Wednesday, 25 December 2019

ध्यान साधना में उपासना .....

ध्यान साधना में उपासना .....
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ध्यान सदा पूर्णता का होता है| परमात्मा का जो ज्योतिर्मय अनंत अखंड मंडलाकार कूटस्थ रूप है, वह हमारा उपास्य है| जिस में सब कुछ समाहित है, कुछ भी जिस से पृथक नहीं है, उस पूर्णता का ध्यान करते करते हम पूर्ण हो सकते हैं| जिन परमशिव का कभी जन्म नहीं हुआ, उन का ध्यान हमें मृत्युंजयी बना सकता है| इस संसार में जो कुछ भी हम ढूँढ रहे हैं ..... सुख, शांति, सुरक्षा, आनंद, समृद्धि, वैभव, यश, और कीर्ति ...... वह सब तो हम स्वयं ही हैं| बाहर के विश्व में इन सब की खोज एक मृगतृष्णा है|
यह पूर्णता ही सत्य यानि परमात्मा है| अपनी अपूर्णता का पूर्णता में पूर्ण समर्पण उपासना है|
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परमात्मा की परम कल्याणकारक पूर्णता परमशिव है| उस पूर्णता को उपलब्ध होने के लिए हमने जन्म लिया है| जब तक हम उसमें समर्पित नहीं होंगे तब तक यह अपूर्णता रहेगी| पूर्णता का एकमात्र मार्ग है ..... परम प्रेम, पवित्रता और उसे पाने की गहन अभीप्सा| अन्य कोई मार्ग नहीं है| जब हम इस मार्ग पर चलते हैं तब परमप्रेमवश प्रभु स्वयं निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
इस उपासना में उपासक और उपास्य दोनों एक हैं| यह बड़े रहस्य की गोपनीय बात है| यह मेरा परम गोपनीय रहस्य है जिसे मैं अनावृत नहीं कर सकता क्योंकि इसके अतिरिक्त मेरे पास और कुछ है भी नहीं|
"नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः| अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्|| (स्कन्दपुराण:२:२:२७:३०)"
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते| पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते|| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३० नवम्बर २०१९

सप्त व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जप और प्राणायाम .....

सप्त व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जप और प्राणायाम .....
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यहाँ मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ वह व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, साधना के निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है, अतः कोई विवाद का विषय नहीं हैं|
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सर्वप्रथम तो यह ज्ञात होना चाहिए कि गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी कौन कौन हैं| इस विषय पर थोड़ा विवाद है| पारंपरिक रूप से जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है, वे ही गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी हैं| कुछ आचार्यों के अनुसार जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है उनकी पत्नियों को भी गायत्री मंत्र के जप का अधिकार है| कुछ आचार्य दीक्षा देकर सभी को यह अधिकार देते हैं| अतः अपनी गुरु-परंपरा या कुल-परंपरा के अनुसार ही गायत्री मंत्र की साधना करें|
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ब्राह्मण के लिए एक दिन में कम से कम दस गायत्री मंत्र का जप अनिवार्य है| इस की एक विशेष विधि भी है जो आचार्य द्वारा सामने बैठा कर बताई जाती है| अगर कोई ब्राह्मण दिन में एक बार भी गायत्री मंत्र का जप नहीं करता तो अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाता है, यानि वह ब्राह्मण नहीं रहता| फिर उसे प्रायश्चित करना पड़ता है| ब्राह्मण को नित्य कम से कम तीन माला गायत्री मंत्र की तो करनी ही चाहिए| सभी को अपनी अपनी श्रद्धानुसार यथासंभव खूब जप करना चाहिए| गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को ”यज्ञानां जप यज्ञोस्मि” और "गायत्री छन्दसामहम्" कहा है|
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गायत्री जप की एक विशेष योगिक व तांत्रिक विधि है जिसमें सप्त व्याहृतियों के साथ अपने सूक्ष्म शरीर में मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के सभी चक्रों पर जप किया जाता है| मन्त्र शास्त्र में ‘भूः’, ‘भुवः’, ‘स्वः’, ‘महः’, ‘जनः’, ‘तपः’, ‘सत्यम्’ ये सात व्याहृतियाँ कही गयी हैं| इनमें ‘भूः’, ‘भुवः’, और ‘स्वः’ ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं| ये व्याहृतियाँ गायत्री मंत्र के प्रारम्भ में विशेष मानसिक रूप से जपी जाती हैं|
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गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में गायत्री मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है| भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व में दिया गया है ........
''जो व्यक्ति गायत्री का जप करते हैं उनको धन, पुत्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं| उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता| जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं| जिस स्थान पर गायत्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं| जो लोग गायत्री का जप करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा वे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं| गौवों के बीच गायत्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है| घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें| गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|"
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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री, सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण रखा गया है| गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और साधक उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है| वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ६२वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है ----
"तत्सवितुर्वरेण्यं| भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो न: प्रचोदयात||"
उपरोक्त मन्त्र का अर्थ तो सभी को ज्ञात है अतः उस पर चर्चा नहीं करेंगे| गायत्री की महिमा अनंत है|
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योग साधना में गायत्री मन्त्र का जाप गुरु प्रदत्त विधि से सूक्ष्म शरीरस्थ सुषुम्ना नाड़ी में होता है| गुरु कृपा से ही सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है| उससे भी आगे परा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से भ्रूमध्य तक होकर वहाँ से सहस्त्रार में जाती है| और उत्तरा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से सीधे सहस्त्रार में जाती है| उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
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आज्ञाचक्र से ऊपर जो कूटस्थ ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर एक विराट ज्योति दिखाई देती है जिस पर ध्यान किया जाता है| जब चित्त में थोड़ी स्थिरता आती है तब फिर प्रार्थना और जप किया जाता है ....
ॐ "तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो योन: प्रचोदयात् |
"यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे| फिर जप के पश्चात् उस ज्योति का ध्यान, नाद-श्रवण और ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप (हंसः/सोहं) करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता हम स्वयं ही हैं|
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समापन --
ॐ "आपो ज्योति" मानसिक रूप से बोलते हुए दायें हाथ की तीन अँगुलियों से बाईँ आँख का स्पर्श करें,
"रसोsमृतं" से दायीं आँख का,
और "ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्" से भ्रूमध्य का स्पर्श करें|
फिर लम्बे समय तक अपने आसन पर बैठे और सर्वस्व के कल्याण की कामना करें| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
यह सप्त व्याहृतियों से युक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और समाधी के लिए बहुत प्रभावी है| इस साधना में यम नियमों का पालन, व भक्ति अनिवार्य है|
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आप सब में परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन |
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ नवम्बर २०१९

