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वंसमाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ नवेंबर २०१९

मेरे हृदय में भी फूल खिलें .....

जब पथरीली-बंजर घोर-शुष्क मरुभूमि में भी सुन्दर सुगंधित पुष्प खिल कर महक सकते हैं तो मेरे इस शुष्क हृदय में क्यों नहीं? कीचड़ में कमल का उगना तो सामान्य है|
परमात्मा की उपस्थिति के प्रकाश में मेरे हृदय की इस बंजर शुष्क मरुभूमि में भी भक्ति रूपी सुंदर सुगंधित पुष्प की पंखुड़ियाँ खिलें और उनकी महक मेरे हृदय से सभी के हृदयों में व्याप्त हो जाए|
परमात्मा की उपस्थिति का सूर्य सदा मेरे कूटस्थ में स्थिर रहे| मैं जहाँ भी रहूँ वहाँ किसी भी तरह का कोई असत्य और अंधकार न रहे|
श्रुति भगवती कहती है .....
" न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः| तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ नवंबर २०१९

यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः .....

यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः .....
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हे सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ! चैतन्य में तुम्हारी निरंतर उपस्थिति ही मेरा धर्म है, और तुम्हारी विस्मृति मेरा अधर्म| तुम ही मेरे आत्म-सूर्य और इस जीवन के ध्रुव हो| तुम ही तुम हो, मैं नहीं| तुम ही मेरा अस्तित्व हो|
अब और विलम्ब क्यों? इस पीड़ा को शांत करो| बहुत देर हो चुकी है| जो प्राप्त नहीं है उसकी कामना से, जो प्राप्त है उसकी ममता से, अहंकार, अपेक्षा और निर्वाह की स्पृहा (जीवन-यापन की चिंता) से इसी क्षण मुक्त करो|
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है).

"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
(जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है).
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
(हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्‍प्राप्ति करता है).
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जब तक सांसें चल रही हैं तब तक उम्मीद बाकी है| अब तो तुम्हारी एक प्रेममय कृपादृष्टि के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| और विलम्ब मत करो|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवम्बर २०१९

गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ .....

गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ .....
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गीता के सत्रहवें अध्याय के अंतिम छः श्लोक "ॐ तत्सत्" का अर्थ बतलाते हैं....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (२३)
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ (२४)
भावार्थ : इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (२६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द ‍का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६)
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ॥ (२७)
भावार्थ : जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (२८)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)
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"ॐ तत्सत्" शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है| इस का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है ....."ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुन ... ."
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ईसाई मत में इसी की नक़ल कर के "Father Son and the Holy Ghost" की परिकल्पना की गयी है| गहराई से यदि चिन्तन किया जाए तो "Father Son and the Holy Ghost" का अर्थ भी वही निकलता है जो "ॐ तत्सत्" का अर्थ है|
हरि: ॐ तत् सत् !
७ नवम्बर २०१८

कभी निराश न हों .....

साधना के मार्ग पर कई बार असफलता मिलती है और पतन हो जाता है| जब भी होश आये तब दुगुणे उत्साह से फिर दुबारा अपने मार्ग पर चल पड़ें| असफलता भी कभी न कभी सभी को मिलती है| बाहर की विपरीत परिस्थितियों से निराश नहीं होना चाहिए| परमात्मा से तो सदा ही जुड़े रहें| सफलता और असफलता दोनों में ही सम भाव से परमात्मा को याद रखें|
इस बारे में हनुमान जी हमारे आदर्श हैं| उन्होंने कभी भी भगवान को नहीं भूला अतः सदा सफल रहे| वे अब तक के सारे ज्ञात इतिहास और साहित्य के सर्वाधिक और सदा सफल पात्र रहे हैं जिन्हें किसी भी काम में कभी भी कोई असफलता नहीं मिली| वे सदा पूज्य हैं|
८ नवंबर २०१९ 

समत्व की प्राप्ति कैसे हो? ....

समत्व की प्राप्ति कैसे हो?
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कई जन्मों की दीर्घकालीन साधनाओं का फल है समत्व| यह कोई आरंभिक लक्षण नहीं है| समता कभी स्वयं के प्रयास से नहीं आती, यह तो परमात्मा का विशेष अनुग्रह है| इच्छाओं का नाश होना भी परमात्मा का विशेष अनुग्रह है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
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फल तृष्णा रहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान प्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञान प्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में सम हो कर अर्थात् दोनों को तुल्य समझ कर कर्म करने हैं| ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों, इस आशा रूप आसक्ति को भी छोड़ना पड़ेगा| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं| समता में निरंतर सम रहना योगस्थ होना है|
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भगवान वासुदेव की हम सभी पर परम कृपा हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
७ नवंबर २०१९

"मन" पर नियंत्रण कैसे करें? ....

"मन" पर नियंत्रण कैसे करें?
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मन पर नियंत्रण हम तभी कर सकते हैं जब हम इसके स्त्रोत को समझ सकें| जहाँ से जिस बिंदु से मन का जन्म होता है उसे समझना आवश्यक है| मन की उत्पत्ति प्राण-तत्व से होती है| प्राण-तत्व की चंचलता ही मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में व्यक्त होती है| प्राण की चंचलता को स्थिर कर के ही हम मन को वश में कर सकते हैं| पश्चिमी विचारकों के अनुसार मन एक ही है| पर हिन्दू धर्म-शास्त्रों के अनुसार मन हमारे अंतःकरण का एक भाग है| अंतःकरण के .... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार .... ये चार भाग हैं|
(१) बिना क्रम के लहरों की तरह विचारों का आना "मन" है|
(२) विचारों का संगठित रूप "बुद्धि" है जो कुछ निर्णय लेने में समर्थ है जिन्हें शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है|
(३) अव्यवस्थित मन और बुद्धि कुछ भी कल्पना या मानसिक रचना कर लेते हैं, वह "चित्त" है| यह हमारी चेतना का केंद्र बिन्दु है|
(४) जो हम नहीं हैं, उसके होने का मिथ्या भाव अहंकार है|
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मन की स्वाभाविक चञ्चलता जीवन का चिह्न है| मन को उपयोगी काम में लगाने और चिंता से मुक्त करने के लिए दैनिक अभ्यास आवश्यक है| मन को वश में करने के लिए .....
(१) उसे किसी बीज मंत्र से जोड़ना आवश्यक है| उचित बीजमंत्र का ज्ञान तो एक सद्गुरु ही करा सकते हैं|
(२) बीजमंत्र के साथ साथ मन को मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में होने वाले प्राण-प्रवाह से जोड़ना भी आवश्यक है| इसकी विधि भी कोई सद्गुरु ही सिखा सकते हैं|
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सद्गुरु के मार्गदर्शन में साधना कर के उनकी परम कृपा से ही हम चंचल प्राण को स्थिर कर पाते हैं| तभी एकोsहं द्वितीयोनास्ति का भाव आता है| प्राणों की स्थिरता ही शिवत्व में स्थिति है| जब हम सम्पूर्ण समष्टि के साथ एक हो जाते हैं, तब हम पाते हैं कि सिर्फ एक मैं ही हूँ जो जड़-चेतन में सर्वत्र व्याप्त है, मेरे सिवाय अन्य कोई भी नहीं है| यही शिवत्व है और यही निःसंगत्व है|
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प्राण तत्व को स्थिर करना ही योग साधना है| यही चित्त की वृत्तियों का निरोध है| इसी के लिए हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान करते हैं| चंचल प्राण से ही चित्त की वृत्तियों और मन का जन्म होता है| प्राण का घनीभूत रूप ही कुंडलिनी महाशक्ति है| प्राण तत्व की स्थिरता ही हमें परमशिव की अनुभूतियाँ कराती है| महाशक्ति कुंडलिनी का परमशिव से मिलन ही योग है| जगन्माता की कृपा हम सब पर बनी रहे|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ नवंबर २०१९

