Friday, 9 March 2018

सारी बातों का सार .....

सारी बातों का सार :--
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बिना किसी दिखावे के अपने ह्रदय का पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें और अपने जीवन का केंद्रबिंदु उन्हें बनाएँ | जीवन का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर कार्य पूरी लगन से परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए ही करें | फिर जीवन में सब सही होगा | अंततः परमात्मा स्वयं ही हमारे जीवन का भार स्वयं संभाल लेंगे |
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जब परमात्मा ही हम से प्रेम करने लगें, उस से अधिक अच्छी और क्या स्थिति हो सकती है ?
हमें भी चाहिए कि हम भी उनके प्रेम में डूब कर स्वयं प्रेममय हो जाएँ और अनावश्यक मानसिक कल्पनाओं और विचारों से स्वयं को मुक्त कर लें| सावधान ! भक्ति कहीं मानसिक मनोरंजन मात्र (या टाइमपास) न हो जाए |
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हम भारतवासियों के आदर्श भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, और वे त्यागी तपस्वी निःस्पृह संत महात्मा स्त्री/पुरुष ही हो सकते हैं जिन्होंने निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त किया| वे ही भारत के प्राण हैं जिन्होनें भारत की अस्मिता को जीवित रखा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
९ मार्च २०१८

वर्त्तमान युग की महानतम आदर्श महिला आनंदमयी माँ की जीवनी ....

