Tuesday, 10 May 2022

आदि शंकराचार्य जयंती पर सभी का अभिनंदन ---

 आदि शंकराचार्य जयंती पर सभी का अभिनंदन

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आज स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर (आदिशंकराचार्य) की जयंती है। उनके बारे में सामान्य जन में यह धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया। लेकिन यह सही नहीं है। अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद थे, जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की थी। आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया, उन्हीं का आचार्य शंकर ने विस्तृत रूप दिया। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा। आचार्य शंकर -- अद्वैतवादी से अधिक एक भक्त थे। उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया। वे स्वयं श्रीविद्या के उपासक थे, और भगवान के सभी रूपों के सबसे अधिक स्तोत्रों की रचना उन्होने की। वे एक महानतम प्रतिभा थे जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण किया। अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में वे कहते हैं -- "भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित्।" साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है"। उनके अनुसार भक्ति और ज्ञान -- दोनों एक ही हैं।
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आचार्य शंकर के गुरु आचार्य गोविन्दपाद थे जिन्होंने ८५ श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की। उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं। वहाँ आसपास और भी गुफाएँ हैं, जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं। पूरा क्षेत्र तपोभूमि है। सत्ययुग में मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है।
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आचार्य शंकर एक बार शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध विद्वान पंडित जी अपने शिष्यों को पाणिनि के व्याकरण के कठिन सूत्र समझा रहे थे। उन्हें देख आचार्य शंकर की भक्ति जाग उठी और उन वैयाकरण जी को भक्ति का उपदेश देने के लिए 'गोबिंद स्तोत्र' की रचना की और सुनाना आरम्भ कर दिया। यह स्तोत्र 'द्वादश मांजरिक' स्तोत्र कहलाता है। अन्य भी बहुत सारी इतनी सुन्दर उनकी भक्ति की रचनाएँ हैं जो भाव विभोर कर देती हैं। अद्वैत वेदांत तो उन्हें गुरु परम्परा से मिला था। आचार्य शंकर ने दत्तात्रेय की परम्परा में चले आ रहे संन्यास को ही एक नया रूप और नई व्यवस्था दी। उनकी परम्परा के अनेक संतों से मेरा सत्संग हुआ है जिसे मैं जीवन की एक अति उच्च उपलब्धि मानता हूँ।
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सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे। ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे। इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है। कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया। पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद, और तीसरे अवतार थे वैद्यराज चरक। इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने की है।
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आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये। आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं। आप मुझ पर कृपा करें। आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया। अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया। इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि आचार्य गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी। यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था। आचार्य गौड़पाद भी श्रीविद्या के उपासक थे।
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धन्यवाद। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि॥
ॐ तत्सत् ॥
६ मई २०२२
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पुनश्च :--- आचार्य शंकर का जन्म का वर्ष ईसा के ५०८ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। उनका देहावसान ईसा के ४७४ वर्ष पूर्व हुआ। पश्चिमी विद्वान् उनका जन्म ईसा के ७८८ वर्ष बाद होना बताते हैं जो गलत है। आचार्य शंकर को नमन !!

भारत की एकमात्र समस्या अधर्माचारण है, अन्य कोई समस्या नहीं है ---

भारत की एकमात्र समस्या अधर्माचारण (राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, यानि भ्रष्ट-आचरण - भ्रष्टाचार) है। अन्य कोई समस्या नहीं है।

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धर्म की पुनर्स्थापना तो भगवान का काम है, हम तो यथासंभव सिर्फ धर्माचरण ही कर सकते हैं। मनुष्य सिर्फ अपनी मृत्यु से ही डरता है, अन्य किसी भी चीज से नहीं। महात्मा लोग कहते हैं कि मनुष्य की योनि में जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है। लेकिन लगता है यह अब बड़ा सुलभ हो गया है। पशु-पक्षियों की संख्या तो बहुत कम हो गई है, और मनुष्यों की बढ़ गई है। आजकल कोई भी पशु मरता है, लगता है वह सीधा मनुष्य ही बन जाता है।
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हम असहाय हैं, कुछ भी नहीं कर सकते। सिर्फ अपने निज जीवन में भगवान को व्यक्त करने की भक्ति ही कर सकते हैं। यह सृष्टि भगवान की है, हमारी नहीं। यदि भगवान चाहते हैं कि पृथ्वी पर अधर्म बढ़े तो बढ़ेगा ही। जैसी उनकी इच्छा। उनकी इच्छा हमें नष्ट करने की है तो कोई उन्हें रोक भी नहीं सकता। इस संसार से मेरी कोई अपेक्षा नहीं रही है।
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जब तक आत्म-हीनता के बोध से मुक्त होकर आत्म-गौरव की भावना से हम ओतप्रोत नहीं होंगे, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। परमात्मा की चेतना ही हमारा उद्धार कर सकती है। धन्यवाद और नमन !!
कृपा शंकर
७ मई २०२२

