Friday 7 October 2016

युद्ध की अपरिहार्यता ...

युद्ध की अपरिहार्यता ...
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जब से सृष्टि बनी है तभी से मानव जाति में हर काल और हर युग में युद्ध होते आये हैं जिन्हें कोई नहीं रोक पाया है| भारत में युद्ध करने के लिए एक पृथक क्षत्रिय वर्ण का निर्माण कर दिया गया जिनका कार्य ही दूसरों को क्षति से त्राण दिलाना, यानी समाज और राष्ट्र की रक्षा हेतु युद्ध करना था| धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए सभी युद्ध करते थे सिर्फ क्षत्रिय ही नहीं|
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कालान्तर में एक सद्गुण विकृति आ गयी और यह मान लिया गया कि युद्ध सिर्फ क्षत्रिय का ही कार्य है, अन्य वर्णों का नहीं| >>> यह सद्गुण विकृति ही भारत के पराभव और दासता का कारण बनी| <<<
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युद्धभूमि में ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ प्रकट होता है| युद्धभूमि में ही गीता का ब्रह्मज्ञान व्यक्त होता है|
एक युद्ध जो हमारे अंतर में निरंतर चल रहा है असत्य और अन्धकार की शक्तियों से, उसमें हमें विजयी बनना है|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
चल रही नवरात्री और आने वाले दशहरा पर्व के लिए अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
.October 8, 2015 at 8:52am

बड़ी से बड़ी सेवा और बड़े से बड़ा कर्तव्य .....

बड़ी से बड़ी सेवा और बड़े से बड़ा कर्तव्य .....
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बड़ी से बड़ी और ऊँची से ऊँची सेवा जो हम अपने जीवन में कर सकते हैं वह है "निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त करना"| यही सनातन धर्म है| यही भारत की अस्मिता और पहिचान है|
बिना सनातन धर्म के भारत, भारत नहीं है|
भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है|
भारत आज भी यदि जीवित है तु उन महापुरुषों, साधू-संतों के कारण जीवित हैं जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया, न कि धर्मनिरपेक्ष नेताओं, मार्क्सवादियों, अल्पसंख्यकवादियों, समाजवादियों और तथाकथित राजनीतिक सुधारवादियों के कारण|
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया और जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है| एक से एक बड़े बड़े सेठ साहूकार हुए| भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण कर सकता था| एक छोटा मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था| लोग सोने कि थालियों में भोजन कर थालियों को फेंक दिया करते थे| राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे| पर हम अपनी संस्कृति में उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं मानते और ना ही उनसे कोई प्रेरणा लेते हैं| हम आदर्श मानते हैं और प्रेरणा लेते हैं तो भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण से, क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे|
हमारे आदर्श और प्रेरणास्त्रोत सदा ही भगवान के भक्त और प्रभु को पूर्णतः समर्पित संतजन रहे हैं| और उन्होंने ही हमारी रक्षा की है, और वे ही हमारी रक्षा करेंगे|
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए पर वे मानवता को क्या दे पाए ? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या दे पाए हैं या भला कर पाए हैं ? कुछ भी नहीं ! पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
October 8, 2014 at 6:14am

'गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी' , यही शास्त्रों का सार है :

'गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी' , यही शास्त्रों का सार है :
नवरात्री का आध्यात्मिक महत्व .....
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भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है नवरात्र| इसमें भी शारदीय नवरात्र का महत्व अधिक है| इसका आध्यात्मिक महत्व जितना और जैसा मेरी सीमित बुद्धि से समझ में आया है उसे मैं यहाँ व्यक्त करने का दु:साहस कर रहा हूँ|
दुर्गा देवी तो एक है पर उसका प्राकट्य तीन रूपों में है, या यह भी कह सकते हैं कि इन तीनों रूपों का एक्त्व ही दुर्गा है| ये तीन रूप हैं ---- (१) महाकाली| (२) महालक्ष्मी (३) महासरस्वती| नवरात्र में हम माँ के इन तीनों रूपों की साधना करते हैं| माँ के इन तीन रूपों की प्रीति के लिए ही समस्त साधना की जाती है|

