Friday, 2 August 2019

आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति के मापदंड ;----

आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति के मापदंड ;----
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आचार्यों ने सात मापदंड बताए हैं जिनसे हम अपनी आंतरिक प्रगति को माप सकते हैं.....
(१) आहार संयम, (२) वाणी का संयम, (३) जागरुकता, (४) दौर्मनस्य का न होना, (५) दुःख का अभाव, (६) श्वास की संख्या में कमी हो जाना, (७) संवेदनशीलता |
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हमें आहार इस तरह से लेना चाहिए जैसे औषधि ली जाती है| उतना ही खाना चाहिए जो शरीर के पोषण के लिए पर्याप्त हो| स्वाद में रुचि का समाप्त हो जाना एक अच्छा लक्षण है| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः| न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन||६:१६||"
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु| युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||६:१७||"
आहार संयम हो जाएगा तो वाणी का संयम भी हो जाएगा| फालतू की बात करने की इच्छा ही नहीं होगी| जब वाणी का संयम हो जाएगा तब जागरूकता भी उत्पन्न होगी| जब जागरूकता आएगी तब दूसरों के प्रति दुर्भावना भी समाप्त हो जाएगी| धीरे धीरे दुःखों से भी मुक्ति मिल जाएगी| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
धीरे धीरे हम पायेंगे कि हमारे साँसों की गति भी कम होने लगी है| तब हम आंतरिक रूप से संवेदनशील भी हो जाएंगे| यह आंतरिक संवेदनशीलता जागृत होने पर हमारा अहंकार भी नष्ट होने लगेगा और भावों में करुणा व पवित्रता आने लगेगी| इति शुभम् |
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०१९

बाहर का जगत हमारे विचारों की ही अभिव्यक्ति है .....

बाहर का जगत हमारे विचारों की ही अभिव्यक्ति है .....
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हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं| कर्म का अर्थ भौतिक क्रिया नहीं है, हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं जो निरंतर हमारे खाते में जुड़ते रहते हैं| उनका फल हमें जन्म-जन्मान्तरों में अवश्य मिलता है| जैसे हमारे विचार और भाव होंगे, जैसा हमारा चिंतन होगा और वैसी ही परिस्थितियों को हम आकर्षित करते हैं|
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हमें अपने आसपास सफाई व पवित्रता रखनी चाहिए, क्योंकि जैसा हमारा भौतिक और मानसिक परिवेश होगा, तदनुरूप ही सूक्ष्म जगत के प्राणी भी हमारे पास आते हैं और हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं| जैसे भौतिक व मानसिक वातावरण में हम रहते हैं वैसे ही सूक्ष्म जगत के प्राणियों को हम आकर्षित करते हैं, जो देवता भी हो सकते हैं और निम्न जगत के अधम प्राणी भी जिन्हें हम आँखों से नहीं देख सकते पर अनुभूत कर सकते हैं|
सूक्ष्म और कारण जगत, भौतिक जगत से दूर नहीं है, सिर्फ उनके स्पंदन अलग हैं, वैसे ही जैसे एक ही टेलीविजन पर अलग अलग चैनल पर अलग अलग कार्यक्रम|
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अतः भौतिक और मानसिक रूप से अपने आसपास स्वच्छता और पवित्रता रखें| सुन्दर और स्वच्छ वातावरण में रहें व विचारों में पवित्रता रखें, तभी हमारे यहाँ देवताओं का निवास होगा अन्यथा बुरी आत्माएँ आकर्षित होंगी|
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हमारा हर विचार सद्विचार हो और हर संकल्प शिवसंकल्प हो| निरंतर प्रभु को अपने ह्रदय में रखें| बाहर का जगत हमारे विचारों की ही अभिव्यक्ति है|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ अगस्त २०१९

ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत पुनः प्रवाहित होने चाहिए ....

ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत पुनः प्रवाहित होने चाहिए ....
(लेखक मनोज ज्वाला).
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एक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ के अमेरिकी लेखक और इतिहासकार विल डुरांट ने भारत को दुनिया की समस्त सभ्यताओं की जननी कहा है। उन्होंने ‘दी केस फॉर इण्डिया’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है- ‘भारत से ही सभ्यता की उत्पत्ति हुई। संस्कृत सभी यूरोपियन भाषाओं की भी जननी है। हमारा समूचा दर्शन संस्कृत से ही उपजा है। विज्ञान और गणित इसकी ही देन हैं। लोकतंत्र और स्वशासन भी भारत से ही उपजा है। इसलिए भारत माता हम सब की माता हैं।’
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इस पुस्तक में उन्होंने विस्तार से बताया है कि अंग्रेजी शासन से पहले भारत कैसा था? अंग्रेजों ने कैसे भारत को लूटा और कैसे भारत की आत्मा का ही हनन कर डाला। वे कोई दक्षिणपंथी लेखक अथवा संघी विचारधारा के विचारक नहीं थे, बल्कि अमेरिका व यूरोप के सर्वमान्य दार्शनिक थे। उन्होंने ‘द स्टॉरी ऑफ फिलॉसफी’ नामक पुस्तक भी लिखी, जो दुनियाभर में दार्शनिकों के बीच प्रसिद्ध है। विल डुरांट एवं उनकी पत्नी एरिएल डुरांट को सन् 1968 में अमेरिकी शासन के द्वारा पुलित्जर पुरस्कार एवं सन् 1977 में राष्ट्रपति का मेडल प्रदान किया गया था।
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विल डुरांट जैसे और भी कई पश्चिमी विद्वान, दार्शनिक व इतिहासकार हैं, जिनकी मान्यता है कि भारत के विभिन्न स्रोतों से ही दुनिया में ज्ञान-विज्ञान की धारा प्रवाहित हुई और ये स्रोत संस्कृत-साहित्य में छिपे हुए हैं। छिपे हुए इस कारण हैं क्योंकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के द्वारा ये यत्नपूर्वक छिपाये गए हैं। संस्कृत-साहित्य का शिक्षण-संरक्षण व संवर्द्धन करने वाले गुरुकुलों को नष्ट कर एक योजना के तहत भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का औपनिवेशिक हिसाब से बिकाऊ भाषाविदों के हाथों विकृत अनुवाद कराकर और शिक्षा की सुनियोजित पद्धति कायम कर अंग्रेजों ने इस षड्यंत्र को अंजाम दिया हुआ है।
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डुरंट ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि अंग्रेज जब भारत आये तब यहां के सात लाख गांवों में लगभग इतने ही गुरुकुल थे। अंग्रेजी राजपाट कायम हो जाने के बाद उन्होंने सभी गुरुकुलों को नष्ट कर दिया। फिर लगभग एक सौ साल बाद काफी सोच-समझकर थॉमस मैकाले की योजनानुसार अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के स्कूलों का विस्तार किया। फिर उसके माध्यम से भारत की नई पीढ़ियों को यह पढ़ाया जाने लगा कि संस्कृत जाहिलों की भाषा रही है और संस्कृत-साहित्य में पूजा-पाठ के मंत्रों व ईश्वर-भक्ति की कथा-कहानियों के सिवाय कुछ भी नहीं है। गुरुकुलों के पराभव और स्कूलों के सुनियोजित उद्भव के बीच वाले उस लम्बे कालखण्ड में उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रंथों-शास्त्रों से ज्ञान-विज्ञान को निकालकर उन्हें यूरोपियन विद्वानों-विशेषज्ञों की उपलब्धियों में शामिल करने का काम ऐसी चतुराई के साथ किया कि भारत में किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी।
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यूरोपीय देशों के राष्ट्र बनने और ईसा का जन्म होने से हजारों साल पहले के भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों यथा- वेद, उपनिषद, ब्राह्मण आरण्यक में ब्रह्माण्ड के सबसे जटिल व अनसुलझे विषयों की भरमार है। इसीलिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा कि ‘वेद समस्त सत्य विद्याओं का सार है।’ महर्षि भारद्वाज ने हजारों वर्ष पहले ही वेदों के अनुसंधान से ‘विमान शास्त्र’ नामक ग्रंथ रच कर 76 प्रकार के विमानों की रचना का विज्ञान प्रस्तुत कर रखा है, जिनमें यात्री विमान से लेकर युद्धक विमान तक शामिल हैं। ‘अंशुबोधिनी’ ग्रन्थ में महर्षि भारद्वाज ने सूर्य और नक्षत्रों की किरणों की शक्ति और उन्हें मापने की विधि का वर्णन किया है। इन्हीं ऋषि का एक और ग्रन्थ ‘अक्ष-तन्त्र’ नाम का है, जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का वर्णन किया गया है। उसमें बताया गया है कि मनुष्य आकाश में कहां तक जा सकता है एवं उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है। ‘रत्नप्रदीपिका’ में कृत्रिम हीरा बनाने की विधि के सूत्र-समीकरण दिए गए हैं। इसी तरह से अगस्त्य ऋषि-रचित ‘अगस्त्य संहिता’ ग्रंथ में विद्युत-उत्पादन की विधि का आविष्कार हजारों वर्ष पहले ही किया जा चुका है। चिकित्सा के क्षेत्र में प्लास्टिक सर्जरी जैसी तकनीक तो सुश्रुत ऋषि यूरोप के मेडिकल साइंस का जन्म होने से पहले ही दे चुके हैं। हमारे आयुर्वेद में कायाकल्प के तो चमत्कार ही चमत्कार हैं, किन्तु उसे भी पश्चिम के मेडिकल साइंस का मोहताज बना दिया गया है। ‘वैदिक गणित’ में तो ऐसे-ऐसे सूत्र-समीकरण भरे पड़े हैं कि उनके प्रयोग से वृक्षों की पत्तियां तक गिनी जा सकती हैं। आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे हमारे महान खगोलविदों व गणितज्ञों के ग्रंथों को खंगाला जाए तो एक से एक ऐसे-ऐसे सूत्र-समीकरण मिलेंगे, जिनके उपयोग से भारतीय प्रतिभा पूरी दुनिया को अचम्भित कर सकती है।
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दुर्भाग्य है कि हमारे बच्चों को आज भी पश्चिम से आयातित गणित और विज्ञान पढ़ाये जाते हैं। गणित के शून्य व दशमलव का आविष्कार करने वाले भारत के वे तमाम ऋषि-मनीषी वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद, अगस्त्य, सुश्रुत, भारद्वाज, द्रोण, आर्यभट्ट और वराहमिहिर आदि अंग्रेजों द्वारा कपोल-कल्पित पौराणिक पात्र बना दिए गए और उनके ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों को वंचित कर उन्हें यूरोपीय जूठन परोसा जाने लगा, जो आज भी जारी है। इससे नुकसान यह हो रहा है कि हमारी प्रतिभाओं का जितना विकास होना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है। अतएव अब जरूरी है कि ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोतों को, जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बाधित व अपहृत कर रखा था, उन्हें पुनः प्रवाहित किया जाए। यह अपेक्षा मोदी की सरकार से ही की जा सकती है।
(मनोज ज्वाला)
साभार: प्रवक्ता.कॉम

आत्म-मंथन ही समुद्र-मंथन है .....

आत्म-मंथन ही समुद्र-मंथन है .....
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हमारा मस्तिष्क यानि मस्तक ही समुद्र है| प्राणवाहिनी नाड़ियों से प्राण बहते हैं जो मस्तक में आकर मिल जाते हैं, वैसे ही जैसे नदियाँ आकर समुद्र में मिल जाती हैं| इसलिए मस्तक समुद्र है| आज्ञा-चक्र ही कूर्म-पृष्ठ है| उसके ऊपर जो त्रिकोण योनि-स्थान है, वह सुमेरु पर्वत है| चंचल प्राण ही बंधन यानि वह शृंखला है जिसे प्रवृत्ति(राक्षस) और निवृत्ति (देवता) दोनों ओर से खींच रहे हैं| स्थूल रूप से श्वास-प्रश्वास ही प्राणों की अभिव्यक्ति हैं| कुर्मपृष्ठस्थ ब्रह्मयोनि कूटस्थ रूपी पर्वत में सजगता से गुरु-प्रदत्त विधि से क्रिया ही समुद्र-मंथन यानि आत्म-मंथन है| घर्षण से जो ज्योतियाँ कूटस्थ में दिखती हैं, वे रत्न हैं| अन्त में सहस्रार से अमृत की प्राप्ति होती है| आनंद ही अमृत्व है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!

31 जुलाई 2019

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, हमारी इच्छा से नहीं....

