Sunday 28 November 2021

"साधना" का और "साधक" होने का भाव एक मिथ्या भ्रम ही है ---

 "साधना" का और "साधक" होने का भाव एक मिथ्या भ्रम ही है .....

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सारी साधना तो महाकाली (जगन्माता) ही कर के श्रीकृष्ण (परमात्मा) को अर्पित करती हैं| मेरा साधना करने का और साधक होने का सारा भाव एक मिथ्या (झूठा) भ्रम था, और अभी भी है| कूटस्थ चैतन्य में केवल भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण ही पद्मासन में समाधिष्ठ दृष्टिगत होते हैं, अन्य सब उन्हीं का विस्तार है| उन के सिवाय अन्य कोई है ही नहीं| वे ही आकाश-तत्व से परे ... परमशिव हैं| सारी साधना तो भगवती महाकाली स्वयं प्राण-तत्व कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में कर रही हैं| साधक होने का मुझे एक झूठा भ्रम है| मैं कोई साधक नहीं हूँ, एक अकिंचन निमित्त साक्षी मात्र हूँ|
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भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार .....
"योगी" कौन है, और "सन्यासी" कौन है ? अपना उद्धार और पतन कौन करेगा ? अपना मित्र और शत्रु कौन है ? .....
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भगवान कहते हैं .....
"अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ||६:१||"
श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है||
आचार्य शंकर के अनुसार अनाश्रित वह है जो कर्मफलों की तृष्णा से रहित है| वह संन्यासी भी है और योगी भी है| संन्यास नाम त्याग का है, और चित्त के समाधान का नाम योग है|
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भगवान कहते हैं .....
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||६:५||"
अर्थात् मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है ||
आचार्य शंकर के अनुसार जब मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है तब वह अनर्थों के समूह इस संसार समुद्र से स्वयं अपना उद्धार कर लेता है| इसलिये संसार सागर में डूबे पड़े हुए अपने आप को उस संसार समुद्र से आत्मबल के द्वारा ऊँचा उठा लेना चाहिये, अर्थात् योगारूढ़ अवस्थाको प्राप्त कर लेना चाहिये| अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये, अर्थात् अपने आत्मा को नीचे नहीं गिरने देना चाहिये| क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है| दूसरा कोई ( ऐसा ) बन्धु नहीं है जो संसार से मुक्त करने वाला हो| प्रेमादि भाव बन्धन के स्थान होनेके कारण सांसारिक बन्धु भी (वास्तव में ) मोक्षमार्ग का तो विरोधी ही होता है| इसलिये निश्चयपूर्वक यह कहना ठीक ही है कि आप ही अपना बन्धु है, तथा आप ही अपना शत्रु है| जो कोई दूसरा अनिष्ट करनेवाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना ही बनाया हुआ होता है, इसलिये आप ही अपना शत्रु है इस प्रकार केवल अपने को ही शत्रु बतलाना भी ठीक ही है|
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कार्य की पूर्ति और अपूर्ति में, फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में, निन्दा और स्तुति में, आदर और निरादर में, ----- राग-द्वेष, हर्ष-शोक व सुख-दुःख का न होना ----- ही ज्ञान है, और यही ज्ञानी के लक्षण है| यह समत्व ही गीता का सार है, जैसा मुझे अपनी अल्प और अति सीमित बुद्धि से समझ में आया है|
ॐ तत्सत् !! ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ नवंबर २०२०

भोजन एक यज्ञ है जिसमें हर आहुति भगवान को दी जाती है ---

भोजन एक यज्ञ है जिसमें हर आहुति भगवान को दी जाती है। भोजन करने या जल पीने से पूर्व -- कुछ क्षणों तक उसे निहारें, और मानसिक रूप से भगवान को अर्पित करें। उनका सेवन बड़े प्रेम से धीरे-धीरे इस भाव से करें कि हमारे माध्यम से स्वयं भगवान ही इसे ग्रहण कर रहे हैं, और पूरी सृष्टि का इस से पालन-पोषण हो रहा है। गीता में भगवान कहते हैं --

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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गीता में भगवान ने भोजन को एक ब्रह्मकर्म बताया है --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- "अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥"
२७ नवंबर २०२१

भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है ---

 भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है ---

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इस सारी सृष्टि में, और सृष्टि से परे, जो कुछ भी है, वे भगवान स्वयं हैं। उनके संकल्प से ही 'ऊर्जा' और 'प्राण' की उत्पत्ति हुई। सारा भौतिक जगत -- अनंत ऊर्जा-खंडों (Energy blocks) के पृथक-पृथक विभिन्न आवृतियों (Frequencies) पर स्पंदन (Vibrations) से निर्मित है। सारा आकाश -- ऊर्जा और प्राण का ही अनंत विस्तार है।
प्राण-तत्व ने सारे प्राणियों में जीवन को व्यक्त किया है। इस प्राण और ऊर्जा के पीछे ज्ञात और अज्ञात जो कुछ भी है, वे स्वयं भगवान हैं। यह सृष्टि निरंतर गतिशील एक तीव्र अनंत प्रवाह है। कहीं कुछ भी स्थिर नहीं है, निरंतर परिवर्तन हो रहा है।
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भारत के मनीषियों ने प्रकृति के सारे रहस्यों को अनावृत किया है, और उन्हें जानने का मार्ग भी दिखाया है। भक्ति और समर्पण के द्वारा हम स्वयं को भगवान के साथ जोड़ कर उन्हें उपलब्ध हो सकते हैं। श्रुतियों (वेद-उपनिषदों) व श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रन्थों में सारा मार्गदर्शन है। आवश्यकता है सत्य को जानने की एक तीव्र अभीप्सा और परमप्रेम की। भगवान ही एकमात्र सत्य हैं।
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यह भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है। यही हमारा स्वधर्म है। इस स्वधर्म के लिए हमारे हृदय में एक प्रचंड अग्नि जलती रहेगी तो उसकी वेदना को शांत करने के लिए भगवान को प्रत्यक्षतः आना ही पड़ेगा। उनका निरंतर अनुस्मरण करते हुये अपना सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान को समर्पित करना ही स्वधर्मरूप युद्ध है। इसी में सार है। भगवान ने गीता में आदेश दिया है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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इस स्वधर्म में ही हमारे इस भौतिक शरीर का निधन होना चाहिए। गीता में यह भगवान का कथन है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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इस धर्म का थोड़ा सा आचरण भी महान भय से हमारी रक्षा करता है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२१

