आदि शंकराचार्य जयंती पर सभी का अभिनंदन
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आज स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर (आदिशंकराचार्य) की जयंती है। उनके बारे में सामान्य जन में यह धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया। लेकिन यह सही नहीं है। अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद थे, जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की थी। आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया, उन्हीं का आचार्य शंकर ने विस्तृत रूप दिया। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा। आचार्य शंकर -- अद्वैतवादी से अधिक एक भक्त थे। उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया। वे स्वयं श्रीविद्या के उपासक थे, और भगवान के सभी रूपों के सबसे अधिक स्तोत्रों की रचना उन्होने की। वे एक महानतम प्रतिभा थे जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण किया। अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में वे कहते हैं -- "भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित्।" साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है"। उनके अनुसार भक्ति और ज्ञान -- दोनों एक ही हैं।
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आचार्य शंकर के गुरु आचार्य गोविन्दपाद थे जिन्होंने ८५ श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की। उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं। वहाँ आसपास और भी गुफाएँ हैं, जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं। पूरा क्षेत्र तपोभूमि है। सत्ययुग में मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है।
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आचार्य शंकर एक बार शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध विद्वान पंडित जी अपने शिष्यों को पाणिनि के व्याकरण के कठिन सूत्र समझा रहे थे। उन्हें देख आचार्य शंकर की भक्ति जाग उठी और उन वैयाकरण जी को भक्ति का उपदेश देने के लिए 'गोबिंद स्तोत्र' की रचना की और सुनाना आरम्भ कर दिया। यह स्तोत्र 'द्वादश मांजरिक' स्तोत्र कहलाता है। अन्य भी बहुत सारी इतनी सुन्दर उनकी भक्ति की रचनाएँ हैं जो भाव विभोर कर देती हैं। अद्वैत वेदांत तो उन्हें गुरु परम्परा से मिला था। आचार्य शंकर ने दत्तात्रेय की परम्परा में चले आ रहे संन्यास को ही एक नया रूप और नई व्यवस्था दी। उनकी परम्परा के अनेक संतों से मेरा सत्संग हुआ है जिसे मैं जीवन की एक अति उच्च उपलब्धि मानता हूँ।
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सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे। ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे। इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है। कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया। पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद, और तीसरे अवतार थे वैद्यराज चरक। इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने की है।
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आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये। आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं। आप मुझ पर कृपा करें। आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया। अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया। इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी। यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था। आचार्य गौड़पाद भी श्रीविद्या के उपासक थे।
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धन्यवाद। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि॥
ॐ तत्सत् ॥
६ मई २०२२
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पुनश्च :--- आचार्य शंकर का जन्म का वर्ष ईसा के ५०८ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। उनका देहावसान ईसा के ४७४ वर्ष पूर्व हुआ। पश्चिमी विद्वान् उनका जन्म ईसा के ७८८ वर्ष बाद होना बताते हैं जो गलत है। आचार्य शंकर को नमन !!