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, हमारी इच्छा से नहीं....
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प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, हमारी मनमर्जी से नहीं उन नियमों को समझने का प्रयास न करना हमारी भूल है, प्रकृति की नहीं| समुद्र में ज्वार-भाटा तो आता ही रहता है जो प्रकृति के नियमानुसार बिलकुल सही समय पर आता है, उसमें एक क्षण की भी भूल नहीं होती| जो इस विषय के जानकार होते हैं वे वर्षों पहले ही गणना कर के बता देते हैं कि पृथ्वी के किस किस भाग पर किस समय ज्वार आयेगा, कब तक रहेगा, वहाँ समुद्र का जल स्तर उस समय कितना होगा, व महत्वपूर्ण नक्षत्रों और चन्द्रमा की उस समय क्या स्थिति होगी| समुद्रों में जो नौकायन करते हैं उनके पास हर वर्ष एक वर्ष आगे तक का एक पंचांग (Almanac) रहता है जिसमें यह पूरी जानकारी रहती है| उस पंचांग को वही समझ सकता है जिसको नौकायन की विद्या आती है, अन्य कोई नहीं|
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ऐसे ही संसार में जन्म-मरण और संचित/प्रारब्ध कर्मफलों की प्राप्ति आदि का ज्ञान निश्चित रूप से कहीं न कहीं और किसी न किसी को ज्ञात अवश्य है| यदि हमें नहीं ज्ञात है तो इसमें दोष हमारे अज्ञान का है, प्रकृति का नहीं| यदि हमें नहीं पता है तो उसका अनुसंधान करना पड़ेगा| जैसे समुद्र में ज्वार-भाटे को रोका नहीं जा सकता वैसे ही जन्म-मरण और प्रारब्ध कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों को कोई रोक नहीं सकता है| महात्मा लोग कहते हैं कि वेदों में जीवनमुक्त होने का पूरा ज्ञान है| पर उसे समझने की पात्रता भी चाहिए और सही समझाने वाला भी चाहिए|
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जिसे डॉक्टरी पढनी है उसे मेडिकल कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे इंजीनियरिंग पढनी है उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे जो भी विद्या पढनी है उसे उसी तरह के महाविद्यालय में प्रवेश लेना होगा| पासबुक से पढ़कर या नक़ल मार कर कोई हवाई जहाज का पायलट या समुद्री जहाज का कप्तान नहीं बन सकता है|
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वैसे ही श्रुतियों यानि वेदों -उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें किसी श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य की खोज करनी होगी और नम्रता से निवेदन करना होगा, तभी वे अनुग्रह करके हमारा मार्गदर्शन करेंगे, अन्यथा नहीं| वहाँ ट्यूशन फीस, डोनेशन और रुपयों का लोभ देने से काम नहीं चलेगा| दो-चार लाख रूपये खर्च कर बिना पढ़े हम पीएचडी की डिग्री तो प्राप्त कर सकते हैं पर ब्रह्मविद्या का ज्ञान नहीं|
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भगवान हमें मोह और तृष्णा से मुक्त करें व धर्माचरण में आने वाले कष्टों से पार जाने की शक्ति, शास्त्राज्ञाओं को समझने व उनका पालन करने की क्षमता, वैराग्य, और पूर्णता दें|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
३१ जुलाई २०१७

निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन .....

निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन .....
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भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है .....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||
अर्थात् हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो|
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यह श्लोक अत्यधिक गम्भीर, माननीय और आचरणीय है| स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार की है .....

जो इस प्रकार विवेक-बुद्धि से रहित हैं उन कामपरायण पुरुषों के लिए
वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को ही प्रकाशित करने वाले हैं|
परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो, निष्कामी हो, तथा निर्द्वन्द्व हो|
सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो, तथा निर्योगक्षेम हो|
अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने का नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है| योगक्षेमको प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है,
अतः तू योगक्षेम को न चाहनेवाला हो, तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो| तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है|
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इस के लिए हमें क्या करना होगा? इसकी विधि गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण ने ने बड़े स्पष्ट शब्दों में अन्यत्र बताई है| योगसूत्रों में और उपनिषदों में भी इस विषय पर बहुत अच्छे और स्पष्ट उपदेश हैं|
सरल से सरल शब्दों में कह सकते हैं कि हमें अपने अंतःकरण का विषय भगवान वासुदेव को ही बनाना होगा| अन्य कोई उपाय नहीं है| सर्वव्यापी भगवान वासुदेव के प्रति भक्ति भी जागृत करनी होगी और उनका ध्यान भी करना होगा| सभी को शुभ कामनायें, सभी का मंगल हो|
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आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जुलाई २०१९

मठों व मंदिरों का महत्व .....

