"गीता जयंती" के पर्व पर मेरे हृदय की गहनतम भावनाएँ ---
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ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! "गीता जयंती" पर मैं इस सृष्टि के सभी प्राणियों में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में
परमात्मा को नमन करता हूँ। वे ही यह सारी सृष्टि बन गए है। भगवान वासुदेव के सिवाय अन्य कोई या कुछ भी नहीं है। वे अनन्य हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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इस जीवन में मेरे दो ही आदर्श पुरुष हैं -- भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण। अन्य कोई नहीं है। गीता में मुझे मेरे सारे आध्यात्मिक प्रश्नों और जिज्ञासाओं के उत्तर मिले हैं, इसलिए इस ग्रंथ को मैं भारत का प्राण मानता हूँ। जो कहीं पर भी नहीं है, वह ज्ञान गीता में है। गीता में सिर्फ तीन ही विषयों पर भगवान ने उपदेश दिये है -- कर्म, भक्ति, और ज्ञान। कोई चौथा विषय नहीं है। इन तीन विषयों को बताने के क्रम में सारे सनातन धर्म को उन्होने समाहित कर लिया है।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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साथ साथ वे यह भी कहते हैं --
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् - जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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अब हमें क्या करना चाहिए? इस विषय पर भगवान कहते है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
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अंत में गीता का चरम श्लोक है जिसकी व्याख्या करने में सभी स्वनामधान्य महानतम भाष्यकार आचार्यों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का प्रदर्शन किया है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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मेरी आस्था भगवान श्रीकृष्ण में क्यों है? --
मैं सदा ही भगवान शिव का ध्यान करता था। परमशिव की अनुभूतियाँ होने के पश्चात परमशिव का ध्यान करने लगा। जैसे शिव और विष्णु एक ही हैं, वैसे ही परमशिव और पुरुषोत्तम की अनुभूतियाँ भी एक जैसी होती हैं। एक दिन मन में एक विचार आया कि यह ध्यान कौन कर रहा है? उसी क्षण बहुत गहरी अनुभूति हुई कि सामने तो शांभवी मुद्रा में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं जो अपने ही परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। तब से सारे भेद समाप्त हो गए। एक दिन महाकाली का ध्यान करने पर लगा कि सामने तो स्वयं भगवान राधाकृष्ण खड़े हैं।
अब कहीं कोई भेद नहीं रहे हैं। किसी का भी ध्यान करूँ, अनुभूति यही होती है कि साधक, साध्य, और साधना स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।
अब तो वे ही मेरी साधना बन गए हैं।
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अंत में यही कहना चाहता हूँ कि स्वयं भगवान के आदेशानुसार गीता का ज्ञान सिर्फ सुपात्र को ही देना चाहिए, अपात्र को नहीं --
"इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥१८:६७॥"
अर्थात् - यह सर्वगुह्यतम वचन अतपस्वी को मत कहना; अभक्त को कभी मत कहना; जो सुनना नहीं चाहता, उसको मत कहना; और जो मेरे में दोषदृष्टि करता है, उससे भी मत कहना।
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गीता का ज्ञान किसे देना चाहिए ? भगवान कहते हैं --
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिम मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८:६८॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है॥
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिनमे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८:६९॥"
अर्थात् - न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा॥
"अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८:७०॥"
अर्थात् - जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है॥
"श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८:७१॥"
अर्थात् - तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा॥
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यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
अर्थात् - जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी जो स्वयं भगवान पद्मनाथ विष्णु की वाणी है, को आंशिक रूप में प्रस्तुत कर मैं धन्य हुआ। जिन्होंने भी इस लेख को पढ़ा है, उन सब का जीवन धन्य हो गया है। उनकी स्वयं का ही नहीं, उनकी सात पीढ़ियाँ भी धन्य हैं। आप सब का कल्याण हो !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२२