आधुनिक काल में सम्पूर्ण विश्व की सभी नारियों में से मैं श्री श्री माँ आनंदमयी को अपना परम आदर्श मानता हूँ | वे वास्तव में इस युग की एक महानतम महिला थीं | आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर श्री श्री माँ आनंदमयी को कोटि कोटि नमन !
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श्री श्री माँ आनन्दमयी से एक बार प्रश्न पूछा गया कि मनुष्य को कर्म करने की कितनी स्वतंत्रता है ? माँ का उत्तर था कि हमारे समक्ष एक ही विकल्प है कि हम प्रभु को प्रेम करें या ना करें | अन्य कोई विकल्प नहीं है | प्रभु से प्रेम होगा तो हमारे विचार और संकल्प भी अच्छे होंगे | फिर स्वतः ही हमारे कर्म भी अच्छे होंगे | अहंकारमय विचार होंगे तो स्वतः कर्म भी बुरे होंगे |
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वर्त्तमान युग की महानतम आदर्श महिला आनंदमयी माँ की जीवनी .... (विकिपीडिया से साभार).
श्री श्री आनंदमयी माँ भारत की एक अति प्रसिद्ध संत रही हैं जो अनेक महान सन्तों द्वारा वन्दनीय थीं। माँ का जन्म ३० अप्रेल १८९६ को तत्कालीन भारत के ब्राह्मनबाड़िया जिले के खेऊरा ग्राम में हुआ जो आजकल बांग्लादेश का भाग है| पिता श्री बिपिन बिहारी भट्टाचार्य व माता मोक्षदा सुंदरी उन्हें बचपन में निर्मला नाम से पुकारते थे। निर्मला ने दो वर्ष ग्रामीण विद्यालय में अध्ययन किया| १३ वर्ष की आयु में आपका विवाह तब की परंपरानुसार विक्रमपुर के रमानी मोहन चक्रवर्ती से कर दिया गया। १७ वर्ष की आयु में वे ओष्ठ ग्राम १९१८ में पतिदेव के संग रहने गईं जहाँ से वे बाजितपुर चले गए जहाँ १९२४ तक रहे।
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जब भी उनके पति उन्हें संसार-व्यवहार में ले जाने का प्रयास करते थे तो आनंदमयी माँ उन्हें संयम और सत्संग की महिमा सुनाकर, उनकी थोड़ी सेवा करके, विकारों से उनका मन हटा देती थीं। इस प्रकार कई दिन बीते, हफ्ते बीते, कई महीने बीत गये लेकिन आनंदमयी माँ ने अपने पति को विकारों में गिरने नहीं दिया। आखिरकार कई महीनों के पश्चात् एक दिन उनके पति ने कहाः “तुमने मुझसे शादी की है फिर भी क्यों मुझे इतना दूर दूर रखती हो?”
तब आनंदमयी माँ ने जवाब दियाः “शादी तो जरूर की है लेकिन शादी का वास्तविक मतलब तो इस प्रकार हैः शाद अर्थात् खुशी। वास्तविक खुशी प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक बनें न कि शोषक। काम-विकार में गिरना कोई शादी का फल नहीं है।” इस प्रकार अनेक युक्तियों और अत्यंत विनम्रता से उन्होंने अपने पति को समझा दिया। वे संसार के कीचड़ में न गिरते हुए भी अपने पति की बहुत अच्छी तरह से सेवा करती थीं। पति नौकरी करके घर आते तो गर्म-गर्म भोजन बनाकर खिलातीं।
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वे घर भी ध्यानाभ्यास किया करती थीं। कभी-कभी स्टोव पर दाल चढ़ाकर, छत पर खुले आकाश में चंद्रमा की ओर त्राटक करते-करते ध्यानस्थ हो जातीं। इतनी ध्यानमग्न हो जातीं कि स्टोव पर रखी हुई दाल जलकर कोयला हो जाती। घर के लोग डाँटते तो चुपचाप अपनी भूल स्वीकार कर लेतीं लेकिन अन्दर से तो समझती कि ‘मैं कोई गलत मार्ग पर तो नहीं जा रही हूँ…’ इस प्रकार उनके ध्यान-भजन का क्रम चालू ही रहा। घर में रहते हुए ही उनके पास एकाग्रता का कुछ सामर्थ्य आ गया। एक रात्रि को वे उठीं और अपने पति को भी उठाया। फिर स्वयं महाकाली का चिंतन करके अपने पति को आदेश दियाः “महाकाली की पूजा करो।” उनके पति ने उनका पूजन कर दिया। आनंदमयी माँ में उन्हें महाकाली के दर्शन होने लगे। उन्होंने आनंदमयी माँ को प्रणाम किया।
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तब आनंदमयी माँ बोलीं- अब महाकाली को तो माँ की नजर से ही देखना है न?”
पतिः “यह क्या हो गया।”
आनंदमयी माँ- “तुम्हारा कल्याण हो गया।”
कहते हैं कि उन्होंने अपने पति को दीक्षा दे दी और साधु बनाकर उत्तरकाशी के आश्रम में भेज दिया।
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१९२२ में अक्टूबर मास की शरद पूर्णिमा को चन्द्र से त्राटक करते हुए वे गहन ध्यान में लीन हो गईं व परम सत्य से एकाकार हुईं| उस समय शरीर की आयु २६ वर्ष थी। १९२९ में रमानी के कालीमंदिर परिसर में पहला आश्रम बना| एक बार वे १ वर्ष से अधिक समय के लिए मौन में चली गई| समाधि व मौन बस। पतिदेव उनमें माता का भाव रखते व भोलेनाथ नाम से शिष्य हो गए।
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बाद में वे भारत भर में विचरण करती रहीं| हरि बाबा, उड़िया बाबा, अखंडानंद सरस्वती आदि मित्र सन्त थे| परमहंस योगानंद व स्वामी शिवानंद सब उन्हें आत्म प्रकाश से सुसज्ज अत्यंत विकसित पुष्प कहते थे, पर वे सभी सन्तों को पिताजी कहती थी चाहे वे 25 वर्ष के साधु ही क्यों न हों|
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माँ आनंदमयी को संतों से बड़ा प्रेम था। वे भले प्रधानमंत्री से पूजित होती थीं किंतु स्वयं संतों को पूजकर आनंदित होती थीं। श्री अखण्डानंदजी महाराज सत्संग करते तो वे उनके चरणों में बैठकर सत्संग सुनती। एक बार सत्संग की पूर्णाहूति पर माँ आनंदमयी सिर पर थाल लेकर गयीं। उस थाल में चाँदी का शिवलिंग था। वह थाल अखण्डानंदजी को देते हुए बोलीं ---- “बाबाजी ! आपने कथा सुनायी है, दक्षिणा ले लीजिए, बाबाजी और भी दक्षिणा ले लो।”
अखण्डानंदजीः “माँ ! और क्या दे रही हो?”
माँ- “बाबाजी ! दक्षिणा में मुझे ले लो न !”
अखण्डानंदजी ने हाथ पकड़ लिया एवं कहाः
“ऐसी माँ को कौन छोड़े? दक्षिणा में आ गयी मेरी माँ।” यह स्वामी अखंडानंद जी का एक प्रसंग है यथा उनके अन्य स्थानों पर आश्रम बन गए देश विदेश के विद्वान भक्त उनसे प्रभावित रहे।

देश की स्वतंत्रता के बाद वे और प्रसिद्ध हो गई| १९८२ में कनखल आश्रम हरिद्वार में वे ब्रह्म लीन हो गई|
ॐ ॐ ॐ !!

