Monday 11 March 2019

परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....

परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....
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९ मार्च १९३६ सोमवार सायंकाल के पाँच बजने वाले थे| जगन्नाथपुरी के अपने आश्रम में ८१ वर्षीय स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने अपने नारायण नाम के एक शिष्य को आवाज दी| उनका शिष्य नारायण निरंतर सदा अपने गुरु की सेवा में तत्पर रहता था| "नारायण, मेरा आज इस संसार को छोड़ने का समय आ गया है, आज मैं इस देह को त्याग दूँगा| क्या मुझे एक गिलास जल पिला सकते हो?" अत्यंत दुखी हृदय से उनका शिष्य नारायण भाग कर जल का एक गिलास लेकर आया| हाथ में गिलास लेते ही वह फर्स पर छूट कर गिर गया| करुणा और प्रेम से भरे शब्दों में उन्होंने कहा "नारायण, तुम देख रहे हो, किस तरह मैं तुम सब से दूर ले जाया जा रहा हूँ| व्यथित मत हो, अपने गुरु के प्रति तुम्हारा प्रेम, सेवा और भक्ति अनुपम हैं| मैं तुम्हारे से पूरी तरह संतुष्ट हूँ| अपना सम्बन्ध शाश्वत रहेगा|"
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सूर्यास्त का समय था, कुछ कुछ अन्धकार होने लगा था| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने कृतिवास नाम के एक व्यक्ति को बुलाया और आदेश दिया "कृतिवास, तुरंत पुरी के रेलवे स्टेशन पर जाकर प्रभास को सन्देश भिजवाओ कि वह कोलकाता में योगानंद को सूचित कर दे कि अब मेरा इस देह को त्यागने का समय आ गया है| योगानंद आज रात्री की रेलगाड़ी से ही पुरी आ जाए|"
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प्रभास, योगानंद जी का भतीजा था और रेलवे विभाग खड़गपुर में एक प्रशासनिक अधिकारी था| उस जमाने में टेलीफोन सेवा का आरम्भ नहीं हुआ था| टेलीफोन सेवा सिर्फ रेलवे स्टेशन से रेलवे स्टेशन तक ही हुआ करती थी| खड़गपुर में ज्यों ही प्रभास को जगन्नाथपुरी से यह सूचना मिली, उसने तुरंत कोलकाता रेलवे स्टेशन के माध्यम से योगानंद जी के पास यह सन्देश भिजवा दिया पर गुरु के देह को छोड़ने वाली बात छिपा ली|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि पद्मासन लगा कर नित्य की तरह अपने आसन पर शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए थे| उन्होंने अपने शिष्य नारायण को आदेश दिया कि वह उनकी छाती और कमर को अपने दोनों हाथों से सहारा दे दे| शिष्य ने वैसा ही किया| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि गहनतम समाधि की अवस्था में चले गए, उनका शरीर एकदम शांत और स्थिर था| फिर सचेतन रूप से स्वयं को अपनी देह की चेतना से मुक्त कर दिया| उनके शिष्य नारायण को अपने गुरु की देह की छाती से ब्रह्मरंध्र तक एक हल्के से स्पन्दन की सी अनुभूति हुई और एक अति धीमी सी ध्वनि भी सुनाई दी जो ॐ से मिलती जुलती थी| हतप्रभ सा हुआ उनका शिष्य नारायण उनकी शांत हुई देह की बहुत देर तक मालिश ही करता रहा|
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थोड़ी देर में कृतिवास भी रेलवे स्टेशन से लौट आया| शिष्य नारायण ने कृतिवास को वहीं बैठाया और पड़ोस में रहने वाले डॉ.दिनकर राव को बुलाने चला गया| डॉ.दिनकर राव भी स्वामीजी के शिष्य थे| डॉ.राव ने निरीक्षण कर के बताया कि आधे घंटे पूर्व ही गुरु जी का शरीर शांत हो गया था|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि के शिष्य स्वामी परमहंस योगानंद गिरि जो स्वयं एक महायोगी सिद्ध संत थे सब कुछ अपनी अंतरप्रज्ञा से समझ गए और रात्री की ट्रेन से पुरी के लिए चल दिए| (आगे का घटनाक्रम "योगी कथामृत" में लिखा है).
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी का व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावशाली था| जो भी उनके संपर्क में आया वह उन की अति दिव्यता और असीम विवेक व ज्ञान से प्रभावित हुए नहीं रह पाया| उनकी लम्बी व बलिष्ठ देह, लम्बे हाथ, चौड़ा माथा, मजबूत छाती, चमकती हुई दोनों आँखें, और सफ़ेद दाढी थी| अपने आसन पर हर समय पद्मासन लगाकर शाम्भवी मुद्रा में बैठे रहते थे| उनकी देह का जन्म कोलकाता के पास श्रीरामपुर में गंगा नदी के पास हुआ था| ८१ वर्ष की आयु प्राप्त की| स्वस्थ शरीर था और जगन्नाथपुरी में स्थित अपने आश्रम में सचेतन रूप से समाधिस्थ होकर देह-त्याग किया| वे वास्तविक ज्ञानावतार थे|
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उनकी पुण्य स्मृति पर परमगुरु को कोटि कोटि नमन !
ॐ श्रीपरमगुरवे नमः || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०१९

मेरी एक प्रार्थना ...

मेरी एक प्रार्थना ...
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हे मेरे आराध्य देव, मैं आपका स्मरण / मनन / चिंतन / ध्यान करने में असमर्थ हूँ| आपकी माया से पार पाना संभव नहीं है| अब आप ही मेरा उद्धार कीजिये| मैं यह देह नहीं हूँ, फिर भी इसी की सुख-सुविधा और विलास में डूबा हुआ हूँ| इस की चेतना से निकने में असमर्थ हूँ| अब आप ही अनुग्रह कर के मुझे मुक्त कीजिये| मैं आप की शरणागत हूँ| यह चेतना और सर्वस्व आप को ही समर्पित कर रहा हूँ| मेरा लक्ष्य और गति आप ही हैं| मैं इस मायावी विक्षेप और आवरण से जकड़ा हुआ हूँ, मेरी रक्षा करो| आपका ही वचन है ....
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||
"जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरेसे रक्षाकी याचना करता है| उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ’ .... यह मेरा व्रत है ||"
अब प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ, अपनी इस माया से मुझे मुक्त करो| मेरी रक्षा करो| मुझसे कोई साधना नहीं होती, आप ही इसे करो| आपका ही वचन है ...
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||"
अब मैं आपके सन्मुख हूँ, मेरी रक्षा करो|
मुझे इतनी पात्रता दो कि मैं आपका अनन्य भक्त बन सकूं| अब आप मुझे भी अपना अनन्य भक्त बनाओ, मेरा भी योगक्षेम वहन करो| आपका ही वचन है ....
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||
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आपका वचन है ....
"अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम् |""
मैं तो सर्वथा असमर्थ हूँ| अतः आप ही करुणावश मेरा इस संसारसागर से उद्धार कर दीजिए|
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"क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर |" मुझ शरणागत की रक्षा करो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१९

रामद्रोहियों का अंत होगा .....

