Wednesday 26 April 2017

बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती .....

'नायमात्माबलहीनेनलभ्यः'
(बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती) ........
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जितेन्द्रिय व्यक्ति ही महावीर होते हैं, वे ही परमात्मा को प्राप्त करते हैं|
परमात्मा के प्रति परम प्रेम और गहन अभीप्सा के पश्चात इन्द्रियों पर विजय पाना आध्यात्म की दिशा में अगला क़दम है | बिना इन्द्रियों पर विजय पाए कोई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकता | इन्द्रियों पर विजय न पाने पर आगे सिर्फ पतन ही पतन है |
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मैं जो लिख रहा हूँ अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| मैं बहुत सारे बहुत ही अच्छे अच्छे और निष्ठावान सज्जन लोगों को जानता हूँ जिनकी आध्यात्मिक प्रगति इसीलिए रुकी हुई है कि वे इन्द्रियों पर नियंत्रण करने में असफल रहे है| मैंने जो कुछ भी सीखा है वह अत्यधिक कठिन और कठोरतम परिस्थितियों से निकल कर सीखा है| अतः इस विषय पर मेरा भी निजी अनुभव है|
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कुछ लोग अपनी असफलता को छिपाने के लिए बहाने बनाते हैं और कहते हैं कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'| पर वे नहीं समझते कि बिना इन्द्रियों पर नियंत्रण पाये मन पर नियन्त्रण असम्भव है|
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इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण का न होना आध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है| इन्द्रिय सुखों को विष के सामान त्यागना ही होगा| चाहे वह शराब पीने का या नशे का शौक हो, या अच्छे स्वादिष्ट खाने का, या नाटक सिनेमा देखने का, या यौन सुख पाने का| इन सब शौकों के साथ आप एक अच्छे सफल सांसारिक व्यक्ति तो बन सकते हो पर आध्यात्मिक नहीं| जितेन्द्रिय व्यक्ति ही महावीर होते हैं, वे ही भगवान को उपलब्ध होते हैं| यदि आपको महावीर बनना है तो जितेन्द्रिय होना ही होगा|
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इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण एक परम तप है| इससे बड़ा तप दूसरा कोई नहीं है| इसके लिए तपस्या करनी होगी| दो बातों का निरंतर ध्यान रखना होगा .....

(1) सारे कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो, ना कि इन्द्रियों की माँग पर .....
भगवान ने आपको विवेक दिया है उसका प्रयोग करो| इन्द्रियों की माँग मत मानो| इन्द्रियाँ जब जो मांगती हैं वह उन्हें दृढ़ निश्चय पूर्वक मत दो| उन्हें उनकी माँग से वंचित करो| यह सबसे बड़ी तपस्या है| इन्द्रियों का निरोध करना ही होगा|
(2) दृढ़ निश्चय कर के निरंतर प्रयास से मन को परमेश्वर के चिंतन में लगाओ|
विषय-वासनाओं से मन को हटाकर भगवान के ध्यान में लगाओ| जब भी विषय वासनाओं के विचार आयें, अपने इष्ट देवता/देवी से प्रार्थना करें, गायत्री मन्त्र का जाप करें आदि आदि|
सात्विक भोजन लें, कुसंग का त्याग करें, सत्संग करें और सात्विक वातावरण में रहें| निश्चित रूप से आप महावीर बनेंगे|
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श्रुति भगवती कहती है .... 'नायमात्माबलहीनेनलभ्यः'| अर्थात बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती| और यह बल उसी को प्राप्त होता है जो जितेन्द्रिय है और जिसने अपनी इन्द्रियों के साथ साथ मन पर भी नियंत्रण पाया है|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
26April2016

अनेक महान आत्माएँ दिन-रात एक कर के भारत के सकारात्मक उत्थान में लगी हुई हैं .....

 
चारों और चाहे कितना भी गहन अन्धकार हो, अनेक महान आत्माएँ दिन-रात एक कर के भारत के सकारात्मक उत्थान में लगी हुई हैं|
जन अपेक्षाओं और किसी भी तरह के यश और कीर्ति की कामनाओं से दूर अनेक दिव्य आत्माएँ भारत माँ के उत्थान कार्य में लगी हुई हैं|
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अनेक धर्म-प्रचारक पूरे विश्व में सनातन धर्म और आध्यात्म के प्रचार-प्रसार में निःस्वार्थ भाव से लगे हुए हैं| संघ के सैंकड़ों अज्ञात प्रचारक शांत भाव से अपने निज जीवन की आहुति देकर माँ भारती की सेवा में राष्ट्र साधना कर रहे हैं| अनेक वास्तविक साधू-संत अपनी साधना से राष्ट्र को एक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं| अनेक पूरी तरह से निष्ठावान व ईमानदार अधिकारी और कर्मचारी अपनी सेवाएँ राष्ट्र को प्रदान कर रहे हैं|
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सभी बुरे नहीं हैं, अच्छे लोग भी हैं जो किसी भी तरह के प्रचार से दूर हैं|
जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं यह स्वयं के हृदय से पूछें और अपना सर्वश्रेष्ठ भारत माँ को और परमात्मा को समर्पित करें|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं| स्वयं में अव्यक्त परम ब्रह्म को व्यक्त करें| जीवन में इसी क्षण से अपना सर्वश्रेष्ठ करें| भगवान हमारे साथ है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"कड़ी निंदा" कायरों का हथियार है ......

