सप्त व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जप और प्राणायाम .....
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यहाँ मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ वह व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, साधना के निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है, अतः कोई विवाद का विषय नहीं हैं|
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सर्वप्रथम तो यह ज्ञात होना चाहिए कि गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी कौन कौन हैं| इस विषय पर थोड़ा विवाद है| पारंपरिक रूप से जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है, वे ही गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी हैं| कुछ आचार्यों के अनुसार जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है उनकी पत्नियों को भी गायत्री मंत्र के जप का अधिकार है| कुछ आचार्य दीक्षा देकर सभी को यह अधिकार देते हैं| अतः अपनी गुरु-परंपरा या कुल-परंपरा के अनुसार ही गायत्री मंत्र की साधना करें|
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ब्राह्मण के लिए एक दिन में कम से कम दस गायत्री मंत्र का जप अनिवार्य है| इस की एक विशेष विधि भी है जो आचार्य द्वारा सामने बैठा कर बताई जाती है| अगर कोई ब्राह्मण दिन में एक बार भी गायत्री मंत्र का जप नहीं करता तो अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाता है, यानि वह ब्राह्मण नहीं रहता| फिर उसे प्रायश्चित करना पड़ता है| ब्राह्मण को नित्य कम से कम तीन माला गायत्री मंत्र की तो करनी ही चाहिए| सभी को अपनी अपनी श्रद्धानुसार यथासंभव खूब जप करना चाहिए| गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को ”यज्ञानां जप यज्ञोस्मि” और "गायत्री छन्दसामहम्" कहा है|
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गायत्री जप की एक विशेष योगिक व तांत्रिक विधि है जिसमें सप्त व्याहृतियों के साथ अपने सूक्ष्म शरीर में मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के सभी चक्रों पर जप किया जाता है| मन्त्र शास्त्र में ‘भूः’, ‘भुवः’, ‘स्वः’, ‘महः’, ‘जनः’, ‘तपः’, ‘सत्यम्’ ये सात व्याहृतियाँ कही गयी हैं| इनमें ‘भूः’, ‘भुवः’, और ‘स्वः’ ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं| ये व्याहृतियाँ गायत्री मंत्र के प्रारम्भ में विशेष मानसिक रूप से जपी जाती हैं|
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गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में गायत्री मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है| भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व में दिया गया है ........
''जो व्यक्ति गायत्री का जप करते हैं उनको धन, पुत्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं| उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता| जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं| जिस स्थान पर गायत्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं| जो लोग गायत्री का जप करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा वे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं| गौवों के बीच गायत्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है| घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें| गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|"
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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री, सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण रखा गया है| गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और साधक उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है| वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ६२वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है ----
"तत्सवितुर्वरेण्यं| भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो न: प्रचोदयात||"
उपरोक्त मन्त्र का अर्थ तो सभी को ज्ञात है अतः उस पर चर्चा नहीं करेंगे| गायत्री की महिमा अनंत है|
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योग साधना में गायत्री मन्त्र का जाप गुरु प्रदत्त विधि से सूक्ष्म शरीरस्थ सुषुम्ना नाड़ी में होता है| गुरु कृपा से ही सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है| उससे भी आगे परा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से भ्रूमध्य तक होकर वहाँ से सहस्त्रार में जाती है| और उत्तरा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से सीधे सहस्त्रार में जाती है| उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
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आज्ञाचक्र से ऊपर जो कूटस्थ ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर एक विराट ज्योति दिखाई देती है जिस पर ध्यान किया जाता है| जब चित्त में थोड़ी स्थिरता आती है तब फिर प्रार्थना और जप किया जाता है ....
ॐ "तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो योन: प्रचोदयात् |
"यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे| फिर जप के पश्चात् उस ज्योति का ध्यान, नाद-श्रवण और ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप (हंसः/सोहं) करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता हम स्वयं ही हैं|
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समापन --
ॐ "आपो ज्योति" मानसिक रूप से बोलते हुए दायें हाथ की तीन अँगुलियों से बाईँ आँख का स्पर्श करें,
"रसोsमृतं" से दायीं आँख का,
और "ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्" से भ्रूमध्य का स्पर्श करें|
फिर लम्बे समय तक अपने आसन पर बैठे और सर्वस्व के कल्याण की कामना करें| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
यह सप्त व्याहृतियों से युक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और समाधी के लिए बहुत प्रभावी है| इस साधना में यम नियमों का पालन, व भक्ति अनिवार्य है|
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आप सब में परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन |
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ नवम्बर २०१९