रामद्रोहियों का अंत होगा .....
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड के श्रीहनुमान्‌ रावण संवाद में से संकलित)
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राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥
रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। (अर्थात्‌ जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं |
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥
हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते |
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥23॥
मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का भजन करो |

ॐ तत्सत्
८ फरवरी २०१९

धर्म और राष्ट्र की रक्षा करें .....

वर्तमान समय में धर्म और राष्ट्र पर वैश्विक जिहादी आतंकवाद के कारण आये हुए इस परम संकटकाल में धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना हमारा सर्वोपरी धर्म है| धर्म रहेगा तभी यह राष्ट्र बचेगा, और राष्ट्र बचेगा तभी धर्म यहाँ रहेगा| हर क्षण हर कदम पर धर्म और राष्ट्र की हम रक्षा करें| वैश्विक आतंकवादी जिहाद के कारण आये हुए इस संकट से स्वयं की और राष्ट्र की रक्षा करें| अन्यथा हमारा ही अस्तित्व समाप्त हो जाएगा| वैश्विक जिहादी आतंकवाद के अतिरिक्त ईसाई धर्मांतरण, मार्क्सवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद, तुष्टिकरण और धर्म-विहीनता भी हमें नष्ट करने पर तुली हुई हैं| स्वधर्म को न छोड़ें, उसका दृढ़ता से पालन करें| भागवान का आश्वासन है जो हमारी रक्षा करेगा ....
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||२:४०||
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इस के लिए हर कदम पर प्रतिकार करना होगा और भक्ति व आध्यात्मिक साधना भी करनी होगी| कामवासना, लोभ और क्रोध ..... ये तीनों नरक के मुख्य द्वार है| जो भी विचारधारा इनको प्रश्रय देती है, वह भी नर्कगामी है| पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाना ही आत्मा का हनन है, और यही नर्क है| पुरुषार्थ है अपने अंतःकरण (मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार) पर पूर्ण विजय| हम अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ हों| भगवान हमारी रक्षा करें| ॐ ॐ ॐ !!
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वर्तमान समय में अनिष्ट आसुरी शक्तियों से रक्षा के लिए घर में एक आध्यात्मिक सुरक्षा कवच का निर्माण आवश्यक है| प्रातः सायंकाल की नियमित ध्यान साधना से, निरंतर हरि स्मरण से, पूजा-पाठ से एक रक्षा कवच का निर्माण होता है| पूजा के समय शंख में जल रखें व उस में तुलसी-पत्र हो| पूजा के उपरांत वह जल घर के दरवाजे से लेकर सभी कमरों में छिडकें| माथे पर तिलक और शिखा धारण, परमात्मा में दृढ़ आस्था, सादा जीवन उच्च विचार, भारतीय वेषभूषा, घर का सात्विक वातावरण, सात्विक आहार, नियमित दिनचर्या ..... ये सब हमारी आसुरी शक्तियों से रक्षा करते हैं| आनेवाले संकटों से बचने और बचाने के लिए आध्यात्मिक शक्ति का आवाहन व संवर्धन आवश्यक हो गया है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९

आध्यात्मिक साधना में मार्गदर्शन की आवश्यकता .....

आध्यात्मिक साधना में सफलता के लिए किन्हीं सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन बड़ा आवश्यक है, हर किसी से नहीं| मन्त्र साधना में तो यह अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है| मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं| लिंग पुराण के अनुसार ओंकार का प्लुत रूप नाद है| मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से आती है जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है|
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वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु, बीजमंत्र, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी मुद्रा में ज्योति दर्शन, खेचरी मुद्रा, महामुद्रा, नाद व ज्योति तन्मयता और साधन क्रम आदि का ज्ञान गुरु की कृपा से ही हो सकता है| साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है|
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किसी भी साधना का लाभ उसका अभ्यास करने से है, उसके बारे में जानने मात्र से या उसकी विवेचना करने से कोई लाभ नहीं है| हमारे सामने मिठाई पडी है तो उसका आनंद उस को चखने और खाने में है, न कि उसकी विवेचना से| भगवान का लाभ उनकी भक्ति यानि उनसे प्रेम करने से है न कि उनके बारे में की गयी बौद्धिक चर्चा से| प्रभु के प्रति प्रेम हो, समर्पण का भाव हो और हमारे भावों में शुद्धता हो तो कोई हानि होने कि सम्भावना नहीं है| जब पात्रता हो जाती है तब गुरु का पदार्पण भी जीवन में हो जाता है|
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मेरी तो मान्यता है कि नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है, अनंताकाश के सूर्यमंडल में व्याप्त निज आत्मा से बड़ा कोई देव नहीं है, स्थिर तन्मयता से नादानुसंधान ही परा पूजा है| उस से प्राप्त तृप्ति और आनंद ही परम सुख है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ऐं गुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९

हृदय में भगवान की भक्ति को और अधिक गहनता व दृढ़ता प्रदान करें ....