"कड़ी निंदा" कायरों का हथियार है ......
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> आतताइयों, देशद्रोहियों व ठगों को चारों और से घेरकर मारा जाए और फिर उन्हें कचरे में जला दिया जाए| >कुछ दिनों के लिए मानवाधिकार कार्यालयों को और बिकी हुई प्रेस की काँव काँव और बकवास को प्रतिबंधित कर देना चाहिए|
>भाड़े के भांड ठग आन्दोलनकारियों का संचालन करने वाले NGOs की पहिचान कर उन्हें बंद किया जाए|
>किसी भी कीमत पर आतताइयों को जीवित न रहने दिया जाए|
>सेना पर पत्थरबाजी करने वालों पर सीधे गोली चलाई जाए|
>कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा कर पूरा प्रशासन सेना के हवाले कर दिया जाए, और कश्मीर को ठगों से मुक्त कराया जाए|
 

वन्दे मातरं ! भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||
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जहाँ जहाँ देश के सैनिकों की हत्याएँ हो रही हैं, उन क्षेत्रों में आपत्काल घोषित कर सर्वप्रथम तो प्रेस-पत्रकारों के लिए वह क्षेत्र प्रतिबंधित कर देना चाहिए| नागरिकों को भी चाहिए कि उनके चैनलों पर उनकी राष्ट्रविरोधी काँव काँव और बकवास न सुने| उन क्षेत्रों की कवरेज भी प्रतिबंधित कर दी जाए| फिर अर्धसैनिक बालों को पूरी छूट देकर राष्ट्रद्रोहियों को चारों और से घेरकर समाप्त कर दिया जाए|

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता ही मनुष्य की समस्त पीड़ाओं का कारण है ..

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता ही मनुष्य की समस्त पीड़ाओं का कारण है ..
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सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण| प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे|
जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं|
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संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति| तब आपका अस्तित्व ही दूसरों के लिए वरदान बन जाता है| तब आप इस धरा को पवित्र करते हैं, पृथ्वी पर चलते फिरते भगवान बन जाते हैं, आपके पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है|
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परमात्मा एक प्रवाह की तरह हैं जिसे शांत होकर अपने भीतर बहने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| उनकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो|
जब उनकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक अपने ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी|
हे प्रभु, यह मेरापन, सारी वासनाएँ, और सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हें समर्पित है|
जल की यह बूँद तेरे महासागर में समर्पित है जो तेरे साथ एक है, अब कोई भेद ना रहे|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

खेचरी मुद्रा ......

April 25, 2014 ·
खेचरी मुद्रा .....
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यह सदा एक गोपनीय विषय रहा है जिसकी चर्चा सिर्फ निष्ठावान एवम् गंभीर रूप से समर्पित साधकों में ही की जाती रही है| पर रूचि जागृत करने हेतु इसकी सार्वजनिक चर्चा भी आवश्यक है| ध्यानस्थ होकर योगी महात्मा गण अति दीर्घ काल तक बिना कुछ खाए-पीये कैसे जीवित रहते हैं? इसका रहस्य है ....'खेचरी मुद्रा'|
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ध्यान साधना में तीब्र गति लाने के लिए भी खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है| 'खेचरी' का अर्थ है ..... ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश तत्व यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण| जो बह्म में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है पर प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है की साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है|
वेदों में 'खेचरी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है| वैदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया -- 'विश्वमित्'|
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दत्तात्रेय संहिता और शिव संहिता में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है .....
"करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम् |
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम् ||"
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतागामी करता है, अर्थात जीभ को तालुका में बैठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
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जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे| वे खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं| इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों में जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे| तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
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हमारे महान पूर्वज स्थूल भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गःज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य) में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में, और साथ साथ श्रवण यानि अनाहत नाद (प्रणव) के रूप में सर्वदा होते हैं|
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ध्यान साधना में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है:-----
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
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खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि के बारे में पढ़ा है पर मुझे उसका अभी तक ज्ञान नहीं है| सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर, पद्मासन में बैठ कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
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भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य के नीचे) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
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जो योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की गुरु परम्परा में क्रिया योग साधना में दीक्षित हैं उनके लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास अनिवार्य है| क्रिया योग की साधना खेचरी मुद्रा में होती है| जो खेचरी मुद्रा नहीं कर सकते उनको जीभ ऊपर को ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखनी पडती है| खेचरी मुद्रा में क्रिया योग साधना अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है|

ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
April 25, 2014.

नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास .....