तारक मंत्र "राम" से अधिक सुंदर अन्य कोई दूसरा मंत्र नहीं है ....

तारक मंत्र "राम" से अधिक सुंदर अन्य कोई दूसरा मंत्र नहीं है|
"र" अग्नि का बीजमंत्र है, जो कर्म बंधनों का दाहक है|
"अ" सूर्य का बीजमंत्र है, जो ज्ञान का प्रकाशक है|
"म" चंद्रमा का बीजमंत्र है जो मन को शांत करता है|.
राम नाम एक अटल सत्य है जो निरंतर हमारी रक्षा करता है| मृत्यु के बाद भी इसका प्रभाव नष्ट नहीं होता| अनंत की यात्रा में यह सब से अधिक विश्वसनीय साथी है| इसके जाप से हमारे चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण होता है| राम ही हमारे जीवन की परिपूर्णता और ऊर्जा है जो रोम रोम में बसी है| इस मंत्र में कोई देश-काल, शौच-अशौच व किसी भी तरह का कोई बंधन नहीं है| राम राम !!!
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जब प्राण की गति होती है, जैसे शरीर से बाहर निकला, तो वह "ॐ" से "रं" हो जाता है ..... प्राणो वै रं, प्राणे हि इमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)| किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं| अतः ॐ तत् सत् का ’राम नाम सत्'’ भी हो जाता है|
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एक समय सनकादि योगीश्वरों, ऋषियों और प्रह्लाद आदि महाभागवतों ने श्रीहनुमानजी से पूछा ..... हे महाबाहु वायुपुत्र हनुमानजी ! आप यह बतलानेकी कृपा करें कि वेदादि शास्त्रों, पुराणों तथा स्मृतियों आदि में ब्रह्मवादियों के लिये कौन सा तत्त्व उपदिष्ट हुआ है, विष्णुके समस्त नामों में से तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति .... इनमें से वह तत्त्व कौन-सा है ?

इस पर हनुमानजी बोले – हे मुनीश्वरो ! आप संसारके बन्धन का नाश करने वाली मेरी बातें सुनें | इन सब वेदादि शास्त्रोंमें परम तत्त्व ब्रह्मस्वरूप तारक ही है । राम ही परम ब्रह्म हैं | राम ही परम तपःस्वरूप हैं | राम ही परमतत्त्व हैं | वे राम ही तारक ब्रह्म हैं --
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो विष्णुभक्तास्तथैव च ।
शृणुध्वं मामकीं वाचं भवबन्धविनाशिनीम् ।।

एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्मतारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।
(रामरहस्योपनिषद्)
(‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ८८, संख्या – ४ : गीताप्रेस, गोरखपुर)


पुनश्च :----
राम नाम की महिमा ----- (संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख)
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एक समय सनकादि योगीश्वरों, ऋषियों और प्रह्लाद आदि महाभागवतों ने श्रीहनुमानजी से पूछा ..... हे महाबाहु वायुपुत्र हनुमानजी ! आप यह बतलानेकी कृपा करें कि वेदादि शास्त्रों, पुराणों तथा स्मृतियों आदि में ब्रह्मवादियों के लिये कौन सा तत्त्व उपदिष्ट हुआ है, विष्णुके समस्त नामों में से तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति .... इनमें से वह तत्त्व कौन-सा है ?
इस पर हनुमानजी बोले – हे मुनीश्वरो ! आप संसारके बन्धन का नाश करने वाली मेरी बातें सुनें | इन सब वेदादि शास्त्रोंमें परम तत्त्व ब्रह्मस्वरूप तारक ही है | राम ही परम ब्रह्म हैं | राम ही परम तपःस्वरूप हैं | राम ही परमतत्त्व हैं | वे राम ही तारक ब्रह्म हैं --
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो विष्णुभक्तास्तथैव च |
शृणुध्वं मामकीं वाचं भवबन्धविनाशिनीम् ||

एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्मतारकम् |
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ||
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम्
(रामरहस्योपनिषद्) (‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ८८, संख्या – ४ : गीताप्रेस, गोरखपुर).
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जब प्राण की गति होती है, जैसे शरीर से बाहर निकला, तो वह "ॐ" से "रं" हो जाता है ..... प्राणो वै रं, प्राणे हि इमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)| किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं| अतः परमात्मा का वाचक "ॐ" ही राम हो जाता है|
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तारक मंत्र "राम" से अधिक सुंदर अन्य कोई दूसरा मंत्र नहीं है|
"र" अग्नि का बीजमंत्र है, जो कर्म बंधनों का दाहक है|
"अ" सूर्य का बीजमंत्र है, जो ज्ञान का प्रकाशक है|
"म" चंद्रमा का बीजमंत्र है जो मन को शांत करता है|.
राम नाम एक अटल सत्य है जो निरंतर हमारी रक्षा करता है| मृत्यु के बाद भी इसका प्रभाव नष्ट नहीं होता| अनंत की यात्रा में यह सब से अधिक विश्वसनीय साथी है| इसके जाप से हमारे चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण होता है| राम ही हमारे जीवन की परिपूर्णता और ऊर्जा है जो रोम रोम में बसी है| इस मंत्र में कोई देश-काल, शौच-अशौच व किसी भी तरह का कोई बंधन नहीं है|
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राम राम !!! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||
१० नवंबर २०१९
 

हिंदुओं के साथ भेदभाव बंद हो .....