हृदय में भगवान की भक्ति को और अधिक गहनता व दृढ़ता प्रदान करें ....
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किसी भी मंदिर में जहाँ ठाकुर जी की आरती विधि-विधान से होती है वहाँ नियमित रूप से आरती के समय जाने पर हृदय में भक्ति निश्चित रूप से जागृत होती है| आरती के समय बजाये जाने वाले घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व शंख आदि की ध्वनि अनाहत चक्र पर चोट करती है| अनाहत चक्र से ही आध्यात्म का आरम्भ होता है और वहीं भक्ति का जागरण होता है| अनाहत चक्र का स्थान है मेरु दंड में ह्रदय के पीछे थोडा सा ऊपर पल्लों (shoulder blades) के बीच में|
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जो साधक नियमित रूप से ध्यान करते हैं उन्हें अनाहत चक्र के जागृत होने पर ऐसी ही ध्वनि सुनती है जो हृदय में दिव्य प्रेम की निरंतर वृद्धि करती है| उस ध्वनि की ही नक़ल कर भारत में आरती के समय मंदिरों में घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व टाली आदि बजाने की परम्परा आरम्भ की गयी| मंदिरों में होने वाली घंटा ध्वनि भी अनाहत चक्र को आहत करती है| फिर मंदिरों के शिखर आदि के बनाने की शैली भी ऐसी होती है कि वहाँ दिव्य स्पंदन बनते हैं और खूब देर तक बने रहते है| वहाँ जाते ही शांति का आभास होता है| मंदिर में आरती के बाद कुछ देर तक ठाकुर जी के सम्मुख मेरु दंड को उन्नत रखते हुए बैठ कर अनाहत चक्र पर द्वादशाक्षरी भागवत मन्त्र का जाप करना चाहिए --- कम से कम एक माला, तीन या अधिक कर सकें तो और भी उत्तम है|
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रात्रि को सोने से पूर्व अनाहत चक्र पर खूब गहरा ध्यान या जप कर के ही सोना चाहिए| इससे दुसरे दिन प्रातः उठते समय भक्तिमय चेतना रहती है| प्रातः उठते ही पुनश्चः खूब देर तक ध्यान व जप करना चाहिए| बिना तुलसी-चरणामृत लिए प्रातःकाल कुछ भी आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, और एकादशी का व्रत करना चाहिए| पूरे दिन प्रभु का स्मरण रखें, यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः प्रारम्भ कर दें| बिना भक्ति के हम चाहे कितनी भी यंत्रवत (mechanical) साधना कर लें, कुछ भी लाभ नहीं होगा|
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कभी ऐसे स्थान पर जाएँ जहाँ सरोवर हो या नदी के बहते हुए जल की ध्वनि आ रही हो वहाँ विशुद्धि चक्र पर (कंठकूप के पीछे गर्दन के मूल में) ध्यान करना चाहिए| इससे विशुद्धि चक्र आहत होता है और चैतन्य के विस्तार की अनुभूति होती है| ऐसे स्थान पर गहरा ध्यान करने पर यह अनुभूति शीघ्र होती है कि हम यह देह नहीं बल्कि सर्वव्यापक चैतन्य हैं|
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आज्ञाचक्र पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि (समुद्र की गर्जना जैसी) सुननी आरम्भ हो जाती है तब उसी पर ध्यान करना चाहिए|
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मूलाधारचक्र पर भ्रमर या मधुमक्खियों के गुंजन, स्वाधिष्ठानचक्र पर बांसुरी कि ध्वनि, मणिपुरचक्र पर वीणा की ध्वनि, अनाहतचक्र पर घंटे,घड़ियाल,नगाड़े आदि की मिलीजुली ध्वनि, विशुद्धिचक्र पर बहते जल की ध्वनि, और आज्ञाचक्र पर समुद्र की गर्जना जैसी ध्वनि सुनाई देती है| इन ध्वनियों से इन चक्रों की जागृति भी होती है|
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लोग मुझसे प्रश्न करते हैं कि भक्ति से क्या लाभ होगा? यदि दो पैसे का लाभ हो तो भक्ति करें अन्यथा क्यों समय नष्ट करें| भक्ति सिर्फ अपने हृदय के प्रेम की अभिव्यक्ति है, इसमें लाभ वाली कोई बात नहीं है| किसी लाभ के लिए करते हैं तो जो कुछ भी पास में है वह भी छीन लिया जाएगा| जिन लोगों के लिए भगवान एक साधन मात्र है और संसार साध्य, उन्हें इस मार्ग में आकर अपना अमूल्य समय नष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं है| वे संसार में अपने मजे लें|
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भक्ति-सूत्र में नारद जी कहते हैं कि भगवान के भक्त अपने कुल, जाति का ही गौरव नहीं होते वल्कि पूरे विश्व को गौरवान्वित करते हैं| ऐसे दिव्य पुरुष संसार के प्राणियों में दयाभाव व सहिष्णुता बढ़ाकर जगत की वासना को शुद्ध करते हैं| ऐसे प्राणी धरती पर चलते फिरते भगवान हैं| वे जहाँ रहते हैं वह स्थान तीर्थ बन जाता है| भक्तों के पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी इनसे सनाथ हो जाती है|
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भगवान की भक्ति के लिए किसी शुभ समय या मुहूर्त की प्रतीक्षा न करें| जब भी भगवान की याद आये वह समय सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| अभी इसी समय से बढकर कोई और अच्छा समय हो ही नहीं सकता|अपने जीवन का केंद्रबिंदु भगवान को ही बनायें, जीवन का हर कार्य उसी की प्रसन्नता के लिए करें और उसी को कर्ता, साक्षी और दृष्टा भी बनायें| सत्संग, स्वाध्याय और सात्विक जीवन पद्धति .... दिनचर्या का अंग हो जाये| भगवान के प्रति परमप्रेम और तीब्र अभीप्सा जागृत हो जाने पर जीवन में प्रभु सद्गुरु के रूप में अवश्य आते है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ऐं गुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९
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पुनश्चः :---
मंदिरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उनकी पुनर्प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी| मंदिर सामूहिक साधना के केंद्र हैं जहाँ अनेक लोग साधना करते हैं| वहाँ ऐसे स्पंदनों का निर्माण हो जाता है कि नवागंतुक की चेतना भी भक्ति से भर जाती है| उनकी स्थापत्य कला भी ऐसी होती है जहाँ सूक्ष्म दिव्य स्पंदनों का निर्माण और संरक्षण बहुत दीर्घकाल तक रहता है| मंदिरों में आरती व भजन पूजन, भक्तों के कल्याण के लिए होते है| विधिवत आरती के समय उपस्थित भक्तों के ह्रदय भक्ति से भर जाते हैं| ठाकुर जी को हमसे हमारे परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| मंदिरों में नियमित जाने से भक्तों का आपस में मिलना जुलना होता है इससे उनमें पारस्परिक प्रेम बना रहता है| मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई देता है अतः इसे ढूँढने में कठिनाई नहीं होती| मंदिर के साथ धर्मशाला भी होती है ताकि आगंतुक वहां विश्राम कर सकें| प्रसाद के रूप में क्षुधा शांति की भी व्यवस्था होती है| अंग्रेजों के शासन से पूर्व मंदिरों के साथ साथ विद्यालय भी होते थे जहाँ नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी| अंग्रेजों ने ऐसे सभी विद्यालय नष्ट करवा दिए| मंदिरों के पुजारी व महंत धर्म-प्रचारक होते थे| हिन्दू साधू संतों के हाथ में ही मंदिरों की व्यवस्था होनी चाहिए| उन्हें फिर से धर्म-प्रचार के केन्द्रों के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा|
ॐ ॐ ॐ !!

