Monday, 2 December 2024

भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं, मैं तो कहीं भी नहीं हूँ ---

 भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं। मैं तो कहीं भी नहीं हूँ। भगवान अपने एक रूप विशेष में, अपने ही एक दूसरे रूप विशेष का ध्यान कर रहे हैं। उनकी छवि अनुपम है। उनकी दिव्य ज्योति, और उस में से निःसृत हो रहे मधुर नाद, व उनकी सर्वव्यापकता को मैं "कूटस्थ" कहता हूँ। इस कूटस्थ का केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नही।

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यह कूटस्थ ही मेरा हृदय, मेरा अस्तित्व, मेरा आश्रम, मेरा घर और मेरा निवास है। इसी में सारे तीर्थ हैं, यही मेरा उपास्य, यही मेरा इष्ट और यही मेरा एकमात्र मित्र व संबंधी है। यही वासुदेव है, यही नारायण है, और यही परमशिव है।
मेरे विचार ही मेरे उद्दंड श्रोता हैं, जिन्हें बार-बार बताना पड़ता है कि कभी नकारात्मक मत सोचो, सरल जीवन जीओ और सदा भगवान का चिंतन करो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१

"गीता जयंती" के पर्व पर मेरे हृदय की गहनतम भावनाएँ ---

 "गीता जयंती" के पर्व पर मेरे हृदय की गहनतम भावनाएँ ---

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ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! "गीता जयंती" पर मैं इस सृष्टि के सभी प्राणियों में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में परमात्मा को नमन करता हूँ। वे ही यह सारी सृष्टि बन गए है। भगवान वासुदेव के सिवाय अन्य कोई या कुछ भी नहीं है। वे अनन्य हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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इस जीवन में मेरे दो ही आदर्श पुरुष हैं -- भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण। अन्य कोई नहीं है। गीता में मुझे मेरे सारे आध्यात्मिक प्रश्नों और जिज्ञासाओं के उत्तर मिले हैं, इसलिए इस ग्रंथ को मैं भारत का प्राण मानता हूँ। जो कहीं पर भी नहीं है, वह ज्ञान गीता में है। गीता में सिर्फ तीन ही विषयों पर भगवान ने उपदेश दिये है -- कर्म, भक्ति, और ज्ञान। कोई चौथा विषय नहीं है। इन तीन विषयों को बताने के क्रम में सारे सनातन धर्म को उन्होने समाहित कर लिया है।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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साथ साथ वे यह भी कहते हैं --
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् - जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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अब हमें क्या करना चाहिए? इस विषय पर भगवान कहते है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
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अंत में गीता का चरम श्लोक है जिसकी व्याख्या करने में सभी स्वनामधान्य महानतम भाष्यकार आचार्यों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का प्रदर्शन किया है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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मेरी आस्था भगवान श्रीकृष्ण में क्यों है? --
मैं सदा ही भगवान शिव का ध्यान करता था। परमशिव की अनुभूतियाँ होने के पश्चात परमशिव का ध्यान करने लगा। जैसे शिव और विष्णु एक ही हैं, वैसे ही परमशिव और पुरुषोत्तम की अनुभूतियाँ भी एक जैसी होती हैं। एक दिन मन में एक विचार आया कि यह ध्यान कौन कर रहा है? उसी क्षण बहुत गहरी अनुभूति हुई कि सामने तो शांभवी मुद्रा में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं जो अपने ही परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। तब से सारे भेद समाप्त हो गए। एक दिन महाकाली का ध्यान करने पर लगा कि सामने तो स्वयं भगवान राधाकृष्ण खड़े हैं।
अब कहीं कोई भेद नहीं रहे हैं। किसी का भी ध्यान करूँ, अनुभूति यही होती है कि साधक, साध्य, और साधना स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।
अब तो वे ही मेरी साधना बन गए हैं।
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अंत में यही कहना चाहता हूँ कि स्वयं भगवान के आदेशानुसार गीता का ज्ञान सिर्फ सुपात्र को ही देना चाहिए, अपात्र को नहीं --
"इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥१८:६७॥"
अर्थात् - यह सर्वगुह्यतम वचन अतपस्वी को मत कहना; अभक्त को कभी मत कहना; जो सुनना नहीं चाहता, उसको मत कहना; और जो मेरे में दोषदृष्टि करता है, उससे भी मत कहना।
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गीता का ज्ञान किसे देना चाहिए ? भगवान कहते हैं --
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिम मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८:६८॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है॥
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिनमे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८:६९॥"
अर्थात् - न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा॥
"अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८:७०॥"
अर्थात् - जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है॥
"श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८:७१॥"
अर्थात् - तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा॥
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यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
अर्थात् - जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी जो स्वयं भगवान पद्मनाथ विष्णु की वाणी है, को आंशिक रूप में प्रस्तुत कर मैं धन्य हुआ। जिन्होंने भी इस लेख को पढ़ा है, उन सब का जीवन धन्य हो गया है। उनकी स्वयं का ही नहीं, उनकी सात पीढ़ियाँ भी धन्य हैं। आप सब का कल्याण हो !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२२