भारतवर्ष की पहिचान गीता, रामायण, श्रुतियों, आगम ग्रन्थों व सनातन धर्म से ही है| भारतवर्ष में हिंदुओं को अन्य मतावलंबियों के बराबर अधिकार मिलने चाहियें| वर्तमान में तो हिन्दू दो नंबर के नागरिक हैं, उन्हें सरकारी मान्यता प्राप्त विद्यालयों में अपना धर्म पढ़ाने की छूट नहीं है जो अन्य सभी को प्राप्त है| यह समाप्त होना चाहिये| उनके मंदिरों की भी सरकारी लूट होती है| मंदिरों का जो रुपया हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए लगना चाहिये वह लूट कर सरकारें मस्जिदों के इमामों को वेतन आदि के रूप में, और मदरसों को अनुदान के रूप में दे देती है|
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सभी विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं में ही माता-पिता को प्रणाम करना, प्राणायाम, योगासन, भोजन मंत्र आदि सिखाने चाहिएँ|
माध्यमिक कक्षाओं में पर्यावरण, स्वच्छता, और ध्यान करना सिखाना चाहिये|
उच्च कक्षाओं में अनिवार्य रूप से गीता पढ़ाई जानी चाहिये|
गीता में तीन ही विषय हैं ---- कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग| इनका ज्ञान प्राप्त कर जो पीढ़ी महाविद्यालयों में आएगी वह अति प्रतिभाशाली होगी|

भगवान "हैं", यहीं "हैं", सर्वत्र "हैं", इसी समय "हैं", और सर्वदा "हैं"....

भगवान "हैं", यहीं "हैं", सर्वत्र "हैं", इसी समय "हैं", और सर्वदा "हैं"| जब वे हैं, तो सब कुछ है| उनकी इस उपस्थिति ने तृप्त, संतुष्ट और आनंदित कर दिया है| वे ही वे बने रहें, और कुछ भी नहीं| सारी चेतना उनकी उपस्थिति से आलोकित है| जब वे हैं, तो सब कुछ है| मैं उन के साथ एक हूँ| कहीं कोई भेद नहीं है| मैं उनकी पूर्णता हूँ| मैं उनकी सर्वव्यापकता हूँ| मैं यह देह नहीं, मैं परमशिव पारब्रह्म हूँ|
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भगवान "है" ..... इस "है" शब्द में ही सब कुछ है| यही "हंसः" होकर हंस-गायत्री अजपा-जप हो जाता है, यही "सोहं" है, यही और भी गहरा होकर परमात्मा का वाचक "ॐ" हो जाता है| इस "है" शब्द को कभी नहीं भूलें| भगवान निरंतर हर समय हमारे साथ एक है, कहीं कोई पृथकता नहीं है| भगवान है, यहीं है, सर्वत्र है, इसी समय है, सर्वदा है, वह ही वह है, और कुछ भी नहीं है, सिर्फ भगवान ही है|
यह "है" ही सोम है| कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में ऊर्ध्वगामी भी इस हSSSS शब्द के साथ ही होती है| और भी बहुत कुछ है जो अनुभूतिजन्य है, उसे शब्दों में व्यक्त करना बड़ा कठिन है| भगवान है, यह सार की बात है| इस "है" शब्द को कभी न भूलें|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवंबर २०१९

मनुष्य के आचरण की अविश्वसनीयता .....

किसी भी मनुष्य का आचरण तब तक विश्वसनीय नहीं है जब तक वह पूरी दृढ़ता से परमात्मा में स्थिर नहीं है| कई लोग स्वयं को बहुत बड़ा महात्मा मानते हैं, कई लोगों के बहुत सारे अनुयायी हो सकते हैं जो उन्हें भगवान मानते हैं, कई लोग बहुत बड़ी बड़ी आध्यात्म की और दर्शन शास्त्रों की बातें कर सकते हैं, पर उन के आचरण में यदि कुटिलता और असत्य है तो वे कुछ भी नहीं हैं| महत्व इस बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं, मनुष्य की दृष्टि में नहीं| जीवन में आध्यात्मिक प्रगति के लिए निम्न साधन हैं जिन के बिना हम जरा सी भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते.... (१) सात्विक आहार. (२) स्वाध्याय और सत्संग. (३) नियमित आध्यात्मिक साधना| भगवान से यदि प्रेम है तो वे निश्चित रूप से मार्गदर्शन करते हैं| आप सब को शुभ कामनायें और सादर सप्रेम नमन !
कृपा शंकर
३ नवंबर २०१९

जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, और जो हम होना चाहते हैं, दोनों में बहुत अधिक अंतर है .....

जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, और जो हम होना चाहते हैं, दोनों में बहुत अधिक अंतर है .....
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प्राप्त करने योग्य तो एक ही वस्तु है जिस के बारे में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ......
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
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क्या होना चाहते हैं व कैसे हो ? इसके बारे में हमारे सारे उपनिषद और गीता बहुत स्पष्ट शब्दों में कहती हैं, पर इसे हम सत्संग और स्वाध्याय द्वारा ही समझ सकते हैं| उसके लिए हमें शरणागत होकर पूर्णतः समर्पित होना होगा| हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं| हम परमात्मा के साथ वैसे ही एक हैं, जैसे महासागर में जल की एक बूँद| जल की यह बूँद जब तक महासागर से जुड़ी हुई है, अपने आप में स्वयं ही महासागर है| पर महासागर से दूर होकर वह कुछ भी नहीं है| वैसे ही परमात्मा से दूर होकर हम कुछ भी नहीं हैं| हमें परमात्मा को समर्पित होना है| यह सृष्टि ..... प्रकाश और अन्धकार की मायावी लीला का एक खेल मात्र है| परमात्मा ने समष्टि में हमें अपना प्रकाश फैलाने और अपने ही अन्धकार को दूर करने का दायित्व दिया है| उसकी लीला में हमारी पृथकता का बोध, माया के आवरण के कारण एक भ्रममात्र है| हमारा स्वभाव परम प्रेम है|
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जब भी समय मिले शांत स्थिर होकर बैठिये| कमर सीधी ओर दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रखिये| अपनी चेतना को इस देह से परे, सम्पूर्ण सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी है, उसके साथ जोड़ दीजिये| हम यह देह नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं| जो हम प्राप्त करना चाहते हैं वह तो हम स्वयं हैं| प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को कूटस्थ में यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में रखिये| वहाँ दिखाई दे रही ब्रह्मज्योति और सुन रही प्रणव ध्वनि रूपी अनाहत नाद हम स्वयं ही हैं, यह नश्वर देह नहीं| हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह ज्योति और नाद हम स्वयं हैं, यह देह नहीं ..... यह भाव बार बार कीजिये| यह हमारा ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य कई बार इसकी साधना कीजिये|
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परमात्मा के संकल्प से यह सृष्टि बनी है| हम भी उसके अमृतपुत्र और उसके साथ एक हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह हमारा ही है| हम कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| परमात्मा का संकल्प ही हमारा संकल्प है| प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है| निरंतर भगवान का स्मरण करते रहो| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर स्मरण प्रारम्भ कर दो| याद रखो कि भगवान स्वयं ही अपना स्मरण कर रहे हैं| उन्हीं की चेतना में रहो| जैसे एक मोटर साइकिल की देखभाल करते हैं वैसे ही इस देहरूपी मोटर साइकिल की भी देखभाल करते रहो| यह देह एक मोटर साइकिल ही है जिसकी देखरेख करना आवश्यक है क्योंकि यह लोकयात्रा इसी पर पूरी करनी है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ नवम्बर २०१९

साधकत्व व साधुत्व का अभिमान .....

साधकत्व व साधुत्व का अभिमान निश्चित रूप से पतनगामी है| सांप-सीढ़ी के खेल में जैसे सांप के कालरूपी मुँह में जाते ही पतन हो जाता है| वैसे ही जरा सा भी अभिमान होते ही एक साधक व साधु कालकवलित हो जाते हैं|
इस से बचने का बहुत सुंदर उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है.....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
(इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन् तुम केवल निमित्त ही बनो)
और
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||१३:८||"
(अमानित्व अदम्भित्व अहिंसा क्षमा आर्जव आचार्य की सेवा शुद्धि स्थिरता और आत्मसंयम)

इसके बहुत सारे उदाहरण महाभारत में और पुराणों में दिए हैं जिनको यहाँ उद्धृत करना मैं आवश्यक नहीं समझता| सार की बात यहाँ कह दी है|
परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे | ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ नवंबर २०१९

भगवान का नाम और पता :-----

भगवान का नाम और पता :-----

निश्चित रूप से भगवान का नाम और पता भी है, पर यह स्वयं को ही ढूँढना पड़ता है, दूसरा कोई बता सकता है तो मुझे पता नहीं| एक सद्गुरु मार्ग तो बता सकता है, पर चलना तो स्वयं को ही पड़ता है| कहीं जाने के लिए एक मार्ग-दर्शिका की आवश्यकता पड़ती है| भारतीय संस्कृति में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है| सारे उपनिषद और श्रीमद्भगवद्गीता इसी की चर्चा से भरे पड़े हैं| मेरी दृष्टि में सार रूप में गीता ही सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक ग्रंथ है| जिस व्यक्ति में सतोगुण प्रधान है उसे गीता में ज्ञान और भक्ति मिलेगी, रजोगुण प्रधान को कर्म, और तमोगुण प्रधान को कुछ भी नहीं मिलेगा| अतः सत्संग और भक्ति आवश्यक है, तभी अच्छे गुण आयेंगे|
हिन्दी भाषा में भक्ति का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' है, पर तमोगुणी व्यक्ति को वह भी समझ में नहीं आयेगा| तमोगुण से मुक्त तो होना ही पड़ेगा|
१ नवंबर २०१९

मनुष्य का लोभ ही रक्तबीज है .....

मनुष्य का लोभ ही रक्तबीज है| इसका कोई अंत नहीं है| मेरा एक अच्छा परिचित पूर्व सैनिक कंप्यूटर इंजीनियर था जिसने बहुत पहले हमारे नगर में एक कंप्यूटर इंस्टीट्यूट खोली थी जो इतनी अच्छी चली कि उसकी शाखाएँ पूरे राजस्थान व आसपास के राज्यों में खुल गईं| वह आरंभ में एक बहुत ही सज्जन व्यक्ति था, खूब मेहनती और मिलनसार| फिर उसके मन में लोभ आ गया| उस लोभ ने उसकी सोच को बदल दिया| उसने उस इंस्टीट्यूट को एक चिटफंड कंपनी में बदल दिया| सदस्यों से 6800 रुपये लेकर तीन वर्ष बाद बदले में 25 हज़ार रुपये देने लगा| देश भर में उसने 2,87,000 से अधिक सदस्य बनाए| हर वर्ष लॉटरी द्वारा कुछ सदस्यों को कारें व स्कूटर और मोटरसाइकिलें भी देनी शुरू कर दीं| जब तक सदस्य संख्या बढ़ती गई तब तक उसका धंधा खूब चला| जब और सदस्य बनने बंद हो गए तो रुपये आने बंद हो गए| फिर उसके विरुद्ध सैंकड़ों सदस्यों ने कानूनी कारवाई आरंभ कर दी| उस पर लोगों के 300 करोड़ रुपये ठगने का आरोप था| पिछले कई वर्षों से जेल में था| एक के बाद एक .... इस तरह के बहुत सारे धोखाधड़ी के मुकदमें उस पर चल रहे थे|
कल एक समाचार पढ़ा कि ..... "करोड़ों की ठगी के मास्टर माइंड की हार्ट अटैक से मौत|" उसके ऊपर लगभग 97 मुकदमें चल रहे थे, व हरियाणा के विभिन्न थानों में कई मामले दर्ज़ हैं|
उसके मन में लोभ जागा तो उसने यह ठगी का धंधा शुरू किया जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं थी| अच्छी व्यावसायिक आय थी, खूब जमीन जायजाद थी और सेना से पेंशन आती थी|
इस लोभ से क्या तो उसको मिला और क्या उसके परिवार को? मनुष्य का लोभ रक्तबीज है जिसका कोई अंत नहीं है| भगवती की कृपा ही इस रक्तबीज का नाश कर सकती है|

३१ अक्टूबर २०१९ 

अयमात्मा ब्रह्म .....