> वर्तमान नक्सलवादियों का मूल नक्सलवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है| मूल नक्सलवाद और नक्सलवादियों का अब कोई अस्तित्व नहीं है| वर्तमान नक्सलवादी और उनके समर्थक "ठग" है, और "ठग" के अलावा कुछ और नहीं हैं|
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> जिस समय नक्सलबाड़ी में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलवादी आन्दोलन का आरम्भ किया था, तब से अब तक का सारा घटनाक्रम मुझे याद है| उस समय की घटनाओं का सेकंड हैण्ड नहीं, फर्स्ट हैण्ड ज्ञान मुझे है| उस आन्दोलन से जुड़े अनेक लोग मेरे परिचित और तत्कालीन मित्र थे|
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> जो मूल नक्सलवादी थे उनकी तीन गतियाँ हुईं .......
* (१) उनमें से आधे तो पुलिस की गोली का शिकार हो गए| किसी को पता ही नहीं चलने दिया गया था कि उनका क्या हुआ, कहाँ उनकी लाशों को ठिकाने लगाया गया आदि आदि| वे अस्तित्वहीन ही हो गए|
* (२) जो जीवित बचे थे उन में से आधों ने तत्कालीन सरकार से समझौता कर लिया और नक्सलवादी विचारधारा छोड़कर राष्ट्र की मुख्य धारा में बापस आ कर सरकारी नौकरियाँ ग्रहण कर लीं|
* (३) बाकी बचे हुओं ने इस विचारधारा से तौबा कर ली और इस विचारधारा के घोर विरोधी हो गए|
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> अब नक्सलवाद के नाम पर जो यह ठगी और लूट का काम कर रहे हैं, वे बौद्धिक आतंकवादी, ठग, डाकू और तस्कर हैं|
उनका एक ही इलाज है, और वह है ...... "बन्दूक की गोली"|
इसी की भाषा को वे समझते हैं| वे कोई भटके हुए नौजवान नहीं है, वे कुटिल राष्ट्रद्रोही तस्कर हैं, जिनको बिकी हुई प्रेस, वामपंथियों और राष्ट्र्विरोधियों का समर्थन प्राप्त है|
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नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास .......
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नक्सलवादी आन्दोलन का विचार कानू सान्याल के दिमाग की उपज थी| यह एक रहस्य है कि कानू सान्याल इतना खुराफाती कैसे हुआ| वह एक साधू आदमी था जिसका जीवन बड़ा सात्विक था| उसका जन्म एक सात्विक ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उसकी दिनचर्या बड़ी सुव्यवस्थित थी और भगवान ने उसे बहुत अच्छा स्वास्थ्य दिया था| सन १९६२ में वह बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री वी.सी.रॉय को काला झंडा दिखा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेट चारु मजुमदार से हुई|
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चारु मजूमदार एक कायस्थ परिवार से था और हृदय रोगी था, जो तेलंगाना के किसान आन्दोलन से जुड़ा हुआ था और जेल में बंदी था| दोनों की भेंट सन १९६२ में जेल में हुई और दोनों मित्र बने|
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सन १९६७ में दोनों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एक घोर मार्क्सवादी आन्दोलन आरम्भ किया जो नक्सलवाद कहलाया| इस आन्दोलन में छोटे-मोटे तो अनेक नेता थे पर इनको दो और प्रभावशाली कर्मठ नेता मिल गए ........ एक तो था नागभूषण पटनायक, और दूसरा था टी.रणदिवे| इन्होनें आँध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के जंगलों से इस आन्दोलन का विस्तार किया|
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यह आन्दोलन पथभ्रष्ट हो गया जिससे कानु सान्याल और चारु मजूमदार में मतभेद हो गए और दोनों अलग अलग हो गए| चारु मजुमदार की मृत्यु सन १९७२ में हृदय रोग से हो गयी, और कानु सान्याल को इस आन्दोलन का सूत्रपात करने की इतनी अधिक मानसिक ग्लानी और पश्चाताप हुआ कि २३ मार्च २०१० को उसने आत्महत्या कर ली|
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अब आप नक्सलवादी आन्दोलन का अति संक्षिप्त इतिहास समझ गए होंगे|
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वन्दे मातरं | भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :-----
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>>> माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है| इसमें राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठना पडेगा| सभी शासकों को पता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं| इस कार्य के लिए विशेषज्ञ भी हैं और अनुभवी व्यक्ति भी| पर राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ जाते हैं|
(१) सबसे पहले तो स्वयं को माओवादी क्रांतिकारी बताने वाले ठगों से वनवासियों को बचाना होगा| इन ठगों का निश्चित विनाश तो करना ही होगा|
(२) फिर प्राकृतिक संसाधनों .... जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए वनवासियों का सहयोग लेना ही होगा और उन्हें ही इसकी जिम्मेदारी भी देनी होगी|
(३) वनवासियों को साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों और पूंजीपतियों के शोषण से बचाना होगा|
(४) वनवासियों के लिए एक पुलिस का सिपाही और एक कनिष्ठ से कनिष्ठ सरकारी कर्मचारी ही सरकार होता है| सरकारी कर्मचारियों को भी प्रशिक्षित करना होगा की वे वनवासियों को सताएँ नहीं|
(५) वनवासी क्षेत्रों में निःशुल्क शिक्षा और इलाज की व्यवस्था करनी होगी|
(६) वनवासी कल्याण परिषद् जैसी संस्थाओं को सहयोग देना भी होगा और उनसे सहयोग लेना भी होगा| उन्हें इस क्षेत्र का बहुत अनुभव है|
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>>> नक्सलवाद एक विफल विचारधारा है| इसके संस्थापक कानू सान्याल ने इसके भटकाव और विफलता से दुःखी होकर आत्म ह्त्या कर ली थी| उनके सहयोगी चारू मजूमदार भी निराश होकर ह्रदय रोग से मर गए थे| इस पर मैं एक लेख पोस्ट कर चुका हूँ| इस आसुरी विचारधारा का कोई भविष्य नहीं है|

ओशो ......