खूब कमाओ, खाओ, और एकत्र करो, व एक दिन संसार से विदा हो जाओ ---

 खूब कमाओ, खाओ, और एकत्र करो, व एक दिन संसार से विदा हो जाओ ---

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यह मेरी सोच नहीं है, लेकिन इस काल की आधुनिक सोच के अनुसार तो रुपया-पैसा बनाना ही परमधर्म है। उचित/अनुचित किसी भी तरीके से जो जितना रुपया-पैसा बनाता है, वह इस संसार में उतना ही सफल माना जाता है। खूब रुपया बनाओ, और बनाते बनाते उसे एकत्र कर के मर जाओ। संसार ऐसे व्यक्ति को ही यश देता है। भगवान की बात करना पिछड़ापन और पुराने जमाने के फालतू लोगों का काम है। भगवान एक उपयोगिता का माध्यम यानि साधन मात्र है जो हमें और भी अधिक खूब धन देता है। भगवान धन नहीं दे तो उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। खूब कमाओ, खाओ और मर जाओ -- यह ही आधुनिक सोच है। मेरे जैसे गलत आदमी को इस संसार में नहीं होना चाहिए था। मैं स्वयं में ही प्रसन्न हूँ।
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पुनश्च :-- मैंने स्कूल जाने वाले अनेक बालकों से पूछा कि आपकी पढ़ाई-लिखाई का क्या उद्देश्य है? सबका एक ही उत्तर था -- 'बड़े होकर खूब पैसा कमाना"। लगता है धर्मशिक्षाविहीन अंग्रेजी पढ़ाई में हम पूरी तरह रंग गए हैं। समय ही खराब है। लेकिन इतनी तो भारत की आत्मा में मेरी आस्था है कि एक न एक न एक दिन वह अवश्य जागृत होगी, और भारत विजयी होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२८ नवंबर २०२१

हमारे दुःख, कष्ट, अभाव और बेचैनी -- भगवान की बड़ी कृपा और आशीर्वाद हैं ---

 हमारे दुःख, कष्ट, अभाव और बेचैनी -- भगवान की बड़ी कृपा और आशीर्वाद हैं ---

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हमारे दुख, कष्ट, और बेचैनी हमें सदा भगवान की याद दिलाते हैं। अगर जीवन में दुःख, कष्ट, पीड़ायें, अभाव और बेचैनी नहीं आयेंगी, तो भगवान को कौन याद करेगा? महात्मा लोग कहते हैं कि किसी भी तरह की कोई कामना नहीं होनी चाहिए। लेकिन मेरा तो यह कहना है कि 'कामना' भी भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है। किसी भी वस्तु की कामना इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है। यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है, और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। लेकिन वह बेचैनी दूर नहीं होती, व 'अभाव' निरंतर हर समय बना ही रहता है। उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं।
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संसार की कोई भी उपलब्धि हमें संतुष्टि नहीं दे सकती, क्योंकि "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परमप्रेम" से ही होती है। हमारा पीड़ित और बेचैन होना हमारी परमात्मा की ओर यात्रा का आरंभ है। हमारे दुःख ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं। अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे।
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अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों। भगवान से खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो। हम को सब कुछ मिल जायेगा, लेकिन पहले स्वयं को प्रेममय बनना पड़ेगा। अपने दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि-लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो। उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है। वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं। जो नारकीय जीवन हम जी रहे हैं, उस की बजाय तो भगवान को समर्पित हो जाना अधिक अच्छा है। भगवान के पास सब कुछ है, पर एक ही चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है हमारा प्रेम। हम रूपया-पैसा, पत्र, पुष्प, फल और जल आदि जो कुछ भी चढाते हैं, क्या वह सचमुच हमारा है? वह तो भगवान का ही दिया हुआ सामान है। इसमें हमारा क्या है? हमारे पास अपना कहने को एक ही सामान है, और वह है हमारे हृदय का परमप्रेम। उसको देने में भी कंजूसी क्यों? अन्य कुछ हमारा है ही नहीं।
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आप सब महान आत्माओं को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ नमःशिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२१

इस आयु में मेरा स्वधर्म :---

 इस आयु में मेरा स्वधर्म :---

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अब मेरे इस शरीर, मन, बुद्धि , और स्मृति की क्षमता, व उत्साह में निरंतर कमी होती जा रही है| पहले वाली बात नहीं रही है| पहले से आधी से भी बहुत कम क्षमता रह गई है| अब बहुत शीघ्र थक जाता हूँ, लगता है कि समय से बहुत पहिले ही अशक्त हो रहा हूँ|
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अतः इस अवस्था में मेरा यह स्वधर्म बनता है कि अन्य सब ओर से ध्यान हटा कर अधिक से अधिक समय 'स्वाध्याय' और 'ईश्वर की उपासना' में ही व्यतीत करूँ| बचा-खुचा जो भी जीवन है, वह परमात्मा को समर्पित है|
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||"
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मुझे मेरी पात्रता से भी बहुत अधिक स्नेह, प्रेम और सम्मान, आप सब से मिला है, जिस के लिए मैं आप सब का आभारी हूँ| परमात्मा में मैं सभी के साथ एक हूँ| एक क्षण के लिए भी किसी से दूर नहीं हूँ| परमात्मा से प्रेम ही मेरी एकमात्र संपत्ति है, अन्य कुछ भी मेरे पास नहीं है| आप सब को नमन ...
"नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते |
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ||"
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||"
"प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ‌||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ‌| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ||"
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिये हुए उपदेश --- सरलतम, सार्वभौम, और शाश्वत हैं| उन के द्वारा बताई विधि से की गई उपासना, सभी का परम कल्याण कर सकती है| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०२०