अभ्यास योग क्या है ? ....

जिन्हें भगवान से प्रेम है और जो उपासना करना चाहते हैं, पर कर नहीं पा रहे हैं, उनके लिए भगवान ने अभ्यासयोग बताया है| कम से कम उनको थोड़ा-बहुत अभ्यास तो करते ही रहना चाहिए| भगवान कहते हैं....
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् | अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||१२:९||"
अर्थात् यदि जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तूँ मुझ में चित्त को अचल स्थापित नहीं कर सकता तो फिर हे धनंजय तूँ अभ्यासयोग के द्वारा चित्त को सब ओर से खींच कर बारंबार एक ही अवलम्बन में लगा कर उससे युक्त जो समाधान रूप योग है, ऐसे अभ्यास योग के द्वारा मुझ विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करने की इच्छा कर|
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और कुछ नहीं कर सकें तो ऐसी इच्छा तो रखें| हर इच्छा पूरी होती है| इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भगवान उचित वातावरण और परिस्थितियाँ प्रदान अवश्य करेंगे|

ॐ तत्सत्
५ मार्च २०१९

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......
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इस लेख में भवसागर से मुक्ति का रहस्य छिपा है| जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ उस परमशिव के साथ जुड़कर ही हम मृत्युंजयी हो सकते हैं| फिर कभी जन्म ही नहीं होगा| अन्यथा अंतकाल की भावना ही हमारे अगले शरीर की प्राप्ति का कारण होगी| साधना के कई रहस्य हैं जो भगवान की कृपा से स्वयमेव ही समझ में आते हैं, उन्हें समझाया नहीं जा सकता| भगवान की कृपा होने पर कोई रहस्य रहस्य नहीं रहता| अतः अपने पूर्ण प्रेम से भगवान का निरंतर स्मरण करते हुए हमें अपना मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देनी चाहिए| पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो या कब बुद्धि और मन काम करना बंद कर दें|
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भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||८:७||"
अर्थात तूँ हर समय मेरा स्मरण करते हुए शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर| इस प्रकार मुझ वासुदेव में अपने मन और बुद्धि को अर्पित करने वाला होकर तूँ मुझ को ही अर्थात् मेरे यथा-चिंतित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा, इसमें संशय नहीं है|
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अंत समय में जैसी भी स्वयं की छवि अपनी कल्पना में हमारे मानस में रहती है वैसी ही देह हमें अगले जन्म में प्राप्त हो जाती है| इसीलिये हमें अपने मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देने चाहिएँ| हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि अंतकाल में यदि हम आपका स्मरण न कर सकें तो आप ही हमारा स्मरण कर लेना| ईशावास्योपनिषद के अंतिम मन्त्र में यही प्रार्थना की गयी है.....
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌ |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||"
अर्थात् वस्तुओं का प्राण, वायु, अमर जीवनतत्त्व है, परन्तु इस का अन्त है भस्म| ॐ हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, जो किया था उसे स्मरण कर ! हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, किये हुए कर्म का स्मरण कर|
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मुझे तो पूरी श्रद्धा और विश्वास है कि भगवान जैसे हर समय मुझे याद करते हैं वैसे ही इस देह के अंतकाल में भी कर ही लेंगे| यह देह तो उन्हीं की है|
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वैसे भगवान का आदेश यही है कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण हो.....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||८:१५||"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
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गीता के उपरोक्त श्लोकों में मुक्ति का रहस्य छिपा है पर इनकी घुट्टी नहीं पिलाई जा सकती| एक मुमुक्षु को इनका स्वाध्याय भी करना होगा और इन्हें अपने आचरण में भी लाना होगा| यदि गीता के उपरोक्त श्लोकों पर आचरण सही होगा तो इस भवसागर से मुक्ति भी निश्चित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०१९
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पुनश्चः :---
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यही बात भगवान ने और भी कही है ....
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||
अर्थात् तूँ मुझ विश्वरूप ईश्वर में ही अपने संकल्प विकल्पात्मक मनको स्थिर कर और मुझ में ही निश्चय करने वाली बुद्धि को स्थिर लगा| इसके पश्चात् शरीर का पतन होनेके उपरान्त तूँ निःसन्देह एकात्म भाव से मुझ में ही निवास करेगा| इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए|
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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ||८:८||
अर्थात् ..... हे पृथानन्दन, अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है|
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आचार्य शंकर के अनुसार अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्ति का नाम अभ्यास है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बनमें लगा हुआ विषयान्तर में न जानेवाला जो योगी का चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय .... दिव्य पुरुष को .... जो आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम पुरुष है ....उसको प्राप्त होता है|
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गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र की प्रथम दो पंक्तियाँ भी यही कहती हैं ....
"एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि |
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ||"

भगवान कब तक हमारी प्रतीक्षा करेंगे ?

भगवान कब तक हमारी प्रतीक्षा करेंगे ? हम क्यों उन्हें निराश कर रहे हैं ? भगवान हमें अपने साथ एक करना चाहते हैं. भक्ति और समर्पण का लक्ष्य ही स्वयं की पृथकता के बोध का विसर्जन कर, भगवान के साथ एकाकार होना है. हम भगवान को निराश नहीं कर सकते. पता नहीं कब से वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
इसी क्षण से हम अपने प्रेमास्पद प्रभु के साथ एक हैं. उनकी अनंतता ही हमारी अनंतता हैं, उनकी पूर्णता ही हमारी पूर्णता है. वे ही हमारे गुरु हैं, वे ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं और वे ही हमारे एकमात्र मित्र हैं. जो वे हैं वह ही हम हैं.
ॐ तत्सत् ! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !
४ मार्च २०१८

हम जीव नहीं, परमशिव हैं .....