अयमात्मा ब्रह्म .....
इस संसार चक्र में बार बार हम आने को बाध्य हैं क्योंकि हम देह की चेतना से जुड़े हुए हैं| संसार में ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी और मूढ़ ... ये चार प्रकार के लोग होते हैं| देह को आत्मा मानने से जन्म मरण रूपी संसार चक्र में पुन: पुन: भ्रमण करता पड़ता है| हम पृथ्वी नहीं हैं, जल नहीं हैं, अग्नि नहीं हैं, वायु नहीं हैं, और आकाश भी नहीं हैं| फिर हम हैं कौन?
श्रुति कहती है - अयमात्मा ब्रह़म्, अर्थात जो आत्मा है वही ब्रह्म हैं, वही ईश्वर है, वही मैं हूँ| मैं यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हूँ| जब हम इस स्थूल देह और इंद्रियों के विषयों से परे हट कर साक्षी भाव में स्थित हो, साक्षी भाव से भी ऊपर उठ जाएँ तब आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है| अध्ययन से आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता| अध्ययन प्रेरणा दे सकता है और कुछ सीमा तक मार्गदर्शन भी कर सकता है, उससे अधिक नहीं| किसी के प्रवचन सुनकर भी आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता| राजा जनक एक अपवाद थे| प्रवचन सुनकर प्रेरणा और उत्साह ही प्राप्त हो सकते हैं, आत्मज्ञान नहीं|
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हे जगन्माता हम तुम्हारी शरणागत हैं| किसी भी प्रकार की साधना करने में हम असमर्थ हैं| करुणा और कृपा कर के हमें अपना उपकरण बनाओ, और आप ही इस उपकरण से साधना करो| हमें आत्म-तत्व में स्थित करो| आपकी करुणा और परमप्रेम ही हमारा उद्धार कर सकते हैं| ॐ शांति शांति शांति !!
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१९

जो कुछ भी है वह उस श्रीहरिः का ही है ...

जीवन में अंततः किसी ने मुझे अपने पूरे प्रेम की अनुभूति तो कराई| मैं धन्य हुआ| कोई तो मुझे पूरी तरह प्रेम कर रहा है| उस प्रेमी को ही मैं अपना सब कुछ अर्पित कर रहा हूँ|
मेरा वह ईर्ष्यालु प्रेमी "चोर जार शिखामणि", चोरों का सरदार है| बाकी चोर तो धन की चोरी करते हैं पर यह चोरों का सरदार तो चोरी की, पाप की कामना को ही चुपचाप चुरा लेता है, किसी को पता भी नहीं चलता| यह चोर "दुःख-तस्कर" भी है जो सारे दुःखों की कब में से चोरी कर लेता है, कुछ पता नहीं चलता| यह सारे अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) का और सब कुछ का हरण लेता है, अतः हरिः है| उस श्रीहरिः को नमन व सर्वस्य समर्पण| मेरा अपना कुछ नहीं है, जो कुछ भी है वह उस श्रीहरिः का ही है|
हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१९
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हरि तुम हरो जन की पीर ।
द्रोपदी की लाज राखी तुम बढायो चीर ॥
भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप शरीर ।
हिरन्यकश्यप मार लीन्हो धरयो नाहि न धीर ॥
बूढत गजराज राखयो कियो बाहर नीर ।
दासी मीरा लाल गिरधर दुख जहाँ तहाँ पीर ॥
हरि तुम हरो जन की पीर || (मीरा बाई)

हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं .....

हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं .....
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हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| उन्हें हमारे प्रेम का शत-प्रतिशत चाहिए| ९९.९९% भी उन्हें स्वीकार्य नहीं है| वे तो १००% से कम कुछ स्वीकार ही नहीं करते| अब जब उन से प्रेम हो ही गया है तब उनकी मांग भी पूरी करनी ही पड़ेगी| उनके सिवाय अन्य है ही कौन??? गीता में अर्जुन को भी यह स्वीकार करना ही पड़ा ...
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
यहाँ अंतिम पंक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिस पर ध्यान दें ... "सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः"|
अब तो बस एक ही उपाय है कि हम स्वयं ही परमप्रेमय हो जाएँ|
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भक्ति सूत्र में देवर्षि नारद कहते हैं :---
अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:||१|| सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ||२|| अमृतस्वरूपा च ||३|| यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ||४||
अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे ||१|| वह भक्ति ईश्वर में परमप्रेम रूपा है||२||
अमृतस्वरूपा है||३|| इसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृत समान हो जाता है, तृप्त हो जाता है||४|| एक स्थान पर नारद जी कहते हैं .... "यथा व्रज गोपिकानां" अर्थात जैसी भक्ति व्रज की गोपियों में थी वैसी ही होनी चाहिए|
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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||"
"परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम| प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम||"
"अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव| जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव||
भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम| सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम||"
भक्ति का फल है .....
"मम दरसन फल परम अनूपा| जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
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"या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी| त्वामनुस्मरतः सा मे ह्दयान्माऽपसर्पतु||" [विष्णुपुराण १.२०.१९]
हे प्रभु! अविवेकी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति विषयों में रहती है (जैसे कामी पुरुष की प्रीति स्त्री में, लोभी पुरुष का धन में), उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होवे|
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"युवतीनां यथा यूनि यूनां च युवतौ यथा| मनोऽभिरमते तद्वन्मनोऽभिरमतां त्वयि|| [पद्मपुराण ६.१२८.२५८]
जैसे युवतियों कि प्रीति युवको में होती है, और जैसे युवकों का मन युवतियों में रमता हैं उसी तरह हे प्रभु! मेरा मन भी आप में सदा रमता रहे|
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मानुष हों तो वही "रसखानि" बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के ग्वारन|
जो पशु हौं तो कहा बस मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन||
पाहन हौं तो वही गिरि कौ, जो धरयौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पै राज तिहूँ को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराई बिसारौं॥
इन आँखिन सों "रसखानि" कबौं ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारौं।
कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील की कुन्जन ऊपर वारौं॥" (रसखान)
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हे श्रीहरिः ! अब और तुम्हारे बिना नहीं रह सकते| अब जल बिन मछली की सी छटपटाहट है, प्राण कंठ में अटक रहे हैं|
"जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं|
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं||
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं||" (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अक्टूबर २०१९

