आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति के मापदंड ;----
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आचार्यों ने सात मापदंड बताए हैं जिनसे हम अपनी आंतरिक प्रगति को माप सकते हैं.....
(१) आहार संयम, (२) वाणी का संयम, (३) जागरुकता, (४) दौर्मनस्य का न होना, (५) दुःख का अभाव, (६) श्वास की संख्या में कमी हो जाना, (७) संवेदनशीलता |
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हमें आहार इस तरह से लेना चाहिए जैसे औषधि ली जाती है| उतना ही खाना चाहिए जो शरीर के पोषण के लिए पर्याप्त हो| स्वाद में रुचि का समाप्त हो जाना एक अच्छा लक्षण है| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः| न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन||६:१६||"
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु| युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||६:१७||"
आहार संयम हो जाएगा तो वाणी का संयम भी हो जाएगा| फालतू की बात करने की इच्छा ही नहीं होगी| जब वाणी का संयम हो जाएगा तब जागरूकता भी उत्पन्न होगी| जब जागरूकता आएगी तब दूसरों के प्रति दुर्भावना भी समाप्त हो जाएगी| धीरे धीरे दुःखों से भी मुक्ति मिल जाएगी| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
धीरे धीरे हम पायेंगे कि हमारे साँसों की गति भी कम होने लगी है| तब हम आंतरिक रूप से संवेदनशील भी हो जाएंगे| यह आंतरिक संवेदनशीलता जागृत होने पर हमारा अहंकार भी नष्ट होने लगेगा और भावों में करुणा व पवित्रता आने लगेगी| इति शुभम् |
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०१९
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आचार्यों ने सात मापदंड बताए हैं जिनसे हम अपनी आंतरिक प्रगति को माप सकते हैं.....
(१) आहार संयम, (२) वाणी का संयम, (३) जागरुकता, (४) दौर्मनस्य का न होना, (५) दुःख का अभाव, (६) श्वास की संख्या में कमी हो जाना, (७) संवेदनशीलता |
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हमें आहार इस तरह से लेना चाहिए जैसे औषधि ली जाती है| उतना ही खाना चाहिए जो शरीर के पोषण के लिए पर्याप्त हो| स्वाद में रुचि का समाप्त हो जाना एक अच्छा लक्षण है| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः| न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन||६:१६||"
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु| युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||६:१७||"
आहार संयम हो जाएगा तो वाणी का संयम भी हो जाएगा| फालतू की बात करने की इच्छा ही नहीं होगी| जब वाणी का संयम हो जाएगा तब जागरूकता भी उत्पन्न होगी| जब जागरूकता आएगी तब दूसरों के प्रति दुर्भावना भी समाप्त हो जाएगी| धीरे धीरे दुःखों से भी मुक्ति मिल जाएगी| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
धीरे धीरे हम पायेंगे कि हमारे साँसों की गति भी कम होने लगी है| तब हम आंतरिक रूप से संवेदनशील भी हो जाएंगे| यह आंतरिक संवेदनशीलता जागृत होने पर हमारा अहंकार भी नष्ट होने लगेगा और भावों में करुणा व पवित्रता आने लगेगी| इति शुभम् |
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०१९