Friday 26 November 2021

भोजन एक यज्ञ है ---

भोजन एक यज्ञ है जिसमें हर आहुति भगवान को दी जाती है। भोजन करने या जल पीने से पूर्व -- कुछ क्षणों तक उसे निहारें, और मानसिक रूप से भगवान को अर्पित करें। उनका सेवन बड़े प्रेम से धीरे-धीरे इस भाव से करें कि हमारे माध्यम से स्वयं भगवान ही इसे ग्रहण कर रहे हैं, और पूरी सृष्टि का इस से पालन-पोषण हो रहा है। गीता में भगवान कहते हैं --

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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गीता में भगवान ने भोजन को एक ब्रह्मकर्म बताया है --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- "अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥"
२७ नवंबर २०२१

किसी वन में घूमते हुए अचानक ही जब सिंह सामने आ जाये तो क्या करेंगे ? ---

 यह बात मैंने पहले भी अनेक बार लिखी है कि यदि हम किसी वन में घूमने जाएँ और सामने से अचानक कोई सिंह आ जाये तो हम क्या करेंगे? हम कुछ भी नहीं कर सकेंगे, क्योंकि जो कुछ भी करना है वह तो सिंह ही करेगा। उस से बचकर हम कहीं भाग नहीं सकते।

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ऐसे ही यह संसार है। भगवान जब स्वयं हमारे समक्ष आ गए हैं, तब कहीं अन्य जाने को कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि वे तो सर्वत्र हैं। समर्पण के अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं? जो कुछ भी करना है, वह तो भगवान स्वयं ही करेंगे। उनके समक्ष हमारी कुछ भी नहीं चल सकती। उनका दिया हुआ सामान जिसे हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार कहते हैं, -- पूरा का पूरा उन्हें बापस समर्पित कर दो। हमारा भला इसी में है। बस इतना ही पर्याप्त है। फिर वे हमारा कल्याण ही कल्याण करेंगे। उन के दिये हुये सामान का आज तक कोई भाड़ा हमने नहीं चुकाया है। उनका मूलधन ही बापस कर दो। इसी से वे संतुष्ट हो जाएँगे।
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उन की प्रेममय सर्वव्यापकता और अनंत विस्तार से भी परे एक परम ज्योतिर्मय लोक है, जहाँ वे स्वयं बिराजमान हैं। जहाँ वे हैं, वहीं "मैं" हूँ -- इसी भाव से उन्हीं का ध्यान होना चाहिए। कोई भी साधना हो, वह अपनी गुरु-परंपरा में ही करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी तरह की भूल-चूक हो जाने पर गुरु-परंपरा ही उस भूल का शोधन कर साधक की रक्षा करती है। एक बात बार-बार लिखूँगा कि भगवान से प्रेम करो, खूब प्रेम करो, और अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर के उन का खूब ध्यान करो। दिन का आरंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करो।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन ! सब का मंगल ही मंगल, शुभ ही शुभ, और कल्याण ही कल्याण हो ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२१

गुरु-कृपा .....

 गुरु-कृपा .....

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एक ज्योति ऐसी है जो कभी भी बुझाई नहीं जा सकती| वह ज्योति हम स्वयं हैं| हमारा मौन और एकाग्रता ही परमात्मा का सिंहासन है| लक्ष्य स्पष्ट हो, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्साह हो, संतुलित वाणी हो, आजीविका का पवित्र साधन हो, स्वस्थ देह और मन हो, परमात्मा से प्रेम हो, फिर और क्या चाहिए?
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चेतना में जब गुरु रूप ब्रह्म निरंतर कर्ता और भोक्ता के रूप में बिराजमान हों, उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल गया हो, अनाहत नाद की ध्वनी अंतर में निरंतर सुन रही हो, ज्योतिर्मय ब्रह्म निरंतर कूटस्थ में हों, परमात्मा की सर्वव्यापकता का निरंतर आभास हो, सम्पूर्ण चेतना परम प्रेममय हो गयी हो, तब और कौन सी उपासना या साधना बाकी बची है?
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हे गुरु रूप ब्रह्म आपकी जय हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२०

Thursday 25 November 2021

श्रद्धा और विश्वास ---

 

श्रद्धा और विश्वास ---
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हमारे कूटस्थ में स्वयं परमात्मा और सभी देवताओं का निवास है। समस्त ज्ञान और सारी सिद्धियाँ भी यहीं हैं। आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने की है। समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, और पूर्णता कहीं बाहर नहीं हैं। ये सब हमारी चेतना में ही हैं। चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एक हो जायेंगी।
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ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है। पुस्तकों से कोई ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। पुस्तकों से तो सूचना मात्र ही मिलती है। परमात्मा से जुड़ने के पश्चात सारा आवश्यक ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के लिए थोड़ी सी भी तड़प व प्यास ह्रदय में है तो उसे निरंतर बढाते रहें। पूर्ण तृप्ति व आनंद सिर्फ परमात्मा में ही है।
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वेदान्त के दृष्टिकोण से ध्यान-भाव को भी तज कर केवल ध्येय-स्वरूप में सर्वदा स्थित रहना चाहिए। यह एक बहुत गहरे रहस्य की बात है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकती है।
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जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता। हम जो भी कर्मकांड करते हैं, जो भी साधना या उपासना करते हैं, उनकी सफलता हमारी श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कभी सफलता नहीं मिलती। भगवान की भक्ति भी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से करें, तभी सफलता मिलेगी।
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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सदा अपनी चेतना को आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें। वहीं अपने इष्ट-देव/देवी के बीजमंत्र का मानसिक जप करते हुए ध्यान करें। जब वह बीजमंत्र स्वतः ही सुनाई देने लगे तब उसे खूब सुनें। कमर सदा सीधी रखें। साधनाकाल में सत्यनिष्ठा से सात्विक आचरण और मर्यादित जीवन का ध्यान रखें, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि होगी। श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करें, सारे संदेह दूर होंगे। सब पर भगवान की कृपा अवश्य होगी।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२५ नवंबर २०२१