हम किस की, व कौन सी साधना करें? ---

 हम किस की, व कौन सी साधना करें? ---

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निष्ठावान, तेजस्वी, प्रखर, जागृत, प्रबुद्ध, ओजस्वी और महान विचारक हिंदू आध्यात्मिक साधकों के समक्ष कभी कभी एक दुविधा उत्पन्न होती है कि हम किसकी व कौन सी साधना करें। अनेक देवी-देवताओं की अनेक साधनाएं हैं, जिनके फल भी अनेक हैं।
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ऐसा भ्रम और संशय हमारे अज्ञान के कारण होता है। जो भी साधना हमारे लिए स्वभाविक और सहज हो वह ही करें। लक्ष्य हमारा ऐक ही हो -- ईश्वर की प्राप्ति। जो साधक नियमित रूप से श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों के ब्रह्मज्ञान का स्वाध्याय करते हैं, उन्हें ऐसी दुविधा कभी नहीं होती। कुछ समझ में नहीं आए तो भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना व ध्यान करें, वे सब समझा देंगे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२३

मैं कौन हूँ? ---


यह सृष्टि परमात्मा की है, जिनका मैं शाश्वत आत्मा एक निमित्तमात्र उपकरण हूँ।

मेरा स्वधर्म क्या है, और उसे कैसे निभाना है, इसका मुझे पता है। इस जीवन के अंतकाल तक और उसके पश्चात भी मैं सदा सकारात्मक रूप से परमात्मा की चेतना में रहता हुआ उनके प्रकाश में वृद्धि ही करूँगा। इससे अधिक जो कुछ भी करना है वह मेरे प्रभु स्वयं करेंगे।
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मेरे प्रभु कोई व्यक्ति नहीं, यह अनंत विराट पूर्णता है जो स्वयं यह सृष्टि बन गए हैं। मुझे घेरे हुये मेरे हर ओर वे ही हैं। वे ही इन नासिकाओं से ली जा रही सांसें, इन आँखों की ज्योति, और इस हृदय की धडकन हैं। वे ही रक्त बनकर इस देह में बह रहे हैं। वे ही मेरे प्राण और मेरी चेतना हैं। मैं उनका एक संकल्प मात्र हूँ; सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। .
जब परमात्मा को पाने की अभीप्सा और भक्ति जागृत हो जाये तब एकांत की निःस्तब्धता में भगवान से प्रार्थना कीजिये, निश्चित रूप से उत्तर मिलेगा। आपकी क्षमता और पात्रता के अनुसार भगवान मार्गदर्शन अवश्य करेंगे। यह स्वयं भगवान का आश्वासन है गीता में। अपनी श्रद्धा और विश्वास को बनाए रखें।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२२