और क्या देखने को बाक़ी है? आप से दिल लगा के देख लिया .....

और क्या देखने को बाक़ी है? आप से दिल लगा के देख लिया .....
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भगवान की भक्ति एक स्वभाविक प्रक्रिया है जो भगवान की कृपा से ही होती है| स्वयं के प्रयास से कोई भक्त नहीं बनता| प्रेमवश मैं बहुत सोच-समझ कर और पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ कि भगवान की भक्ति भी एक धोखा है| जो एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ जाता है उसके लिए बापस लौटना संभव नहीं रहता| फिर मिर्जा गालिब का वह शेर याद आता है कि .....
"इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के"|
मीराबाई का भी एक भजन है .....
"जो मैं ऐसा जानती प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोई"|
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जब से भगवान से प्रेम हुआ है, भगवान ने पकड़ लिया है| हर समय वे ही वे याद आते हैं और चारों ओर जिधर ही दृष्टि जाती है, उधर भी वे ही वे नज़र आते है| दुनिया के लिए अब अनुपयुक्त यानि misfit हो गए हैं| अतः सोच समझ कर ही भक्ति करें|
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हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना हमारी भगवान की ओर यात्रा का आरंभ है| मनुष्य इस संसार में सुख ढूँढता है, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है| यह संसार सुखी होने का वादा करता है पर वास्तव में दुःखी ही करता है| दुःख आते ही हैं भगवान की याद दिलाने के लिए, अन्यथा भगवान को कोई याद नहीं करता| 'ख' आकाश तत्व को कहते है जो भगवान के लिए प्रयुक्त होता है (खं ब्रह्म:)| 'दुः' यानि दूरी| भगवान से दूरी ही दुःख है|
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है| प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं| मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
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संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है| "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से होती है| हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे| अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो| हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
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अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा| "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है|
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भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१९

जहाँ पर भी हम हैं, भगवान को वहीं पर आना होगा ....

