Thursday, 2 September 2021

पूरे भारत की एकमात्र समस्या राष्ट्रीय चरित्र की है, अन्य कोई समस्या नहीं है ---

 

पूरे भारत की सबसे बड़ी और लगभग एकमात्र समस्या राष्ट्रीय चरित्र की है। अन्य कोई समस्या नहीं है। हमारा अब इस समय कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं रह गया है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र -- उचित/अनुचित कैसे भी साधन से सिर्फ पैसे बनाना, परनिंदा और दूसरों को नीचा दिखाना ही हो गया है। इसके लिए दूसरों का गला भी काटने को हम तैयार रहते हैं। सारे पारिवारिक संबंध सिर्फ ढोंग मात्र ही रह गए हैं, जिनके पीछे सिर्फ छल-कपट, झूठ और बेईमानी ही दिखाई देती है।
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क्या ऐसी भी कोई विद्या है जिसे जानने के पश्चात अन्य कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं पड़ती? मुंडकोपनिषद के अनुसार एक तो पराविद्या है जो परमात्मा का ज्ञान कराती है। दूसरी अपराविद्या है जो धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराती है। परमात्मा का साक्षात्कार जिससे होता है, वह पराविद्या है, और लौकिक ज्ञान अपरा विद्या है।
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पूरे भारत में शिक्षा का समान अधिकार, और समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता एक धोखा है। भारत का संविधान हिंदुओं को अपने विद्यालयों में सनातन-धर्म की शिक्षा का अधिकार नहीं देता। इसलिए हिन्दू युवाओं को अपने धर्म का ज्ञान नहीं रहा है। गुरुकुलों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त नहीं है। वहाँ से शिक्षित सिर्फ कर्मकांड ही कर सकता है। उसे चपड़ासी की नौकरी भी नहीं मिल सकती। मदरसों व कोन्वेंटों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त है। इस्लामी शिक्षा को पढ़ा युवा प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दे सकता है, वहीं पर वेद-उपनिषदों को पढ़ा युवा एक क्लर्क की नौकरी के लिए भी आवेदन नहीं कर सकता। समाज का वातावरण ऐसा बन गया है कि हिन्दू धर्म व मान्यताओं को हर कदम पर नीचा दिखाया जाता है।
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ठीक है जो भी जैसा भी है, हम कुछ भी नहीं कर सकते। यह संसार भगवान का बनाया हुआ है। वे जानें और उनका काम जाने। संसार को सुधारना भगवान का काम है, हमारा नहीं। यदि भगवान चाहते हैं कि अधर्म का राज्य हो तो अधर्म का आसुरी राज्य ही होगा। हमारा काम तो भक्ति और समर्पण मात्र ही है, वह भी भगवान की इच्छा पर निर्भर है।
ॐ तत्सत् !!
१ सितंबर २०२१

असत्य का अंधकार दूर होगा ---

 

असत्य का अंधकार दूर होगा, सनातन धर्म विश्वव्यापी होगा; और अपने परम वैभव के साथ भारत - एक अखंड सत्यनिष्ठ आध्यात्मिक राष्ट्र बनेगा। इस कार्य का वर्तमान राजनीति या राजनेताओं से कोई संबंध नहीं है। एक दुर्धर्ष प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति इस दिशा में गतिशील व कार्यरत है, जिसे रोकने की क्षमता किसी में नहीं है। यह दृश्य मुझे कई बार दिखाई दिया है, जो निश्चित रूप से फलीभूत होगा। मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
१ सितंबर २०२१
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पुनश्च :--- इसे आप जो भी समझें, एक भविष्यवाणी भी मान सकते हैं, क्योंकि मेरी श्रद्धा-विश्वास-आस्था कभी गलत नहीं हो सकती।

स्वयं की श्रद्धा ही फलदायी होती है, अन्य कुछ भी नहीं ---

 