हम जीव नहीं, परमशिव हैं .....
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शिव तत्व का बोध अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं| इसका बोध हमें इस देह की चेतना से परे अनंताकाश में होता है| नित्य नियमित ध्यान साधना द्वारा हमें अपनी चेतना उत्तरा सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| वहाँ दिखाई देने वाले ज्योतिर्मय ब्रह्म और सुनाई देने वाले प्रणवाक्षर ब्रह्म ही हमारे आराध्य देव भगवान शिव हैं|
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इन्हीं को कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं| इन्हीं की चेतना कूटस्थ चैतन्य है| इस चेतना में स्थिति ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति है .....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् ... "हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है जिसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||"
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आचार्य शंकर के अनुसार उपरोक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्ममें होनेवाली स्थिति है| सर्व कर्मोंका संन्यास करके केवल ब्रह्मरूपसे स्थित हो जाना है| इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहको प्राप्त नहीं होता| अन्तकाल में ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीनतारूप मोक्ष को लाभ करता है|
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उपरोक्त रूप में वर्णित भगवान शिव का ध्यान ही हमारी साधना हो| साथ साथ अजपा-जप के अभ्यास से मेरुदंड में सुषुम्ना चैतन्य हो जाती है और एक घनीभूत प्राण-प्रवाह की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, जिसे तंत्र की भाषा में कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण कहते हैं|
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सिद्ध गुरु की आज्ञा और निर्देशानुसार इसी कुण्डलिनी को हर चक्र में गुरुप्रदत्त बीजमंत्रों के साथ ऊपर उठाते हुए कूटस्थ में ले जाते हैं| यह अपने आप ही धीरे धीरे उसी गति से नीचे आ जाती है| नीचे आते समय भी हर चक्र में बीज मन्त्रों का जाप होना चाहिए| अंत में इसे कूटस्थ में ही छोड़ देते हैं| यह विधि "क्रिया योग" साधना कहलाती है जो किसी अधिकृत सिद्ध गुरु से ही सीखनी चाहिए| इसी के बारे में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||
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अंत में यही कहूँगा गीता में दिए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार हमारी भक्ति "अनन्य" और "अव्यभिचारिणी" हो .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि||१३:१०||
भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
भगवान कहाँ हैं ?.....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भगवान का सबसे बड़ा आश्वासन है .....
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
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इतना ही बहुत हैं| भगवान अनंत हैं, उनके उपदेश भी अनंत हैं|
एक साधक को भगवान के ध्यान के साथ साथ यदि समय हो तो गीता के पांच श्लोकों का नित्य अर्थ सहित पाठ, रामचरितमानस के सुन्दर काण्ड के क्रमशः कुछ पृष्ठों का पाठ, और हनुमान चालीसा का भी पाठ नित्य करना चाहिए| ये साधना में बड़े सहायक हैं|
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पुनश्चः :---- उपरोक्त वर्णित कुण्डलिनी महाशक्ति ही मेरुदंड में विचरण करते हुए धीरे धीरे सहस्त्रार से ऊपर ब्रह्मरंध्र को भेदते हुए अनंताकाश में परमशिव के साथ एकाकार हो जाती है| इस महाशक्ति कुंडलिनी और परमशिव का मिलन ही योग है|
ध्यान की गहराई में भी साधक को ब्र्ह्मरंध्र से परे जाने, समाधिस्थ होने और बापस देह की चेतना में आने की अनुभूतियाँ होना बहुत ही सामान्य बात हैं|
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आद्य शंकराचार्यकृत निर्वाण षटकम् .....
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मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
अर्थ : मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूं, न मैं कान, जिह्वा, नाक और नेत्र हूं । न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
अर्थ : न मैं मुख्य प्राण हूं और न ही मैं पञ्च प्राणोंमें (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) कोई हूं, न मैं सप्तधातुओंमें (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) कोई हूं और न पञ्चकोशोंमें (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूं और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
अर्थ :न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है, न ही ईर्ष्याकी भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
अर्थ : न मैं पुण्य हूं, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूं, न भोज्य(खाया जानेवाला) हूं, और न भोक्ता(खानेवाला) हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे मृत्युशंका मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अर्थ : न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जातिका कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
अर्थ : मैं समस्त संदेहोंसे परे, बिना किसी आकारवाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हूं, मैं सदैव समतामें स्थित हूं, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०१९
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Note: उपरोक्त लेख आज भगवान की प्रेरणा से स्वयं के आनंद के लिए ही लिखा गया| अब और कुछ लिखने की इच्छा नहीं है| भगवान अपने में ही मेरा मन लगाए रखें|

हम परमात्मा की उपासना करें, न कि उनकी अभिव्यक्तियों या प्रतीकों की .....