मठों व मंदिरों का महत्व .....
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आजकल के इतिहासकारों के अनुसार मठों और मंदिरों का निर्माण महाभारत काल के पश्चात ही आरंभ हुआ| उससे पूर्व ऋषियों के आश्रम होते थे जहाँ सभी को शिक्षा मिलती थी| कुछ तीर्थ, तपोभूमि व साधना-स्थल होते थे|
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सनातन वैदिक हिन्दू मान्यताओं के अनुसार "मठ" वह स्थान है जहाँ रह कर वटुक, आचार्यों के संरक्षण में वेदों का अध्ययन करते हैं| पर पारंपरिक रूप से मठ वह स्थान है जहां किसी सम्प्रदाय या परंपरा विशेष में आस्था रखने वाले शिष्य, आचार्य या धर्मगुरु अपने सम्प्रदाय के संरक्षण और संवर्द्धन के उद्देश्य से धर्म ग्रन्थों पर विचार विमर्श करते हैं या उनकी व्याख्या करते हैं, जिससे उस सम्प्रदाय के मानने वालों का हित हो|
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भारतीय धर्मों के उपासना स्थलों को मंदिर कहते हैं| यह आराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित देवस्थान है, जहाँ आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिंतन किया जाता है| वहाँ मूर्ति इत्यादि रखकर भी पूजा-अर्चना की जा सकती है|
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मंदिरों के पीछे भावना थी कि अपनी धार्मिक मान्यताओं की रक्षा की जाए| मंदिरों का गुंबद या शिखर-स्थल ऐसा होता था जहाँ पवित्र स्पंदन बने रहते थे, अतः जो भी वहाँ आता वह भक्तिभाव में डूब जाता| वहाँ का प्रांगण भी ऐसे पत्थरों से बना होता जिनमें पवित्रता होती थी| मंदिर का शिखर दूर से ही दिख जाता| वहाँ एक पाठशाला भी होती थी, धर्मशाला भी होती थी, और अन्नक्षेत्र भी होता था| कहीं कहीं सदावर्त भी होते थे जहाँ से साधुओं को आवश्यक सामग्री प्रदान की जाती थी|
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सारे मंदिर आस्था के केंद्र हैं| कालांतर में काल के प्रभाव से कहीं कहीं कोई विकृति भी आई है, उनमें सुधार हो सकता है| पर मंदिरों का महत्व यथावत है, वे धर्मगुरुओं के संरक्षण में ही रहने चाहियें|
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दुर्भाग्य से भारत के आजाद होते ही भारत सरकार ने दुर्भावनावश सभी प्रमुख हिन्दू मंदिरों को लूटने के लिए अपने आधीन कर लिया जो गलत है| सरकार मस्जिदों के इमामों को तो वेतन और पेंशन दे रही है पर मंदिरों के पुजारियों को भूखा मार रही है जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मांग कर खाने को विवश हैं| सभी हिन्दू संप्रदायों के धर्माचार्यों की समितियाँ बनाकर सभी मंदिरों को बापस उन्हीं के आधीन कर देना चाहिए| कोई भी मस्जिद, दरगाह और चर्च, सरकारी नियन्त्रण में नहीं हैं, फिर हिंदुओं के प्रति ही दुर्भावना क्यों?
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हर तरह की लूट-खसोट से मंदिरों की पवित्रता की रक्षा हो|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
२९ जुलाई २०१९

आत्म-सूर्य का ध्यान करें ......