ओशो ......
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सन १९६० व १९७० के दशकों में जितना साहित्य आचार्य रजनीश उर्फ़ भगवान श्री रजनीश उर्फ़ ओशो का पढ़ा गया उतना शायद ही अन्य किसी मनीषी का पढ़ा गया था| सन १९८५ तक उनका स्वर्ण काल था जब अमेरिका से प्रताड़ित और अपमानित कर के उनको देश-निकाला दिया गया| उनके कुछ वफादार शिष्य तो अंत तक उनके वफादार रहे पर अनेकों ने उनके साथ विश्वासघात भी किया|
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ओशो का हिंदी में उपलब्ध साहित्य मैनें उस समय से पढ़ा है जब वे आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते थे| अमेरिका जाने से पूर्व जब वे पुणे में थे तब मैंने उनको एक पत्र लिखा था जिसके उत्तर में उनकी संस्था ने मुझे पुणे में उनके कोरेगाँव स्थित आश्रम में आने का निमंत्रण भी दिया था| उनके जैसा प्रतिभाशाली विद्वान् वर्तमान काल में मेरी दृष्टी में तो किसी अन्य को पाना अत्यंत कठिन है| उनके शब्दों की नक़ल भी बहुत अधिक हुई है|
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ओशो की सबसे बड़ी खूबी तो यह थी कि उन्होंने ईसाईयत के साथ कभी भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया|
ओशो से पूर्व जितने भी भारतीय सन्यासी अमेरिका गए थे ...... स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी योगानंद (परमहंस योगानंद) ..... प्रायः सभी ने ईसा मसीह को भगवान श्रीकृष्ण के समकक्ष रखा ताकि वहाँ के लोग उनकी बात सुनें| यदि वे ऐसा नहीं करते तो उस ईसाई देश में उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक प्रकार की आध्यात्मिक मार्केटिंग थी|
पर ओशो ने ऐसा कोई समझौता नहीं किया| उन्होंने ईसाईयत पर निरंतर मर्मान्तक प्रहार किये और लाखों लोगों को ईसाईयत के भ्रमजाल से बाहर निकाला| ईसाईयत पर किये गए उनके प्रहारों से आहत होकर ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन ने उनको प्रताड़ित और यंत्रणा दे कर के अपने देश से बाहर निकाला| उनको धीमा जहर भी अमेरिका में दिया गया जिससे वे रुग्न होकर शीघ्र ही काल-कवलित हो गए|
ओशो से पूर्व भक्तिवेदांत प्रभुपाद स्वामी अमेरिका गए थे, उन्होंने भी ईसाईयत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया||
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ओशो की कमियों को देखें तो उनकी सबसे बड़ी कमी थी उनके शब्दों में अंतर्विरोध जो स्वयं उन्होंने स्वीकार भी किया था| उनका "सम्भोग से समाधी" वाला सिद्धांत पश्चिम ने तो स्वीकार किया, पर प्रायः सभी प्रचलित भारतीय परम्पराओं के विरुद्ध होने के कारण भारत में उनकी सर्वाधिक आलोचना भी इसी कारण हुई|
वे जैन समाज में जन्में थे पर जैन धर्म से बंधे हुए नहीं थे|| उन्होंने महावीर के सिद्धांतों के अतिरिक्त, अन्य किसी जैन आचार्य की जहाँ तक मुझे ज्ञात है कोई चर्चा नहीं की है|
उनके "सम्भोग से समाधी" वाले सिद्धांत ने लोगों को बहुत अधिक भ्रमित किया और इसी के चलते वे भारतीय जनमानस में स्वीकृत नहीं हुए|
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मैं उनका न तो अनुयायी हूँ और न विरोधी, पर निष्पक्ष रूप से उनके साहित्य के लिए उनका प्रशंसक अवश्य हूँ| उन्हें नकार नहीं सकता| उनके व्यक्तिगत जीवन में मेरी कोई रूचि नहीं है| अपने साहित्य के कारण ही वे मरे नहीं हैं, आज भी जीवित हैं| उनका साहित्य उन्हें सदा जीवित रखेगा|
इति||
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पुनश्चः : --- ओशो के कारण ही मैंने "विज्ञान भैरव तंत्र" और "नारद भक्ति सूत्रों" का कई बार गहन अध्ययन किया| ओशो के कारण ही मेरी रूचि वेदान्त दर्शन में जागृत हुई| भारत के अनेक संतों पर लिखे उनके लेख बहुत अधिक प्रेरणादायक हैं|

परमात्मा एक प्रवाह है .....

