Saturday, 12 November 2016

मेरी अभीप्सा .......

मेरी अभीप्सा .......
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"वंशीविभूषितकरान्नवनीरादाभात्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविंदनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
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आचार्य मधुसुदन सरस्वती ने जो आचार्य शंकर की परम्परा में अद्वैत वेदान्त के स्वनामधन्य आचार्य हुए थे ने उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना करते हुए "कृष्ण तत्व" को परम तत्व बताया है|
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मैं ऐसे सभी आचार्यों की वन्दना करता हूँ जिनकी परम कृपा और प्रेरणा से हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम जागृत हुआ है| जब भी आवश्यकता होती है तब समय समय पर भगवान किसी न किसी माध्यम से अपना परम प्रेम फिर से जगा देते हैं|
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उस परम प्रेम की एक अल्प झलक या आभास भी जिसको मिल जाए उसके लिए उस प्रेम को छोड़कर अन्य सब कुछ गौण हो जाता है| उस प्रेम को प्राप्त करना ही संसार की उच्चतम उपलब्धि है| उसी प्रेम को भक्ति सूत्रों में नारद जी ने "भक्ति" कहा है| उसी प्रेम को हम सब प्राप्त हों| उस प्रेम को प्राप्त करना ही मेरी अभीप्सा है|
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सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक प्रभु ..... जो मेरे ह्रदय में तभी से धड़क रहा है जब से मैंने जन्म लिया है, उसे सिर्फ मेरा सम्पूर्ण प्रेम ही चाहिए| यह प्रेरणा मुझे बार बार अपने ह्रदय से मिल रही है| बार बार मेरी चेतना, मेरा अस्तित्व यही कह रहा है|
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सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है| उसे मैं और दे ही क्या सकता हूँ ? जो कुछ भी उसका है उसे बापस उसी को लौटाने के अतिरिक्त मेरे पास अब और है ही क्या ? यह प्रेम भी उसी का है, यह ह्रदय, यह चेतना और यह सम्पूर्ण अस्तित्व ---- अब तो सब कुछ बस उसी का ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वो वो ही वो है| ये सारे अणु-परमाणु , ये उर्जा और उसके पीछे का विचार और संकल्प आदि ये सब कुछ उसी के हैं|
अब मैं उससे और पृथक नहीं रह सकता| उसे पाने की अभीप्सा इतनी तीब्र है कि या तो यह देह ही रहेगी या मेरे लक्ष्य ही सिद्ध होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सबसे कठिन कार्य ......

सबसे कठिन कार्य ......
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हमारे लिए सबसे अधिक कठिन कार्य है ..... इस संसार में रहते हुए परमात्मा के प्रति अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और प्रेम की निरंतरता को बनाए रखना|
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इससे अधिक कठिन कार्य और कोई दूसरा नहीं है| इस संसार में हर कदम पर माया विक्षेप उत्पन्न कर रही है जो हमें परमात्मा से दूर करती है|
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घर-परिवार के लोगों, सांसारिक मित्रों और जन सामान्य के नकारात्मक स्पंदन हमें निरंतर परमात्मा से दूर करते हैं|
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हमें ढूँढ़ ढूँढ़ कर समान सकारात्मक विचार और स्पंदन के साधकों जिनका एक ही लक्ष्य है ....परमात्मा की प्राप्ति, का एक समूह बनाना चाहिए और उनके साथ सप्ताह में कम से कम एक दिन सामूहिक ध्यान साधना और सत्संग आयोजित करने चाहियें| वे एक ही गुरु-परम्परा के हों| बड़े नगरों में ऐसे अनेक समूह हैं जिनके यहाँ सप्ताह में कम से कम एक बार तो सामूहिक ध्यान होता ही है| मैं यहाँ उनका अभाव अनुभूत कर रहा हूँ|
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यदि ऐसे समूह न बना सकें तो प्रतिदिन किसी मंदिर में जाना चाहिए| यदि वहाँ भी सकारात्मकता न मिलती हो तो एकांतवास करें| नकारात्मक लोगों से मिलने से तो अच्छा है किसी से भी न मिलें|
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मिलना भी उसी से है जो हमारे लक्ष्य में सहायक हो, चाहे किसी से भी न मिलना पड़े, बात भी वही करनी है अन्यथा बिना बात किये रहें, भोजन भी वो ही करना है जो लक्ष्य में सहायक हो, अन्यथा बिना भोजन किये रहें, हर कार्य वो ही करना है जो हमें हमारे लक्ष्य की ओर ले जाता हो| किसी भी तरह का समझौता एक धोखा है| एक साधक के लिए सबसे बड़ा धोखा हमारी तथाकथित सामाजिकता है| मैं पुनश्चः कह रहा हूँ कि सबसे बड़ी बाधा हमारी तथाकथित सामाजिकता है|
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धन्य हैं वे परिवार जहाँ पति-पत्नी दोनों ही प्रभुप्रेमी हो, और जिनका एक ही लक्ष्य है ..... परमात्मा की प्राप्ति|
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हे परम ब्रह्म परमात्मा भगवान परम शिव, आपका विस्मरण एक क्षण के लिए भी ना हो| हमें अपने मायावी आवरण और विक्षेप से मुक्त करो| हमें निरंतर सत्संग प्राप्त हों, हम सदा आपकी ही चेतना में रहें|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे परमशिव परमात्मा, तुम प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं .....

