Monday, 12 July 2021

कूटस्थ चैतन्य ---

 कूटस्थ चैतन्य ---.

शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी|

ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है|

आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

१३ जुलाई २०२०

परमशिव ---

 परमशिव ---


यह शब्द "परमशिव" मुझे अत्यधिक प्रिय है, पता नहीं क्यों? परमात्मा के लिए मैं या तो गीता के "वासुदेव" (समान रूप से सर्वत्र व्याप्त) शब्द का प्रयोग करता हूँ, या तंत्र और शैवागमों के शब्द "परमशिव" का| तत्वरूप में दोनों एक ही हैं, केवल शाब्दिक अर्थ पृथक-पृथक हैं| परमशिव का शाब्दिक अर्थ होता है ..... परम कल्याणकारी| परमशिव एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सहस्त्रार चक्र और ब्रह्मरंध्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में और उससे भी परे विचरण कर बापस लौट आती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है, जिसका ध्यान परम कल्याणकारी है| यह मुझ बुद्धिहीन अकिंचन को गुरुकृपा से ही समझ में आया है| गुरु के उपदेश और आदेश से ध्यान भी उस अनंतता का ही होता है, जो "परमशिव" है|
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परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही हमें पूरा ध्यान देना चाहिए| शास्त्र हमें दिशा और प्रेरणा देते हैं पर अनुभूति तो उपासना में "परमशिव" की परमकृपा से ही होती है| उनकी परमकृपा होने पर सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है| "परमशिव" शब्द का प्रयोग तंत्रागमों में तो आचार्य शंकर ने "सौन्दर्य लहरी" ग्रंथ में, और शैवागमों में कश्मीर शैव दर्शन के आचार्य अभिनवगुप्त ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन में किया है|
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स्वनामधन्य आचार्य शंकर अपने ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" में लिखते हैं ...
"सुधा सिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणि गृहे|
शिवाकारे मञ्चे परमशिव पर्यङ्क निलयम्, भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्द लहरीम्||"
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प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय के अनुसार अनाहत चक्र में कल्पवृक्ष के नीचे शिव रूपी मञ्च है| उसका पर्यङ्क परमशिव है| आकाश में सूर्य से पृथ्वी तक रुद्र, शनि कक्षा (१००० सूर्य व्यास तक सहस्राक्ष) तक शिव, उसके बाद १ लाख व्यास दूर तक शिवतर, सौर मण्डल की सीमा तक शिवतम है| आकाशगंगा में सदाशिव तथा उसके बाहर विश्व का स्रोत परमशिव है जिसने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया|
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एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है| ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है| दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| रुद्र भी एक अनुभूति है जो ध्यान में गुरुकृपा से ही होती है|
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हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर ही उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह ही ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है| उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है|
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अंत में जगत्गुरु भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ जिन से बड़ा गुरु कोई अन्य नहीं है| उन का कथन है ...
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
गुरु महाराज को नमन, जिनकी कृपा से मेरे जैसा अकिंचन बुद्धिहीन भी शास्त्रों की चर्चा करने लगता है| ॐ तत्सत्||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०२०