>>> "परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| फिर पाएँगे कि वह प्रवाह हम स्वयं हैं|" <<<
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प्रिय निजात्मगण, आप सब में हृदयस्थ प्रभु को नमन !
आप सब से एक प्रश्न है ..... क्या इस संसार में कुछ पाने योग्य है ?
आध्यात्मिक दृष्टी से सर्वप्रथम तो कुछ पाने की अवधारणा ही गलत है|
कुछ पाने की कामना ही माया का सबसे बड़ा अस्त्र है|
>>> या तो सब कुछ मिलता है या कुछ भी नहीं मिलता, यह एक आध्यात्मिक नियम है| यह कुछ पाने की अभिलाषा एक मृगतृष्णा है| किसी को कुछ नहीं मिलता| <<<
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सब कुछ परमात्मा का है और सब कुछ "वह" ही है| हमें स्वयं को ही समर्पित होना पड़ता है| जो परमात्मा को समर्पित हो गया उसको सब कुछ मिल गया| बाकि अन्य सब को निराशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता|
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सब कुछ तो मिला हुआ ही है| पाने योग्य कुछ है तो "वह" ही है जिसे पाने के बाद कुछ भी प्राप्य नहीं है| "वह" मिलता नहीं है, उसमें स्वयं को समर्पित होना पड़ता है| कुछ करने से "वह" नहीं मिलता, कुछ होना पड़ता है| वह होने पर "वह" स्वयं ही कर्ता भी बन जाता है|
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हमें चाहिए बस सिर्फ एक प्रबल सतत अभीप्सा और परम प्रेम, अन्य कुछ भी नहीं|
>>> "परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| फिर पाएँगे कि वह प्रवाह हम स्वयं हैं|" <<<
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ॐ तत्सत् | शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
24 April 2016

देश खनन माफियाओं के चंगुल में है .....

April 23, 2013.

ॐ श्री गुरवे नमः| आज मैं साधन क्रमों पर चर्चा करने वाला था पर उसके स्थान पर अपनी ही व्यथा व्यक्त करने जा रहा हूँ| अपने सामने इतना अन्याय देख रहा हूँ कि इस समाज से विरक्ति हो गयी है| इच्छा यही हो रही है कि विरक्त होकर सांसारिक चेतना से ऊपर उठ जाऊं और स्थाई रूप से एकांतवास करूं व इस समाज और इसकी चेतना से पृथक ही रहूँ|
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सारा देश इस समय खनन माफियाओं के चंगुल में है| हर जिले में पटवारी से जिलाधीश तक, और सिपाही से पुलिस अधीक्षक तक, और सारे मंत्रीगण खनन माफियाओं के बंधुआ मजदूर है| देश की बहुमूल्य खनिज संपदा की लूट हो रही है| और जो भी इन माफियाओं के मार्ग में आता है उसका अंत कर दिया जाता है|
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स्वतन्त्रता संग्राम में हमारे क्षेत्र में स्वतंत्रता सेनानियों के शिरोमणि थे --- पचेरी ग्राम के पं.ताड़केश्वर शर्मा| अंगरेज़ सरकार ने उनके पूरे परिवार को सगे सम्बन्धियों, महिलाओं और बच्चों सहित जेल में डाल रखा था| उनका घर, खेत और सारी सम्पति जब्त कर ली थी| तथाकथित आज़ादी के बाद उनके परिवार के जीवित बचे छ: सदस्यों को राष्ट्रपति ने सम्मानित भी किया था|
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उनके पौत्र पं.प्रदीप शर्मा पर्यावरण प्रेमी होने के कारण और परोपकार हेतु खनिज माफियों के विरुद्ध संघर्षरत थे| दो माह पूर्व उनके परिवार के अनुसार पुलिस की मिलीभगत से चुनौती देकर भोजन करते समय घर से बाहर बुलाकर उनकी ह्त्या कर दी गयी और लाश को एक-डेढ़ फुट गहरे नाले में फेंक दिया गया| उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर आसपास के गाँवों से हजारों लोग एकत्र हो गए व जिले के कई प्रतिष्ठित लोग भी आ गए तब प्रशासन ने पूर्ण आश्वासन दिया था कि मामले की निष्पक्ष जांच होगी| उनके शरीर पर और गले पर चोट के निशान भी थे|
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अब सरकार यह सिद्ध करने पर अड़ी हुई है कि पं.प्रदीप शर्मा ने पानी में डूब कर आत्म-हत्या की है| सरकारी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में भी दम घुटने से मौत दिखाई गई है और शरीर पर चोटों के निशान नहीं होना बताया है| उनके गाँव पचेरी में अभी तक आन्दोलन चल रहा है| सारे गाँव के लोग पाबन्द किए गए हैं| आस पास के गाँवों में पूर्ण बंद रहा है और प्रशासन ने जन आन्दोलन को कुचलने की पूर्ण चेष्टा की है| पं.प्रदीप शर्मा के घर का ताला तोड़कर उनका चलभाष और अन्य साक्ष्य चोरी किये गए| जाँच के नाम पर सारे साक्ष्यों को मिटाया गया है| क्या इतने जीवट का व्यक्ति जो खनन माफियाओं के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था एक फुट गहरे पानी में डूब कर आत्म-ह्त्या करेगा?
क्या कोई एक फुट गहरे पानी में डूब कर आत्म-हत्या कर सकता है?
दो महीने बीत जाने पर भी किसी नामजद को गिरफ्तार नहीं किया गया है| CBI से जाँच की मांग नहीं मानी जा रही है| यदि CBI से जाँच हो तो पूरी सरकार बेनकाब हो जायेगी| पर सीबीआई भी तो सरकार से ही आदेश लेगी|
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कल जिला मुख्यालय पर एक बहुत बड़ा धरना दिया गया जिसमे अनेक पूर्व वरिष्ठ पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी, प्रसिद्ध डॉक्टर, प्रबुद्धजन, शिक्षाविद और मातृशक्ति थी| सबने इस घटना की निंदा की| ज्ञापन लेने के लिए कोई अधिकारी उपलब्ध नहीं था| अब उस महान स्वतंत्रता सेनानी के परवार के सदस्यों ने निर्णय लिया है की वे अपने सम्मान लौटा देंगे और आमरण अनशन करेंगे|
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जब एक प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी का परिवार इन खनन माफियाओं से सुरक्षित नहीं है तो एक सामान्य जन का क्या हाल होगा?
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और भी अनेक बातें हैं जो पीड़ित करती हैं| इसमें दोष बुरे लोगों का नहीं है| दोष तो हमारा ही है हम निर्बल और संवेदन हीन बन गए हैं|
दुनिया को खतरा बुरे लोगों की ताकत से नहीं है बल्कि अच्छों की दुर्बलता के कारण है|
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वर्त्तमान में Democracy (लोकतंत्र) समाप्त होकर Plutocracy (धनी व कुटिल लोगों का राज्यतंत्र) रह गयी है| वर्त्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था काले विषधर उगल रही है और हम उन्हें दूध पिला रहे हैं| आज की राजनीति आत्मा पर लात मार रही है और हम वफादारी के साथ अपनी दुम हिला रहे हैं|
हम सत्य को कहने से डर रहे हैं|
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अधिक से अधिक 50 या 60 प्रतिशत मतदान होता है फिर ये मत अनेक प्रत्याशियों में बँट जाते हैं| मात्र 20-25 मत प्राप्त करने वाला व्यक्ति जनप्रतिनिधी बन जाता है|
वोट बेंक की राजनीति, जातिवाद, साम्प्रदायिकता की भावना भड़का कर, पैसे शराब आदि बाँट कर 15 से 20 प्रतिशत वोट प्राप्त कर लेने वाले की जीत पक्की है| सारे माफिया इसी तरीके से सत्ता में आते हैं|
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हमारे मन में लाचारी का भाव की मैं अकेला क्या कर सकता हूँ, मेरी कौन सुनेगा आदि के कारण ही यह democracy बदल कर plutocracy हो गई है| मैं सभी पाठकों से निवेदन करता हूँ की हम सब यह संकल्प करें की अगले चुनावों में शत-प्रतिशत मतदान के लक्ष्य को प्राप्त करें| समाज के जिस पात्र भाई बहिन का नाम मतदाता सूचि में नहीं है वे अपना नाम जुड़ायें| मतदान वाले दिन सूर्य उदय होते ही एक धार्मिक कर्तव्य मानकर मतदान देने पहुँच जाएँ| अन्यथा यही अन्याय और माफिया राज्य सहने के लिए तैयार रहें| सोचें, विचारें और सक्रियता से आगे बढ़ें अन्यथा पांचाली के चीर हरण में जो चुप रहेंगे उन्हें भावी पीढी कभी क्षमा नहीं करेगी|
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शुभ कामनाएँ| जय जननी जय भारत|
२३ अप्रेल, २०१३.