स्वयं की श्रद्धा ही फलदायी होती है, अन्य कुछ भी नहीं ---
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जब तक संपूर्ण श्रद्धा नहीं होती तब तक किसी भी विषय में कोई सफलता नहीं मिलती। "श्रद्धा की पूर्णता" ही सिद्धि है। श्रद्धा होने से ही वृत्ति एकाग्र होती है, और उस एकात्रता से ही मनचाहा फल मिलता है। मनुष्य किसी कामना को लेकर इधर-उधर भटकता है -- मज़ारों पर, देवस्थानों पर और फकीरों या साधुओं के पीछे-पीछे, लेकिन वहाँ से उसे कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन ज्यों ही उसकी श्रद्धा में पूर्णता आती है उसे अपने अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है। अज्ञानतावश वह सोचता है कि उसकी कामना की पूर्ति फलाँ-फलाँ मजार पर जाने से , किसी फकीर से, या साधु-महात्मा या किसी विशेष देवता की कृपा से हुई है, लेकिन यह असत्य है। उसे जो कुछ भी मिला है, वह स्वयं की श्रद्धा की पूर्णता से ही मिला है।
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रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने श्रद्धा-विश्वास को ही भवानी-शंकर बताया है --
"भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा का महत्व बताया है --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
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स्वयं की ही श्रद्धा काम आती है, दूसरे की नहीं। कार्यों की असिद्धि --श्रद्धा/निष्ठा की कमी के कारण होती है। श्रद्धा की पूर्णता होने पर ही भगवान की प्राप्ति होती है, अन्यथा कभी नहीं।
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यहाँ एक रहस्य की बात और बताना चाहता हूँ कि गुरुकृपा भी श्रद्धावान को ही प्राप्त होती है, अश्रद्धावान को तो कभी भी नहीं। चेले के पास यदि श्रद्धा नहीं है तो गुरु चाहकर भी चेले का कल्याण नहीं कर सकता। चेला यदि श्रद्धावान है तो बिना मांगे ही गुरु का आशीर्वाद उसे मिल जाता है, और उसका कल्याण हो जाता है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२१

ध्यान साधना ---

ध्यान साधना .....

हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, न कि कुछ अन्य। जब हृदय में परमात्मा के प्रति परम-प्रेम (भक्ति) होता है, तब उनका ध्यान करते हैं। ध्यान-साधना भगवान के दो ही रूपों की होती है जो तत्व-रूप में एक ही हैं... शिव और विष्णु। गुरु महाराज के आदेशानुसार ध्यान का आरंभ आज्ञाचक्र से ही होता है। मेरुदंड (कमर) सदा उन्नत (सीधी) रहे, दृष्टि भ्रूमध्य में, और ठुड्डी भूमि के समानान्तर। सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ... हमारे आचरण और विचारों की पवित्रता, अन्यथा परिणाम विपरीत ही होता है। जिनके विचारों में पवित्रता नहीं है, उन्हें अगले जन्मों में फिर अवसर मिलेगा। इस जन्म में ध्यान साधना उन के लिए नहीं है, वे बाह्य पूजा-पाठ ही करें और अपने विचारों में पवित्रता लाएँ। जिनके विचार शुद्ध नहीं हैं और आचरण अपवित्र है, ऐसे लोग यदि ध्यान करते हैं तो उनका संपर्क आसुरी जगत से हो जाता है, आसुरी शक्तियाँ उन पर अधिकार कर लेती हैं, और उन्हें असुर यानि राक्षस बना देती हैं।
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हठयोग में कुछ आसन होते हैं जिन के अभ्यास से कमर सदा सीधी रहती है, उन का अभ्यास दिन में दो बार करना चाहिए। इन से जीवन भर कमर झुकेगी नहीं| इसी तरह हठयोग में कुछ विधियाँ हैं जिनके अभ्यास से साँस दोनों नासिकाओं से बराबर चलती है, उनका भी अभ्यास करना चाहिए। ध्यान तभी सिद्ध होगा जब कमर सीधी रहेगी, और साँस दोनों नासिकाओं से चलेगी, अन्यथा ध्यान लगेगा ही नहीं। युवावस्था से ही अभ्यास किया जाये तो खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है। जिन्हें खेचरी मुद्रा सिद्ध है वे ध्यान की गहराइयों में जा सकते हैं। एक आयु के पश्चात खेचरी सिद्ध नहीं होती। इसका अभ्यास युवावस्था से ही करना होता है। श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय द्वारा बताई हुए तालव्य क्रिया, खेचरी सिद्धि के लिए बहुत उपयोगी है।
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शक्ति... स्वयं को प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त करती है, और शिव... आकाश-तत्व के रूप में। इन का बोध गुरु-कृपा से ही होता है। इसके लिए अजपा-जप की साधना करनी होती है| अजपा-जप एक वैदिक विधि है जिसके आज के युग में अनेक नाम है। कहीं न कहीं से आरंभ तो करें। आगे का मार्गदर्शन भगवान स्वयं गुरु-रूप में आकर करते हैं।
आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२०