(१) महाकाली ---- ======== महाकाली की आराधना से विकृतियों और दुष्ट वृत्तियों का नाश होता है| माँ दुर्गा का एक नाम है -- महिषासुर मर्दिनी| महिष का अर्थ होता है -- भैंसा, जो तमोगुण का प्रतीक है| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक ये तमोगुण के प्रतीक हैं| महिषासुर वध हमारे भीतर के तमोगुण के विनाश का प्रतीक है| इनका बीज मन्त्र "क्लीम्" है|

(२) महालक्ष्मी ------ ======== ध्यानस्थ होने के लिए अंतःकरण का शुद्ध होना आवश्यक होता है जो महालक्ष्मी की कृपा से होता है| सच्चा ऐश्वर्य है आतंरिक समृद्धि| हमारे में सद्गुण होंगे तभी हम भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| तैतिरीय उपनिषद् में ऋषि प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु जब पहिले हमारे सद्गुण पूर्ण रूप से विकसित हो जाएँ तभी हमें सांसारिक वैभव देना| हमारे में सभी सद्गुण आयें यह महालक्ष्मी की साधना है| इन का बीज मन्त्र "ह्रीं" है|

(३) महासरस्वती ---- ========= गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपनी आत्मा का ज्ञान ही ज्ञान है| इस आत्मज्ञान को प्रदान करती है -- महासरस्वती| इनका बीज मन्त्र है "अईम्"|
नवार्ण मन्त्र: ======= माँ के इन तीनों रूपों से प्रार्थना है कि हमें अज्ञान रुपी बंधन से मुक्त करो| बौद्धिक जड़ता सबसे अधिक हानिकारक है| यही अज्ञान है और यही हमारे भीतर छिपा महिषासुर है जो माँ की कृपा से ही नष्ट होता है|
सार ----- === नवरात्रि का सन्देश यही है कि समस्त अवांछित को नष्ट कर के चित्त को शुद्ध करो| वांछित सद्गुणों का अपने भीतर विकास करो| आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करो और सीमितताओं का अतिक्रमण करो| यही वास्तविक विजय है| मैंने मेरी बात कम से कम शब्दों में व्यक्त कर दी है, इससे अधिक लिखना मेरे लिए बौद्धिक स्तर पर संभव नहीं है| जय माँ| सबका कल्याण हो|

भवान्याष्टकम् :-
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न तातो न माता न बन्धुर्न दाता न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ १ ॥
भवाब्धावपारे महादुःखभीरु पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ २ ॥
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ३ ॥
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ४ ॥
कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः कुलाचारहीनः कदाचारलीनः ।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ५ ॥
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ६ ॥
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये ।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ७ ॥
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः ।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रनष्टः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ८ ॥
॥ इति श्रीमदादिशंकराचार्य विरचिता भवान्याष्ट्कं समाप्ता ॥

सार :
सच्चा ऐश्वर्य है आतंरिक समृद्धि| हमारे में सद्गुण होंगे तभी हम भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| तैतिरीय उपनिषद् में ऋषि प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु जब पहिले हमारे सद्गुण पूर्ण रूप से विकसित हो जाएँ तभी हमें सांसारिक वैभव देना|
हम बिना सद्गुणों के सांसारिक वैभव प्राप्त करना चाहते हैं, यही हमारे पतन का मुख्य कारण है|
ॐ ॐ ॐ !!
October 8, 2013

उपदेश और मार्गदर्शन .....

उपदेश तो बहुत अधिक हैं, वेदों, उपनिषदों, गीता आदि ग्रंथों में ज्ञान भरा पड़ा है| पर उसे आत्मसात करने में हम असमर्थ हैं|
आवश्यकता है निरंतर सत्संग द्वारा प्रभु से प्रेम बढ़ाकर किसी श्रौत्रीय, ब्रह्मनिष्ठ, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त महात्मा आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त कर उनके सान्निध्य में साधना करें|
परमात्मा परम दयालू हैं| प्रार्थना करने से वे मार्गदर्शन निश्चित रूप से करते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

छाया आतप .....