अप्राप्त के लालच का त्याग .........

अप्राप्त के लालच का त्याग .........
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प्रिय निजात्मगण,
आप सब में हृदयस्थ भगवन नारायण को नमन!
आज प्रातः ही एक लेख पढ़ रहा था जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया| एक बात जो बार बार भूल जाता हूँ वह चैतन्य की गहराई में बैठ गयी|
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हमारे जीवन का लक्ष्य है --- शरणागति द्वारा भगवान के श्रीचरणों में सम्पूर्ण समर्पण अर्थात अपने मन बुद्धि चित्त और अहंकार का सम्पूर्ण समर्पण|
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अब प्रश्न उठता है कि इसमें बाधा क्या है? इसमें सबसे बड़ी बाधा है --- कुछ पाने का लालच अर्थात जो अप्राप्त है उसे पाने का लोभ| हम कुछ माँगते हैं यह हमारा लोभ ही है| इच्छा शक्ति मात्र से इस लोभ रूपी महाशत्रु पर विजय नहीं पाई जा सकती| किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्पों से बचो|
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जीवन का सार कुछ होने में है, न की कुछ प्राप्त करने में| आप यह देह नहीं हैं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं| जब आप परमात्मा को उपलब्ध हैं तो सब कुछ आपका ही है| फिर काहे की इच्छा?
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जो कुछ भी प्राप्त है उसका पूर्ण सदुपयोग भी होना चाहिए| इसमें मार्गदर्शन प्रत्यक्ष परमात्मा की कृपा से ही मिलता है जो उनके प्रति परम प्रेम से प्राप्त होती है| कोई भी कामना न करें| कामना ही सब दुःखों का कारण है|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर

जिस गति से हमारा भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है उसी गति से हमारा आध्यात्मिक अज्ञान भी अनावृत हो रहा है .......