जीवन और मृत्यु दोनों में भगवान हमारे साथ हैं ---

 

जीवन और मृत्यु दोनों में भगवान हमारे साथ हैं ---
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कल मध्यरात्रि में दो बजे के आसपास तबीयत अचानक ही बहुत अधिक खराब हो गई। चार-पाँच बार बहुत पतले दस्त लगे, और ऐसा लगा कि उल्टी भी होगी, जिसके साथ इस शरीर का अंत समय भी आ सकता है। शरीर बहुत अधिक कमजोर हो गया, लेकिन किसी भी तरह की कोई घबराहट नहीं थी। ऐसे समय में मुझे लगा कि भगवान मेरे साथ ही हैं। मैंने किसी भी तरह की कोई प्रार्थना नहीं की। भगवान से यही कहा कि जीवन और मृत्यु दोनों में तुम मेरे साथ हो। जहाँ तुम हो वहीं मैं हूँ, और सदा तुम्हारे साथ ही रहूँगा। यही शरीर रहे या न रहे, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपरिछिन्न भाव से मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ।
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दवाओं के डिब्बे में ढूँढने से एक दवा भी मिल गई, जिसे लेते ही नींद आ गई और आँखें दिन में देरी से खुलीं। लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई कि भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे हमारे से पृथक नहीं हो सकते।
ॐ तत्सत् !!
२५ नवंबर २०२१

श्रद्धा और विश्वास ---

 

श्रद्धा और विश्वास ---
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हमारे कूटस्थ में स्वयं परमात्मा और सभी देवताओं का निवास है। समस्त ज्ञान और सारी सिद्धियाँ भी यहीं हैं। आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने की है। समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, और पूर्णता कहीं बाहर नहीं हैं। ये सब हमारी चेतना में ही हैं। चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एक हो जायेंगी।
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ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है। पुस्तकों से कोई ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। पुस्तकों से तो सूचना मात्र ही मिलती है। परमात्मा से जुड़ने के पश्चात सारा आवश्यक ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के लिए थोड़ी सी भी तड़प व प्यास ह्रदय में है तो उसे निरंतर बढाते रहें। पूर्ण तृप्ति व आनंद सिर्फ परमात्मा में ही है।
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वेदान्त के दृष्टिकोण से ध्यान-भाव को भी तज कर केवल ध्येय-स्वरूप में सर्वदा स्थित रहना चाहिए। यह एक बहुत गहरे रहस्य की बात है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकती है।
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जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता। हम जो भी कर्मकांड करते हैं, जो भी साधना या उपासना करते हैं, उनकी सफलता हमारी श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कभी सफलता नहीं मिलती। भगवान की भक्ति भी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से करें, तभी सफलता मिलेगी।
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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सदा अपनी चेतना को आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें। वहीं अपने इष्ट-देव/देवी के बीजमंत्र का मानसिक जप करते हुए ध्यान करें। जब वह बीजमंत्र स्वतः ही सुनाई देने लगे तब उसे खूब सुनें। कमर सदा सीधी रखें। साधनाकाल में सत्यनिष्ठा से सात्विक आचरण और मर्यादित जीवन का ध्यान रखें, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि होगी। श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करें, सारे संदेह दूर होंगे। सब पर भगवान की कृपा अवश्य होगी।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२५ नवंबर २०२१

भगवान हमारे अंतर में व्यक्त होते हैं, कहीं बाहर नहीं ---

 

भगवान -- परमप्रेम और दिव्य आनंद की एक अनुभूति हैं, कोई आकाश से उतर कर आने वाले व्यक्ति नहीं। एक बार उन की अनुभूति हो जाये तो पूरी सत्यनिष्ठा से उन की चेतना में स्वयं का लय कर दो। भगवान हमारे अंतर में व्यक्त होते हैं, कहीं बाहर नहीं।
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यह भगवान की ज़िम्मेदारी है कि वे हमें अपना बोध करायें, और हमें तृप्त कर दें। जैसे एक पिता अपने पुत्र के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते, और हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं। उनसे प्रेम हो जाये तो वे और नहीं छिप सकते, उन्हें हमारे अंतर में प्रकट होना ही पड़ता है।
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हे प्रभु, यह अब आपकी ज़िम्मेदारी है कि मुझे अपने दृष्टिपथ में रखो। जैसे एक पुत्र का अपने पिता के प्रेम पर पूरा अधिकार होता है, वैसे ही आपके पूर्णप्रेम पर मेरा पूर्ण जन्मसिद्ध अधिकार है। मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे इस तरह इस संसार-सागर में भटकाओ। जब आपने भटका ही दिया है तो इस भटकाव से मुक्त करने का दायित्व अब आपका ही बनता है। बिना किसी विलंब के मुझे तुरंत इसी समय अपने साथ एक करो। 
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२४ नवंबर २०२१

हिन्दुत्व पर हो रहे प्रहार और भारत की पीड़ा ---

 