आत्म-सूर्य का ध्यान करें ......
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे भ्रूमध्य में एक परम ज्योति का आभास होता है जिसका उल्लेख गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है| अभ्यास करते करते वहाँ एक सूर्यमंडल का आभास होने लगता है, जिसका हम ध्यान करें| यह सूर्य-मण्डल ही कूटस्थ है| कूटस्थ शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कई बार किया है| यह ज्योति भ्रूमध्य से आज्ञा-चक्र में, फिर सहस्त्रार में, फिर सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है| उस का ध्यान करते करते हम स्वयं ज्योतिर्मय बनें| यह सूर्यमण्डल ही गायत्री मंत्र के सविता देव हैं जिनकी भर्ग: ज्योति का हम ध्यान करते हैं| ये ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं|
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साथ साथ जब नाद-श्रवण होने लगे तब उसमें भी चित्त को विलीन कर दें| अपनी चेतना को पूरी सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दें| परमात्मा की अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है| सर्वत्र व्याप्त भगवान वासुदेव हर निष्ठावान की निरंतर रक्षा करते हैं, यह उनका आश्वासन है|
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भगवान श्रीराम ने वचन दिया है .....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३).
अर्थात जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ ....यह मेरा व्रत है|
जब भगवान ने स्वयं इतना बड़ा आश्वासन दिया है तब भय किस का? हम स्वयं राममय बनें|
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हे अनंत के स्वामी, हे सृष्टिकर्ता, जीवन और मृत्यु से परे मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ और सदा एक ही रहूँगा| मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| इस अनंतता और परमप्रेम का ही हम ध्यान करें|
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रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के ही सोयें, वह भी इस तरह जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहे हैं| प्रातः उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए भगवान का ध्यान करें| दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए| दिन में जब भी समय मिले भगवान का फिर ध्यान करें| उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे| यह शरीर चाहे टूट कर नष्ट हो जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं, आप सब ही मेरे प्राण हैं| आप सब को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०१९

जातिवाद वेद-विरुद्ध है, अतः त्याज्य है .....

जातिवाद वेद-विरुद्ध है, अतः त्याज्य है .....
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सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में जातिप्रथा का उल्लेख नहीं है| गुण और कर्मों के आधार पर वर्ण-व्यवस्था मात्र थी जो स्वाभाविक है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः| तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्||४:१३||
अर्थात .... गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है| यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो||.
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मूल मनुस्मृति में कहीं भी जातिप्रथा का उल्लेख नहीं है| जो लोग मनुस्मृति को गालियाँ देते हैं, यह उनकी विकृत और कुटिल मानसिकता है| मनुस्मृति वेदों पर आधारित है जहाँ सिर्फ वर्णों का ही गुण-कर्मों के आधार पर उल्लेख है| अंग्रेजों के वेतनभोगी मेक्समूलर जैसे पादरियों ने हिंदुओं के धर्मग्रंथों को प्रक्षिप्त और विकृत ही किया| शूद्रों पर अत्याचारों की झूठी कथाएँ और इतिहास विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा रचा गया| मुस्लिम आक्रान्ताओं और अंग्रेजों ने पूरा प्रयास किया हिंदुओं के धर्मग्रंथों को नष्ट करने का, पर वे भगवान की कृपा से ही बचे रहे क्योंकि ब्राह्मणों ने उन्हें रट रट कर याद कर लिया था|
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जातिप्रथा का आरंभ उस काल में हुआ था जब भारत पर स्थल मार्ग से अरब, फारस और मध्य एशिया के विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण आरंभ हुए, और जल मार्ग से पूर्तगालियों का| उस से पूर्व कोई जातिप्रथा नहीं थी| भारत का वर्तमान संविधान ही सैंकड़ों जातियों का उल्लेख करता है जब कि किसी भी हिन्दू धर्म-ग्रंथ में इनका उल्लेख नहीं है|
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हरिः ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०१९
पुनश्च :---
भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में जातियाँ स्वाभाविक रूप से समाज के हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में है। ये कभी समाप्त नहीं की जा सकतीं। ये सदा थीं, और सदा ही रहेंगी। जातिवाद गलत है, लेकिन जातिप्रथा स्वभाविक है।
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हिन्दू समाज कभी भी जाति-विहीन नहीं हो सकता। हरेक जाति को उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ जातियों के साथ भारत के हरेक राजनीतिक दल ने बहुत बड़ा अन्याय किया है जो घोर महापाप है। जाति-प्रथा की निंदा कभी मैं भी करता था, लेकिन बाद में समझ में आया कि यह तो स्वाभाविक है, और पूरे विश्व में है। हिन्दू समाज की एकता जाति सहित ही होगी। किसी भी तरह का आरक्षण नहीं होना चाहिए। जाति के नाम पर होने वाला आरक्षण महापाप है

पुरानी यादें .....