जिस गति से हमारा भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है उसी गति से हमारा आध्यात्मिक अज्ञान भी अनावृत हो रहा है ........
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चाहे कोई मेरा कितना भी उपहास करे, मेरी कितनी भी हँसी उड़ाये या मुझे कितना भी बुरा बताए, पर यह सुनिश्चित है कि वर्तमान सभ्यता निकट भविष्य में नष्ट होगी व एक नई प्रजाति इस पृथ्वी पर राज्य करेगी| ऐसा मुझे बार बार आभास होता है|
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वर्तमान सभ्यता ने आत्मज्ञान यानि ब्रह्मज्ञान को असंगत बना रखा है, आत्मा व परमात्मा के चिंतन को पिछड़ेपन की निशानी, साम्प्रदायिक व बेकार की बात बना रखा है| वर्त्तमान सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य इन्द्रिय सुखों के लिए ही भौतिक समृद्धि की प्राप्ति है| भौतिक समृद्धि आवश्यक है पर उस का लक्ष्य निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| सारे ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत भी परमात्मा ही है| आसुरी सभ्यताएँ चिरस्थायी नहीं होतीं|
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अपने स्वयं को यानि आत्म-तत्व को जाने बिना हम सब कुछ जानना चाहते हैं| अपने वास्तविक कल्याण के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर कोई प्रयास नहीं हो रहा है| सौभाग्य से इस लक्ष्य के प्रति जागरूक दिव्यात्माओं का भी जन्म हो रहा है जो एक नई प्रजाति ही है|
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हे प्रभु, हे परमशिव, आप की आरोग्यकारी उपस्थिति आप की सभी संतानों के देह, मन और आत्माओं में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो| आपके अतिरिक्त हमारी कोई अन्य कोई कामना नहीं हो| हम राग-द्वेष और अहंकार जैसे सभी बंधनों से मुक्त हों|
ॐ ॐ ॐ ||

राष्ट्र और समाज की चिंता संत महात्माओ को ही होती है .....

राष्ट्र और समाज की चिंता संत महात्माओ को ही होती है .....
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जिस समय पृथ्बी पर रावण का आतंक था, उस समय जनक तथा दशरथ जैसे चक्रवर्ती राजा राज्य कर रहे थे| वे कभी भी रावण का वध कर सकते थे, पर धर्मरक्षा की चिंता विश्वामित्र जैसे संतों को ही हुई| राष्ट्र और समाज की चिंता सिर्फ संत महात्माओ को ही होती है|
गाधि तनय मन चिंता व्यापी ,हरि बिन मरय न निशिचर पापी|
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मेरे मन में प्रश्न यह उठता है जब इतने बड़े बड़े पराक्रमी चक्रवर्ती राजा थे उन्होंने रावण से युद्ध क्यों नहीं किया? एक संत को ही यह चिंता क्यों हुई कि हरि बिना ये निशाचर पापी नहीं मरेंगे|
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वर्त्तमान में भी देश की चिंता सिर्फ संत महात्माओं को ही है| वे ही इस समय सर्वाधिक प्रयास कर रहे हैं और अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं| उन्ही के पुण्य प्रताप से सनातन धर्म और भारतवर्ष जीवित है|
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भारतवर्ष को इस समय आवश्यकता है एक ब्रह्मतेज की| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तब क्षातृत्व भी जागृत होगा| इसके लिए साधना और समर्पित साधकों की आवश्यकता है| यह संत महात्माओं का तप ही रक्षा करेगा|

ॐ शिव !

परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है ......

परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है ......
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पानी का एक बुलबुला सागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है| उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है? पर वही बुलबुला जब सागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड रूप धारण कर लेता है|
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वैसे ही मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है, उतना ही महान है| जितना वह परमात्मा से दूर है, उतना ही छोटा है| जितने हम परमात्मा से समीप हैं उसी अनुपात में प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है| जितना हम परमात्मा से दूर जायेंगे प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उसी अनुपात में हम से विपरीत जाने को बाध्य होगी |

ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारी आत्मा हम स्वयं हैं, और यह संसार एक दर्पण है .....
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दर्पण को कितना भी सजा लें, यदि हमारी आत्मा कलुषित है तो प्रतिबिंब भी कलुषित ही होगा | उज्जवल ही करना है तो बिम्ब का करें | शृंगार स्वयं अपनी आत्मा का करें, फिर उसका प्रतिबिंब यह संसार भी अति सुन्दर होगा |
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हम उस दाता से जुड़ें, न कि भिखारी दुनिया से | शृंगार ही करना है तो स्वयं के चेहरे का करें, न की दर्पण का |
ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा.....

"कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा".....