हिन्दुत्व पर हो रहे प्रहार और भारत की पीड़ा --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)
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(१) हिन्दुत्व क्या है? --- जीवन में पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परमप्रेम, करुणा और परमात्मा को समर्पण -- हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व ही भारत की अस्मिता, संस्कृति और पहिचान है। श्रीअरविंद के अनुसार सनातन हिन्दू धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन हिन्दू धर्म है। अनगिनत युगों में मिले संस्कारों से यहाँ की संस्कृति का जन्म हुआ है। इस संस्कृति का आधार ही सनातन धर्म है। यदि यह संस्कृति और धर्म नष्ट हो गए तो यह राष्ट्र भारत भी नष्ट हो जाएगा। भारत नष्ट हुआ तो यह सृष्टि भी नष्ट हो जाएगी।
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परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। भारत एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह सम्पूर्ण सृष्टि का मार्गदर्शन कर रहा है। भारत नहीं रहा तो मनुष्य जाति ही आपस में लड़कर नष्ट हो जाएगी। जीवन के सारे सद्गुण और जो भी सर्वश्रेष्ठ है, वह भारत की ही देन है।
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(२) भारत की पीड़ा --- धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं। एक षड़यंत्र के अंतर्गत भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है। हमारे में हीन भावना भरने के लिए झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पशुधन को कत्लखानों में कत्ल कर के विदेशों में भेजा जा रहा है। बाजार में मिलने वाला दूध असली नहीं है। विदेशों से आयातित दूध के पाउडर को घोलकर थैलियों में बंद कर असली दूध के नाम से बेचा जा रहा है। संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच गाने परोसे जा रहे हैं। हमारी कोई नाचने गाने वालों की संस्कृति नहीं है। हमारी संस्कृति -- ऋषि-मुनियों, महाप्रतापी धर्मरक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत साहित्य की है। जो कुछ भी भारतीय है, उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है। विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं। देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है।
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परोपकार, सब के सुखी व निरोगी होने और कल्याण की कामना हिन्दू संस्कृति में ही है, अन्यत्र नहीं। अन्य मतावलम्बी सिर्फ अपने मत के अनुयाइयों के कल्याण की ही कामना करते हैं, उससे परे नहीं। औरों के लिए तो उनके मतानुसार अनंत काल तक नर्क की ज्वाला ही है। उनका ईश्वर भी मात्र उनके मतावलंबियों पर ही दयालू है। उनके ईश्वर की परिकल्पना भी एक ऐसे व्यक्ति की है जो अति भयंकर और डरावना है, जो उनके मतावलम्बियों को तो सुख ही सुख देगा और दूसरों को अनंत काल तक नर्क की अग्नि में तड़फा तड़फा कर आनंदित होगा। पर-पीड़ा से आनंदित होने वाले ईश्वर से भय करना व अन्य मतावलंबियों को भयभीत और आतंकित करना ही उनकी संस्कृति है।
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समुत्कर्ष, अभ्युदय और नि:श्रेयस की भावना -- सनातन हिदू धर्म का आधार हैं। अन्य संस्कृतियाँ इंद्रीय-सुख और दूसरों के शोषण की कामना पर ही आधारित हैं। मैंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएँ की हैं, और वहाँ के जीवन को प्रत्यक्ष देखा है। मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वह अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
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धर्मनिरपेक्षतावादियों, सर्वधर्मसमभाववादियों और अल्पसन्ख्यकवादियों से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि आपकी धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्मसमभाववाद और अल्पसंख्यकवाद तभी तक है जब तक भारत में हिन्दू बहुमत है। हिन्दुओं के अल्पमत में आते ही भारत भारत नहीं रहेगा, और हम सब का वही हाल होगा जो पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं का हुआ है। यह अनुसंधान का विषय है कि वहाँ के देवालय, मन्दिर और वहाँ के हिन्दू कहाँ गए? क्या उनको धरती निगल गई, या आसमान खा गया? आपके सारे के सारे उपदेश और सीख क्या हिन्दुओं के लिए ही है? यह भी अनुसंधान का विषय है कि भारत के भी हजारों देवालय और मंदिर कहाँ गए? यहाँ की तो संस्कृति ही देवालयों और मंदिरों की संस्कृति थी।
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हम विनाश के कगार पर खड़े हैं। सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है। सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो सकती है। भारत का भविष्य ही विश्व का भविष्य है। भारत की संस्कृति और हिन्दूत्व का नाश ही विश्व के विनाश का कारण होगा। क्या पता उस विनाश का साक्षी होना ही हमारी नियति हो ---
"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |
नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन |
दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान | (कामायनी)
हो सकता है कि उस व्यक्ति की पीड़ा ही हमारी पीड़ा हो, और उसकी नियति ही हमारी भी नियति हो।
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मेरे ह्रदय की यह पीड़ा समस्त भारत की पीड़ा है, जिसे मैंने व्यक्त किया है। मुझे पता है की मुझे क्या करना है, और वह करने का प्रयास भी कर रहा हूँ। मुझे किसी को और कुछ भी नहीं कहना है। यह मेरे ह्रदय की भावनाओं की एक अभिव्यक्ति मात्र है। किसी से मुझे कुछ भी नहीं लेना देना है। सिर्फ एक प्रार्थना मात्र है आप सब से कि अपने देश भारत के धर्म और संस्कृति की रक्षा करें।
वन्दे मातरम्। भारत माता कीजय।
वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।। (वंदे मातरम्)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२१

हमारा स्वधर्म/परमधर्म क्या है? हमारे जीवन की सार्थकता क्या है? ---

 