🌹🌹 दीपावली विशेष🌹🌹

निम्न संदेश एक घनिष्ठ मित्र ने भेजा है| उसे यथारूप वैसे ही प्रस्तुत कर रहा हूँ| शेयर कीजिए|
🌹🌹 दीपावली विशेष🌹🌹
🌹 दीपावली पर लक्ष्मी पूजन के बाद घर के सभी कमरों में शंख और घंटी बजाना चाहिए। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा और दरिद्रता बाहर चली जाती है। मां लक्ष्मी घर में आती हैं।
🌹दीपावली पर तेल का दीपक जलाएं और दीपक में एक लौंग डालकर हनुमानजी की आरती करें। किसी मंदिर हनुमान मंदिर जाकर ऐसा दीपक भी लगा सकते हैं।
🌹 किसी शिव मंदिर जाएं और वहां शिवलिंग पर अक्षत यानी चावल चढ़ाएं। ध्यान रहें सभी चावल पूर्ण होने चाहिए,खंडित चावल शिवलिंग पर चढ़ाना नहीं चाहिए।
🌹 दीपावली पर महालक्ष्मी के पूजन में पीली कौड़ियां भी रखनी चाहिए। ये कौडिय़ा पूजन में रखने से महालक्ष्मी बहुत ही जल्द प्रसन्न होती हैं। आपकी धन संबंधी सभी परेशानियां खत्म हो जाएंगी।
🌹लक्ष्मी पूजन के समय हल्दी की गांठ भी साथ रखें। पूजन पूर्ण होने पर हल्दी की गांठ को घर में उस स्थान पर रखें, जहां धन रखा जाता है।
🌹 दीपावली के दिन झाड़ू अवश्य खरीदना चाहिए। पूरे घर की सफाई नई झाड़ू से करें। जब झाड़ू का काम न हो तो उसे छिपाकर रखना चाहिए।
🌹 दीवाली के दिन किसी मंदिर में झाड़ू का दान करें। यदि आपके घर के आसपास कहीं महालक्ष्मी का मंदिर हो तो वहां गुलाब की सुगंध वाली शिव मंदिर में चंदन की सुगंध वाली धूपबत्ती दान करें।
🌹इस दिन अमावस्या रहती है और इस तिथि पर पीपल के वृक्ष को जल अर्पित करना चाहिए। ऐसा करने पर शनि के दोष और कालसर्प दोष समाप्त हो जाते हैं।
🌹 दीपावली पर लक्ष्मी का पूजन करने के लिए स्थिर लग्न श्रेष्ठ माना जाता है। इस लग्न में पूजा करने पर महालक्ष्मी स्थाई रूप से घर में निवास करती हैं।पूजा में लक्ष्मी यंत्र, कुबेर यंत्र और श्रीयंत्र रखना चाहिए। यदि स्फटिक का श्रीयंत्र हो तो सर्वश्रेष्ठ रहता है।
🌹 दीपावली की रात लक्ष्मी पूजा करते समय एक थोड़ा बड़ा घी का दीपक जलाएं, जिसमें नौ बत्तियां लगाई जा सके। सभी 9 बत्तियां जलाएं और लक्ष्मी पूजा करें।
🌹 दीपावली की रात में लक्ष्मी पूजन के साथ ही अपनी दुकान, कम्प्यूटर आदि ऐसी चीजों की भी पूजा करें, जो आपकी कमाई का साधन हैं।
🌹 लक्ष्मी पूजन के समय एक नारियल लें और उस पर अक्षत, कुमकुम, पुष्प आदि अर्पित करें और उसे भी पूजा में रखें।
🌹 दीपावली के दिन यदि संभव हो सके तो किसी किन्नर से उसकी खुशी से एक रुपया लें और इस सिक्के को अपने पर्स में रखें। बरकत बनी रहेगी।
🌹प्रथम पूज्य श्रीगणेश को दूर्वा अर्पित करें। दूर्वा की 21 गांठ गणेशजी को चढ़ाने से उनकी कृपा प्राप्त होती है। दीपावली के शुभ दिन यह उपाय करने से गणेशजी के साथ महालक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होती है।
🌹महालक्ष्मी के चित्र का पूजन भी करें, जिसमें लक्ष्मी अपने स्वामी भगवान विष्णु के पैरों के पास बैठी हैं। ऐसे चित्र का पूजन करने पर देवी बहुत जल्द प्रसन्न होती हैं।
🌹 दीपावाली पर श्रीसूक्त एवं कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। राम रक्षा स्तोत्र या हनुमान चालीसा या सुंदरकांड का पाठ भी किया जा सकता है।
🌹यदि संभव हो सके तो दीवाली वाले दिन किसी तालाब या नदी में मछलियों को आटे की गोलियां बनाकर खिलाएं। इस पुण्य कर्म से बड़े से बड़े संकट भी दूर हो जाते हैं।
🌹 एक बात का विशेष ध्यान रखें कि माह की हर अमावस्या पर पूरे घर की अच्छी तरह से साफ-सफाई की जानी चाहिए। साफ-सफाई के बाद घर में धूप-दीप-ध्यान करें। इससे घर का वातावरण पवित्र और बरकत देने वाला बना रहेगा।
🌹 लक्ष्मी पूजन में सुपारी रखें। सुपारी पर लाल धागा लपेटकर अक्षत, कुमकुम, पुष्प आदि पूजन सामग्री से पूजा करें और पूजन के बाद इस सुपारी को तिजोरी में रखें।
🌹 घर में स्थित तुलसी के पौधे के पास दीपावली की रात में दीपक जलाएं। तुलसी को वस्त्र अर्पित करें।
🌹 जो लोग धन का संचय बढ़ाना चाहते हैं, उन्हें तिजोरी में लाल कपड़ा बिछाना चाहिए। इसके प्रभाव से धन का संचय बढ़ता है।
🌹 दीपावली पर सुबह-सुबह शिवलिंग पर तांबे के लोटे से जल अर्पित करें। जल में यदि केसर भी डालेंगे तो श्रेष्ठ रहेगा।
🌹 महालक्ष्मी के महामंत्र ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद् श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्मयै नम: का कमलगट्टे की माला से कम से कम 108 बार जप करें।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹शुभ कामनायें !!!

दीपावली की मंगलमय शुभ कामनायें और अभिनंदन !