विश्व के सभी निष्ठावान श्रद्धालुओं का सत्य-सनातन-हिन्दू धर्म में स्वागत है ---

 विश्व के सभी निष्ठावान श्रद्धालुओं का सत्य-सनातन-हिन्दू धर्म में स्वागत है ---

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पूरे विश्व के अन्य मतावलंबी जो हिन्दू बनना चाहते हैं, उनका हिन्दू धर्म में सप्रेम सादर स्वागत है। इसमें कोई औपचारिकता नहीं है। विश्व में कहीं भी जो कोई भी स्वयं को हिन्दू मानता है, वह स्वतः ही हिन्दू है।
जिन के पूर्वज हिन्दू थे, और जिन्हें बलात् अपना धर्म छोड़ना पड़ा, उन्हें घर-बापसी कर अपने पूर्वजों का धर्म स्वीकार कर लेना चाहिये। घर-बापसी पर उनका ससम्मान स्वागत है।
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सत्य-सनातन-हिन्दू धर्म को समझना बहुत अधिक सरल है। इसमें कुछ भी जटिलता नहीं है। मैंने ईसाई रिलीजन के ओल्ड, व सारे न्यू टेस्टामेंटों; व इस्लामी मज़हब की कुरान शरीफ का तुलनात्मक अध्ययन किया है। उस आधार पर कह रहा हूँ कि सनातन हिन्दू धर्म को समझना सबसे अधिक आसान है।
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भारत के संविधान ने विद्यालयों में हिन्दू धर्म के अध्यापन और प्रचार-प्रसार पर प्रतिबंध लगा रखा है, अतः धर्मशिक्षा के अभाव में हिन्दू युवाओं को अपने धर्म का ज्ञान नहीं है। हमें अपनी सरकारों पर दबाव डाल कर हिंदुओं के बिरुद्ध हो रहे सारे अन्यायों व भेदभावों को हटवाना चाहिए। हिन्दुओं को समान अधिकार प्राप्त होंगे तो उनके धर्म का भी प्रचार-प्रसार होगा। हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र क्या है? इस विषय पर कुछ चर्चा करना चाहूँगा ---
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(१) हिन्दू :-- जो भी व्यक्ति आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह पृथ्वी के किसी भी भाग पर किसी भी देश में रहता है। हिन्दू धर्म का लक्ष्य है - भगवत्-प्राप्ति। हिन्दुत्व ही भगवत्-प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार का मार्ग दिखाता है। जो जीवन में भगवान को पाना चाहते हैं, यानि भगवान को उपलब्ध होना चाहते हैं, वे स्वतः ही हिन्दू हैं।
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(२) हिन्दुत्व :-- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करता है। हिन्दुत्व है हिंसा से दूरी। महाभारत के अनुसार मनुष्य का लोभ और अहंकार हिंसा हैं, जिनसे मुक्ति परमधर्म अहिंसा है। हिन्दुत्व हे - परमात्मा से परमप्रेम और परमात्मा को समर्पण।
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(३) हिन्दू राष्ट्र :-- 'हिन्दू राष्ट्र' ऊर्ध्वमुखी विचारों के ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे पृथ्वी के किसी भी भाग में रहते हों। उनकी कामना होती है --
"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥"
"सर्वेषां मङ्गलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्॥"
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
यह सब के कल्याण का भाव ही हिन्दू राष्ट्र है।
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इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ आपका जीवन मंगलमय और शुभ हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ मई २०२२

