Wednesday, 16 February 2022

(१) चिंता करना जगन्माता का काम है, हमारा नहीं। (२) यश और प्रसिद्धि की कामना, एक अहंकार और लोभ है, जो बड़े बड़े साधकों को पथभ्रष्ट कर देता है। (३) भगवती महासरस्वती हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान करती हैं।

 (१) चिंता करना जगन्माता का काम है, हमारा नहीं।

(२) यश और प्रसिद्धि की कामना, एक अहंकार और लोभ है, जो बड़े बड़े साधकों को पथभ्रष्ट कर देता है।
(३) भगवती महासरस्वती हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान करती हैं।
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एक अबोध बालक अपनी क्या चिंता करेगा? उसकी चिंता तो उसकी माँ ही करती है। भगवती के चरण-कमलों में प्रणाम निवेदित है। वे ही हमारी चिंता कर रही हैं। समय समय पर उन्होने मेरी बड़ी सहायता की है।
एक बार बहुत गहरे ध्यान में गुरु महाराज ने यह बात स्पष्ट रूप से मेरे चित्त में बैठा दी थी कि तुम जब भी अपनी साधना में 'लोभ' करोगे या तुम्हें साधना का 'अहंकार' हो जाएगा, उसी क्षण तुम भटक जाओगे। उन की कृपा से पूरी बात समझ में आ गई। जैसे साँप-सीढ़ी के खेल में साँप के मुंह में आते ही पतन हो जाता है, वैसे ही लोभ और अहंकार पतन के गर्त में धकेल देते हैं।
लोभ और अहंकार से बचने का उपाय है -- स्वयं कर्ता मत बनो, भगवान को ही कर्ता बनाओ, और साधना का फल भी उन्हीं को तुरंत समर्पित कर दो। यश और प्रसिद्धि की कामना -- एक अहंकार और लोभ है, जो बड़े बड़े साधकों को पथभ्रष्ट कर देता है। जब भी ऐसी कोई चाह जगे, तब सावधान हो जाओ। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
भगवती सरस्वती हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान करती हैं। इसका ज्ञान हरिःकृपा से ही होता है। एक सामान्य व्यक्ति इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। जो इसे समझते हैं, वे बहुत भाग्यशाली हैं। हमारी सूक्ष्म देह में सुषुम्ना नाड़ी प्रत्यक्ष सरस्वती है। सुषुम्ना चैतन्य होती है तब कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होती है। मेरुदंड के सभी चक्रों को जागृत करती हुई जब कुंडलिनी आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है, तब ज्ञानक्षेत्र का आरंभ होता है। आज्ञाचक्र में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना -- इन तीनों प्राण-प्रवाहों का संगम होता है। सहस्त्रार में स्थितप्रज्ञ होकर पारब्रह्म परमशिव की उपासना करें, बाकी चिंताओं को छोड़ दें। जो चिंता करनी है, वह स्वयं भगवती करेंगी। चिंता करना भगवती का काम है, हमारा नहीं। चेतना को निरंतर आज्ञाचक्र से ऊपर रखें, और सहस्त्रार में तेलधारा की तरह जो मंत्र गूंज रहा है, उसे ही सुनते रहें। सुषुम्ना नाड़ी में क्रियायोग -- सरस्वती पूजन है। परमात्मा के ध्यान में समर्पित होकर, हम अनंत और उस से भी परे हैं। स्वयं परमात्मा ही हमारे अस्तित्व हैं। हम इस हाड़-मांस के पुतले शरीर के बंदी नहीं हैं। हम परमशिव के साथ एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है।
भगवान कहते हैं --
"अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥१०:८॥"
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्क।
थयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥१०:९॥"
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्द।
दामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥१०:१०॥"
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०:११॥"
अर्थात् --- मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं॥
मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं॥
उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं॥
उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ॥
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मेरी आस्था और विश्वास अब सिर्फ परमात्मा पर ही रह गए हैं, स्वयं की बुद्धि, विवेक और बल पर तो बिलकुल भी नहीं। परमात्मा की अवधारणा स्पष्ट है। किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है।
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ध्यान-साधना का विषय -- परमात्मा स्वयं ज्योतिर्मय आकाश-तत्व के रूप में, व उस से भी परे स्वयं हैं। प्राण-तत्व के रूप में वे परमात्मा स्वयं ही मातृरूप में हैं। सत्य-असत्य क्या है? यह जानने की मेरी क्षमता नहीं है, लेकिन अंतर्चेतना कहती है -- "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।" वे ही सत्य हैं, और वे ही मेरे जीवन हैं। उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
कृपा शंकर
१६ फरवरी २०२१