दीपावली की मंगलमय शुभ कामनायें और अभिनंदन !
साधना की दृष्टी से चार रात्रियाँ बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं ..... (१) कालरात्रि (दीपावली), (२) महारात्रि (शिवरात्रि), (३) दारुण रात्रि (होली), और (४) मोहरात्रि (कृष्ण जन्माष्टमी)|
कालरात्रि (दीपावली) का आध्यात्मिक महत्व बहुत अधिक है| इस रात्री को आध्यात्मिक साधना व भक्ति में ही बितानी चाहिए| दीपावली की रात्री को व्यर्थ की गपशप, इधर-उधर घूमने, पटाखे फोड़ने, जूआ खेलने, शराब पीने, अदि में समय नष्ट नहीं करें|
सभी को अपनी अपनी गुरु परम्परानुसार जप तप व साधना अवश्य करनी चाहिए|

साधना के क्रम ----

साधना के क्रम ----
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किसी भी विद्यालय में जैसे कक्षाओं के क्रम होते हैं ..... पहली दूसरी तीसरी चौथी पांचवीं आदि कक्षाएँ होती है, वैसे ही साधना में भी क्रम होते हैं| जो चौथी में पढ़ाया जाता वह पाँचवीं में नहीं| एक चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित के प्रश्न हल नहीं कर सकता| वैसे ही आध्यात्म में है| किसी भी जिज्ञासु के लिए आरम्भ में भगवान की साकार भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है| उसके पश्चात ही क्रमशः स्तुति, जप, स्वाध्याय, ध्यान आदि के क्रम आते हैं| वेदों-उपनिषदों को समझने की पात्रता आते आते तो कई जन्म बीत जाते हैं| एक जन्म में वेदों का ज्ञान नहीं मिलता, उसके लिए कई जन्मों की साधना चाहिए| दर्शन और आगम शास्त्रों को समझना भी इतना आसान नहीं है| सबसे सरल तो यह है कि भगवान की भक्ति करें और भगवान जो भी ज्ञान करा दें उसे ही स्वीकार कर लें, भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई कामना हृदय में न रखें|
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आरम्भ में भगवान के अपने इष्ट स्वरुप की साकार भक्ति ही सबसे सरल और सुलभ है| किसी भी तरह का दिखावा और प्रचार न करें| घर के किसी एकांत कोने को ही अपना साधना स्थल बना लें| उसे अन्य काम के लिए प्रयोग न करें, व साफ़-सुथरा और पवित्र रखें| जब भी समय मिले वहीं बैठ कर अपनी पूजा-पाठ, जप आदि करें| ह्रदय में प्रेम और तड़प होगी तो भगवान आगे का मार्ग भी दिखाएँगे| जो हमें भगवान से विमुख करे, ऐसे लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें| भगवान से प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है| उन्हें अपने ह्रदय का पूर्ण प्रेम दें| भक्ति का सबसे सरल साधन है .... भगवान श्रीराम या हनुमान जी के विग्रह को ह्रदय में स्थापित कर के मानसिक रूप से निरंतर तारक मंत्र "राम" नाम को जपते रहें| इससे सरल और सुलभ साधन दूसरा कोई नहीं है| आगे का सारा मार्ग भगवान स्वयं दिखायेंगे| भगवान की असीम कृपा है कि उन्होंने "राम" नाम हमें निःशुल्क व सर्वसुलभ दिया है| इसका आश्रय लेकर पता नहीं कितने तर गए व कितने तरेंगे.
शुभ कामनाएँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२७ अक्तूबर २०१९

साधना कक्ष और साधना का समय :---

साधना कक्ष और साधना का समय :---
आजकल के जटिल समय में साधना के कक्ष की व्यवस्था और साधना के समय को निर्धारित करना अति कठिन है| यदि हो जाये तो अति उत्तम है, अन्यथा भी अपना साधन न छोड़ें| जब भी जहाँ भी समय मिले भगवान को अपना प्रेम प्रेषित करते रहें| हर समय उनकी स्मृति बनाए रखें|
यदि हो सके तो घर के एक कोने में जहाँ कोई व्यवधान न हो, एक ऐसा स्थान आरक्षित कर लें जिसे हम अपना स्वयं का कह सकें| उस स्थान का उपयोग सिर्फ उपासना के लिए करें जहाँ बैठकर हम नित्य नियमित भगवान का ध्यान कर सकें| एक नियमित समय भी तय कर लें जो हमारा अपना हो, जिसमें हम सिर्फ भगवान के साथ रह सकें| अपनी उपासना को कभी न भूलें| बार बार स्वयं को याद दिलाते रहें कि हमारा सर्वोपरी लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
२६ अक्तूबर २०१९

रूप चतुर्दशी/ नर्क चतुर्दशी/ छोटी दीपावली की मंगलमय शुभ कामनाएँ ......

रूप चतुर्दशी/ नर्क चतुर्दशी/ छोटी दीपावली की मंगलमय शुभ कामनाएँ ......
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आज के दिन छोटी दीपावली है जिसे "रूप-चतुर्दशी" और "नर्क चतुर्दशी" भी कहते हैं| आज के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर उबटन लगा कर स्नान करने का विधान है| स्नान करते समय स्नानघर में एक दीपक भी जलाया जाना चाहिए| कहीं कहीं उबटन के स्थान पर तिल के तेल की मालिश और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर नहाते हैं| कुछ वर्षों पूर्व तक उबटन लगाते समय गड़तुंबा का फल भी पास में रखते थे| गड़तुंबा अत्यधिक कड़वा होता है और सारी नकारात्मक ऊर्जा को अपने भीतर ले लेता है| आजकल तो गड़तुंबा कहीं दिखाई ही नहीं देता| स्नान के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की जाती है| ऐसा करने से पापों का नाश होता है और रूप व सौंदर्य की प्राप्ति होती है| इसलिए इसे रूप चौदस भी कहते हैं| महिलाएँ इस दिन सौलह शृंगार करती हैं|
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आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ मिलकर नरकासुर नामक राक्षस का बध किया था| नरकासुर को किसी स्त्री के हाथों ही मरने का वरदान प्राप्त था| युद्ध करते करते भगवान श्रीकृष्ण मूर्छित हो गए थे तब सत्यभामा ने उस राक्षस से भयानक युद्ध आरंभ किया और अपने बाणों से उसका बध कर दिया| नरकासुर ने सौलह हजार स्त्रियों को अपना बंदी बना रखा था| वे स्वतंत्र हुईं| अतः इस दिन को नर्क चतुर्दशी भी कहते हैं| प्रातः स्नान कर इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की जाती है|
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पुनश्च: रूप चतुर्दशी/ नर्क चतुर्दशी/ छोटी दीपावली की मंगलमय शुभ कामनाएँ| भगवान श्रीकृष्ण सभी का कल्याण करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अक्तूबर २०१९

ओंकार के रूप में सारी सृष्टि राम नाम का जप कर रही है.....