स्वयं के अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) पर विजय ही वास्तविक विजय है, अन्य सब भटकाव है ---

 स्वयं के अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) पर विजय ही वास्तविक विजय है, अन्य सब भटकाव है ---

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चित्त जिस भावना में तन्मय होता है, उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। चित्त की वृत्तियाँ जब परमात्मा में लीन होने लगती हैं तब सारे संकल्प तिरोहित होने लगते हैं। परम तत्व में जागृति ही वास्तविक जागृति है। "कामना" और "अभीप्सा" में बहुत अधिक अंतर है। कामना -- बंधन का कारण है, "अभीप्सा" मुक्ति का हेतु है। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें बंधनों में डालती हैं। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से तुच्छ होता जाता है। और जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है। हमारे पतन का कारण इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना, छोटी-छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना, तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना है। अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होंगी, उतना ही वह भीतर से कमजोर होगा। भीतर की कमजोरी ही बाहर की कमजोरी है। चित्त से इच्छाओं की निवृत्ति ही हमें महान बनाती हैं। यह संभव है। गीता में भगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
अर्थात् -- "श्रीभगवान् कहते हैं -- हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है॥"
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चिंता की कोई बात नहीं है। परमात्मा का निरंतर चिंतन करें। गीता के इन श्लोकों का थोड़ा स्वाध्याय और चिंतन कीजिए। ये चिंतामुक्त होने में सहायक होंगे।
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ मई २०२२

द्वितीय विश्व युद्ध की विजय का सारा श्रेय वीर भारतीय सैनिकों को जाता है ---

 प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध की विजय का सारा श्रेय वीर भारतीय सैनिकों को जाता है।