जैसे सूर्य की दो शक्तियाँ हैं ..... छाया और प्रकाश, वैसे ही परब्रह्म परमात्मा की दो शक्तियाँ है ..... विद्या और अविद्या|

सूर्य की तरफ आप मुख करेँ तो प्रकाश मिलता है और सूर्य की तरफ पीठ करें तो छाया मिलती है, वैसे ही ईश्वर कि ओर उन्मुख होने से विद्या प्राप्त होती है और विमुख होने से अविद्या|

विद्या उसे ही कहते हैं जो ईश्वर का बोध कराती हो, बाकी सब अविद्या है|
जो हम वर्त्तमान में पढ़ रहे हैं वह सब सांसारिक ज्ञान अविद्या ही है|

विद्या और अविद्या दोनों का ज्ञान आवश्यक है| अविद्या के बिना विद्या भी किसी काम नहीं आती|
विद्यां च अविद्या च यस्त द्वेदोभय सह | अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते -----

जीवन में जो सर्वश्रेष्ठ आप कर सकते हैं, वह करें .....

जीवन में जो सर्वश्रेष्ठ आप कर सकते हैं, वह करें| हर कार्य पूरी निष्ठा और यथासंभव पूर्ण कुशलता से करें| दुसरे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, ध्यान अपने कार्य पर ही रखें जो सर्वश्रेष्ठ हो|
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कई लोगों में फ़िल्मी कलाकारों को देवता की तरह पूजा जाता है, यह गलत है| अधिकाँश फ़िल्मी लोग अत्यधिक घटिया स्तरहीन ओछे विचारों के होते हैं|
मेरे भी एक मित्र हैं जो फिल्मी दुनियाँ में एक संगीतकार और गीत लेखक हैं| उनका दूरभाष आता रहता है जिनमें उनकी पीड़ा व्यक्त होती है| फ़िल्मी नटों, भांडों को अपना आदर्श मत बनाइये|
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देश के अधिकाँश राजनेता भी घटिया हैं जो हमारे आदर्श नहीं हो सकते| एक नेता ने तो आज देश के प्रधानमंत्री को सैनिकों के खून का दलाल बताया, जिसे पढ़कर तरस आया कि कैसे कैसे नेता हैं जो हमारे देश के दुर्भाग्य हैं| लोग फिर भी उनके पीछे पीछे भागते हैं|
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भगवान से समष्टि और राष्ट्र के हित की प्रार्थना कीजिये| वर्त्तमान समय के दुष्प्रभाव से स्वयं को बचाएँ| जो भी होगा वह अच्छा ही होगा|
ॐ ॐ ॐ !!

मेरे विचार .....

मेरे विचार .....
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मुझे कई लोग सलाह देते हैं कि फलाँ फलाँ सम्प्रदाय के किसी संत को ही अपना गुरु बनाओ, फलाँ फलाँ ग्रन्थ से ही प्रेरणा लो ..... आदि आदि|
मैं ऐसी किसी सलाह का उत्तर नहीं देता पर यहाँ मेरे विचार स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि .....
>>> देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है|
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> यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि भी उसका धर्म है|
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> आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति ही है, अन्य कुछ भी नहीं|
जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है|
परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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> अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं|
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> भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है| उसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते|
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> मेरी जाति, मेरा सम्प्रदाय और मेरा धर्म वही है जो परमात्मा का है|
मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे है|
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> जो व्यक्ति सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर राम यानि भगवान का चिंतन करता है, क्या उसे यह सब सोचने का समय मिलता है कि उसके साथ क्या होगा और क्या नहीं होगा ? यह चिंता तो राम जी की हैं जिसे राम ही करेंगे|
> राम में वृत्ति स्थिर होना ही कृतार्थता है|
> बाहर कि बुराइयों को वह व्यक्ति ही दूर कर सकता है जिसने पहले अपने भीतर की बुराइयाँ दूर कर ली हों|
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सबको सप्रेम धन्यवाद, अभिनन्दन और नमन |
ॐ नमः शिवाय | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

भ्रूमध्य का स्थान अवधान का भूखा है .....