आज की गलाकाट प्रतियोगिता के युग में विद्यार्थियों पर कोचिंग और ट्यूशन का इतना अधिक दबाव है कि उनका जीवन एक उत्सव और आनंद नहीं रहा है|

मैं आज से पचास-साठ वर्षों पूर्व की बात कर रहा हूँ| पहले जब भी वर्षा होती थी तब हमारी आयु के बच्चे बरसात में खूब नहाते थे, प्रकृति का आनंद लेने वन-विहार भी करते थे और नीम के पेड़ की डालियों पर रस्सी बांध कर खूब झूला भी झूलते थे|

हम लोग नित्य संघ की सायं शाखाओं में जाकर खूब खेलते थे| जिनकी किसी खेल विशेष में रुचि होती वे उसे खेलते| पुस्तकालयों में जाकर ज्ञानवर्धक साहित्य भी खूब पढ़ते थे| जीवन में खूब आनंद था|
हमारे यहाँ बिजली १९६३ या १९६४ में आई थी तब तक किरोसिन के लैम्प या लालटेन की रोशनी में ही पढ़ना पड़ता था| घर में नहाना एक विलासिता थी, कुओं पर जाकर नहाते थे| घर में पानी या तो खुद लाते या पनिहारे लाते| घर में पानी आता तो था पर घर से बाहर नहीं जाता था| शौच आदि के लिए भी जंगल में ही जाना पड़ता था| फिर भी एक दिनचर्या थी, नित्य तीन-चार किलोमीटर दौड़ कर या घूम कर आते थे| स्नान कर के मंदिर में भी जाते थे| लोगों में आज की अपेक्षा अधिक प्रेम था| आजकल तो बिना मतलब के कोई बात ही नहीं करता|

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है| जैसा जीवन आज है वैसा कुछ वर्षों बाद नहीं रहेगा|

"राम" नाम परम सत्य है, और सत्य ही परमात्मा है ......

"राम" नाम परम सत्य है, और सत्य ही परमात्मा है ......
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साकार रूप में तो भगवान श्रीराम परमात्मा के अवतार हैं ही, निराकार रूप में भी परमब्रह्म हैं| ऊर्ध्व में स्थिति प्राप्त होने पर ब्रह्मज्ञान का उदय होता है, उस अवस्था में यानि आत्मतत्व में रमण करने का नाम राम है| मणिपुर-चक्र के भीतर कुंकुमाभास तेजसतत्व अग्निबीज 'र'कार है, उसके साथ आकार रूप हंस यानि अजपा-जप द्वारा आज्ञा-चक्र स्थित ब्रह्मयोनि के भीतर बिंदु स्वरुप 'म'कार का मिलन होता है| यहाँ राम नाम एक अनुभूति का विषय है जिसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना बड़ा कठिन है|
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जो साधक सदा आत्मा में रमण करते हैं, उनके लिए "राम" नाम तारकमंत्र है| मृत्युकाल में "राम" नाम जिनके स्मरण में रहे वे स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाते हैं| आत्मतत्व में स्थित होने को तंत्र में मैथुन कहा गया है| अंतर्मुखी प्राणायाम आलिंगन है| स्थितिपद में मग्न हो जाने का नाम चुंबन है| केवल कुम्भक की स्थिति में जो आवाहन होता है वह सीत्कार है| खेचरी मुद्रा में जिस अमृत का क्षरण होता है वह नैवेद्य है| अजपा-जप ही रमण है| यह रमण करते करते जिस आनंद का उदय होता है वह दक्षिणा है| यह साधना उन को स्वतः ही समझ में आ जाती है जो नियमित ध्यान करते हैं| "श्री" शब्द में "श" श्वास है, "र" तेजस यानि अग्नि तत्व है, और "ई" शक्तिबीज है| अजपा-जप और नाद-श्रवण करते करते अनंत परमात्मा की अनुभूति निराकार श्रीराम की अनुभूति है जहाँ अहंकार नष्ट होकर चेतना राममय हो जाती है|
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परमात्मा के निरंतर चिंतन से मद्य यानि शराब का सा नशा होता है| परमात्मा का निरंतर चिंतन ही मद्यपान है| पुण्य और पाप रूपी पशुओ की ज्ञान रूपी खड़ग से हत्या कर उनका भक्षण करने से मौन में स्थिति होती है| मौन में स्थिति ही मांस है| ध्यान के द्वारा इड़ा (गंगा) और पिंगला (यमुना ) के मध्य सुषुम्ना (सरस्वती) में विचरण करने वाली प्राण-ऊर्जा मीन है| दुष्टों की संगती रूपी बंधन से बचे रहना ही मुद्रा है| मूलाधार से कुंडलिनी महाशक्ति को उठाकर सहस्त्रार में परमशिव से मिलाना मैथुन है| महाशक्ति कुंडलिनी और परमशिव के मिलन के बाद की स्थिति आत्माराम और राममय होना है| राम नाम ही परम सत्य है|
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(अपनी अति अल्प और सीमित बुद्धि द्वारा लिखा गया उपरोक्त लेख सूर्य को दीपक दिखाने के समान है| किसी भी अशुद्धि के लिए विद्वानों से क्षमायाचना करता हूँ| किसी भी तरह की टिप्पणी इस लेख पर नहीं करूँगा| जो भी लिखा है वह अनुभूत सत्य है|)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जुलाई २०१९