हे परमशिव परमात्मा, तुम प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं .....
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तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं| सारे संचित और प्रारब्ध कर्म भी तुम्हारे हैं| तुम ही कर्ता हो और तुम ही भोक्ता हो| तुम स्वयं में प्रसन्न रहो, और अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| यह समस्त सृष्टि तुम्हारी है, तुम स्वयं ही यह सृष्टि हो| तुम्हारी मायावी आवरण और विक्षेप की शक्तियाँ निष्प्रभावी हों| तुम्हारे से कुछ भी माँगना मात्र एक दुराग्रह है| पूरा ब्रह्मांड ही तुम हो, तुम्हारे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं| मैं तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| तुम्हारी पूर्णता मुझ में व्यक्त हो| ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् | ॐ नमःशिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे ह्रदय की बंजर भूमि में भी भक्ति रुपी सुन्दर सुगन्धित पुष्प खिलें .....

घोर शुष्क मरू भूमि में और पथरीली बंजर भूमि में भी मैंने सुन्दर पुष्पों को उगते, खिलते और महकते हुए देखा है | अनेक प्रयास करने पर उपजाऊ भूमि में भी कई बार गुलाब के फूल नहीं उगते पर मैंने उनको अनायास ही गंदे पानी में भी उगते हुए देखा है | कीचड़ में कमल का उगना तो सामान्य है |
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हमारे ह्रदय की बंजर भूमि में भी भक्ति रुपी सुन्दर सुगन्धित पुष्प खिलें और उनकी महक हमारे ह्रदय से सभी हृदयों में व्याप्त हो जाए | हे परम शिव, आपकी उपस्थिति का सूर्य सदा हमारे कूटस्थ में स्थिर रहे, और हमारे समक्ष कहीं भी अज्ञान रूपी तिमिर का अस्तित्व न रहे |
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....
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वर्षों पहिले मेरे मानस में कुछ प्रश्न आते थे, जैसे .....
{1} अच्छा या बुरा, मेरे साथ या किसी के भी साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है वह
कर्मों का फल है, पुरुषार्थ का पुरुष्कार है, एक संयोग मात्र है, या ईश्वर की इच्छा है?
{2} यदि जब सब कुछ पूर्वनिर्धारित है तो फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है?
{३) सृष्टि का उद्देश्य क्या है? यदि यह उसकी लीला ही है तो भी कुछ तो उद्देश्य होगा ही|
{४} ह्रदय में सदा एक तड़फ, एक अति प्रबल जिज्ञासा, अज्ञात के प्रति एक परम प्रेम, अभीप्सा और शुन्यता क्यों है?
{5} वह क्या है जिसे पाने से ह्रदय की शुन्यता और अभाव भरेगा?
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इन प्रश्नों का कभी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला और कभी मिलेगा भी नहीं जो ह्रदय को तृप्त कर सके|
ये सब शाश्वत प्रश्न हैं जो सभी के दिमाग में आते हैं पर कोई शाश्वत उत्तर नहीं है| हरेक जिज्ञासु को स्वयं ही इन का उत्तर स्वयं के लिए ही प्राप्त करना होता है| वे उत्तर अन्य किसी के काम के नहीं होते|