(1) द्वितीय विश्व युद्ध में मरे ज्ञात-अज्ञात लाखों भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजली.....
(2) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों से भारत स्वतंत्र हुआ .....
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९ मई १९४५ को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति रूसी सेना द्वारा जर्मनी को पूर्ण रूप से पराजित कर बर्लिन पर किये अधिकार के पश्चात हुई थी| इससे पूर्व इटली और जापान भी परास्त कर दिए गए थे| मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ बर्लिन की ओर बढ़ रही थीं और रूस की सेना दो टुकड़ियों में अलग अलग दिशाओं से युद्ध करती हुई आगे बढ़ रही थीं| रुसी फील्ड मार्शल जुकोव की सैन्य टुकड़ी ने सबसे पहिले पहुँच कर मर्मान्तक और अंतिम निर्णायक प्रहार कर युद्ध को समाप्त कर दिया| पूरे युद्ध में सभी मोर्चों पर जर्मन सेनाएँ बहुत अधिक वीरता और साहस के साथ लड़ीं, युद्ध में वीरता के अनेक कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किये पर उनके भाग्य में पराजय ही लिखी थी|
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इस युद्ध में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों का युद्ध के चारे (War fodder) के रूप में प्रयोग किया| जैसे आग में ईंधन डालते हैं वैसे ही युद्ध की आग में मरने के लिए भारतीय सैनिकों को झोंक दिया जाता था| अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिको को किस किस तरह से मरवाया इसके बारे में अनुसंधान किया जाए और लिखा जाय तो अनेक ग्रन्थ लिखे जायेंगे| अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पूर्व अपने द्वारा किये हुए नरसंहारों और अत्याचारों के सारे अभिलेख नष्ट कर दिए थे और विवश होकर भारत छोड़ते समय सता का हस्तान्तरण भी अपने ही मानसपुत्रों को कर गए| अगस्त १९४७ से सन १९५२ तक अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं का राज था| अब प्रमाण मिल रहे हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय बर्मा में अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिकों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया था| उनका राशन योरोप में भेज दिया गया| लाखों भारतीय सैनिक तो भूख से मरने के लिए ही विवश कर दिए गए थे|
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द्वितीय विश्वयुद्ध से भारत को हुआ लाभ .....
इस युद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी| अँगरेज़ सेनाएँ हताश और बुरी तरह थक चुकी थीं| उनमें इतना सामर्थ्य नहीं बचा था कि वे अपने उपनिवेशों को अपने आधीन रख सकें| नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गये थे| उन्हें डर था कि यदि भारतीयों के ह्रदय सम्राट नेताजी सुभाष बोस भारत में जीवित बापस आ गए तो सता उन्हीं को मिलेगी और अन्ग्रेज भारत का विभाजन भी नहीं कर पायेंगे| साथ साथ उनके मानस में भारतीय क्रांतिकारियों का भी भय था|
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युद्ध से पूर्व और युद्ध के समय वीर सावरकर ने पूरे भारत में घूम घूम कर हज़ारों राष्ट्रवादी युवकों को सेना में भर्ती करवाया| उनका विचार था कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न ही उन्हें उनका प्रयोग करना आता है| उनकी योजना थी कि भारतीय युवक सेना में भर्ती होकर अस्त्र चलाना सीखेंगे और फिर अंग्रेजों के उन अस्त्रों का मुँह अंग्रेजों की ओर ही कर देंगे| उनकी योजना सफल रही| युद्ध के पश्चात् भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने बंद कर दिए और उन्हें सलाम करना भी बंद कर दिया| सन १९४६ में नौसेना ने विद्रोह कर दिया| अँगरेज़ अधिकारियों को कोलाबा में बंद कर उनके चारों ओर बारूद लगा दी| पूरे बंबई के नागरिक भारतीय नौसैनिकों के समर्थन में सडकों पर आ गए|
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अँगरेज़ समझ गए कि हिन्दुस्तानी भाड़े की फौज (वे हिन्दुस्तानी सैनिकों को भाड़े के सिपाही यानि mercenary ही मानते थे) तो अब उनका आदेश नहीं मानती और अँगरेज़ सेना में इतना दम नहीं है कि उन पर नियंत्रण कर सके, तब अंग्रेजों ने भारत का जितना विनाश और कर सकते थे उतना अधिकतम विनाश कर के भारत छोड़ने का निर्णय कर लिया और भारत को तथाकथित आज़ादी यानि सत्ता हस्तांतरण अपने मानस पुत्रों को कर के चले गए| कभी भारत का स्वतंत्र सत्य इतिहास फिर लिखा जाएगा तो वास्तविक राष्ट्रनायकों का सम्मान होगा|
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द्वितीय विश्व युद्ध में जापान, इटली, और जर्मनी के विरुद्ध सभी मोर्चों पर लड़ते हुए मारे गए और मरवाए गए, तत्कालीन पराधीन भारत के सभी सैनिको को श्रद्धांजली देता हूँ| भगवान उन सबका और उनके परिवारों का कल्याण करे| १९४२ से भारतीय सेना के मुख्य सेनानायक फिल्ड मार्शल सर क्लाउड आचिनलेक (Claude Auchinleck) ने कहा था कि यदि भारतीय सेना नहीं होती तो अंग्रेज दोनों युद्धों (प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध) नहीं जीत पाते।
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वे तो बेचारे तो अपनी आजीविका के लिए सैनिक बने थे पर उन्हें क्या पता था कि उनकी मृत्यु विदेशी धरती पर विदेशियों के द्वारा होगी| उनके बलिदान के कारण ही हम आज स्वतंत्र होकर सम्मान से सिर ऊँचा कर के बैठे है|
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! जय जननी जय भारत ! जय श्री राम !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मई २०२२
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(पुनश्च:) :--- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मित्र सेनाबलों में भारतीय सेना सबसे बड़ी सेना थी। जब विश्वयुद्ध अपने चरम पर था तब २५ लाख से अधिक भारतीय सैनिक पूरे विश्व में अक्षीय-राष्ट्रों की सेनाओं से लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने सिर्फ ८७ हजार से कुछ अधिक भारतीय सैनिकों की ही मृत्यु इस युद्ध में दिखाई थी, लेकिन वास्तविक संख्या इससे लगभग तिगुनी थी। १६ हज़ार से अधिक तो आज़ाद हिन्द फौज के ही सैनिक मारे गए थे, जिनकी कभी गिनती ही नहीं की गई। युद्ध की समाप्ति पर, भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरा था। सभी देसी रियासतों ने युद्ध के लिए बड़ी मात्रा में अंग्रेजों को धनराशि प्रदान की।
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अंग्रेजों ने भारत का सारा अनाज यूरोप भेज दिया था जिसके कारण भारत में भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। बंगाल में ही लाखों लोग भूख से मारे गए। (अब बताया जाता है कि पूरे भारत में लगभग तीन करोड़ लोग भूख से मारे गए थे)
बिटिश भारतीय सेना ने इथियोपिया में इतालवी सेना के खिलाफ; मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया में इतालवी और जर्मन सेना के खिलाफ; और इतालवी सेना के आत्मसमर्पण के बाद इटली में जर्मन सेना के खिलाफ युद्ध किया था।
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अधिकांश बिटिश भारतीय सेना को जापानी सेना के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया गया था। सबसे पहले मलाया में हार और उसके बाद बर्मा से भारतीय सीमा तक पीछे हटने के दौरान; अंग्रेजों के रिकॉर्ड के अनुसार जापान से हुए युद्ध में ३६,००० से अधिक भारतीय सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी, ३४,३५४ से अधिक घायल हुए, और लगभग ६७,३४० सैनिक युद्ध में बंदी बना लिए गए। उनकी वीरता को ४,००० पदकों से सम्मानित किया गया और बिटिश भारतीय सेना के ३८ सदस्यों को विक्टोरिया क्रॉस या जॉर्ज क्रॉस प्रदान किया गया।
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वास्तव में प्रथम और द्वितीय दोनों ही विश्वयुद्ध भारत की सेनाओं द्वारा ही जीते गए थे। अंग्रेज़ कौम तो एक डरपोक कौम थी जिसे प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्कों ने, और द्वितीय विश्व युद्ध में जरमनों और जापानियों ने बहुत बुरी तरह मारा-पीटा था। अंग्रेजों की जान सदा भारतीयों ने ही बचाई। बिना भारतीयों के अंग्रेज़ युद्ध लड़ ही नहीं सकते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध की जीत का सारा श्रेय मैं वीर भारतीय सैनिकों को देता हूँ।