महावतार बाबाजी को नमन .......

महावतार बाबाजी को नमन .......
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स्वामी योगानंद गिरी (जो बाद में परमहंस योगानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) को उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी ने सनातन धर्म के प्रचार प्रसार हेतु अमेरिका जाने की आज्ञा दी| अपने शिष्य स्वामी योगानंद गिरी को उन्होंने यह भी बताया की तुम महावातार बाबाजी की प्रेरणा से ही मेरे पास आये थे और उन्हीं के आदेश से मैं तुम्हे अमेरिका भेज रहा हूँ| स्वामी योगानंद गिरी अमेरिका जाने से पूर्व प्रत्यक्ष बाबाजी से आशीर्वाद पाना चाहते थे| इसके लिए उन्होंने प्रार्थना की और बाबाजी ने उनके समक्ष प्रकट होकर आशीर्वाद दिया| उस दिन को महावातार बाबाजी स्मृति दिवस के रूप में उनकी शिष्य परम्परा में मनाया जाता है| इस परम्परा के सभी साधकों को मेरा अभिनन्दन और प्रणाम|
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि||"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व: ||"
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शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (1)
भावार्थ : जिस व्यक्ति का शरीर सुन्दर हो, पत्नी भी खूबसूरत हो, कीर्ति का चारों दिशाओं में विस्तार हो, मेरु पर्वत के समान अनन्त धन हो, लेकिन गुरु के श्रीचरणों में यदि मन की लगन न हो तो इन सभी उपलब्धियों का कोई महत्व नहीं होता है।
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (2)
भावार्थ : पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि पूर्व जन्म के फल स्वरूप सहज-सुलभ हो लेकिन गुरु के श्रीचरणों में मन की लगन न हो तो इन सभी प्रारब्ध-सुख का कोई महत्व नहीं होता है।
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (3)
भावार्थ : सभी वेद एवं सभी शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, अति सुन्दर कविता स्वरूप निर्माण की प्रतिभा हो, लेकिन गुरु के श्रीचरणों में लगन न हो तो इन सभी सदगुणों का कोई महत्व नहीं होता है।
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (4)
भावार्थ : देश विदेश में सम्मान मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्ति न हो तो इन सभी सदगुणों का कोई महत्व नहीं होता है।
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (5)
भावार्थ : जिन महानुभाव के चरण-कमल पृथ्वी-मण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित होते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इन सभी सदभाग्य का कोई महत्व नहीं होता है।
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्ज गद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (6)
भावार्थ : दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिग-दिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपा दृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य प्राप्त हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्ति भाव न रखता हो तो इन सभी ऎश्वर्यों का कोई महत्व नहीं होता है।
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (7)
भावार्थ : जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्री सुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की दृड़ता कोई महत्व नहीं होता है।
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (8)
भावार्थ : जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का कोई महत्व नहीं होता है।
अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्स मालिंगिता कामिनी यामिनीषु।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (9)
भावार्थ : अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों का कोई महत्व नहीं होता है।
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥ (10)
भावार्थ : जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी निश्चित रूप से अपने सभी इच्छायें और ब्रह्मपद दोनों को समान रूप से प्राप्त कर लेता है।
॥ हरि ॐ तत सत ॥ जय गुरु !!