जहाँ पर भी हम हैं, भगवान को वहीं पर आना होगा| भगवान हमारे स्वयं में ही व्यक्त होंगे| भगवान कहीं बाहर नहीं, स्वयं में ही मिलेंगे| हमारा शिवत्व स्वयं में ही व्यक्त होगा| अतः इधर-उधर भागना बेकार है|
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शिव तत्व है 'पूर्णता'| पूर्णता ही शिवत्व है| शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं, सिर्फ अभिव्यक्तियाँ पृथक पृथक हैं| शब्द 'स्वयं' से मेरा तात्पर्य हमारे इस शरीर से नहीं है| शरीर तो एक साधन, एक वाहन है जिसे भगवान ने हमें साधना यानि इस लोकयात्रा के लिए दिया है| जो अनंत सर्वव्यापी ज्योतिर्मय चेतना है जिसने इस सारी सृष्टि को चैतन्य कर रखा है, वह हम हैं| उसी का ध्यान करें| पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं| पूर्णता शिव में ही हो सकती है, मनुष्य में तो कभी भी नहीं| शिव कोई दूसरा नहीं है, हमें स्वयं को ही शिव बनना होगा| मनुष्य शिव रूप में ही पूर्ण है, मनुष्य रूप में नहीं| कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं है, संसार की दृष्टि में वह चाहे कितना भी बड़ा, महान, संत, तपस्वी या महात्मा हो|
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साधना के क्रम अपनी पात्रता पर निर्भर हैं| फिर भी ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर एक ऊनी आसन पर बैठ जाएँ| चाहें तो एक कंबल को ही अपना आसन बना लें| मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो| कमर सदा सीधी हो| यदि सीधे बैठने में कोई कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे एक पतली गद्दी रख लीजिये| (पश्चिमोत्तानासन या महामुद्रा जैसे आसनों के नियमित अभ्यास से कमर सदा सीधी रहेगी) दृष्टिपथ भ्रूमध्य में हो| अपनी चेतना को सदा भ्रूमध्य से ऊपर ही रखें, किसी भी तरह का कोई तनाव नहीं हो|
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कुछ देर हठयोग के कुछ प्राणायाम करें| आगे की साधना अपनी अपनी गुरु परंपरानुसार करें| भगवान स्वयं किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन करेंगे, यह हमारी श्रद्धा और भक्ति पर निर्भर है| जितनी अधिक श्रद्धा-विश्वास और भक्ति (परम-प्रेम) होगी उसी अनुपात में परमात्मा से सहायता प्राप्त होगी| सभी के प्रति सद्भाव रखें, किसी का बुरा न सोचें और किसी का बुरा न करें| हर आती-जाती सांस के साथ, या हर क्षण अपनी श्रद्धा और गुरु-परंपरानुसार जप करें| भगवान निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेंगे|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं|आप सब को प्रणाम!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१९

भगवान की भक्ति बड़ी खतरनाक चीज है .....

भगवान की भक्ति बड़ी खतरनाक चीज है, किसी संक्रामक रोग से भी अधिक| एक बार जो इसके चक्रव्यूह में फँस जाता है वह इस से बाहर कभी नहीं निकल पाता| पानी का जहाज जब किनारे पर होता है तब उस पर कबूतर आदि पक्षी बैठ जाते हैं| जहाज के छूटने के बाद वे पक्षी बापस जमीन पर जाना चाहते हैं, पर चारों ओर पानी ही पानी, कहीं भी जमीन दिखाई नहीं देती, अतः चारों ओर उड़कर बापस जहाज पर आ जाते हैं|
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भगवान भी अपने भक्त के चारों ओर एक ऐसा घेरा डाल देते हैं कि वह जीवन भर उस से बाहर नहीं निकल सकता| भक्त जिधर भी देखता है उधर भगवान ही भगवान दिखाई देते हैं| सूरदास जी ने लिखा है ....
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"मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥"
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जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है| उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्मा ही है| अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति नहीं मिलती| प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है| कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा? कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा?
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अंतिम बात यह कहना चाहूँगा कि भगवान की भक्ति में कुछ भी नहीं मिलता| जो कुछ पास में है वह भी बापस ले लिया जाता है| यहाँ तो मात्र समर्पण ही समर्पण है| एकमात्र चीज जो मिलती है वह है आनंद और तृप्ति, और कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ नवम्बर २०१९

दृष्टी सिर्फ भगवान की ओर ही रहे .....