परमात्मा की दिव्य चेतना में स्थित होने के लिए ---

 परमात्मा की दिव्य चेतना में स्थित होने के लिए ---

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प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में इस तरह उठो जैसे जगन्माता की गोद में सोया हुआ एक शिशु उठ रहा है। उठते ही भ्रूमध्य में सर्वव्यापी कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते हुये अपनी चेतना को सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैला दो, और संकल्प करो कि -- "मैं सर्वव्यापी, अनंत, विराट, और प्रेममय परमात्मा के साथ एक हूँ। मैं हर तरह से स्वस्थ और सम्पन्न हूँ। जो वे (परमात्मा) हैं, वो ही मैं हूँ।"
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थोड़ा उष:पान करो और शंकादि से निवृत होकर पुनश्च: एक घंटे के लिए ध्यान के आसन पर बैठ जाओ, और कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करो। पूरे दिन परमात्मा को अपने ध्यान में रखो। रात्री को सोने से पूर्व -- परमात्मा का पुनश्च: ध्यान करो और बड़ी शान से जगन्माता की गोद में इस तरह सो जाओ जैसे एक शिशु अपनी माँ की गोद में सोता है।
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कुछ ही दिनों की श्रद्धा, विश्वास और सत्यनिष्ठा से की गई साधना के उपरांत आप पर भगवान की कृपा होगी, जिस से आप स्वयं को परमात्मा के साथ एक पाएंगे। आपके जीवन में आनंद ही आनंद और मंगल ही मंगल होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२२

भविष्य के लिए मेरा क्या दृष्टिकोण है? ---

 (प्रश्न) : भविष्य के लिए मेरा क्या दृष्टिकोण है?

(उत्तर) : कुछ विशेष नहीं, क्योंकि मैं वर्तमान में जीवित हूँ।
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सम्पूर्ण विश्व में लोगों की रुचि सत्य-सनातन-धर्म में बढ़ती जा रही है। सनातन धर्म का जो स्वरूप भारतवर्ष में प्रचलित है, उसे हिन्दुत्व कहते हैं। निकट भविष्य में सनातन धर्म का वैश्वीकरण हो जाएगा। मनुष्य की (कु) बुद्धि ने जितनी विचारधाराएँ और मतवाद खड़े किए हैं, वे सब ध्वस्त हो जाएँगे। मनुष्य की विचारधारा यही चिंतन करेगी की धर्म और अधर्म क्या है।
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विश्व की जनसंख्या में भी कमी आएगी और मानव धर्म (सनातन) स्थापित होगा।
मुझे प्रेरणा यही मिल रही ही कि अब से समस्त जीवन भगवान को समर्पित कर दूँ। किसी तरह की पृथकता का बोध न रहे। अब से मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है। सारा अवशिष्ट जीवन परमात्मा के ध्यान में कट जाएगा।
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सभी को मंगलमय शुभ कामनाएं। सभी का कल्याण हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२३

वर्तमान में चर्चा के लिए अब कोई विषय ही नहीं बचा है ---

 वर्तमान में चर्चा के लिए अब कोई विषय ही नहीं बचा है ---

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समयाभाव के कारण अब से मैं किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना या उपासना की कोई बात किसी से भी नहीं करना चाहता। चर्चा के लिए कोई आध्यात्मिक विषय बचा ही नहीं है। अच्छे उन्नत साधकों से कभी यदि सत्संग हुआ तो उनके साथ सामूहिक रूप से सर्वव्यापी अनंत कूटस्थ ब्रह्म परमशिव का ध्यान ही करूंगा।
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वास्तव में मैं कोई साधना नहीं करता। मुझे निमित्त बनाकर भगवती स्वयं ही प्राणतत्व के रूप में परमशिव की साधना कर रही हैं। उन्होने ही पञ्चप्राणों, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, उनकी तन्मात्राओं व आत्मा को जीवंत कर रखा है। जिस दिन वे परमशिव से संयुक्त हो जाएंगी, उस दिन यह जीवन मुक्त हो जाएगा। वे भगवती भी अनेक रूपों में आती हैं। उनकी जय हो।
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भगवान की परम कृपा के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। भगवान ही स्वयं को कभी मातृरूप में, कभी पितृरूप में अपनी अनुभूति कराते रहते हैं। कई संत-महात्माओं की भी परम कृपा मुझ अकिंचन पर है। कई ऐसी माताएँ भी कृपा कर के मेरे संपर्क में रहती हैं जिनकी भक्ति अनुपम है। उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। मैं अपनी सम्पूर्ण चेतना और अपना सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान को समर्पित करता हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२३