मैं आप का स्मरण न कर सकूँ तो आप ही मेरा स्मरण करते रहें .....

मैं आप का स्मरण न कर सकूँ तो आप ही मेरा स्मरण करते रहें .....
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हे गुरु महाराज, आप और मैं एक हैं | किसी भी तरह की साधना की अब और सामर्थ्य मुझ में नहीं रही है, मेरा यह सारा जीवन ऐसे ही नष्ट हो चुका है, सिर्फ आप का ही भरोसा है | अब तो अनुग्रह करो | मैं आपका बालक हूँ, आपका अनुग्रह ही मुझे बचा सकता है, अन्य कुछ नहीं |
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हे गुरु महाराज, मुझ अकिंचन पर अपनी परम कृपा कर के मुझे सदा याद रखें | मैं आपका स्मरण न कर सकूं तो आप ही मेरा स्मरण करते रहें | मेरी आपसे यही प्रार्थना है | मेरा सर्वस्व आपको समर्पित है |
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ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१८

"ॐ गुरु ॐ" ..... ॐ ही गुरु हैं, और गुरु ही ॐ है .....

"ॐ गुरु ॐ" ..... ॐ ही गुरु हैं, और गुरु ही ॐ है | ॐकार रूप में परमात्मा ही गुरु हैं, और वे ही मैं हूँ | मैं यह देह नहीं, उनकी सम्पूर्ण अनंतता और समष्टि हूँ | ॐकार का कूटस्थ में निरंतर मानसिक जप और ध्यान ही मेरे लिए गुरु की सर्वोच्च सेवा है |
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"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् | ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ||
ईशावास्योपनिषद् के इस १७ वें मन्त्र में भगवान से उनके अनुग्रह की प्रार्थना की गयी है | उनका अनुग्रह कैसे प्राप्त हो ? .....
ॐ परमात्मा का नाम है .... "तस्य वाचकः प्रणवः" .. ||योगसूत्र.१:२७||
श्रुति भगवती के आदेशानुसार प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए .....
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते | अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || (मुण्डक.२:२:४).
बाण का जैसे एक लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा होना चाहिए | हमें प्रणव का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुँचाना है |
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यह पूरी सृष्टि उसी ज्योति का घनीभूत रूप है जो हमें ध्यान में दिखाई देती है | वह ज्योति ही अनाहत नाद के रूप में व्यक्त होती है जो प्रणव यानि ओंकार है | वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं हैं |
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१८

मैं पूर्ण रूप से सुखी और प्रसन्न हूँ .....

सूक्ष्म जगत के अनेक महात्माओं के आशीर्वाद मुझे वहाँ से प्राप्त होते रहते हैं| उनकी कृपा और आशीर्वाद से मैं धन्य हूँ| हे प्रभु, आप मेरे ह्रदय में और मैं आपके ह्रदय में सदा रहूँ| आप और मैं सदा एक हैं| मैं यह देह नहीं, आपका परम प्रेम और पूर्ण अनंतता हूँ|
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भगवान ने जो कुछ भी दिया है वह सब मुझे पूर्ण प्रसन्नता से स्वीकार्य है| मैं अपने सारे अवगुणों-गुणों, बुराइयों-अच्छाइयों, अज्ञान-ज्ञान, मूर्खता-बुद्धिमानी आदि आदि सब के लिए भगवान को धन्यवाद देता हूँ| ये सब भगवान के प्रसाद ही थे जिन को पाकर मैं धन्य हूँ|

वे मेरी चेतना में निरंतर रहें, और अपने ह्रदय से लगाकर रखें, और कुछ भी नहीं चाहिए| मैं पूर्ण रूप से सुखी और प्रसन्न हूँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ मार्च २०१८

जो स्वयं मूर्तिपूजा को नहीं मानते उन की मूर्तियों का विध्वंश गलत नहीं है .....

कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, (उल्यानोव) व्लादिमीर इलीइच लेनिन और जोसेफ स्टालिन की मूर्तियों का विध्वंश ..... एक शुभ संकेत है|
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जब साम्यवाद का पतन और सोवियत संघ का विघटन हुआ उस समय पूरे सोवियत संघ में साम्यवाद के उपरोक्त शिखर पुरुषों की मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया था| उस समय ऐसी स्थिति थी कि सारे कौमनष्ट (साम्यवादी) लोग छिप गए थे| कोई कौमनष्ट सड़क पर मिलते तो लोग उनके कपडे फाड़ कर नग्न कर देते थे|
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अपनी युवावस्था में ७ नवम्बर १९६७ को मैनें रूस में बोल्शेविक अक्टूबर क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ का उत्सव वहाँ रहते हुए देखा था| उस समय साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था| कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि साम्यवाद का दुर्ग अगले बाईस वर्षों में टूट कर बिखर जाएगा| उसके बाद साम्यवाद के पतन के दिनों की शुरुआत भी मैनें देखी थी| पूर्व सोवियत संघ के देशों में ही नहीं, पूर्व वारसा संधि के देशों में भी उपरोक्त व्यक्तियों की मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया था| अतः भारत में भी लेनिन की मूर्ति का ध्वस्त होना एक सामान्य प्रक्रिया ही है| इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए|
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कोई लेनिन भक्त यह तो बताये कि लेनिन के जीवन में ऐसा क्या आदर्श था जिस से भारत को,प्रेरणा मिल सकती है ?
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हाँ, वे एक बहुत अच्छे छात्रनेता, वकील, बुद्धिमान विद्वान् लेखक, क्रांतिकारी संगठनकर्ता, श्रमिक सर्वहारा वर्ग के हित चिन्तक, पत्रकार और अति प्रभावशाली वक्ता अवश्य थे जिनके उत्साह को कोई भी परिस्थिति दबा नहीं पाई| उनकी पत्नी नदेज्दा क्रुप्सकाया भी बड़े जीवट की महिला थी| लेनिन के बड़े भाई अलेग्जांदर को ज़ार की हत्या का षडयंत्र रचने में शरीक होने के आरोप में फाँसी दे दी गई थी इसी लिए वे विद्रोही बने|
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उनका जन्म २२ अप्रेल १८७० को सिम्बिर्स्क में हुआ, और ५३ साल की आयु में २१ जनवरी १९२४ को गोर्की में निधन हुआ| उनकी पत्नी नदेज्दा क्रुप्सकाया का निधन २७ फरवरी १९३९ को हुआ| लेनिन के तेज़ दिमाग के कारण ही १९१७ में विश्व की प्रथम मार्क्सवादी साम्यवादी सत्ता की रूस में स्थापना हुई और उनके तेज़ दिमाग के कारण ही सोवियत संघ बना|
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पर ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे भारतवर्ष में एक आदर्श व्यक्ति माने जाएँ| कुल मिलाकर साम्यवादी सत्ता एक आसुरी सता थी और ये सब लोग उसी असुरत्व के उपकरण थे| धन्यवाद !
कृपा शंकर
६ मार्च २०१८
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पुनश्चः :---
रूस की वर्तमान सरकार के समय में जो लेनिन की जीवनी लिखी गयी है उसमें लेनिन के चरित्र की कुछ कमियाँ भी बताई हैं, जैसे लेनिन को अच्छी शराब का शौक था और लेनिन परस्त्रीगामी भी था| पर रूस में ये सामान्य बातें हैं| कोई इन्हें बुरा नहीं मानता|

"काम", "क्रोध", और "लोभ" ये नर्क के तीन मुख्य द्वार हैं ......

"काम", "क्रोध", और "लोभ" ये नर्क के तीन मुख्य द्वार हैं ......
भगवान कहते हैं :---
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः| कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ||१६:२१||
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उपरोक्त श्लोक में एक छिपी हुई बात है जो बड़े ध्यान से ही समझ में आती है| नर्क क्या है? नर्क है ...."आत्मानः नाशनम्"| आत्मा तो अजर अमर है, अपने पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाना ही आत्मा का नाश है| आत्मा को पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त न करना आत्मा का हनन है| यही नर्क है| पुरुषार्थ से परे करने का कार्य "काम", "क्रोध", और "लोभ" करते हैं, अतः ये नर्क के द्वार हैं| इनका भी कारण हमारा अज्ञान है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०६ मार्च २०१८