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इन सब प्रश्नों पर दिमाग खपाने के बाद इन पर सोचना ही छोड़ दिया| फिर भी ये विचार आते कि जिसने इस सृष्टि को बनाया है वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है, उसे किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है, वह जैसे भी सृष्टि सञ्चालन करे, उसकी मर्जी| वह स्वयं अपनी रचना के लिए जिम्मेदार है, अन्य कोई नहीं| सब की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के द्वारा किये कर्मों की है, दूसरों के द्वारा किये गए कर्मों की नहीं|
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अब जो मुझे समझ में आ रहा है और जिस निष्कर्ष पर मैं पहुंचा हूँ वह यह है ....
(1) उपरोक्त सभी प्रश्नों के उत्तर इस तथ्य पर निर्भर है कि हम "मैं" को कैसे परिभाषित करते हैं|
(2) यदि हम स्वयं को यह देह और व्यक्तित्व समझते हैं तब हम मायाजाल से स्वतंत्र नहीं हैं| तब तक हम अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने को बाध्य हैं|
(3) भगवान को पूर्ण रूप से भक्ति और साधना द्वारा समर्पित होकर ही और भगवान से जुड़कर ही हम मुक्त हो सकते हैं, अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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तभी हम हर परिस्थिति से ऊपर उठ सकते हैं| परिस्थितियों को बदलने से कुछ नहीं होगा| आवश्यकता स्वयं की चेतना को बदलने की है|
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हे जगन्माता, मुझे अपने साथ एक करो, मुझे अपना पूर्ण पुत्र बनाओ, मुझे अपना पूर्ण प्रेम दो| अन्य कुछ पाने की कभी कोई कामना ही ना हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ किसी और का दिया हुआ है .....

हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ किसी और का दिया हुआ है | हम कृतज्ञतापूर्वक उसी का निरंतर चिंतन करें जिसने यह सब कुछ हमें दिया है ....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह "मन" भी किसी और का है|
(२) यह रूपया-पैसा, धन-दौलत और सारी समृद्धि भी किसी और की है|
(३) ये साँसें जिसकी दी हुई है और जो इन्हें ले रहा है, वह भी कोई और हैं|
(४) यह ह्रदय भी किसी और का ही दिया हुआ है जो इसमें धड़क रहा है, वह भी कोई और है |
(५) साधना के मार्ग पर "साधन" भी किसी और का ही दिया हुआ है |
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी किसी और की ही दी हुई है |
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी किसी और के ही हैं |
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी कोई और है|
(९) सारे पुण्य, पाप, बंधन, मोक्ष, धर्म, अधर्म, ज्ञान, अज्ञान आदि सब कुछ उसी के ही हैं |
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यह "मैं" और "मेरापन" एक धोखा है | जिसे हम "मैं" और "मेरापन" समझ रहे हैं, और जो कुछ भी है वह कोई और है | यह साक्षी भाव भी वह ही है | यह आत्मा भी वह ही है | जीवन की सार्थकता उसी परमात्मा को पूर्ण समर्पण कर उसी के साथ जुड़ कर एकाकार होने की है जो सब कुछ है |
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ॐ अयमात्मा ब्रह्म | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"प्रभु से परम प्रेम" ही एकमात्र मार्ग है जो हमारा उद्धार कर सकता है .....