भ्रूमध्य का स्थान अवधान का भूखा है .....
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जब परमात्मा से प्रेम हो जाए तब भ्रूमध्य में परमात्मा के प्रियतम रूप का ध्यान करना चाहिए| बलात् प्रयास विफल होंगे| जब ह्रदय में प्रेम और समर्पण का भाव होगा तभी सफलता मिलेगी|
ब्रह्ममुहूर्त का समय ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ है| शुद्ध स्थान पर उचित वातावरण में ऊनी आसन बिछाकर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर के सुख से बैठ जाएँ| कमर सीधी रहे| गुरु रूप परमात्मा को प्रणाम कर उनसे मार्गदर्शन और सहायता की प्रार्थना कीजिये| फिर गुरु-प्रदत्त विधि से ध्यान करें|
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जिन्हें गुरु लाभ नहीं मिला है, वे अपने इष्ट देव/देवी से या भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करें| भगवान श्रीकृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे की गई प्रार्थना का उत्तर निश्चित रूप से मिलता है| मेरा व्यक्तिगत विचार है कि साधक को नित्य शिव का ध्यान और अर्थ सहित गीतापाठ अवश्य करना चाहिए|
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कुछ प्राणायाम करें और कमर सीधी रखते हुए देह को तनाव रहित शिथिल छोड़ दें| भ्रूमध्य में एक प्रकाश के कण की कल्पना कर के उसे समस्त अनंतता में फैला दें और यह भाव करें कि मैं यह देह नहीं बल्कि वह अनंतता हूँ, स्वयं परमात्मा ही इस देह से साँस ले रहे हैं और वे ही ध्यान कर रहे हैं| हम तो उनके एक उपकरण मात्र हैं| जो विचार आयें उन्हें आने दो, जो जाते हैं उन्हें जाने दो| तटस्थ रहो| सब कामनाओं को तिरोहित कर दो|
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सर्वाधिक महत्व इस भाव का है कि हम क्या हैं, इस भाव का अधिक महत्व नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं| हम परमात्मा के प्रेम और उनकी अनंतता हैं, न कि यह देह| गुरु-प्रदत्त बीज मंत्र का या प्रणव का जप करो, फिर उसे सुनने का अभ्यास करते रहो| जितना हमारे ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम होगा उतनी ही तीब्र गति से हम आगे बढ़ते रहेंगे और उसी अनुपात में परमात्मा से सहायता प्राप्त होगी|
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रात्रि को सोने पूर्व भी गहन ध्यान करें फिर परमात्मा की गोद में निश्चिन्त होकर सो जाएँ| दिन का आरम्भ भी भगवान के ध्यान से करें, और पूरे दिन उन्हें स्मृति में रखें| भूल जाएँ तो याद आते ही फिर स्मरण करना आरम्भ कर दें|
आरंभ में यह भाव रखो कि हम सब कुछ भगवान के लिए कर रहे हैं, फिर भगवान को ही कर्ता बनाकर जीवन की नौका उन्हीं के हाथों में सौंप दो|
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हमारा आचरण सद आचरण हो, यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है| यदि हमारे आचरण में शुद्धता नहीं रही तो आसुरी शक्तियाँ हमारे ऊपर अधिकार करने का पूरा प्रयास करेंगी| यदि जीवन में पवित्रता नहीं है तो ध्यान का अभ्यास मत करें| इससे लाभ की बजाय हानि ही होगी|
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कुछ लोग पूछते हैं कि ध्यान से क्या मिलेगा? मेरा उत्तर है कि ध्यान से कुछ भी नहीं मिलेगा, जो कुछ है वह भी चला जाएगा| सारी विषय-वासनाएँ और कामनाएँ समाप्त होने लगेंगी और आप इस दुनियाँ के भोगों के लायक नहीं रहेंगे|
जिन्हें कुछ चाहिए वे ध्यान न करें| ध्यान उनके लिए है जो सब कुछ परमात्मा को सौंप देना चाहते हैं| ध्यान से कोई सांसारिक लाभ नहीं है|
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ध्यान कोई क्रिया नहीं है, यह तो एक अक्रिया है| क्रिया-योग साधना तो प्रत्याहार है जिसके बाद धारणा और ध्यान है|
परमात्मा से प्रेम सबसे महत्वपूर्ण है| बिना प्रेम के कोई सफलता नहीं मिलेगी| हमें आरम्भ तो करना चाहिए फिर भगवान निश्चित रूप से मार्ग-दर्शन करेंगे|
भगवान भाव के भूखे है, हमारे ह्रदय की पुकार को वे अवश्य सुनेंगे|
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अपनी चेतना को भ्रूमध्य में रखने का प्रयास करें| वह स्थान अवधान का भूखा है| आगे का मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा करेंगे| जो कुछ भी मेरे द्वारा लिखा गया है वह तो एक रूपरेखा मात्र है, इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!