हमारा स्वधर्म/परमधर्म क्या है? हमारे जीवन की सार्थकता क्या है? ---
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सार रूप में कहें तो "आत्म-साक्षात्कार" (Self-Realization) ही हमारा स्वधर्म है, और यही हमारा परमधर्म है। निज-जीवन में ईश्वर की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति ही आत्म-साक्षात्कार है। सृष्टि के जो भी सर्वश्रेष्ठ गुण हैं, वे हमारे में हों। हम परमात्मा के प्रकाश को स्वयं में व्यक्त करें, और उसे सर्वत्र फैलाएँ। जो हमारे पास है, वही हम दूसरों को दे सकते हैं। हम स्वयं प्रकाशमय होंगे तभी दूसरों को वह प्रकाश दे सकेंगे। प्रकाश तो स्वयं फैलेगा, लेकिन हमें तो स्वयं को प्रकाशमय होना ही होगा। निमित्त मात्र होकर, भगवान को ही कर्ता बनाकर, सर्वात्मभाव से हम एकत्व की साधना करें। साध्य और साधक तो स्वयं भगवान ही हैं। सारा मार्गदर्शन उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रंथो में है।
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भगवान हमें गुणातीत होने की शिक्षा देते हैं, जिसके लिए वे हमें निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, व आत्मवान् होने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् - हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो॥
अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं कि जो विवेक-बुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी हो, निष्कामी हो, तथा निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी {युग्म} पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो। नित्य-सत्त्वस्थ हो, अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो -- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योग-क्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तूँ योगक्षेम को न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो, अर्थात् आत्म-विषयों में प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् - "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझ से युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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यह जीवन हमें निज जीवन में भगवान को प्राप्त करने और उनके प्रकाश को सर्वत्र फैलाने के लिए ही मिला है, उसको सार्थक करे। आप सभी महान आत्माओं को नमन॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ नवंबर २०२१

Sunday 21 November 2021

सर्वधर्मान्परित्यज्य ---

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य ---
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श्रीमद्भवद्गीता के १८वें अध्याय के ६६वें श्लोक को श्रीरामानुजाचार्य ने सम्पूर्ण गीता का चरम श्लोक बताया है। यह श्लोक सम्पूर्ण वेदान्त और योगदर्शन का सार है। इसे समझ वही सकता है जिस पर हरिःकृपा हो। इसे समझना बुद्धि की सीमा से परे है। शब्दों के अर्थ तो कोई भी समझ सकता है, लेकिन इसके पीछे छिपे भगवान के भाव को नहीं। इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों, व स्वनामधन्य महानतम भाष्यकारों, समीक्षकों, और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता का प्रयोग किया है। यह श्लोक सम्पूर्ण गीता का सार है।
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किशोरावस्था से अब तक इस श्लोक को पचासों बार मैंने पढ़ा होगा, पर सही अर्थ से कोसों दूर ही था। कई बार इस रटे-रटाये श्लोक को अहंकारवश सुनाकर लोगों से वाहवाही प्राप्त कर अपने मिथ्या अहंकार को ही तृप्त किया है। यह एक भटकाव था। पूर्व जन्म के गुरुओं ने सूक्ष्म जगत से मुझे चेता भी दिया था कि अहंकार और लोभ से मुक्त हुये बिना तुम सत्य का बोध तो कभी भी नहीं कर सकोगे। लेकिन जीवनक्रम चल रहा था। एक दिन ध्यान मैं मैंने अनुभव किया कि परमात्मा की इस अनंतता में मैं खो गया हूँ। स्वयं को मैंने कहीं भी नहीं पाया। थक-हार कर पूर्ण भक्ति से उस खोये हुए स्वयम् को भी भगवान को ही अर्पित कर दिया। अचानक ही सामने देखा कि शांभवी मुद्रा में अपने भव्यतम रूप में भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण पद्मासन में ध्यानस्थ हैं। उनके सिवाय सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी अन्य नहीं है। मेरा तो कुछ होने का प्रश्न ही नहीं था। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वे ही एकमात्र उपास्य, उपासक और उपासना हैं। धीरे धीरे शरीर में चेतना लौट आई।
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एक दिन उपरोक्त श्लोक का अवलोकन हुआ तो उपरोक्त श्लोक पूरी तरह समझ में आ गया। स्वयं के सारे कर्मफलों और स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व को परमात्मा में विसर्जित कर दिया है। कुछ भी नहीं है मेरे पास, और मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरा कुछ होना ही गड़बड़ और सारे अनर्थों का मूल है। जो कुछ भी हैं वे भगवान स्वयं हैं। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११:३९
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२२ नवंबर २०२१

जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं (कुछ भी कम या अधिक नहीं) ---

 

जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं (कुछ भी कम या अधिक नहीं) ---
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सर्वाधिक महत्व इस बात का है कि हम स्वयं अपनी दृष्टि में क्या हैं। जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं, कुछ भी कम या अधिक नहीं। भगवान की दृष्टि में भी हम वही हैं जो स्वयं की दृष्टि में हैं। अतः निरंतर अपने शिव-स्वरूप में रहने की उपासना करो। यही हमारा स्वधर्म है। जो हमारे पास नहीं है वह हम दूसरों को नहीं दे सकते। हम विश्व में शांति नहीं ला सकते जब तक हम स्वयं अशांत हैं। हम विश्व को प्रेम नहीं दे सकते जब तक हम स्वयं प्रेममय नहीं हैं।
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इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में पाँच आदेश/उपदेश एक साथ दिये हैं। वे हमें -- "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं। ये सभी एक -दूसरे के पूरक हैं। कैसे बनें ? इस पर विचार स्वयं करें। बनना तो पड़ेगा ही, इस जन्म में नहीं तो अनेक जन्मों के पश्चात।
आप सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ व नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२१