"प्रभु से परम प्रेम" ही एकमात्र मार्ग है जो हमारा उद्धार कर सकता है .....
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भारत की आत्मा आध्यात्मिक है | अतः भारत में हम सब के उद्धार का सिर्फ एक ही मार्ग है, और वह है ..... प्रभु से अहैतुकी परम प्रेम और उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति |
अन्य कोई मार्ग नहीं है |
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जो भी भगवान से अहैतुकी पूर्ण प्रेम करेगा उसका प्रारब्ध बदल जाएगा |
प्रारब्ध बदलने का अन्य कोई मार्ग नहीं है |
ह्रदय में प्रभुप्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं होनी चाहिए |
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भगवान हैं, यहीं हैं, निरंतर हमारे साथ हैं| हम उन्हें कभी भूलें नहीं |
यह शरीर, यह जीवात्मा, यह मन बुद्धि चित्त और अहंकार सब कुछ वे ही हैं | यह समस्त चेतना, यह साक्षी भाव और सब कुछ वे ही हैं | उनके अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है|
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हे प्रभु, हे मेरे प्रभु अपनी पूर्णता को अपने इस अंश में व्यक्त करो |
तुम मैं हूँ, और मैं तुम हूँ |
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ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के प्रति प्रेम ..... किसी भी प्रकार के संक्रामक विचार से अधिक संक्रामक है, बस कोई जगाने वाला चाहिए .....

परमात्मा के प्रति प्रेम ..... किसी भी प्रकार के संक्रामक विचार से अधिक संक्रामक है, बस कोई जगाने वाला चाहिए |
हम सब के भीतर भगवान् के प्रति एक सुप्त प्रेम है जिसे कोई जगाने वाला चाहिए| यह प्रेम इतनी तीब्रता से फैलता है जितनी तीब्रता से कोई संक्रामक रोग भी नहीं फैलता|
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मार्क्सवादी धर्मनिरपेक्ष अधर्मी राजनेताओं द्वारा फैलाया गया यह कुटिल वाक्य ..... "सर्वधर्म समभाव" ..... यानि सब धर्म एक ही शिक्षा देते हैं, और सभी मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, सबसे बड़ा झूठ है|

बिना गहन अध्ययन किये किसी निष्कर्ष पर ना पहुंचें, और दिग्भ्रमित न हों| धर्म के नाम पर सिर्फ हम हिन्दू लोग ही कुछ भी स्वीकार कर लेते हैं| वास्तविकता तो यह है कि विश्व के बड़े बड़े धर्मों में कोई मूलभूत समानता नहीं है| सभी के उद्देश्य और लक्ष्य अलग अलग हैं|

जातिगत राजनीति एक अभिशाप है .......

भारत में दुर्भाग्य से जातिवाद एक राजनीतिक अस्त्र हो गया है जिसके लिए कुछ राजनेता गृहयुद्ध तक छेड़ने को तैयार बैठे हैं| यदि जातिगत आरक्षण समाप्त हो जाए और सरकारी पन्नों में जाति के उल्लेख पर प्रतिबन्ध लग जाए तो जातिप्रथा अति शीघ्र समाप्त हो जायेगी| वर्त्तमान राजनीतिक व्यवस्था ही जातिवाद को प्रोत्साहित करती है|

जिन्हें अगड़ा वर्ग कहते हैं वह इस समय सर्वाधिक पिछड़ा है| उदाहरण के लिए ब्राह्मण जाति इस समय सबसे अधिक पिछड़ी हुई जाति है| वह अतिपिछड़ों से भी अधिक पिछड़ी हुई है| ब्राह्मणों में इस समय सबसे अधिक गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी है| ऐसे ही कुछ अन्य जातियां भी हैं, आरक्षण व्यवस्था ने जिनकी कमर तोड़ दी है, और जिनके समाज में एक घोर निराशा व्याप्त है|

प्राचीन काल की वर्ण-व्यवस्था का वर्त्तमान जाति प्रथा से कोई सम्बन्ध नहीं है| जो स्वधर्म की साधना कर रहे हैं, उन्हें सदा प्रोत्साहित करना चाहिए|
यज्ञोपवीत, तिलक, माला, गुरुमंत्र, सात्विक आहार, उच्च विचार और आध्यात्मिक साधना .... ये सब हमारी संस्कृति के अंग हैं|

जातिगत राजनीति एक अभिशाप है जो समाज में घृणा फैला रही है| इसका अंत कभी ना कभी तो अवश्य ही होगा|