हम परमात्मा की उपासना करें, न कि उनकी अभिव्यक्तियों या प्रतीकों की .....
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(जिस विषय पर लिखने का मैं साहस कर रहा हूँ, उस पर बिना गुरुकृपा के कुछ भी लिखना असंभव है. मुझ अकिंचन पर गुरुकृपा फलीभूत हो.)
यह परमात्मा का प्रेम ही है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हर रूप में व्यक्त हो रहा है| हमारी इस देह के जन्म से पूर्व जो प्रेम हमारे माता-पिता में था, वह परमात्मा का ही प्रेम था| गर्भस्थ शिशु के प्रति माँ का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था| जन्म के पश्चात माता-पिता व सभी सम्बंधियों व मित्रों का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ और हो रहा है| सारे प्रेम का स्त्रोत परमात्मा ही हैं| परमात्मा स्वयं ही अनिर्वचनीय परमप्रेम और उस से उत्पन्न परम आनंद है|
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हमारे इस जीवन के सूत्रधार भी परमात्मा ही हैं| वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से सांस ले रहे हैं, इन आँखों से देख रहे हैं, इन कानों से सुन रहे हैं, इन पैरों से चल रहे हैं और इन हाथों से काम कर रहे हैं| हमारा सारा अंतःकरण भी उन्हीं के द्वारा संचालित हो रहा है| पर उन्होंने हमें स्वयं से दूर जाने की छूट भी दी है| उन्होंने प्रकृति का निर्माण किया और उसके नियम बनाए| प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, किसी के साथ भेदभाव नहीं करती| कर्मफलों के सिद्धांतानुसार दुःखों व सुखों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं जो प्रकृति के नियमानुसार है| प्रकृति के नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है| हमारे ज्ञान के स्त्रोत भी वे परमात्मा ही हैं| उनको पाने के मार्ग का नाम है "परम प्रेम"|
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इन पंक्तियों को लिखने का मेरा उद्देश्य यह कहना है कि हम उन्हें अपने ऊर्ध्वस्थ मूल में ढूंढें| इसे मैं अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से यथासंभव समझाने का प्रयास करूंगा| यदि न समझा सका तो आप यही मानिए कि उसकी क्षमता मुझ में नहीं है| पर मुझे मेरे अंतर में कणमात्र भी संशय नहीं है|
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भगवान गीता में कहते हैं.....
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्| छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्||१५:१||
यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है| यदि परमात्मा ही एकमात्र सत्य है तो यह परिछिन्न जगत कैसे उत्पन्न हुआ? उत्पन्न होने के पश्चात् कौन इसका धारण और पोषण करता है? सृष्टिकर्ता अनन्त ईश्वर और सृष्ट जगत् के मध्य वस्तुतः क्या संबंध है?
अश्वत्थ शब्द में श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला| अतः अश्वत्थ का अर्थ होगा ..... वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है| अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर इंगित किया गया है| इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है|
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आचार्य शंकर के अनुसार संसार को वृक्ष कहने का कारण यह है कि उसको काटा जा सकता है "व्रश्चनात् वृक्ष"| वैराग्य के द्वारा हम अपने उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभव होते हैं| जो संसारवृक्ष परमात्मा से अंकुरित होकर व्यक्त हुआ प्रतीत होता है, उसे हम अपना ध्यान परमात्मा में केन्द्रित कर के काट सकते हैं|
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इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा गया है जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है| वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है| इसी प्रकार हमें भी हमारा भरण-पोषण सच्चिदानंद ब्रह्म से ही प्राप्त होता है| हमें हमारे ऊर्ध्वमूल को पाने का ही निरंतर प्रयास करना चाहिए, यही हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं| जो इस जीवन वृक्ष के रहस्य को समझ लेता है वही वेदवित है|
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हमारा ऊर्ध्वमूल कूटस्थ है| ध्यान साधना द्वारा कूटस्थ में ही हमें परमात्मा का अनुसंधान करना होगा| इसकी विधि उपनिषदों में व गीता में दी हुई है,पर कोई समझाने वाला सिद्ध आचार्य चाहिए जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ भी हो| जिस दिन हमारे में पात्रता होगी उस दिन भगवान स्वयं ही आचार्य गुरु के रूप में आ जायेंगे| अतः हर कार्य, हर सोच परमात्मा की कृपा हेतु ही करनी चाहिए|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०१९

हम सच्चिदानन्द की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं .....

हम सच्चिदानन्द की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं .....
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हम सच्चिदानंद की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति और उन्हीं के साथ एक हैं| कहीं कोई भेद नहीं है| वे ही हमारे शाश्वत साथी हैं, जन्म से पूर्व भी वे ही हमारे साथ थे और मृत्यु के पश्चात भी वे ही हमारे साथ रहेंगे| कोई माने या न माने इससे कोई फर्क नहीं पड़ता,पर इस परम सत्य को कोई झुठला नहीं सकता कि भगवान ही हमारे प्रथम, अंतिम और एकमात्र सम्बन्धी हैं| वे ही परम शिव हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही सर्वस्व हैं| उनकी अनुभूति में बने रहना ही परम तीर्थ है| उनके प्रति आकर्षण और उनमें तन्मय हो जाना ही सच्चा प्रकाश है| इस देह को धारण भी उन्होंने ही कर रखा है| उनकी चेतना में बने रहना और पूर्ण रूपेण समर्पित होकर उनके साथ एकाकार होना ही जीवन का लक्ष्य है| यही साधना है और यही जीवन की सार्थकता है|
वे कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते | वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||७:१९||"
अर्थात् बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।।
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जब अग्नि के समक्ष होते हैं तब तपन की अनुभूति अवश्य होती है| ऐसे ही जब भगवान के सम्मुख होते हैं तब अनायास ही उनके अनुग्रह की अनुभूति होती है| इस लिए हमें निरंतर उनके स्मरण व उनकी चेतना के प्रकाश में रहना चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०१९

विद्वान कौन है ? ....

विद्वान कौन है ?
प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी |
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ||मुण्डकोपनिषद, ३.१.४ ||
..... प्राण तत्व, जो सब भूतों/प्राणियों में प्रकाशित है, को जानने वाला ही विद्वान् है, न कि बहुत अधिक बात करने वाला| वह आत्मक्रीड़ारत और आत्मरति यानि आत्मा में ही रमण करने वाला क्रियावान ब्र्ह्मविदों में वरिष्ठ यानि श्रेष्ठ है|
(भक्तिसुत्रों में आत्मा में रमण करने वाले को आत्माराम कहा गया है ... "यज्ज्ञात्वा मत्तो-भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति")
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श्वेतकेतु की कथा महाभारत के आदिपर्व में भी आती है| ये अपने समय के सबसे बड़े समाज सुधारक थे जिन्होनें कई नई व्यवस्थाएं दीं जो आज भी हिन्दू समाज में प्रचलित हैं| छान्दोग्य उपनिषद्‍ (अध्याय ६, खंड १३) में परमात्मा या परब्रह्म की व्यापकता को लेकर ऋषि उद्दालक (अरुणपुत्र आरुणि) एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच एक संवाद का उल्लेख मिलता है|
छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है ..... धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया| उसमें गुरुकुल में सीखी हुई विद्याओं का अहंकार था, उसके पिता उसके अहंकार को देखकर समझ गए उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा है, केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर ही आया है|
पूरी कथा बहुत लम्बी है अतः संक्षेप में ही समापन कर रहा हूँ| उन्होंने उसे तत त्वं असि = तत्वमसि ब्रह्मज्ञान का उपदेश देकर समझाया कि शब्दों के ज्ञान से कोई विद्वान नहीं बनता| उसके लिए आत्म-तत्व को जानना बड़ा आवश्यक है|
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इस की विधि उपनिषदों में और गीता में भी दी हुई है| पर किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य का मार्गदर्शन आवश्यक है जो परमात्मा की परम कृपा से ही प्राप्त होता है| गीता के अनुसार समत्व में स्थिति ही ज्ञान है, और ज्ञानी भी वही है जिसने समत्व को प्राप्त कर लिया है| बहुत सारी डिग्रियों को प्राप्त कर के कोई ज्ञानी नहीं हो सकता| उपनिषदों के अनुसार विद्वान् भी वही है जो आत्म-तत्व में रमण करता है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०१९

शरणागति ही एकमात्र मार्ग बचा है, अन्य कोई मार्ग अब नहीं है .....

