Thursday 30 December 2021

"आत्म-ज्ञान" ही "मोक्ष" है ---

 "आत्म-ज्ञान" ही "मोक्ष" है ---

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भारत की सनातन हिन्दू परंपरा में मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं --- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष| पुरुषार्थ से तात्पर्य मनुष्य जीवन के लक्ष्य या उद्देश्य से है| इन्हें पुरुषार्थचतुष्टय भी कहते हैं| इनमें भी मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है| मोक्ष क्या है? यह प्रश्न मैंने अनेक मनीषियों से पूछा है, पर किसी के भी उत्तर से मुझे कभी संतुष्टि नहीं मिली| यथार्थ में संतुष्टि तो तभी मिलती है जब उत्तर स्वयं आत्मा से आता है| मैं तो यही मान बैठा था कि मोह का क्षय ही मोक्ष है| लेकिन मैं गलत था| जब तक पृथकता का बोध यानि द्वैत है, तब तक मोह का क्षय संभव नहीं है|
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१२ दिसंबर २०२० को दोपहर में मैं ध्यानमग्न था कि अचानक ही एक विचार बिजली की तरह अंतर्चेतना में कौंध गया, जिसने अंतर्चेतना में प्रकाश ही प्रकाश भर दिया| मुझे किसी ने मेरे अंतर में कहा कि ---
"जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा एक हो जाते हैं, कहीं कोई भेद नहीं रहता, --- वह एक विज्ञानमय सिद्धावस्था है| यह सिद्धावस्था ही मोक्ष है|"
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उसी समय गीता के दूसरे अध्याय का ७२वाँ श्लोक याद आया ---
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् -- हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
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गीता में बताई हुई यह ब्राह्मी स्थिति ही मोक्ष है| यह ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होने वाली स्थिति है| सब कर्मों का सन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो कर मनुष्य फिर कभी मोहित नहीं होता, यानि मोह को प्राप्त नहीं होता| अंतकाल में ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीन हो जाता है| यही मोक्ष है|
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इस ब्राह्मी स्थिति को ही योगिराज श्रीश्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने क्रिया की परावस्था कहा है| क्रियायोग साधकों के लिए क्रिया की परावस्था में स्थायी स्थिति ही मोक्ष है| इस मोक्षरूपी परम पुरुषार्थ में अभीप्सा न होने पर कोई भी मनुष्य न तो भक्ति कर सकता है, और न ही अन्य साधनों में प्रवृति कर सकता है|
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शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा के बृहदारण्यक उपनिषद के स्वाध्याय से यह विषय बहुत अच्छी तरह से समझ में आ सकता है| वहाँ ऋषि याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान पर उपदेश ही उपदेश हैं जिनका स्वाध्याय जीवन में कम से कम एक बार तो करना ही चाहिए| याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं ---
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: |"
अर्थात् --- अरे यह आत्मा ही देखने (जानने) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है||
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अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया है --- "अयमात्मा ब्रह्म" --- यानि "यह आत्मा ब्रह्म है"| ध्यान साधना के लिए यह महावाक्य है| यह आत्मज्ञान ही "मोक्ष" है|
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"ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते|"
ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै तेजस्वि नावधीतमस्तु माविद्विषावहै||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
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हम सब इस परम पुरुषार्थ "मोक्ष" को प्राप्त हों| इसी शुभ कामना के साथ आप सब महात्माओं को सप्रेम सादर प्रणाम !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनूं (राजस्थान)
१३ दिसंबर २०२०