"धर्म" कभी नष्ट नहीं होता ---

"धर्म" कभी नष्ट नहीं होता। उसे समझने की मानवी शक्ति ही घटती-बढ़ती रहती है। सारी सृष्टि ही अपने धर्म का पालन कर रही है।
असीम काम वासनाओं की पूर्ति के प्रलोभन, लोभ और भय के वशीभूत होकर चलने वाले पंथ --- असत्य और अंधकार की शक्तियाँ व अधर्म हैं।
सब सत्य-धर्मनिष्ठों की रक्षा हो। धर्म एक सत्य-सनातन-धर्म ही है, जिस की रचना सृष्टि के साथ हुई है। अन्य सब पंथ, रिलीजन, या मज़हब हैं।
परमात्मा की प्रकृति अपने धर्म का पालन बड़ी तत्परता और कठोरता से करती है। प्रकृति के नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है।
कई बड़े गूढ रहस्य की बातें हैं जिन्हें अच्छी तरह समझते हुए, और चाहते हुए भी मैं व्यक्त नहीं कर पाता। व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ तो कोई न कोई विक्षेप आ ही जाता है। संभवतः प्रकृति का यही नियम होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२३ नवंबर २०२१

 

जब से भगवान से प्रेम हुआ है ---

 

जब से भगवान से प्रेम हुआ है, तब से मुक्ति और मोक्ष - दोनों ही महत्वहीन हो गए हैं। सारे बंधन भगवान ने तोड़ दिये हैं। आत्मा नित्यमुक्त है।
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यहाँ तो राधा और गोविंद दोनों ही प्रकृति और पुरुष के रूप में नृत्य कर रहे हैं, जिससे यह सृष्टि गतिशील है। जिसने इस समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है, वे श्रीराधा जी हैं। वे भगवान से प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं। वे स्वयं ही परमप्रेम हैं। यहाँ तो पुरुष और प्रकृति दोनों ही साथ साथ नृत्य कर रहे हैं। उनके नृत्य का मैं साक्षी मात्र हूँ।
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
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२१ नवंबर २०२१

अपवर्ग किसे कहते हैं? ---

 

अपवर्ग किसे कहते हैं? ---
"तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥"
अर्थात् - हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥
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शब्द 'अपवर्ग' का शाब्दिक अर्थ है -- मोक्ष या मुक्ति। निवृत्ति ही अपवर्ग है, यानि दुःख की उत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यंतिक दु:खनिवृत्ति है।
अपवर्ग होते हैं -- प, फ, ब, भ, म.
प - पतन, फ- फल आशा, ब- बंधन, भ - भय, म - मृत्यु.
जहाँ पतन, फल आशा, बंधन, भय, मृत्यु नहीं है, वही अपवर्ग सुख है, जो शिवकृपा का फल है। 
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२० नवंबर २०२१

Saturday 20 November 2021

हम क्या बनें ? ...

 हम क्या बनें ? ...

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यह प्रश्न पूरी सत्यनिष्ठा व श्रद्धा और विश्वास से स्वयं से पूछें, हमारा हृदय अपने आप ही उत्तर दे देगा| हम स्वयं वह बनें जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं| हम दूसरों को वही दे सकते हैं, जो हमारे पास है| जो हमारे पास नहीं है, वह हम दूसरों को नहीं दे सकते| हमारी चेतना में 'राम' हों, तभी हम दूसरों को राम नाम जपने को कह सकते हैं| हम समष्टि को तब तक प्रेम नहीं दे सकते जब तक हम स्वयं प्रेममय नहीं हो जाते| जब तक हम स्वयं अशांत हैं, समाज में शांति नहीं ला सकते| सबसे बड़ी भेंट अपनी स्वयं की ही दे सकते हैं| सत्य-सनातन-धर्म की चेतना हम समाज में तभी जागृत कर सकते हैं, जब वह स्वयं अपने में हो| हम स्वयं क्या हैं, यही सबसे बड़ी भेंट है जो हम किसी को दे सकते हैं| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी धर्म भी हमारी रक्षा करेगा| तब धर्म ही नहीं, स्वयं भगवान भी हमारी रक्षा करेंगे| "जो दृढ़ राखे धर्म को, तिही राखे करतार|"
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हम क्या बनें? इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में पाँच आदेश/उपदेश एक साथ दिये हैं| वे हमें ... "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं| ये सभी एक -दूसरे के पूरक हैं|
कैसे बनें ? इस पर विचार स्वयं करें| बनना तो पडेगा ही क्योंकि यह भगवान का आदेश है ...
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्" ||२.४५||
अर्थात् हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो||
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं कि जो विवेक-बुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं| परंतु हे अर्जुन, तू असंसारी हो निष्कामी हो; तथा निर्द्वन्द्व हो| सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित व निर्योगक्षेम हो| अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है, और प्राप्त वस्तुके रक्षण का नाम क्षेम है, योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला, तथा आत्मवान् हो, अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुएके लिये यह उपदेश है|
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इसको समझना और व्यवहार रूप में उपलब्ध करना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य है | इसको समझने के लिए अर्जुन जैसे शिष्य बनें, जिन के गुरु स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं, या देवर्षि नारद जैसे शिष्य बनें जिनके गुरु स्वयं भगवान सनत्कुमार हैं| तभी हम समस्त समष्टि का कल्याण कर सकते हैं| हमारे में पात्रता हो, बस यही आवश्यक है, फिर सब काम हो जाएगा|
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भगवान यह भी कहते हैं ...
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठें| शौचादि से निवृत होकर एक ऊनी आसन पर
कमर सीधी रखते हुए, पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह कर के शांति से बैठ जाएँ| अपनी गुरु-परंपरानुसार साधना करें, जिसमें हम दीक्षित हैं| यदि हमने कोई दीक्षा नहीं ली है तो भगवान श्रीकृष्ण या हनुमान जी को गुरु मानकर नाम-स्मरण या उनके बीजमंत्र का जप करें| निश्चित रूप से कल्याण होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२०

भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

 भगवान से परमप्रेम और उन की उपासना ही हमारा स्वधर्म है ---

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गीता में भगवान कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:५५||"
अर्थात् अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है| अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भयको देनेवाला है||"
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है ... भगवान की भक्ति (परमप्रेम) और उन की उपासना (समीप बैठना) ही हमारा स्वभाविक धर्म है, वैसे ही जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है| कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है| समुद्र में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| उपासना विकास की प्रक्रिया है, जो शरणागति और समर्पण द्वारा मनुष्य को परमात्मा से एकाकार कर देती है| एक बार परमात्मा से परम प्रेम हो जाए फिर आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है| राग-द्वेष युक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है, और परधर्म को भी धर्म होने के नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है| परंतु उसका ऐसा मानना भूल है|
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सत्यनिष्ठा का अभाव, व लोभ और अहंकार, हमें स्वधर्म से दूर करते हैं| स्वधर्म में स्थिर होने के लिए भगवान की भक्ति और उन का यथासंभव खूब ध्यान करें|
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आप सब महान आत्माओं, महापुरुषों को सादर नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२० नवंबर २०२०

Friday 19 November 2021

आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है ---

 आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है ---

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भगवान ही एकमात्र सत्य हैं। वे ही हमारी आत्मा हैं। जो अपनी आत्मा में निरंतर रमण करते हैं, यानि जो सदा सर्वत्र भगवान को ही देखते हैं, उनके लिए "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता। उन्हें सर्वत्र और स्वयं में भी भगवान ही दिखाई देते हैं। शरणागत होकर पूर्ण प्रेम (भक्ति) से भगवान को समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है। भगवत्-प्राप्ति हो गई तो सब कुछ प्राप्त हो गया। भगवान के अतिरिक्त हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए। हमारा समर्पण सिर्फ भगवान के प्रति हो, किसी भी तरह की अन्य कोई कामना आये तो उसे विष के सामान त्याग देना चाहिए। भगवान की इच्छा ही हमारी इच्छा है, और उनकी कामना ही हमारी कामना है। साधना में कोई भी कठिनाई आये तो उसके निराकरण के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। भगवान का चिंतन और ध्यान इतना गहन हो कि भगवान ही हमारी चिंता करें, हमारी चिंता सिर्फ भगवान की ही हो। साधना इतनी गहन हो कि साध्य, साधन और साधक एक हो जाएँ। कहीं भी कोई भेद ना रहे।
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"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।" यह "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है, जो एक भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है। उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है।
शाण्डिल्य सूत्रों के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। यह आत्माराम हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१

अनन्य-योग व अव्यभिचारिणी-भक्ति ---

 अनन्य-योग व अव्यभिचारिणी-भक्ति ---

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सिर्फ भगवान की ही सुनो, अन्य किसी की भी नहीं। सद्गुरु के रूप में भी भगवान ही आते हैं। वे उसी मंत्र की, और उसी देव की साधना आपको बताएँगे जो आपके लिए परम कल्याणकारी हो। दीक्षा से पूर्व वे आपके अन्तर्मन में झांक कर देखते हैं। कई बार आपके अनेक पूर्वजन्मों में भी जाकर देखते हैं। उसी के अनुसार वे सही और अनुकूल समय में सही दीक्षा देते हैं, और साधना करवाते हैं। एक ही साधना सभी के अनुकूल नहीं हो सकती। जिस साधक को जो साधना अनुकूल होती है, वही बताई जाती है। सिद्ध गुरु शक्तिपात कर के दीक्षा देते हैं।
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मैं भक्ति, समर्पण और वेदान्त की बातें करता हूँ क्योंकि ये मेरे स्वभाव के अनुकूल हैं। जिनमें थोड़ी सी भी वेदान्त-वासना नहीं होगी, उनको मैं कभी भी, और कुछ भी नहीं समझा सकूँगा। गीता में दो बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं, जो यदि समझ में और व्यवहार में आ जायें तो भक्त का तुरंत उसी समय कल्याण हो जावे, यानि भगवान की प्राप्ति में फिर विलंब नहीं होता।
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गीता में भगवान ने "अनन्य" शब्द का कई बार, और "अव्यभिचारिणी भक्ति" शब्द का एक बार उल्लेख किया है। भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि॥१३:१०॥"
अर्थात् - “मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।”
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अनन्य-भक्ति और अव्यभिचारिणी-भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति बिलकुल भी कठिन नहीं है। जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नहीं दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। भगवान को यदि प्राप्त करना है तो उन्हें अपना १००% प्रेम देना होगा। ९९.९९% भी नहीं चलेगा। उन के सिवाय अन्य कुछ भी हमें अच्छा न लगे। यदि अवचेतन मन में भी भगवान के सिवाय, अन्य कुछ भी प्रिय है तो वे नहीं आते। यही मन की निर्मलता है, जिसके बारे में रामचरितमानस में भगवान कहते हैं --
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥"
भगवान के सिवाय अन्य कुछ भी हमें यदि काम्य है तो यह भक्ति में व्यभिचार है। भगवान की प्राप्ति हमें अव्यभिचारिणी भक्ति से ही होती है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो जाये। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२;७१॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् -- जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर, स्पृहा-रहित, ममभाव-रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है॥
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है, तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं। सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की, और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं। फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय -- एक ही हो जाते हैं। उस स्थिति में ही हम कह सकते हैं -- "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"।
फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं। यही अनन्य-योग या अनन्य-भक्ति कहलाती है।
किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध महात्मा के मार्ग-दर्शन और सान्निध्य में साधना करें। निश्चित रूप से इसी जीवन में हम भगवान को प्राप्त कर सकेंगे।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति॥
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२१