शरणागति ही एकमात्र मार्ग बचा है, अन्य कोई मार्ग अब नहीं है .....
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यह एक आध्यात्मिक रहस्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए हम जो भी साधना करते हैं, उसका सिर्फ एक चौथाई भाग यानि २५% ही हमें करना पड़ता है, एक चौथाई भाग यानि २५% हमारे गुरु महाराज स्वयं हमारे साथ साथ करते हैं, और बाकी का ५०% स्वयं परमात्मा करते हैं| पर हमारा जो २५% भाग है उसका शत-प्रतिशत तो हमें करना ही पड़ता है| उसमें कोई माफी नहीं है| इतनी बड़ी छूट गुरु महाराज की कृपा से भगवान ने करुणावश होकर हमें दी है| शरणागत होकर हमें उनको इस आध्यात्मिक मार्ग पर कर्ता बनाना ही होगा|
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भगवान कहते हैं....
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||

अर्थात् सब धर्मोंको छोड़कर यानी सब कर्मों का सन्यास करके, मुझ एक की ही शरण में आ, अर्थात् परमात्मा से भिन्न कुछ है ही नहीं, ऐसा निश्चय कर| इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष करा के समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापोंसे मुक्त कर दूँगा| यह भगवान का वचन है|
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इस से पूर्व भी जो भगवान ने कहा है वह भी नित्य विचारणीय है ....
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत | तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||१८:६२||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||१८:६५||"
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हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जो भी हैं वे मेरे परम-प्रिय परम-प्राण हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०१९

आत्म-तत्व की चेतना का कम होना बड़ा पीडादायक हो रहा है .....

आत्म-तत्व की चेतना का कम होना बड़ा पीडादायक हो रहा है .....
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आत्म तत्व की चेतना का कम होना सारी आध्यात्मिक प्रगति को अवरुद्ध कर देता है| इसका एकमात्र कारण मन की चंचलता है| मन पर नियंत्रण प्राण-तत्व ही कर सकता है| प्राणों की चंचलता को कम कर के ही हम मन पर नियंत्रण कर सकते हैं| प्राण-तत्व .... ध्यान-साधना, अजपा-जप और क्रिया-योग से ही समझ और नियंत्रण में आता है| यह बुद्धि का विषय नहीं है|
थोड़ा सा भी सांसारिक मोह, हमारे पतन का कारण बन जाता है| बस यही तो हमारी कमी है| हे गुरु-रूप परमशिव परब्रह्म, आपकी पूर्ण कृपा हम सब पर फलीभूत हो| संसार से मोह नहीं छूटने के कारण ही आगे का मार्ग अवरुद्ध हो रहा है| यह मेरी ही नहीं सभी की पीड़ा है| निरंतर अभ्यास और वैराग्य ही हमें मुक्त कर सकते हैं| गीता में भगवान कहते हैं.....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||६:३५||
भगवान स्वयं ही ..... एकमात्र साधन सभी सांसारिक कामनाओं के त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास को बता रहे हैं|
इतनी सी बात समझ में आ रही है यह भी गुरु-कृपा ही है| हे गुरु-रूप परमशिव, हमारे समर्पण में पूर्णता हो| अन्य कुछ भी पाने की कामना का जन्म ही न हो| आप हमारी हर सांस, प्राण-प्रवाह और चेतना में निरंतर रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्री गुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०१९

मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं .....

मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं .....
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सनातन धर्म हमें सिखाता है कि हम अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) पर नियंत्रण करें और हर तरह की कामनाओं व वासनाओं से मुक्त हों| हर कामना व वासना एक बंधन है| स्वर्ग की कामना भी एक अधोगामी बंधन है| दूसरों को दुःख देना एक महापाप है| यदि हम स्वयं के सुख के लिए दूसरों को दुखी या पीड़ित करते हैं हैं तो निश्चित रूप से नर्कगामी पथ पर चल रहे हैं|
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हमने कभी पूर्ण हृदय से भगवान को चाहा ही नहीं| यदि पूर्ण हृदय से चाहते तो भगवान अब तक अवश्य मिल जाते| भगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है कि कौन किस विधि से उन्हें प्रात कर सकता है| वह विधि है ..... अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति| काश ! उसकी पात्रता हमारे में भी होती|
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||"


