मेरी अभीप्सा .......
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"वंशीविभूषितकरान्नवनीरादाभात्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविंदनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
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"वंशीविभूषितकरान्नवनीरादाभात्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविंदनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
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आचार्य मधुसुदन सरस्वती ने जो आचार्य शंकर की परम्परा में अद्वैत वेदान्त के स्वनामधन्य आचार्य हुए थे ने उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना करते हुए "कृष्ण तत्व" को परम तत्व बताया है|
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मैं ऐसे सभी आचार्यों की वन्दना करता हूँ जिनकी परम कृपा और प्रेरणा से हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम जागृत हुआ है| जब भी आवश्यकता होती है तब समय समय पर भगवान किसी न किसी माध्यम से अपना परम प्रेम फिर से जगा देते हैं|
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उस परम प्रेम की एक अल्प झलक या आभास भी जिसको मिल जाए उसके लिए उस प्रेम को छोड़कर अन्य सब कुछ गौण हो जाता है| उस प्रेम को प्राप्त करना ही संसार की उच्चतम उपलब्धि है| उसी प्रेम को भक्ति सूत्रों में नारद जी ने "भक्ति" कहा है| उसी प्रेम को हम सब प्राप्त हों| उस प्रेम को प्राप्त करना ही मेरी अभीप्सा है|
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सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक प्रभु ..... जो मेरे ह्रदय में तभी से धड़क रहा है जब से मैंने जन्म लिया है, उसे सिर्फ मेरा सम्पूर्ण प्रेम ही चाहिए| यह प्रेरणा मुझे बार बार अपने ह्रदय से मिल रही है| बार बार मेरी चेतना, मेरा अस्तित्व यही कह रहा है|
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सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है| उसे मैं और दे ही क्या सकता हूँ ? जो कुछ भी उसका है उसे बापस उसी को लौटाने के अतिरिक्त मेरे पास अब और है ही क्या ? यह प्रेम भी उसी का है, यह ह्रदय, यह चेतना और यह सम्पूर्ण अस्तित्व ---- अब तो सब कुछ बस उसी का ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वो वो ही वो है| ये सारे अणु-परमाणु , ये उर्जा और उसके पीछे का विचार और संकल्प आदि ये सब कुछ उसी के हैं|
अब मैं उससे और पृथक नहीं रह सकता| उसे पाने की अभीप्सा इतनी तीब्र है कि या तो यह देह ही रहेगी या मेरे लक्ष्य ही सिद्ध होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
आचार्य मधुसुदन सरस्वती ने जो आचार्य शंकर की परम्परा में अद्वैत वेदान्त के स्वनामधन्य आचार्य हुए थे ने उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना करते हुए "कृष्ण तत्व" को परम तत्व बताया है|
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मैं ऐसे सभी आचार्यों की वन्दना करता हूँ जिनकी परम कृपा और प्रेरणा से हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम जागृत हुआ है| जब भी आवश्यकता होती है तब समय समय पर भगवान किसी न किसी माध्यम से अपना परम प्रेम फिर से जगा देते हैं|
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उस परम प्रेम की एक अल्प झलक या आभास भी जिसको मिल जाए उसके लिए उस प्रेम को छोड़कर अन्य सब कुछ गौण हो जाता है| उस प्रेम को प्राप्त करना ही संसार की उच्चतम उपलब्धि है| उसी प्रेम को भक्ति सूत्रों में नारद जी ने "भक्ति" कहा है| उसी प्रेम को हम सब प्राप्त हों| उस प्रेम को प्राप्त करना ही मेरी अभीप्सा है|
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सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक प्रभु ..... जो मेरे ह्रदय में तभी से धड़क रहा है जब से मैंने जन्म लिया है, उसे सिर्फ मेरा सम्पूर्ण प्रेम ही चाहिए| यह प्रेरणा मुझे बार बार अपने ह्रदय से मिल रही है| बार बार मेरी चेतना, मेरा अस्तित्व यही कह रहा है|
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सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है| उसे मैं और दे ही क्या सकता हूँ ? जो कुछ भी उसका है उसे बापस उसी को लौटाने के अतिरिक्त मेरे पास अब और है ही क्या ? यह प्रेम भी उसी का है, यह ह्रदय, यह चेतना और यह सम्पूर्ण अस्तित्व ---- अब तो सब कुछ बस उसी का ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वो वो ही वो है| ये सारे अणु-परमाणु , ये उर्जा और उसके पीछे का विचार और संकल्प आदि ये सब कुछ उसी के हैं|
अब मैं उससे और पृथक नहीं रह सकता| उसे पाने की अभीप्सा इतनी तीब्र है कि या तो यह देह ही रहेगी या मेरे लक्ष्य ही सिद्ध होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||