Tuesday, 28 June 2016

चित्त को कहाँ लगाएँ ........

चित्त को कहाँ लगाएँ ........
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अलादीन ने चिराग को रगडा तो एक जिन्न प्रकट हुआ| जिन्न ने कहा मेरे आक़ा मुझे हुक्म दो मैं क्या काम करूँ| अलादीन जो भी आदेश देता, जिन्न उसे तुरंत पूरा कर देता| जिन्न ने यह भी कहा कि जब तक तुम मुझसे निरंतर काम करवाते रहोगे मैं तब तक तुम्हारे वश में हूँ, जब कोई काम नहीं रहेगा तब मैं गला घोट कर तुम्हारी ह्त्या कर दूंगा|
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मनुष्य का चित्त वही जिन्न है| इसे निरंतर कहीं ना कहीं लगाए रखना पड़ता है| खाली होते ही यह मनुष्य को वासनाओं के जाल में ऐसा फँसाता है जहाँ से बाहर निकलना अति दुर्धर्ष हो जाता है| इस चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग साधना कहा गया है| इस की वृत्तियाँ अधोगामी हैं, जिन्हें साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बना देने पर यह मनुष्य को परमात्मा तक ले जाता है|
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भगवान श्रीकृष्ण जो साकार रूप में परम ब्रह्म हैं, का आदेश है ....
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ||"

अर्थात् मुझमें ही चित्त लगा चुकने पर तूँ मेरी कृपा से इस संसार रूपी दुर्ग के सारे संकटों को पार कर लेगा| पर यदि अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मागेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा|
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अतः चित्त का अधिष्ठान "सच्चिदानन्द ब्रह्म" ही है| सारी सृष्टि का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हम सच्चिदानंद परमात्मा में स्थित हो जाएँ| सांसारिक भोगों के लिये यह संसार नहीं बनाया गया है, यह तो परमेश्वर के ज्ञान के लिये बनाया गया है|
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परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को सब देखते हैं, पर उसे कोई नहीं देखता|
भगवान के अनुग्रह से ही हम इस मायावी संसार को पार कर सकते हैं, निज प्रयास से नहीं| दूसरे शब्दों में जब तक हम जीव की चेतना में हैं, माया का अनंत आवरण नहीं हटेगा| परमात्मा को समर्पित होने के बाद ही उनकी ही कृपा से यह अनंत मायाजाल दूर होगा| अनंत विघ्नों को कहाँ तक पार करेंगे?
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जहाँ अहंकार होगा वहाँ विनाश ही होगा| भगवान के वचन प्रमाण हैं| उनसे ऊपर कुछ नहीं है| अतः उनकी आज्ञा माननी ही पड़ेगी|
"निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्," स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, संसार में नहीं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

माया के सबसे बड़े शस्त्र --- "प्रमाद" और "दीर्घसूत्रता" हैं .....

माया के सबसे बड़े शस्त्र --- "प्रमाद" और "दीर्घसूत्रता" हैं .....
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(१) ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार कहते हैं ...."प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि"| अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है|
अपने "अच्युत स्वरूप" को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है और इसी का नाम "मृत्यु" है। जहाँ अपने अच्युत भाव से च्युत हुए, बस वहीँ मृत्यु है , इससे आगे मृत्यु कुछ नहीं है।
जब भगवान सनत्कुमार कहते हैं कि --- "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" --- अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है तो उनकी बात पूर्ण सत्य है| भगवान सनत्कुमार ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं और भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु हैं| उनका कथन मिथ्या नहीं हो सकता|
ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय |
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दुर्गा सप्तशती में 'महिषासुर' --- प्रमाद --- यानि आलस्य रूपी तमोगुण का ही प्रतीक है| आलस्य यानि प्रमाद को समर्पित होने का अर्थ है -- 'महिषासुर' को अपनी सत्ता सौंपना|
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(२) आत्मविस्मृति दीर्घसूत्रता के कारण ही होती है| यह दीर्घसूत्रता सब से बड़ा दुर्गुण है जो हमें परमात्मा से दूर करता है|

