Tuesday, 2 April 2019

एक साधक का भय .....

एक साधक का भय .....
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शरणागति के भ्रम में कहीं अपने "अच्युत" स्वरूप को भूलकर "च्युत" न हो जाऊँ, दूसरे शब्दों में कहीं आध्यात्मिक अकर्मण्यता, निष्क्रियता या प्रमाद का शिकार न बन जाऊँ ..... इसी की आशंका आजकल हो रही है| यह मेरे लिए मृत्यु होगी| भगवान सनत्कुमार ने भी इसे ही मृत्यु बताया है..... "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" ...... अर्थात "प्रमाद ही मृत्यु है"| स्वयं की अकर्मण्यता के लिए परिस्थितियों व प्रतिकूल वातावरण को दोष देना भी मेरा एक गलत बहाना होगा|
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आध्यात्म के नाम पर कहीं अकर्मण्य न बन जाऊँ, इस की भी आशंका हो रही है| अपनी लालसाओं, कामनाओं व कमियों पर कहीं बड़े बड़े सिद्धांतों का आवरण डालकर उन्हें ढक न लूं, यह भी भय है| शांत रहकर सक्रिय, व सक्रियतापूर्वक शांत रहूँ (Calmly active and actively calm) इस का अभ्यास बना रहे, यह भी भगवान से प्रार्थना है|
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संसार की उपलब्धियों के लिए जितने साहस और संघर्ष की आवश्यकता है, उस से बहुत ही अधिक संघर्ष और साहस आध्यात्मिक जीवन के लिए करना पड़ता है| अदम्य भयहीन साहस व निरंतर अध्यवसाय के बिना कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती|
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हे परात्पर गुरु, आपके उपदेश मेरे जीवन में निरंतर परिलक्षित हों, आपकी पूर्णता और अनंतता मेरा जीवन हो, कहीं कोई भेद न हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ अप्रेल २०१९ 

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पुनश्चः :---- 
आध्यात्मिक दृष्टी से हम क्या बनते हैं, महत्व इसी का है, कुछ प्राप्त करने का नहीं| परमात्मा को प्राप्त करने की कामना भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि परमात्मा तो पहले से ही प्राप्त है| इसी भाव को अधिकाधिक सुदृढ़ करते हुए हमें अपने अहं को परमात्मा में पूर्णतः समर्पित करने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए| हमारा यह समर्पण ही हमें परमात्मा में मिलायेगा, कोई अन्य साधन नहीं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ अप्रेल २०१९

जहाँ मेरे प्रियतम हैं वहाँ तिमिर नहीं हो सकता .....

जहाँ मेरे प्रियतम हैं वहाँ तिमिर नहीं हो सकता| मैं भी उन्हीं के साथ जब एक हूँ तब फिर यह तिमिर का भ्रम और भय क्यों ??? साधू, सावधान !
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श्रुति भगवती कहती हैं ,,,,, "न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥"
(अन्वय :---- तत्र सूर्यः न भाति। चन्द्रतारकं न। इमाः विद्युतः न भान्ति। अयम् अग्निः कुतः भायात् । तं भान्तं एव सर्वं अनुभाति। तस्य भासा इदं सर्वं भाति ॥ .....हिंदी अनुवाद :--- ''वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है। कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है।") (कठोपनिषद्/२/२/१५).
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||
अर्थात् उस तेजोमय धाम यानि परमपद को सूर्य प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही शशाङ्क (चन्द्रमा) और पावक (अग्नि) भी प्रकाशित नहीं कर सकते| जिस परमधाम यानी वैष्णवपद को पाकर मनुष्य पीछे नहीं लौटते, और जिस को सूर्यादि ज्योतियाँ प्रकाशित नहीं कर सकतीं, वह मुझ विष्णु का परमधाम परमपद है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०१९

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जहाँ भी मेरे परमप्रेममय प्रियतम है, वहीं परम शान्ति और आनंद है. परमप्रेम का अभाव ही दुःख और अशांति है.
मेरे प्रियतम स्वयं ही साधक, साध्य और साधना हैं. पृथक "मैं" एक मिथ्या भ्रम है. वे ही एकमात्र सत्य हैं.
वे मुझ अकिंचन से प्रसन्न हैं या नहीं, इसका कोई महत्त्व नहीं है. प्रसन्न होने के सिवाय उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है. मेरा हृदय ही उनका हृदय है.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०१९
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हम कौन हैं ? सौ बात की एक बात है कि हम किसी के नहीं हैं और कोई हमारा नहीं है .....
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मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु: चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||१||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||२||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||३|
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं, न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||४||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||५||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||६||

(इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं)