भगवान हैं, इसी समय स्थायी रूप से मेरे हृदय में हैं,
और मैं भी उन्हीं के हृदय में हूँ ---
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पता नहीं क्यों आज इसी समय मेरे दिमाग में अनेक उलझनें और बहुत सारे प्रश्न उठ रहे हैं। सारी उलझनें और सारे प्रश्न भगवान को बापस लौटा दिये हैं। न तो उनके उत्तर जानने की इच्छा है, और न उन्हें समझने की। मेरे सारे प्रश्नों का और सारी उलझनों व समस्याओं का एक ही उत्तर है -- "भगवान हैं"। यह शब्द मेरी सब आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान है। भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, वे मेरे हृदय में और मैं उनके हृदय में नित्य निरंतर बिराजमान हूँ। नारायण नारायण नारायण नारायण !!
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जब से उन से प्रेम हुआ है, सारे नियम टूट गए हैं। यह जीवन समस्याओं की एक लम्बी शृंखला है, भागकर जाएँ तो जाएँ कहाँ? लेकिन जब से सब समस्याएँ सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दी है, जीवन में सुख शांति है। अब तो सारे सिद्धान्त, मत-मतान्तर, परम्पराएँ, और सम्प्रदाय, -- जिनका संकेत परमात्मा की ओर है, वे मेरे ही हैं। मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है।
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भगवान का कितना सुंदर आश्वासन है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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मेरे जैसे अकिंचन से अकिंचन सामान्य व्यक्ति को जब भगवान अपने हृदय में बैठा सकते हैं, तब आप तो सब बहुत बड़े-बड़े अति प्रतिष्ठित और सम्माननीय लोग हो। आपको तो प्राथमिकता मिलेगी। भगवान कहते हैं --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि स॥९:३०॥"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
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उन्हें छोड़ कर कहाँ जाऊँ? उन्होने तो वाल्मिकी रामायण में आश्वासन दिया है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् - 'जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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वराह पुराण में भगवान् श्रीहरिः कहते हैं --
"वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्॥"
अर्थात् -- यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्रदान करवाता हूँ॥
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मेरे में इतनी सामर्थ्य भी नहीं है है कि इस शरीर के अंत समय में भगवान का स्मरण कर सकूँ। भगवान स्वयं ही मेरा स्मरण करेंगे। यह देह तो चिता पर भस्म हो जाएगी, पर वे मुझे निरंतर अपने हृदय में रखेंगे।
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
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गीता में कितना स्पष्ट आश्वासन है उनका ---
"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२:८॥"
अर्थात् - "तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है॥"
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हे प्रभु, आप ने इतनी सारी बड़ी बड़ी बातें मेरे जैसे अशिक्षित अनपढ़ अकिंचन के माध्यम से कह दीं। आप की जय हो॥ ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०२१