दीर्घसूत्रता का अर्थ है काम को आगे के लिए टालना| साधना में दीर्घसूत्रता यानि आगे टालने की प्रवृति साधक की सबसे बड़ी शत्रु है, ऐसा मेरा निजी प्रत्यक्ष अनुभव है|
सबसे बड़ा शुभ कार्य है --- भगवान की भक्ति, जिसे आगे के लिए नहीं टालना चाहिए| जो लोग कहते हैं कि अभी हमारा समय नहीं आया, उनका समय कभी नहीं आयेगा|
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जल के पात्र को साफ़ सुथरा रखने के लिए नित्य साफ़ करना आवश्यक है अन्यथा उस पर जंग लग जाती है| एक गेंद को सीढ़ियों पर गिराओ तो वह उछलती हुई क्रमशः नीचे की ओर ही जायेगी| वैसे ही मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ (जो वासनाओं के रूप में व्यक्त होती है) अधोगामी होती है, वे मनुष्य का क्रमशः निश्चित रूप से पतन करती हैं| उनके निरोध को ही 'योग' की साधना है|
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नित्य नियमित साधना अत्यंत आवश्यक है| मन में इस भाव का आना कि थोड़ी देर बाद करेंगे, हमारा सबसे बड़ा शत्रु है| यह 'थोड़ी देर बाद करेंगे' कह कर काम को टाल देते हैं वह 'थोड़ी देर' फिर कभी नहीं आती| इस तरह कई दिन और वर्ष बीत जाते हैं| जीवन के अंत में पाते हैं की बहुमूल्य जीवन निरर्थक ही नष्ट हो गया|
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अतः मेरे अनुभव से भी प्रमाद और दीर्घसूत्रता तमोगुण है| ये ही माया का सबसे बड़े हथियार है| यह माया ही है जिसे कुछ लोग 'शैतान' या 'काल पुरुष' कहते हैं| सृष्टि के संचालन के लिए माया भी आवश्यक है| पर इससे परे जाना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य है|
ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

"सर्वधर्म समभाव" की परिकल्पना एक झूठ है .....

"सर्वधर्म समभाव" की परिकल्पना एक झूठ है .....
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"सर्वधर्म समभाव" .... यह किसी हिन्दुद्रोही सेकुलर मार्क्सवादी विचारक के मस्तिष्क की कल्पना है| धर्म तो एक ही है, वह अनेक कैसे हो सकता है? धर्म है और अधर्म है| धर्म का अर्थ मजहब या पंथ नहीं है|
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यदि पंथों और मज़हबों की भी तुलना करें तो जिस भी पंथ या मज़हब की साधना पद्धति से दैवीय और मानवीय गुणों का सर्वाधिक विकास होगा, वह पंथ ही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सिद्ध कर सकता है कि सर्वश्रेष्ठ मार्ग कौन सा है और सर्वधर्म समभाव क्या है| जो पंथ मनुष्य को असत्य और अन्धकार में ले जाए, वह किसी का आदर्श कैसे हो सकता है?
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निष्पक्ष रूप से हर मज़हब/पंथ के दो दो व्यक्तियों को लिया जाए और उन्हें बाहरी प्रभाव से दूर एकांत में कुछ महीनों के लिए रखा जाए| सब से कहा जाए की एकांत में रहते हुए अपने अपने मजहब/पंथ की साधना करें| फिर उन पर निष्पक्ष अध्ययन और शोध किया जाए की किस पंथ वाले में करुणा, प्रेम, सद्भाव और आनंद आदि गुणों का सर्वाधिक विकास हुआ है| आज तक किसी भी पंथ की श्रेष्ठता और सर्वग्राह्यता पर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं हुआ है जो होना ही चाहिए था|
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किसी का जो भी स्वभाविक गुण-दोष है वह भी उसका धर्म है| शरीर का भी धर्म है भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सेहत आदि| इन्द्रियों के भी धर्म हैं| मन, बुद्धि और चित्त के भी धर्म हैं| मन को यदि अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो मन इतना अधिक भटका देता है कि उस भटकाव से बाहर आना अति कठिन हो जाता है| मन नियंत्रण में है तो वह हमारा परम मित्र है| यह मन का धर्म है| बुद्धि का धर्म विवेक है, अन्यथा तो यह कुबुद्धि है| चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है, यह उसका धर्म है| यही चित्त की वृत्ति है जिसके निरोध को योग कहा गया है| हमारा बल प्राणों का धर्म है| सब तरह की उलझनों को छोड़कर भगवान की शरण लेना ही सब धर्मों का परित्याग और शरणागति है| शरणागति भी बहुत बड़ा धर्म है|
किसी का जो भी सर्वश्रेष्ठ स्वाभाविक गुण है वह उसका स्वधर्म है, जिसमें निधन को श्रेय दिया गया है|
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स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है| इसका उत्तर निष्ठावान को प्रत्यक्ष परमात्मा से मिलता है| बुद्धि से यह अगम है|
>"अपने आत्म-तत्व में स्थित होना ही स्वधर्म है|"<
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मैं अपने लघु आध्यात्मिक लेखों के साथ साथ प्रखर राष्ट्र भक्ति के ऊपर भी लिखता हूँ क्योंकि मेरे लिए भारतवर्ष ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है| भारत के बिना आध्यात्म की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता| परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है|
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सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है, और भारत का भविष्य ही इस पृथ्वी का भविष्य है| इस पृथ्वी का भविष्य ही इस सृष्टि का भविष्य है| भारत का पतन धर्म का पतन है और भारत का उत्थान धर्म का उत्थान है| भारत और आध्यात्म भी एक दूसरे के पूरक हैं|
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आप सब के हृदयों में स्थित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ| मेरी शुभ कामनाएँ और अहैतुकी प्रेम को स्वीकार करें| धन्यवाद|

सत्य सनातन धर्म की जय | भारत माता की जय | ॐ नमः शिवाय ||