भगवान के नाम का जो इतना अवर्णनीय महत्व है वह तो सभी युगों के लिए होना चाहिए, पर सिर्फ कलियुग के लिए ही इसका इतना अधिक महत्व क्यों बताया गया है? अन्य युगों में क्या और भी कोई आधार था?
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यह प्रश्न मैनें माननीय स्वर्गीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी से पूछा था| उन्होंने जो उत्तर दिया था उसे साभार उन्हीं के शब्दों में प्रेषित कर रहा हूँ......
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"हर हर महादेव......नमन मान्यवर कृपा शंकर बी. जी,
एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?…। वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके,तब निर्णय के लिए मुनि व्यास के पास पहुंचे। व्यासजी उस समय गंगाजी में स्नान कर रहे थे। मुनि मंडली उनकी प्रतीक्षा में गंगाजी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठ गयी……। वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यासजी गंगा में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और “शूद्रः साधुः“,”कलिः साधुः” पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्ताभ्यो धन्यरोस्ति कः ‘ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गए। व्यासजी द्वारा कहे गए मन्त्र नदी स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मंत्रो में से नहीं थे, वो जो कह रहे थे उसका अर्थ है ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है!!!’ मुनिगण संदेह के समाधान हेतु आये थे,परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गए और जिज्ञासा से एक दुसरे को देखने लगे……कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्यासजी जब आश्रम में आये,तब मुनिगण भी उनके समीप पहुंचे। वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनंतर आसनों पर बैठ गए तब व्यासजी ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा। मुनियों ने कहा कि हमलोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे, किन्तु इस समय उसे रहने दिया जाए, केवल हमें संभव हो तो यह बतलाया जाए कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, सो बात क्या है? हमें कृपा करके बताएं। यह जान लेने के बाद हम जिस आतंरिक संदेह के समाधान के लिए आये थे,उसे कहेंगे।
व्यासजी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को जो बार बार साधुश्रेष्ठ कहा, आपलोग सुनें। जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है, उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…। जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में सिर्फ ईश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा।"
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"शास्त्रों में लिखा है कि कलियुग में भगवान का अवतरण होता है 'नाम' के रूप में। कलियुग में जो युग-धर्म है वह है नाम संकीर्तन। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है कि कलियुग में केवल हरिनाम ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसके अलावा किसी भी अन्य साधना से सद्गति नहीं है। यही बात नानक देव ने भी कही है, 'नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।' रामचरितमानस में भी यही लिखा है, कलियुग केवल नाम आधारा। किसी भी संत के पास चले जाओ, किसी भी शास्त्र को उठाओ, सब यही इंगित करते हैं कि कलियुग में भगवान का अवतरण उनके नाम के रूप में हुआ है। इसी से उद्धार होगा।
यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि यह भगवद् नाम अन्य भौतिक नामों की तरह जड़ नहीं है। भौतिक जगत में हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का नाम लक्ष्मीपति है परंतु वह है एक भिखारी। अथवा नयनमणि नाम वाला व्यक्ति एक आँख से काना है। किंतु भगवद् राज्य में ऐसा नहीं होता। लक्ष्मीपति भगवान वास्तव में लक्ष्मी के पति ही हैं व सबसे धनी हैं। गोविंद सभी इंदियों के स्वामी हैं व इंदियां उनकी सेवा में नियुक्त हैं। कृष्ण नाम जिनका है, वे वास्तव में सभी को आकर्षित करने वाले हैं।
भगवद् नाम हमारी दुष्टों से रक्षा करेगा, हमें इस भव सागर से पार कराएगा, हमें हमारी इच्छानुसार वरदान देगा। वह सब कुछ करेगा, किंतु इसके लिए हमें पूर्ण रूप से समर्पित होकर नाम कीर्तन करना होगा। यह तभी होगा। आखिर दौपदी ने वस्त्र हरण के समय जब तक पूर्ण शरणागत होकर दोनों हाथ उठा कर भगवान को नहीं पुकारा था, तब तक भगवान नहीं आए थे।"
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"एक बार राजा परीक्षित जंगल से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक बैल को एक टाँग पर खड़ा देखा। जब राजा ने बैल से पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया क्योंकि वे और कोई और नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् धर्मराज थे और धर्मराज कैसे किसी की निंदा कर सकते थे? तब परीक्षित ने ध्यान बल से पता लगाया कि इनकी ऐसी दशा का जिम्मेदार कलियुग है। राजा ने सोचा कि कलियुग के आने पर संसार में चारों तरफ लूट-पाट चोरी-डकैती आदि नाना प्रकार के पापकर्मों की वृद्धि हो जायेगी अतः इस कलियुग का अंत कर देना चाहिए। जब उन्होंने कलियुग का अंत करने का पूरा मानस बना लिया था तभी उनके मन में एक विचार आया, जिसके कारण उन्होंने कलियुग का अंत करने का विचार त्याग दिया। उन्होंने सोचा कि कलियुग में सभी प्रकार की बुराइयां हैं, लेकिन इस में एक बहुत बड़ी अच्छाई भी है जिसका लाभ कलियुग में सबको प्राप्त होगा और वो वह है कि कलियुग में ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोगों को बड़े-बड़े यज्ञ नहीं करने पड़ेंगे। सालों-साल तक तपस्या नहीं करनी पड़ेगी केवल एक बार सच्चे मन से जो व्यक्ति ईश्वर के नाम का उच्चारण करेगा और ईश्वर को याद करेगा बस उसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने उस समय कलियुग पर केवल पूर्णतया नियंत्रण कर लिया लेकिन उसका वध नहीं किया। इसी का उल्लेख तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है -
कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा......
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी जी.