पूरे भारत की सबसे बड़ी और लगभग एकमात्र समस्या राष्ट्रीय चरित्र की है। अन्य कोई समस्या नहीं है। हमारा अब इस समय कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं रह गया है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र -- उचित/अनुचित कैसे भी साधन से सिर्फ पैसे बनाना, परनिंदा और दूसरों को नीचा दिखाना ही हो गया है। इसके लिए दूसरों का गला भी काटने को हम तैयार रहते हैं। सारे पारिवारिक संबंध सिर्फ ढोंग मात्र ही रह गए हैं, जिनके पीछे सिर्फ छल-कपट, झूठ और बेईमानी ही दिखाई देती है।
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क्या ऐसी भी कोई विद्या है जिसे जानने के पश्चात अन्य कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं पड़ती? मुंडकोपनिषद के अनुसार एक तो पराविद्या है जो परमात्मा का ज्ञान कराती है। दूसरी अपराविद्या है जो धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराती है। परमात्मा का साक्षात्कार जिससे होता है, वह पराविद्या है, और लौकिक ज्ञान अपरा विद्या है।
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पूरे भारत में शिक्षा का समान अधिकार, और समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता एक धोखा है। भारत का संविधान हिंदुओं को अपने विद्यालयों में सनातन-धर्म की शिक्षा का अधिकार नहीं देता। इसलिए हिन्दू युवाओं को अपने धर्म का ज्ञान नहीं रहा है। गुरुकुलों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त नहीं है। वहाँ से शिक्षित सिर्फ कर्मकांड ही कर सकता है। उसे चपड़ासी की नौकरी भी नहीं मिल सकती। मदरसों व कोन्वेंटों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त है। इस्लामी शिक्षा को पढ़ा युवा प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दे सकता है, वहीं पर वेद-उपनिषदों को पढ़ा युवा एक क्लर्क की नौकरी के लिए भी आवेदन नहीं कर सकता। समाज का वातावरण ऐसा बन गया है कि हिन्दू धर्म व मान्यताओं को हर कदम पर नीचा दिखाया जाता है।
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ठीक है जो भी जैसा भी है, हम कुछ भी नहीं कर सकते। यह संसार भगवान का बनाया हुआ है। वे जानें और उनका काम जाने। संसार को सुधारना भगवान का काम है, हमारा नहीं। यदि भगवान चाहते हैं कि अधर्म का राज्य हो तो अधर्म का आसुरी राज्य ही होगा। हमारा काम तो भक्ति और समर्पण मात्र ही है, वह भी भगवान की इच्छा पर निर्भर है।
ॐ तत्सत् !!
१ सितंबर २०२१