Sunday, 23 January 2022

स्वयं भगवान के शब्दों में, भगवान को कौन प्राप्त कर सकता है? :---

 स्वयं भगवान के शब्दों में, भगवान को कौन प्राप्त कर सकता है? :---

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जहाँ तक मेरी समझ है, भगवान वास्तव में एक छोटे से बच्चे की तरह बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| उन का बाल-स्वभाव और बाल-हठ है| उन्हें एक छोटे से बालक की तरह मनाना पड़ता है| वे चाहते हैं कि हम उन्हे अपना शत-प्रतिशत प्रेम दें, और इधर-उधर कहीं भी नहीं देखें| उन्हें हमारा ९९.९९% प्रेम भी पसंद नहीं है| उन्हें तो १००% + ही चाहिए| जहाँ भी हमारा ध्यान इधर-उधर किसी भी अन्य विषय में चला जाता है, वहीं वे रूठ कर चले जाते हैं| फिर अन्य सब ओर से मन को हटाकर उन में ही लगाना पड़ता है, तभी वे प्रसन्न होते हैं|
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पूरी तरह तो वे तभी प्रसन्न होते हैं, जब हम उन्हें मनाने के चक्कर में, स्वयं को भी भूलकर, उन्हीं में विलीन हो जाते हैं| वे हरिः (चोर) भी हैं| उनका शौक है अपने भक्तों के अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) की चोरी करना| साथ-साथ वे दुःख-तस्कर (दुःखों के चोर) भी हैं जो अपने भक्तों के दुःखों को चुपचाप इस तरह चुरा लेते हैं कि भक्त को पता ही नहीं चलता कि कब उसके सारे दुःख चोरी चले गए| इस तरह वे चोर-जार-शिखामणि यानि चोरों के सरदार हैं|
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उन्होने मुझे इतना छोटा सा हृदय दिया, और दुनियाँ भर के सारे दुःख-दर्द उसमें रखने को दे दिये| इस छोटे से हृदय में दुनियाँ भर के दुःख-दर्द नहीं समा सकते, इस लिए उनका सारा सामान (दुःख-दर्द) और यह हृदय भी उन्हीं को बापस दे दिया है|
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गीता में वे कहते हैं कि उन्हें "अनन्य-भक्ति" से ही प्राप्त किया जा सकता है| यह अनन्य-भक्ति, वेदान्त की पराकाष्ठा है| वे कहते हैं ---
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया| यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्||८:२२||"
अर्थात् हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है||
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भगवान हम सब के इस शरीर रूपी पुर में शयन करते हैं, और सर्वत्र परिपूर्ण हैं, इसलिए भगवान का नाम पुरुष है| उन पुरुष से यह सारा संसार व्याप्त है, और उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है भी नहीं| वे भगवान, अनन्य भक्ति से ही प्राप्य हैं|
उपासक का यह भाव रहता है कि मेरे से अन्य कोई है ही नहीं| मैं भगवान के साथ सर्वत्र व्याप्त और उनके साथ एक हूँ| इस आत्म-विषयक ज्ञान को ही स्वनामधन्य आचार्य शंकर ने 'अनन्य भक्ति' बताया है|
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भगवान से जब प्रेम ही हो गया है, तब उनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी चिंतन उन की दृष्टि में व्यभिचार है| सब कुछ भुलाकर हम भगवान की ही अनन्य भक्ति करें, जिसे भगवान ने "अव्यभिचारिणी-भक्ति" बताया है ---
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अर्थात् अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि||
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आज भगवान ने कुछ अधिक ही लिखवा दिया है| हे परमप्रेमी भगवन् , अब कुछ ऐसी सिद्धि दो कि सब कुछ भूल कर दिन-रात तुम्हारा ही भजन-चिंतन-ध्यान करता रहूँ, और तुम्हारे में विलीन होकर तुम्हारे साथ एक होकर, तुम्हारा प्रेम सब के हृदयों में जगा सकूँ| 🌹🙏🌹
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ॐ तत्सत् ! ॐ ब्रह्मणे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जनवरी २०२१

हमारा लक्ष्य आत्म-तत्व यानि परमात्मा की प्राप्ति है, न कि स्वर्ग आदि की कामना ---

हमारा लक्ष्य आत्म-तत्व यानि परमात्मा की प्राप्ति है, न कि कुछ अन्य आकर्षक सिद्धान्त, विभूति, या स्वर्ग आदि की कामना| सर्वप्रथम हम परमात्मा को प्राप्त करें, फिर उन की चेतना में रहते हुए, उन के उपकरण बन कर संसार के अन्य सारे कार्य करें| जब भी जीवन में परमात्मा को पाने की अभीप्सा जागृत हो, हमें उसी समय विरक्त होकर आत्मानुसंधान में लग जाना चाहिए| संसार में रहते हुए परमात्मा की खोज लगभग असंभव है| हमारे जैसे सामान्य मनुष्य, राजा जनक नहीं बन सकते|

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परमात्मा तो हमें सदा से ही प्राप्त है लेकिन माया के आवरण से हमें उनका बोध नहीं होता| जब हम उन की दिशा में अग्रसर होते हैं, तब माया का विक्षेप हमें भटका देता है| यह सृष्टि का खेल ऐसे ही चल रहा है, जैसे एक छायाचित्र चलता है| परमात्मा के अतिरिक्त अन्य आकर्षणों से मोहित हो कर जब हम संसार में सुख ढूंढते हैं तो हमें निराशा ही निराशा हाथ लगती है| सब तरह की निराशाओं से तंग आकर हम परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं| प्रेमपूर्वक जब हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं तब वे कल्याण का मार्ग दिखाते हैं|
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यहाँ मैं रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता, और वेदान्त दर्शन से कुछ प्रामाणिक बातें लिखना चाहता था| पर उन्हें लिखने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि लंबे लेखों को फेसबुक पर कोई पढ़ता नहीं है| कोई असली मुमुक्षु होगा, तो उसे भगवान स्वयं मार्ग दिखाएंगे|
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आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०२१