आध्यात्मिक साधना के कई रहस्य हैं जिन का ज्ञान सद्गुरु रूप भगवान श्रीहरिः की कृपा से ही होता है| उन पर किसी से भी चर्चा अगले व्यक्ति की पात्रता देख कर ही की जाती है अन्यथा नहीं| यहाँ यह बताना आवश्यक है कि साधना के मार्ग में हमारे सबसे बड़े शत्रु प्रमाद और दीर्घसूत्रता हैं| ये तमोगुण से उत्पन्न होते हैं| भगवान सनतकुमार ने तो प्रमाद को मृत्यु बताया है| फिर आवरण व विक्षेप की मायावी शक्तियाँ हैं जिन के पार जाना पड़ता हैं| तभी धर्म-तत्व का बोध होता है| कुसंग का त्याग और आचरण में पवित्रता हमारे लिए अनिवार्य है, अन्यथा तुरंत पतन होने लगता है| संसार में तरह तरह के लोग मिलते हैं, जो एक नदी-नाव के संयोग की तरह है|
अन्तःकरण की चेतना से ऊपर उठ कर चारों ओर छाए अज्ञान व अविद्या के साम्राज्य से हमें बचना है| हम नित्य आध्यात्म में स्थित रहें, यह हमारा परम कर्तव्य है| यह शरीर रहे या न रहे इसका भी कोई महत्व नहीं है| बिना परमात्मा के यह शरीर इस पृथ्वी पर एक भार ही है| अहंकारी लोगों की बहलाने फुसलाने वाली मीठी मीठी बातें विष मिश्रित मधु की तरह हैं| ऐसे लोगों की ओर देखें ही मत| दृष्टी सिर्फ भगवान की ओर ही रहे|
आप सब को नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ नवम्बर २०१९

सनातन धर्म क्या है? .....

सनातन धर्म क्या है?
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जहाँ तक मैं समझा हूँ ..... "जीवन में पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परम प्रेम, भक्ति, करुणा, परमात्मा को समर्पण और नि:श्रेयस की भावना" ..... ही सत्य सनातन धर्म है| यह सनातन धर्म ही भारत की अस्मिता है| इसी की रक्षा के इए भगवान बार बार अवतार लेते हैं|
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हमारी पीड़ा यह है कि वर्तमान में हमारे देश का चारित्रिक पतन हो गया है| हर कदम पर असत्य, छल-कपट, घूस/रिश्वतखोरी और अधर्म व्याप्त हो गया है| धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं| भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है| झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है| संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच-गाने परोसे जा रहे हैं| हमारी कोई नाचने-गाने वालों की संस्कृति नहीं है| हमारी संस्कृति -- ऋषियों-मुनियों, महाप्रतापी धर्मरक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद-वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत साहित्य की है| जो कुछ भी भारतीय है उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है| विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं| देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है|
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भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा तो विनाश ही तय है| भारत की संस्कृति और धर्म का नाश ही विश्व के विनाश का कारण होगा| सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो सकती है, और भारत का भविष्य ही विश्व का भविष्य है|
वन्दे मातरम| भारत माता कीजय|
कृपा शंकर
२४ नवम्बर २०१९

उपासना सिर्फ परमात्मा की ही होती है .....

उपासना सिर्फ परमात्मा की ही होती है|
अपनी वृत्ति को परमात्मा के साथ निरंतर एकाकार करना, यानि अभेदानुसंधान ही उपासना है| इसका शाब्दिक अर्थ है ... पास में बैठना|
अकामना ही तृप्ति है| कामना चित्त का धर्म है और उसका आश्रय अंतःकरण है|
चित्त की वृत्तियाँ ही वे अज्ञान रूपी पाश हैं जो हमें बाँधकर पशु बनाती हैं| जहाँ इनको आश्रय मिलता है उस अंतःकरण के चार पैर हैं .... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार|.
ज्ञान रूपी खड़ग से इस अज्ञान रूपी पशु का वध ही वास्तविक बलि देना यानि कुर्बानी है, किसी निरीह प्राणी की ह्त्या नहीं|
परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही वास्तविक प्रसाद है
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२२ नवंबर २०१९

'अपवर्ग' शब्द का अर्थ .....

'अपवर्ग' शब्द का अर्थ .....
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रामचरितमानस के सुंदर कांड में लिखा है .....
"तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग| तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग"
इसका भावार्थ है कि हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है||
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शब्द 'अपवर्ग' का शाब्दिक अर्थ है ..... मोक्ष या मुक्ति| यहाँ पर 'अपवर्ग' के शाब्दिक अर्थ से संतुष्टि नहीं मिलती| इसका गहन अर्थ बहुत ढूँढने पर दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती (सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र) जी के एक पुराने लेख में मिला जिसके अनुसार .....
निवृत्ति ही अपवर्ग है, यानि दुःख की उत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यंतिक दु:खनिवृत्ति है|
अपवर्ग होते हैं ..... प, फ, ब, भ, म.
प - पतन, फ- फल आशा, ब- बंधन, भ - भय, म - मृत्यु.
जहाँ पतन, फल आशा, बंधन, भय, मृत्यु नहीं है, वही अपवर्ग सुख है, जो शिवकृपा का फल है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२० नवम्बर २०१९