संसार के सारे बंधनों का कारण -- हमारी चित्त की वृत्तियाँ ही हैं। ये चित्त की वृत्तियाँ क्या होती हैं? इनसे मुक्त कैसे हों? ---

 संसार के सारे बंधनों का कारण -- हमारी चित्त की वृत्तियाँ ही हैं। ये चित्त की वृत्तियाँ क्या होती हैं? इनसे मुक्त कैसे हों? ---

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हमारी वासनाएँ (आकांक्षाएँ/कामनाएँ/इच्छाएँ/अभिलाषाएँ) और तरह तरह के विचार ही चित्त की वृत्तियाँ हैं। हमारी साँसें भी चित्त की ही एक वृत्ति है।
ऋषि पतंजलि ने इन चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है -- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥१.२॥
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समत्व को योग बताया है और वे निस्त्रेगुण्य होने का उपदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
"यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२:४६॥"
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२:४७॥"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
"दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२:४९॥"
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२:५०॥"
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भगवान श्रीकृष्ण ने तो गागर में सागर भर दिया है। कहने को कोई बात छोड़ी ही नहीं है। अभी समस्या एक ही बची हुई है कि हम करें क्या? क्योंकि घूम-फिर कर वहीं आ जाते हैं जहां से चले थे। भगवान ने इसका उपाय भी गीता में बताया है लेकिन लेख का विस्तार न हो, इसलिए संक्षेप में मैं ही कुछ कहकर इस लेख को समाप्त करता हूँ।
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दिन-रात निरंतर भगवान का चिंतन करो। अपना पूरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) उन्हें बापस सौंप दो। यही वासनाओं पर वास्तविक विजय है, बाकी सब भटकाव है। चित्त जिस भावना में तन्मय होता है, उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। चित्त की वृत्तियाँ जब परमात्मा में लीन होने लगती हैं तब सारे संकल्प तिरोहित होने लगते हैं। यही चित्तवृत्ति निरोध है।
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परमात्मा के लिए अभीप्सा और परमप्रेम जागृत करें। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें बंधनों में डालती हैं। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से तुच्छ होता जाता है। और जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है। हमारे पतन का कारण इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना, छोटी-छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना, तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना है। अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होंगी, उतना ही वह भीतर से कमजोर होगा। भीतर की कमजोरी ही बाहर की कमजोरी है। चित्त से इच्छाओं की निवृत्ति ही हमें महान बनाती हैं। यही चित्त-वृत्तियों का निरोध है और यही योगमार्ग का आरंभ है। यह संभव है। गीता में भगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
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परमात्मा का निरंतर चिंतन करें। तत्पश्चात् सारा बोझ वे स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं। पुराण-पुरुष श्रीकृष्ण पद्मासन में स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। उनसे अन्य इस पूरी सृष्टि में कुछ है ही नहीं। उन्हीं का निरंतर ध्यान करें।
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
ॐ तत्सत् !! 🙏🌹🕉🕉🕉🌹🙏
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनू (राजस्थान)
१० मई २०२२

हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ?

 हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ?

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देश, धर्म, समाज, राष्ट्र, मानवता और पूरी सृष्टि की सेवा में विषम से विषम परिस्थितियों में हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? यह प्रश्न सदा मेरे चैतन्य में रहा है| इसके समाधान हेतु अध्ययन भी खूब किया, अनेक ऐसी संस्थाओं से भी जुडा रहा जो समाज-सेवा का कार्य करती हैं| अनेक धार्मिक संस्थाओं से भी जुड़ा पर कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली| कई तरह की साधनाएँ भी कीं, अनेक तथाकथित धार्मिक लोगों से भी मिला पर निराशा ही हाथ लगी| धर्म और राष्ट्र से स्वाभाविक रूप से खूब प्रेम रहा है| धर्म के ह्रास और राष्ट्र के पतन से भी बहुत व्यथा हुई है| सदा यही जानने का प्रयास किया कि जो हो गया सो तो हो गया उसे तों बदल नहीं सकते पर इसी क्षण से क्या किया जा सकता है जो जीवन मे सर्वश्रेष्ठ हो और सबके हित में हो|
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ध्यान-साधना में विस्तार की अनुभूतियों ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ| ईश्वर के दिव्य प्रेम, आनंद और उसकी झलक अनेक बार मिली| यह अनुभूति भी होती रहती है कि स्वयं के अस्तित्व की एक उच्चतर प्रकृति तो एक विराट ज्योतिर्मय चैतन्य को पाने के लिए अभीप्सित है पर एक निम्न प्रकृति बापस नीचे कि भौतिक, प्राणिक और मानसिक चेतना की ओर खींच रही है| आत्मा की अभीप्सा तो इतनी तीब्र है वह परमात्मा के बिना नहीं रह सकती पर निम्न प्रकृति उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ने देती|
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यह भी जीवन मे स्पष्ट हो गया कि उस परम तत्व को पाना ही सबसे बड़ी सेवा हो सकती है जो की जा सकती है| गहन ध्यान में मैं यह शरीर नहीं रहता बल्कि मेरी चेतना समस्त अस्तित्व से जुड़ जाती है| यह स्पष्ट अनुभूत होता रहता है कि हर श्वाश के साथ मैं उस चेतना से एकाकार हो रहा हूँ और हर निःश्वाश के साथ वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| उसी स्थिति मे बना रहना चाहता हूँ पर निम्न प्रकृति फिर नीचे खींच लाती है| ईश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर मे जो अनुभूतियाँ मुझे हुई उन्हें व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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सबसे पहिले तों यह स्पष्ट किया गया गया है कि जो भी साधना हम करते हैं वह स्वयं के लिए नहीं बल्कि भगवान के लिए है| उसका उद्देश्य सिर्फ उनकी इच्छा को कार्यान्वित करना है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| उसकी कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तों नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं| ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उसे समर्पित करने होंगे तभी वह स्वयं सारी जिम्मेदारी ले लेगा| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उसे समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उसके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उसे ही बनाना होगा, तभी वह सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करेगा| सारे कर्म तो स्वयं उनकी शक्ति ही करती है और उन्हें ही अर्पित करती हैं| किसी भी तरह का सात्विक अहंकार नहीं रखना है| इससे अधिक व्यक्त करने की मेरी क्षमता नहीं है|
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सार की बात जिससे अधिक व्यक्त करना मेरी क्षमता से परे है वह यह कि स्वयं को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बनाकर उसके हाथ मे सौंप देना है| फिर वो जो भी करेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१२