ॐ तत्सत् !
२२ फरवरी २०१९

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......
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विश्व का नेतृत्व अब धीरे धीरे यूरोप व अमेरिका के हाथों से निकलकर एशिया की ओर आ रहा है, इसमें भारत की एक बहुत बड़ी भूमिका होगी| यदि नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत से एक बार और भारत के प्रधानमंत्री बन जाएँ तब भारत विश्व की एक बहुत बड़ी शक्ति बनने और विश्व के नेतृत्व में बहुत अधिक सफल हो सकता है| विश्व का भावी नेतृत्व भारत और चीन ही करेंगे| इसमें भारत की भूमिका अधिक होगी|
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भारत सरकार की सऊदी अरब के साथ वर्तमान विदेश-नीति लगभग पूरी तरह सफल रही है| ये पंक्तियाँ मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे वस्तुस्थिति का बहुत कुछ पता है| सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा भारत के लिए बहुत अधिक धातक रही है| सऊदी अरब के शासकों को इस बात का अहसास कराना और भारत के प्रति उनकी सोच और अवधारणा को बदलवाना बहुत आवश्यक था, जिसमें भारत काफी सफल रहा है|
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ईरान, सऊदी अरब और इजराइल के साथ संतुलन बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमें भारत सफल रहा है| ये तीनों देश एक दूसरे के परम शत्रु हैं, पर भारत के सम्बन्ध तीनों के साथ अच्छे हैं|
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भारत में सऊदी अरब से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिये बहुत अधिक धन आता था जिसे बंद कराने में भारत को बहुत अधिक सफलता मिली है| वहाँ की जेलों में ८५० से अधिक भारतीय सड़ रहे थे जिनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी| उन सब को मुक्त कराने में भारत सफल रहा है| पहले पाकिस्तान को सऊदी अरब आँख मींच कर धन देता था, पर अब पाकिस्तान को वहाँ से सिर्फ भिखारी का हिस्सा ही मिलता है| पकिस्तान का प्रधानमंत्री वहाँ भीख मांगने नंगे पैर बिना जूते पहिने गया था, उस के कारण ही वहाँ से पाकिस्तान को धन मिला है| पर भारत के प्रधानमंत्री को उन्होंने अपना उच्चतम नागरिक सम्मान दिया है| अब आतंकवाद के विरुद्ध भी सऊदी अरब, भारत के साथ सहयोग करने के लिए सहमत हो गया है| यह एक बहुत बड़ी सफलता है| यमन और सऊदी अरब के मध्य एक युद्ध चल रहा था जिस से यमन में काम कर रहे हज़ारों भारतीयों की जान को खतरा था| सऊदी अरब, यमन पर लगातार हवाई हमले कर रहा था जिसके कारण भारतीयों को वहाँ से सुरक्षित निकालना असम्भव था| भारत के अनुरोध पर सऊदी अरब ने तब तक के लिए युद्ध स्थगित कर दिया था जब तक कि अंतिम भारतीय को वहाँ से सुरक्षित नहीं निकाल लिया गया| यह भारत की एक बहुत बड़ी सफलता थी|
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ऐसे ही पकिस्तान के विरुद्ध ईरान और अफगानिस्तान को खड़ा करना भारत की एक कूटनीतिक सफलता है| भारत के पकिस्तान के साथ हुए युद्धों में ईरान ने सदा पाकिस्तान का साथ दिया था पर अब ईरान और पकिस्तान में शत्रुता उत्पन्न हो गयी है| अफगानिस्तान भी अब पाकिस्तान के विरुद्ध खुल कर भारत के साथ है|
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दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश चीन से स्वयं को असुरक्षित अनुभूत करते हैं| वहाँ अमेरिका और चीन के मध्य एक वर्चस्व का संघर्ष चल रहा है| भारत ने अमेरिका और चीन के मध्य भी एक संतुलन बनाए रखने में सफलता प्राप्त की है जो एक बहुत ही कठिन कार्य है| दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भी भारत से अब मित्रता बनाए रखना चाहते हैं|
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भारत का शक्तिशाली होना बहुत आवश्यक है जिसके लिए भारत में एक राष्ट्रवादी सरकार और कुशल नेतृत्व का होना अपरिहार्य है| आशा करता हूँ कि भारत के लोग अब जातिवादी सोच और कुछ अनैतिक लाभों की कामना से ऊपर उठ कर एक विराट दृष्टिकोण से सोचना आरम्भ करेंगे|
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विजय तो भारत की ही होगी क्योंकि भगवान की अब पूरी कृपा भारत पर है| भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०१९

"निष्काम साधना" और "सेवा" ये ही हमारे साधन हैं .....

"निष्काम साधना" और "सेवा" ये ही हमारे साधन हैं .....
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जैसे जैसे परिपक्वता बढ़ती है वैसे वैसे ही हमारी सोच और हमारे विचार भी बदलते रहते हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि सभी के विचार मिलें, पर समान विचारों के लोगों का साथ जीवन को आसान बना देता है| "साधना" और "सेवा" इन दोनों की अवधारणा भी अपनी अपनी सोच के अनुसार अलग अलग ही होती है| मैं अपने विचार किसी पर नहीं थोपता और न ही किसी को उसके विचार मुझ पर थोपने देता हूँ| जिन लोगों से मेरा स्वभाव और मेरे विचार मिलते हैं, सहज रूप से उनके साथ आत्मीयता हो ही जाती है| वैसे मेरी सद्भावना सभी के प्रति है क्योंकि एक स्तर पर मेरे सिवाय कोई अन्य है ही नहीं| सामाजिकता के नाते भी कई लोगों से मेरा मिलना होता रहता है जिसे मैं टाल नहीं सकता| पर मेरा लक्ष्य भी आध्यात्मिक है और सेवा की अवधारणा भी आध्यात्मिक है| जीवन से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ| किसी से कोई शिकायत नहीं है| धर्म और राष्ट्र के प्रति भी मेरी अवधारणा स्पष्ट है| किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है|
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सभी को मेरी शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०१९

भारत पर आक्रमण भारतीयों ने ही करवाए ......

पिछले एक-डेढ़ हज़ार वर्षों के भारत के इतिहास को देखें तो लगता है कि भारत में समाज और राष्ट्र की अवधारणा बहुत गहरी नहीं थी| भारत में बहुत अधिक सद्गुण विकृतियाँ तो थी हीं अनेक रजोगुण और तमोगुण की विकृतियाँ भी आ गईं| भारत पर हुए अधिकांश आक्रमण भारतीयों ने ही करवाए, यह हमारे इतिहास का एक दुखद पक्ष है| भारत पर जितने भी विदेशी आक्रमण हुए उन सब के पीछे कोई न कोई घर में छिपा हुआ गद्दार ही था|
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बहुत पीछे न जाकर पिछले ७५ वर्षों में ही जाएँ| सन १९४७ में हुए सत्ता के हस्तांतरण जिसे हम अंग्रेजों से मिली आजादी कहते हैं, के बाद भारत पर पहला आक्रमण १९४८ में पाकिस्तान द्वारा हुआ जिसके लिए गाँधी और नेहरु ने ही पकिस्तान को ५५ करोड़ रुपये दिए थे| गाँधी जी अनशन कर के बैठ गए और नेहरु द्वारा पकिस्तान को ५५ करोड़ की आर्थिक सहायता दिला ही दी, जिस से पकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया और आधा कश्मीर भारत से छीन लिया| जैसे ही भारतीय सेना ने उनको खदेड़ना आरम्भ किया, युद्ध रोक कर संयुक्त राष्ट्र में चले गए, जहाँ आज तक कोई निर्णय नहीँ हुआ| इस सहायता से पाकिस्तान ने लगभग ३० से ३५ लाख हिन्दुओं की ह्त्या की और लगभग दो करोड़ हिन्दुओं को वहाँ से भगा दिया|
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जितनी गहराई में जाते हैं,उतनी ही अधिक पीड़ा होती है| १९६५ में हुए युद्ध में जैसे ही जीतने लगे युद्ध रुकवा दिया गया और प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद बुलवा कर उनकी सन्दिग्ध मृत्यु करवा कर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बना दिया गया| 
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भारत से मुझे अत्यधिक प्रेम है| भगवान से प्रार्थना ही कर सकता हूँ कि भारत को असत्य और अन्धकार की शक्तियों से मुक्त कर पुनश्चः परम वैभव प्रदान करें|

ॐ तत्सत् !
१२ मार्च २०१९