Tuesday, 4 June 2019

लोगों को मुफ्तखोर मत बनाइये अन्यथा देश नष्ट हो जाएगा :----

लोगों को मुफ्तखोर मत बनाइये अन्यथा देश नष्ट हो जाएगा :----

महाभारत के शांतिपर्व में राजधर्म समझाया गया है| वहाँ यह स्पष्ट लिखा है कि आपत्तिकाल को छोड़कर किसी को कुछ भी निःशुल्क नहीं दिया जाए, अन्यथा यह देश नष्ट हो जायेगा|

मनुस्मृति में भी यह स्पष्ट लिखा है की आपत्तिकाल को छोड़कर किसी को किसी से कुछ भी नहीं मांगना चाहिए|
प्राचीन भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं होती तो आज तक सब लोग भीख मांग कर ही गुजारा कर रहे होते| 

भारत को दिनों दिन गरीब, अकर्मण्य बनाया जा रहा है| अपनी प्राचीन संस्कृति के कारण ही भारत बचा हुआ है जिसे आज के तथाकथित बुद्धिजीवी रोज गाली देते हैं|

माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं .....

माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं .....
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पिता ही शिव हैं और माता पार्वती| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार हमें नहीं है| हम उनका भूल से भी अपमान नहीं करेंगे| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम धर्म है|
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श्रुति कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव| माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि हम उन को अपमानित कर के अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती|
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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, महातेजस्वी श्रीपरशुराम, महाराज पुरु, महारथी भीष्म पितामह आदि सब महान पितृभक्त थे| विनता-नंदन गरुड़, बालक लव-कुश, वभ्रूवाहन, दुर्योधन और सत्यकाम आदि महान मातृभक्त थे| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| "पितरी प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता|" श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं|
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उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जून २०१३

मैं सेकुलर क्यों नहीं हूँ ? .....

मैं सेकुलर क्यों नहीं हूँ ? 

जो लोग स्वयं को सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) कहते हैं क्या उन को "सेक्युलरिज्म" के इतिहास का पता है?

>>> सन १८५१ ई.में इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें को अपनी पत्नी को तलाक देना था जिसके लिए पॉप की अनुमति आवश्यक थी| पॉप ने वह अनुमति नहीं दी| इसलिए पॉप के आदेश को ठुकराने के लिए इंग्लेंड में धर्मनिरपेक्षता यानि सेकुलरिज्म का सिद्धांत बनाया गया जिसके अंतर्गत इंग्लैंड का राजा पॉप के आदेश को मानने केलिए बाध्य नहीं था| सेकुलर का मतलब है "चर्च के आदेश को नहीं मानने वाला"| हम आज उन्हीं अंग्रेजों की नक़ल कर के सेकुलर बन रहे हैं|

मैं सेकुलर नहीं हूँ क्योंकि मैं अंग्रेजों का गुलाम नहीं हूँ| मैं धर्म-सापेक्ष हूँ, धर्म-निरपेक्ष नहीं| धर्म मेरा प्राण, मेरा जीवन है|

हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है .....

हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है, न कि कोई सिद्धांत विशेष, साधना पद्धति, मत-मतान्तर, पंथ, मज़हब या कोई वाद-विवाद ......
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हमारा प्रथम अंतिम और एकमात्र लक्ष्य है .... परमात्मा की प्राप्ति| वह कैसे हो इस का ही चिंतन करना चाहिए| हमें न तो किसी को खुश करना है और न किसी के पीछे पीछे भागना है, न भविष्य के लिए यह कार्य छोड़ना है, अगले जन्मों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं|
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महाभारत में युधिष्ठिर को यक्ष पूछता है ... 
कः पन्था ? अर्थात् कौन सा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है? युधिष्ठिर का उत्तर होता है ....
"तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम्|
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः||"
अर्थात् ....
तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं केवल जिनका वचन प्रमाण माना जा सके; धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
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अतः हमें उन महापुरुषों का अनुकरण करना चाहिए जिन्होंने निज जीवन में परमात्मा को प्राप्त किया हो और उन की प्राप्ति का मार्ग बताया हो| साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है| ये सब परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ ही हैं| इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| एक बालक चौथी कक्षा में पढ़ता है, और एक बालक बारहवीं में पढता है, सबकी अपनी अपनी समझ है| जो जिस भाषा और जिस स्तर पर पढता है उसे उसी भाषा और स्तर पर पढ़ाया जाता है| जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही साधना और आध्यात्म में भी क्रम हैं| एक सद्गुरू आचार्य को पता होता है कि किसे क्या उपदेश और साधना देनी है, वह उसी के अनुसार शिष्य को शिक्षा देता है|
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मेरा इस देह में जन्म हुआ उससे पूर्व भी परमात्मा मेरे साथ थे, इस देह के पतन के उपरांत भी वे ही साथ रहेंगे| वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सभी सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में आये| यह उन्हीं का प्रेम था जो मुझे इन सब के रूप में मिला| वे ही मेरे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं| उनका साथ शाश्वत है|
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किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के ध्यान में लगाएँ| कमर को सीधी कर के बैठें भ्रूमध्य में ध्यान करें और एकाग्रचित्त होकर उस ध्वनी को सुनते रहें जो ब्रह्मांड की ध्वनी है| हम यह देह नहीं है, परमात्मा की अनंतता हैं| अपनी सर्वव्यापकता पर ध्यान करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जून २०१९

परमात्मा से "परम प्रेम" और "समर्पण" का स्वभाव ....

परमात्मा से "परम प्रेम" और "समर्पण" का स्वभाव हमें अपने "शिवत्व" का बोध कराता है ..... 
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परमात्मा से पूर्ण प्रेम करो, "अनाहत नाद" या "ज्योति" के रूप में, या अपने अन्य किसी प्रियतम के रूप में साकार या निराकार, पर प्रेम करो| गीता में भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाओं का सार ही भक्ति और समर्पण है ....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः|९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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अपने भौतिक व्यक्तित्व का मोह हमें हिंसक बनाता है| भिन्नता से भेद की उत्पत्ति होती है, और भेद से भय और हिंसा उत्पन्न होती है| भयभीत प्राणी दूसरों को भी भयभीत करता है और हिंसक बन जाता है| व्यक्तित्व की दासता और मोह हमें हिंसक बना देता है| इस व्यक्तित्व की दासता से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है ..... "परमात्मा से परम-प्रेम और समर्पण"|
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परमात्मा से "पूर्ण प्रेम" और "समर्पण" हमें अपने "शिवत्व" का बोध कराता है| जब हम परमात्मा को "प्रेम" और "समर्पण" करते हैं तब वही "प्रेम" और "समर्पण" अनंत गुणा होकर हमें ही बापस मिलता है| जब हम उन के "शिवत्व" में विलीन हो जाते हैं, वह "शिवत्व" भी हमारे में विलीन हो जाता है| तब हम "जीव" नहीं, स्वयं साक्षात शिव बन जाते हैं| जहाँ कोई क्रिया-प्रतिक्रिया, मिलना-बिछुड़ना, अपेक्षा व मांग नहीं, जो बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं हैं| हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए है| भक्ति और समर्पण द्वारा हम जीव से शिव बनें|
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ॐ तत्सत् ! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अप्रेल २०१९