ओंकार के रूप में सारी सृष्टि राम नाम का जप कर रही है| हम उस ध्वनि को सुनें| सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है| जड़ता का आभास माया का आवरण है| यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है| सारी आकाश गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं| उस गति की, उस प्रवाह की एक ध्वनी हो रही है जिसकी आवृति हमारे कानों की सीमा से परे है| वह ध्वनी ही ओंकार रूप में परम सत्य 'राम' का नाम है| उसे सुनना और उसमें लीन हो जाना ही उच्चतम साधना है| समाधिस्थ योगी जिसकी ध्वनी और प्रकाश में लीन हैं, और सारे भक्त साधक जिस की साधना कर रहे हैं, वह 'राम' का नाम ही है जिसे सुनने वालों का मन उसी में रम जाता है| राम राम राम|
कृपा शंकर
२६ अक्तूबर २०१९

सनातन हिन्दू धर्म के बारे में दो शब्द .....

सनातन हिन्दू धर्म के बारे में दो शब्द .....
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जैसा मुझ अकिंचन को अपनी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया है सनातन हिन्दू धर्म है ..... "परमात्मा के प्रति परम प्रेम, समर्पण और उपासना|"
धर्म ने हमें धारण किया हुआ है, धर्म के कारण ही हम बचे हुये हैं, और धर्म ही हमारी रक्षा कर रहा है| सनातन वह है जो अनादि काल से चला आ रहा है यानि नित्य है| धर्म वह है जो धारणीय है, जिससे हमारा सम्पूर्ण विकास हो व सब तरह के दुःखों व कष्टों से मुक्ति हो| हम धर्म की रक्षा करेंगे तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा| धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है|
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अत्यधिक भयावह क्रूरतम मर्मान्तक प्रहारों के पश्चात भी सनातन धर्म कालजयी और अमर है| धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं है| कर्मकांड तो मात्र एक व्यवस्था है जिसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहे हैं, यह धर्म का मूल बिंदु नहीं है| जब तक हिन्दुओं में दस लोग भी ऐसे हैं जो परमात्मा से जुड़े हुए हैं तब तक भारत व सनातन हिन्दू धर्म का नाश नहीं हो सकता| सनातन धर्म समाप्त हुआ तो यह सृष्टि ही समाप्त हो जाएगी|
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सनातन धर्म ही भारत की अस्मिता है| भारत का उद्धार और विस्तार भी ऐसे महापुरुष ही करेंगे जो भगवान को पूर्णरूपेण समर्पित हैं| भगवान हमारी माता भी हैं और पिता भी| वे जब हैं तो भय कैसा? वे तो सब प्रकार के भयों से वे हमारी रक्षा करते हैं| भारत का सबसे बड़ा अहित किया है अधर्मसापेक्ष यानि धर्मनिरपेक्ष अधर्मी सेकुलरवाद, मार्क्सवाद और मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने| विडम्बना है कि आधुनिक भारत के अनेक साहित्यकारों ने धर्मनिरपेक्षता (अधर्मसापेक्षता) और मार्क्सवाद को बढ़ावा दिया है जिसका दुष्प्रभाव समाज पर पड़ा है, जिसके कारण समाज में धर्म का ह्रास और ग्लानि भी हुई है| समाज में चरित्रहीनता अधर्मसापेक्षता (धर्मनिरपेक्षता) के कारण ही है|
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हमारे आदर्श भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं, जिन पर हमें गर्व है| वे ही हमारे जीवन के केंद्रबिंदु हैं| हम सब के जीवन में सनातन धर्म की पूर्ण अभिव्यक्ति हो| ॐ तत्सत | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अक्तूबर २०१९

हमारे चारों ओर छाया असत्य और अंधकार दूर हो....

हमारे चारों ओर छाया असत्य और अंधकार दूर हो. दीपोत्सव की शुभ कामनाएँ .....
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भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत अधिक व्यथित हूँ| मेरी भावनाएँ बहुत अधिक आहत हैं| अपने विचारों को ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ|
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ज्योतिर्मय परम ब्रह्म से प्रार्थना है कि हमारे राष्ट्र भारतवर्ष से और हमारे निज जीवन से सब तरह का असत्य रूपी अंधकार दूर हो| हम सब का निज जीवन भगवान भुवनभास्कर की तरह परम ज्योतिर्मय हो| जीवन में शुभ ही शुभ और मंगल ही मंगल हो|
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श्रुति भगवती का यह कथन हमारे जीवन में चरितार्थ हो .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||"
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भगवान वासुदेव हमारे निज जीवन में व्यक्त हों .....
"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्| यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्||"
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हमारा संकल्प हो ..... अश्मा भवतु नस्तनू: ....
हमारे शरीर फौलादी, हमारे संकल्प आत्मविजेता व हर क्षेत्र में विश्व विजेता बनने के हों|
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पिता का पुत्र को उपदेश हो ... "अश्मा भव, परशुर्भव, हिरण्यमस्तृतं भव ||"
हे पुत्र ! तूँ चट्टान की तरह दृढ़ हो| महासागर की विकराल लहरें चट्टान पर प्रचंड आघात करती हैं, पर चट्टान जैसे विचलित नहीं होती, वैसे हे तूँ कभी विचलित मत होना|
तूँ परशु की तरह तीक्ष्ण हो| कोई तुम्हारे पर आघात करे तो वह तुम्हारी तीक्ष्णता से स्वयं कट जाये, और तुम जिस पर आघात करो उसका भी अस्तित्व न रहे|
तुम्हारे में स्वर्ण की सी पवित्रता हो| किसी भी तरह का कोई विकार तुम्हारे में न हो|

मेरे पुत्र ! तूँ शरीर नहीं आत्मा है| आत्मा का ही पर्याय राम है| तूँ परशुराम हो|
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हम जीव नहीं, परमशिव हैं| शिव में ही पूर्णता है| हमारा शिवत्व निरंतर व्यक्त हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०१९